सवर्ण बंद का नाटक लोगों को हिंदू-मुसलमान; अवर्ण-सवर्ण; जाटव-यादव; पिछड़ा-अतिपिछड़ा; दलित-अतिदलित.... जैसे गौड़ तथा कृतिम अंतविरोधों को हवा देकर असली अंतर्विरोध -- आर्थिक अंतर्विरोध--की धार कुंद करने की शासक वर्गों की नियोजित योजना की एक कड़ी है। मंहगाई आसमान छू रही है; बेरोजगारी-भुखमरी चरम पर है; नौकरियां ठेकेदारों के हवाले और ठेका मजदूरों का दयनीय जीवन स्तर; गैर बराबरी की बात ही नहीं समाज के संसाधनों पर 1% धनपशुओं का कब्जा; दलित-आदिवासियों पर अमानवीय अत्याचार; नक्सलवाद का हव्वा खड़ाकर मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं का क्रूर दमन; विश्वविद्यालयों की तबाही पर विमर्श रोकने के लिए विमर्श के नकली मुद्दे रचे जाते हैं। आरक्षण की बहस में फंसाकर निजीकरण-उदारीकरण के जरिए आरक्षण को अप्रासंगिक बनाने की शाजिस सफल हो रही है। विश्वविद्यालयों की तबाही पर नहीं ये इतिहास के पुनर्मिथकीकरण पर विमर्श भटकाना चाहते हैं। मित्रों इनकी चाल समझें और विमर्श वास्तविक सांस्कृतिक-आर्थिक मुद्दों पर केंद्रित करें।
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