इस पर ज्ञानेंद्र पांडे की पुस्तक, Colonial Construction of Communalism in North India. मेरे लेख भी पढ़ सकते हैं। दो के लिंक नीचे कमेंटबॉक्स में दे रहा हूं। संक्षेप में 1857 की हिंदुस्तानियों की संगठित ताकत से अंग्रेजों की चूलें हिल गयीं, यहां का शासक वर्ग का बड़ा हिस्सा अपने किसानों की मुक्ति की बजाय अंग्रजों की गुलामी पसंद करता था। यदि सिंधिया-पेशवा-निजाम-सिख राजाओं की सेनाएं किसान क्रांति के हिरावल दस्तों के विरुद्ध अंग्रेजों की सेवा में न खड़ी होंती तो भारत का इतिहास अलग होता। अंग्रेज इतिहासकार मुल्क में हिंदू-मुसलमान विद्वेष निर्मित करने में लग गए। कुछ मुसलमान रईसों को सह देकर मुस्लिम लीग बनाया और उन्हीं की शह पर कुछ हिंदू रईसों ने हिंदू महा सभा। दोनों के प्रतिनिधि कांग्रेस में भी थे। सावरकर अंग्रेजों से माफीनामों के बाद उनके मंसूबों के मकसद में सहायक हिंदुत्व रचा और दो-राष्ट्र सिद्धांत दिया कि हिंदू-मुस्लिम साथ नहीं रह सकते औक उस लाइन पर आरयसयस ने हिंदू-राष्ट्र का सिद्धांत गढ़ा और बाद में बनी जमातेइस्लामी ने निजामेइलाही का। दोनों मुल्क में फिरकापरस्ती नफरत फैलाने में एक दूसरे के सहयोगी बन गए।
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