‘अर्बन नक्सलवाद’:
साम्यवाद का भूत
भारत में नवमैकार्थीवाद
ईश मिश्र
वह शहरों में
रहता है फिर भी गांव के किसान की बात करता है
जो सारी
विपदाएं दैविक समझ बर्दास्त करता है
अति होने पर
ही आत्महत्या करता है
वह उनमें असंतोष
की ज्वाला दहकाता है
राष्ट्र की
जल-जंगल-जमीन पर
आदिवासी का हक
बतलाता है
कॉरपोरेटी
विकास का रहस्य खोलता है
राष्ट्र की
गोपनीय करारों को सर्वजनिक करता है
अभिव्यक्ति की
आजादी का बेजा इस्तेमाल करता है
अतः संवैधानिक
अधिकारों की आड़ में
राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में डालता है
वह अर्बन
नक्सल है
उसे जेल में
डाल दो।
वह गरीब नहीं
है फिर भी गरीबी की बात करता है
गरीब गुरबे को
बेदखली के खिलाफ भड़काता है
उन्हें जंगे-आजादी
के गीत सिखाता है
हिंदुत्व राष्ट्रवाद
को फासीवाद कहता है
कश्मीरियों के
भी मानवाधिकार की मांग करता है
अमीरों की
अरबों की कमाई को मजदूरों का माल बताता है
घूम-घूम कर
देश-विदेश
हिंदुत्व के वसूलों को हिटलरी चाल बताता है
वीर सावरकर के
माफीनामे के सहारे
उनके बलिदान
को नजरअंदाज करता है
मार्क्सवाद
जैसी विदेशी विचारधारा का प्रसार करता है
हिंदु-राष्ट्रवादी
सरकार को उखाड़ फेंकने की गुहार करता है
उसकी विकास की
नीति को काला कारनामा बताता है
अंबानी की
सेवा में रफाल डील को महाघोटाला बताता है
और तो और देश
के चौकीदार को अंबानी का चाकर कहता है
कल्कि अवतार
पर नरसंहार का आरोप लगाता है
पूजने की बजाय
उसे नफरत का सरताज कहता है
इस तरह वह ईशनिंदा को अंजाम देता है
विधर्मियों के
वध को नरसंहार बताता है
और-तो-और देश
द्रोह के अड्डे जेयनयू को ज्ञान का सागर कहता है
हिंदुत्व के
शूरवीरों के क्लीन-चिटिया जजों को मक्कार बताता है
घूम-घूम कर
जनवाद का प्रचार करता है
विकास के
विस्थापन को मानवाधिकार पर आघात बताता है
कुल मिलाकर वह
जनादेशित सरकार की अस्थिरता का प्रयास करता है
वह अर्बन
नक्सल है, राष्टवाद की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा
कल्कि-अवतार
का आदेश है उसे जेल में डाल दो।
n ईश मिश्र/24.09.2018
28 अगस्त 2018 को देश के
असग अलग हिस्सों से 5 जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं की गिरफ्तारी, 2014 में
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में आरयसयस की संसदीय शाखा भाजपा नीत राजग
सरकार के गठन के साथ ही शुरू मानवाधिकार तथा विरोध एवं अहमति को कुचलने की
प्रक्रिया की ताजी कड़ी है। लेकिन “लगाकर ताला मेरी जुबान पर, न रोक सकोगे जेहन की
उड़ान को” (अदम गोंडवी) तथा “क्या सोच कर तुम मेरा कलम तोड़ रहे हो, इस करह तो कुछ
और निखर जाएगी आवाज” (डीपी त्रिपाठी)। देश पर में इन गिरफ्तारियों के विरोध में
प्रदर्शन हो रहे हैं, लोग सरकार के फासीवादी कदम के विरुद्ध लिख-बोल रहे हैं।
न्यायपासिका के दखल से मामला पेचीदा हो गया है। इस गिरफ्तारी के खिलाफ इतिहासकार
रोमिला थापर तथा अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक समेत देश के जाने-माने पांच
बुद्धिजीवियों की याचिका पर सर्वोच्च न्यायलय ने गिरफ्तारी पर रोक लगाकर इन्हें
फैसले के निपटारे तक अपने ही घर में नजरबंद करने का आदेश दिया था लेकिन आज के
फैसले ने गिरफ्तारी में हस्तक्षेप से इंकार कर दिया।
इससे एक बात
साफ है कि सरकार मानवाधिकार के प्रति लोगों की बढ़ती जागरूकता से बौखलाकर, इसे
रोकने के सारे हथकंडे अपना रही है। इसका एक अदृश्य संदेश यह है कि मानवाधिकार की
चेतना भारतीय लोकतंत्र का एक प्रमुख सरोकार है, जो हिंदू-राष्ट्रवादी सत्ता की
शक्ति के लिए चुनौती बन गया है। मानवाधिकार के पैरोकार बुद्धिजीवियों के घरों पर
छापे उसी विरोधी स्वरों को कुचलकर तर्कशील विरोध को दबाने की सांप्रदायिक,
फासीवादी मंसूबे की योजना की परिणति है, तथा सरकार की बौखलाहट का नतीजा। यह
दमन-चक्र हिंदू कट्टरपमथियों द्वारा तर्कशील बुद्धिजीवियों नरेंद्र दोभालकर;
गोविंद पंसारे; कलबुर्गी तथा आरयसयस विरोधी निर्भीक पत्रकार गौरी लंकेश की हत्याओं;
अपाहिज प्रोफेसर सांईबाबा, प्रशांत राही हेम मिश्र आदि की गिफ्तारी एवं सजा तथा
पिछले जून में पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के दमनचक्र की ताजा कड़ी
है। मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद आरयसयस तथा सरकार इन कार्रवाइयों के जरिए
यह संदेश देना चाहती है कि जो भी तर्कवाद की हत्या; सत्ता प्रतिष्ठान;
सांप्रदायिकता; विकास के शगूफे या प्रचलित
अंधविश्वासों का विरोध करेगा उसे प्रताड़ित किया जाएगा। लेकिन विरोध या असहमति की
आवाजों को दबाने-डराने का यह फार्मूला कारगर होता नहीं दिखता। देश-विदेश में इसके
विरुद्ध सशक्त आवाजें उठ रही हैं, लोग खुलकर बिना डरे लिख बोल रहे हैं। ‘किस-किस
को कैद करोगे?’ अभियान के कार्यक्रमों के आयोजन दिल्ली समेत तमाम शहरों में हो रहे
हैं।
इन प्रदर्शनों में शामिल बहुत से
आंदोलनकारी “मैं अर्बन नक्सल हूं” की तख्तियां लिए होते हैं और बहुत से “अर्बन
नक्सल” टी-शर्ट पहने होते हैं।
आरयसयस के
अनुषांगिक संगठन और भारत की मृदंग मीडिया छापे और गिरफ्तारी के पक्ष में इनके अर्बन (शहरी) नक्सल होने के भजन गा
रही है, बिना परिभाषित किए, उसी तरह जैसे जेयनयू पर देशद्रोह का ठप्पा चस्पा कर
दिया बिना बताए कि देशभक्ति होती क्या है? यह भी एक ‘संयोग’ है कि सरकार को
‘अस्थिर करने वाले’ देशभर में फैले अर्बन नक्सलों की खबर सबसे पहले
महाराष्ट्र पुलिस को ही मिलती है और वही जगह जगह छापे मारती है। यह भी वैसा ही
संयोग है कि वह एक बार में ‘देशद्रोह में लिप्त’ 5-5 अर्बन नक्सलों की
पहचान करती है? वैसे छापे मारने की जरूरत क्या थी जब कि चिन्हित
सारे लोग, मानवाधिकार के साझे सरोकार के, सार्वजनिक गतिविधियों में खुले रूप से
शिरकत करने वाले, लिखने-बोलने वाले निडर तथा मुखर बुद्धिजीवी हैं। मनमाने ढंग से,
अमीरों के हित-साधन मे, राज करने वाली दक्षिणपंथी ताकतें निर्भय मुखरता से सबसे
अधिक भयभीत रहती हैं। सत्ता का भय होता है, विचारों का आतंक। विचारों से आतंकित हो
ये विचारक पर जुल्म ढाती हैं, लेकिन विचार मरते नहीं, फैलते हैं और इतिहास को दिशा
देते हैं। सुकरात पर मुकदमा चलाने वाले एनीटस का नाम पता नहीं कहां बिला गया,
लेकिन सुकरात के विचार आज भी सच के लिए कुर्बान होने के प्रेरणा श्रोत बने हुए
हैं। इतिहास गवाह है जब भी कोई एथेंस किसी सुकरात की हत्या करता है तो पैदा होता
है दुनिया को जूते की नोक पर रखने की महत्वाकांक्षा वाला कोई सिकंदर जो उसके
ज्ञान-दर्शन के गौरव को घोड़ों की टापों से रौंदकर मटियामेट कर देता है, मगर
सुकरात अपने विचारों में जिंदा रहता है। स्वयंसेवक इतिहास नहीं पढ़ता, शाखा के
बौद्धिकों में अफवाहजन्य इतिहासबोध ग्रहण करता है। स्वयंसेवक गृहमंत्री
बुद्धिजीवियों पर इस हमले के समर्न में कुतर्क करते हैं कि सभी को आजादी है लेकिन
देश तोड़ने की आजादी किसी को नहीं। दुनिया देख रही है कि सांप्रदायिक नफरत के
विषवमन से देश कौन तोड़ रहा है? वक्तव्य को आगे बढ़ाते हुए वे कुतर्क करते हैं कि
नक्सलवाद का असर कुछ जिलों तक सिमट गया है, सब शहरों में फैलकर अर्बन नक्सल बन गए हैं,
जो देस की सुरक्षा के लिए खतरा बन गए हैं। जहां तक मेरी जानकारी है, गिरफ्तार
‘अर्बन नक्सलों’ में से कोई भी किसी माओवादी इलाके से नहीं आया, बल्कि शहरों में
ही रहते हुए, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक तथा मजदूरों और अन्य दमित वर्गों के
मावाधिकारों के हनन पर लिखते-बोलते रहे हैं। मार्क्स और एंगेल्स ने 1848 में कम्युनिस्ट
घोषणापत्र में लिखा था:
“यूरोप
के सिर पर एक भूत सवार है – साम्यवाद (कम्युनिज्म) का भूत। इस भूत की ओझागीरी में
पुराने यूरोप की सभी शक्तियों – पोप और ज़ार; मेट्टरनेट और ग्विज़ॉट; फ्रांसीसी
रेडिकल और जर्मन पुलिस-मुखविर -- में पवित्र गठजोड़ है। ऐसी कौन सा विपक्षी दल है जिसपर उसके सत्तासीन विरोधी ने
साम्यवादी होने की तोहमत नलगाया हो? और वह विपक्ष कहां है जिसने अपने सो ज्यादा
उन्नत विपक्ष के साथ साथ अपने प्रतिक्रियावादी विरोधियों पर यही (साम्यवादी होने
का) ठप्पा न लगाया हो?”
मार्क्स और
एंगेल्स को 1848
में कम्यनिस्ट घोषणापत्र में जिस भूत
की साया से पूरा यूरोप ग्रस्त दिखा था, वह भूत महान रूसी क्रांति के बाद
दुनिया के सभी देशों के सिर पर सवार हो गया। चूंकि भारत की संसदीय कम्युनिस्ट
पार्टियां संसदीय हो गयीं, इसलिए भारत में इस भूत का नाम नक्सल पड़ गया, जिसके भूत
से ये पार्टियां भी पीड़ित हैं। वैसे तो कांग्रेस सरकार इससे कम पीड़ित नहीं थी,
दक्षिणपंथी उग्रवादी कुछ ज्यादा ही पीड़ित रहा है। सत्ता में आते ही इस भूत का
हव्वा खड़ाकर क्रूर दमनचक्र शुरू कर दिया। हाल ही में महाराष्ट्र पुलिस द्वारा
अर्बन नक्सल के नाम पर पांच जाने-माने मानवाधिकार कार्यकत्ताओं की गिरफ्तारी उसी
दमनचक्र की कड़ी है। मोदीनीत मौजूदा सरकार ने वंचित-पीड़ितों के हकों के हिमायती,
मुखर बुद्धिजीवियों, वकीलों और मुखर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर अर्बन (शहरी) नक्सल होने का आरोप लगाया है,
बिना परिभाषित किए कि अर्बन नक्लवाद है क्या? भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने चेतावनी
के लहजे में बयान दिया कि शहर-शहर में अर्बन नक्सली फैले हैं, एक-एक की खबर ली
जाएगी।
मैकार्थीवाद
कम्युनिस्ट शब्द के भूत का भय दिखाकर, 1950 के
दशक में अमेरिका में मैकार्थीवाद के तहत क्रूर-अमानवीय दमन शुरू किया। सरकार
द्वारा मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों और संदिग्ध कम्युनिस्ट या उनके समर्थकों को
सोविय एजेंट घोश्त कर प्रताड़ित करना शुरू कर दिया। मैकार्थीवाद और इसके तहत
नागरिकों के मानवाधिकारों के दमन के इतिहास की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है, वह
अलग चर्चा का विषय है। लेकिन संक्षिप्त चर्चा जरूरी लगती है। मैकार्थीवाद बिना
प्रमाण किसी भी नागरिक को राष्ट्रदोह के आरोप में राज्य प्रायोजित प्रताड़ना का
पर्याय बन गया है तथा संदर्भविंदु। राष्ट्रीय दुश्मन कम्युनिस्ट शब्द था इस शब्द
से नजदीकी के संदेह में किसी को भी देशद्रोही करार दे प्रताड़ित किया जा सकता था। आइंस्टाइन
समेत तमाम जाने-माने मानवाधिकार समर्थक बुद्धिजीवियों के व्यापक अभियान के बावजूद,
मानहट्टन परियोजना से जुड़े रोजनबर्ग युग्म (एथिल तथा जुलिअस) की न्यायिक हत्या
नहीं रोक सके। उनके ऊपर उस परमाणु फार्मूले को सोवित संघ को लीक करने का आरोप था,
जो पहले ही सार्जनिक हो चुका था तथा तब तक सोवियत संघ परमाणु बम बना चुका था।
मैकार्थीवाद के तहत वैज्ञानिकों की प्रताड़ना से भारत के इसरो-जासूसी का मामले की
याद दिलाता है जिसमें कि रॉ तथा आईबी द्वारा दो मूर्धन्य
वैज्ञानिकों के साथ अमानवीय अपमान के साथ पूछताछ की। दोनों ही अंततः निर्दोष पाए
गए तथा सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को नारायनन् नांबी को 50 लाख ₹ क्षतिपूर्ति
देने का आदेश दिया। अपने पूर्ववर्ती वर्ग-समाजों की ही तरह दोगली व्यवस्था है। यह
जो करती है कभी नहीं कहती है तथा जो कहती है, कभी नहीं करती। अमरीकी न्याय
व्यवस्था, सिंग-सिंग चेयर पर बैठाकर बिजली के करेंट से मौत दी जाती थी, वैसे ही
जैसे हिरोशिमा और नागाशाकी में द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद अपनी
सैन्य-श्रेष्ठता की धौंस जमाने के मकसद से जो विनाशकारी बम गिराये गए, उनके नाम लिटिल
ब्वाय और फैट मैन थे। हजारों बुद्धजीवियो; कलाकारों; शिक्षकों;
वैज्ञानिकों; छात्रों; फिल्मी हस्तियों की वामपंथी यानि सोवियत-एजेंट होने का आरोप
लगाकर न्यायिक हत्या की गई, जेलों में डाल दिया गया नौकरियों से निकाल दिया गया
तथा अन्य तरह के उत्पीड़न का शिकार बनाया गया। मैकार्थीवाद निराधार चरित्र-हनन तथा
उत्पीड़न का औजार बन गया। आइंस्टाइन खुद को उनके उनकी सेलिब्रटी हैसियत ने
सिंग-सिंग चेयर पर बैठने से बचा लिया। उनपर निगरानी के लिए य़फबीआई में अगल सेल थी
तथा उनकी ‘अवांछनीय’ गतिविधियों के लेखा-जोखा की अलग फाइल तैयार हो रही थी। 2000
मे फ्रेड जेरोम द्वारा सूचना के अधिकार के तहत हासिल, ‘आइंस्टाइन फाइल’ 1800 पेज
की है, जिसे संपादित कर उन्होंने इसी नाम से पुस्तक लिखा।
1946 में
विस्कोंसिन राज्य से चुने गए सेनेटर, जोसेफ मैकार्थी 1950 में सुर्खियों में तब आए
जब उन्होंने सेनेट में अपने भाषण में गृहमंत्रालय में 205 कम्युनिस्ट घुसपैठियों
के जिक्र से सबको सकते डाल दिया। इसके बाद मेकार्थी टॉर्च और खुरपी लेकर सीआईए समेत तमाम सरकारी
संस्थान-प्रतिष्ठानों; स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालयों; फिल्म उद्योग और मीडिया, यहां
तक सैन्य-प्रतिष्ठानों में कम्युनिस्ट घुसपैठियों की खोज पर निकल पड़े। 1952 में
पुनर्निर्वाचन के बाद वे सेनेट की ‘सरकारी कर्रवाई-कमेटी’ और इसकी ‘जांज की स्थाई
उपकमेटी’ के अध्यक्ष बन गए। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि पूंजीवाद एक दोगली
व्यवस्था है और यह दोगलापन इसके राजनैतिक अंग, आधुनिक राष्ट्र-राज्य में में
ज्यादा साफ दिखता है। आधुनिक संविधानों में जहां एक तरफ मौलिक अधिकारों के
प्रावधान हैं वहीं दूसरी तरफ ‘विशेष परिस्थितियों’ परिस्थिति में उन्हें निरस्त
करने के लिए ‘असाधरण कानून’ बनाने के भी प्रावधान हैं। अमेरिका ने भारत के मौजूदा
य़ूएपीए जैसे पैट्रियाट समेत कई काले कानून बनाए। अगले 2 साल वे सरकारी
विभागों में तेजी से कम्युनिस्ट घुसपैठियों की तलाश तथा अनगिनत ‘संदिग्ध
कम्युस्टों’ तथा उनके समर्थकों से पूछताछ और तमाम उप कमेटियों के जरिए देशभक्ति के
प्रमाण और शपथपत्र लेते रहे। चरम पर पहुंचते ही मैकार्थीवाद का पतन शुरू हो गया,
की बजाय यह कहना समुचित होगा कि वह धड़ाम से गिकर चकनाचूर हो गया और मैकार्थीवाद
एक राजनैतिक गाली बन गया। किसी के भी खिलाफ कुछ भी साबित नहीं हो सका। मैकार्थी एक
बदनाम व्यक्ति के रूप में 1957 में मर गया, लेकिन अमेरिका में क्रांतिकारी
संभावनाओं को अपूरणीय क्षति पहुंचाने के बाद। मैकार्थीवाद का कहर खत्म होने के बाद
अमेरिका में नागरिक धिकार आंदोलन छिड़ गया। इतिहास खुद को दोहराता नहीं है,
प्रतिध्वनित होता है। भारत में बुद्धिजीवियों पर हमला मैकार्थीवाद की नवउदारवादी भयावह
प्रतिध्वनि, नवमैकार्थीवाद है। मैकार्थीवाद पर और चर्चा से विषयांतर की गुंजाइश
नहीं है।
नव
मैकार्थीवाद
वैसे तो अर्बन
नक्सल शब्द की सुहबुगाट ‘शहरों में माओवादी काडर की भर्ती’ के हास्यासपद आरोप में,
बुजुर्ग बुद्धिजीवी कोबाड गांधी की गिफ्तारी से ही शुरू हो गयी थी, लेकिन मौजूदा
सत्ता प्रतिष्ठान तथा संघ प्रतिष्ठान ने इसे अर्थ प्रदान किया। जो भी जाना
मान-बुद्धिजीवी, कलाकार, वकील, ऐक्टिविस्ट सरकार या अन्याय के खिलाफ लिखता-बोलता
है, वह अर्बन नक्सल है और राष्ट्र के लिए खतरा। मोदी सरकार के आने के बाद से ही
मानवाधिकार कार्यकर्त्ताओं के मानवाधिकार हनन का सिलसिला तेजी से चल पड़ा।
सांईबाबा आदि की गिरफ्तारी और सजा के बाद, भीमा कोरेगांव उत्सव (1 जनवरी 2018) की पूर्व संध्या पर, रैली
के दौरान दलित और मराठा समुदायों में सद्भावना सुनिश्चित रकने के मकसद से,
सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश पीपबी सावंत द्वारा आयोजित एल्गार परिषद की
मीटिंग मावाधिकार कार्यकर्ताओं पर अगले हमले का बहाना बन गया। पहले यफआईआर को
संशोधित कर मीटिंग को दलित संगठनों और माओवादियों में संबंध के मंच के रूप में
दिखाया गया तथा जून में सांईबाबा के वकील सुरेंद्र गडलिन तथा राजनैतिक बंदियों की
रिहाई के लिए सक्रिय रोना विल्सन समेत 5 मानवाधिकार कार्यकर्त्तों को गिरफ्तार कर
लिया गया। गौर तलब है कि गडलिन, सांईबाबा के वकील हैं। अब पुलिस कह रही है
कि 28 अगस्त को गिरफ्तार अर्बन नक्सलों की पहचान जून में गिरफ्तार अर्बन
नक्सलों से पूछ-ताछ के दौरान सामने आया।
कौन हैं ये
अर्बन नक्सल?
बहुत दिनों तक इकॉनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली से
जुड़े जाने-माने पत्रकार, गौतम नवलखा पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स के
संस्थापक सदस्यों में हैं। उनके बारे में इंडियन एक्सप्रेस में छपे लेख, ‘गौतम
मेरा मित्र...’ लेख उनकी पारदर्शी कार्यनीति और जनपक्षीय प्रतिबद्धता का सटीक
चित्रण है। गौतम 4 दशकों से मानवाधिकार आंदोलनों के एक स्तंभ के रूप में सक्रिय
हैं। राज्य-दमन की पहले भी कई मार झेल चुके, विरसम (क्रांतिकारी लेखक संघ)
के संस्थापक, बुजुर्ग जनवादी कवि वारवारा राव अपनी कविताओं से जनजागरण की अलख
जगाते हुए मानवाधिकार के लिए संघर्षरत योद्धा हैं। गिरफ्तारी के वक्त बिंची
मुट्ठियों के साथ मुस्कराता हुआ उनका चेहरा देख कर स्पेनी क्रांतिकारी कवि गार्सिआ
लोर्का की वह तस्वीर याद आ गयी, जिसमें वे बंदूक ताने फासीवादी शूटरों के सामने
मुट्ठियां लहराते हुए, मुस्कराते हुए फासीवाद मुर्दावाद के नारे लगा रहे हैं। पीयूसीयल
(पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, सुधा भारद्वाज को
मैं उनके स्कूल दिनों से जानता हूं। जेयनयू कैंपस के स्कूली बच्चों में वह मेधावी
छात्र के रूप में चर्चित थी, आईईटी में चुनाव के बाद कुछ ज्यादा ही। पढ़ाई के बाद
वे मध्यवर्गीय कैरियर और अमेरिकी नागरिरका को धता बताकर, बहुत दिनों तक शहीद शंकर
गुहा नियोगी द्वारा, ‘संघर्ष और निर्माण’ के सिद्धांत पर, स्थापित ‘छत्तीसगढ़
मुक्ति मोर्चा’ (सीयमयम) के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में छत्तीसगढ़ में
आदिवासी मजदूरों के साथ रहीं। गौरतलब है कि सीयमयम का उद्देश्य और नीति जनसंघर्षों
द्वारा मजदूरों में जनचेतना के प्रसार की है। अपने अधिकारों के प्रति चेतना से लैस
मजदूर अपनी मुक्ति की लड़ाई खुद लड़ेंगे। किसी भी आंदोलन को कुचलने का सक्रिय,
मुखर आंदोलनकारियों के खिलाफ फर्जी मुदमों का इस्तेमाल सरकार को औपनिवेशिक विरासत
में मिला है। मजदूरों के मकदमे लड़ने के लिए, ट्रेड यूनियन कामों के साथ सुधा ने
कानून की पढ़ा की और मजदूरों और मानवाधिकार के मुकदमों तथा ट्रेडयूनियन व्यस्तताओं
के बीच नेसनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली में विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं।
लगभग 3 दशकों
से मानवाधिकार आंदोलनों में सक्रिय, जाने-माने विद्वान, मानवाधिकार कार्यकर्ता तथा
मार्क्सवादी दलित चिंतक आनंद तेलतुम्बडे
गोआ इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट में प्रोफेसर तथा कमेटी फॉर द प्रोटेक्न ऑफ
ह्यूमन राइट्स (सीपीडाआर) के महासचिव हैं। आनंद बहुत समय से हिंदुत्व
उंमादियों के निशाने पर हैं। वकील अरुण फेरेरा और वेर्मन गोंस्लावे भी जाने माने
मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। इसके अलावा आदिवासी अधिकारों के पैरोकार, रांची के
पादरी, फादर स्टान स्वामी के भी ठिकाने पर छापा मारा गया। फादर स्वामी आदिवासी
विस्थापन विरोधी आंदोलनों की अगली कतार के सिपाही हैं। इतना ही नहीं, जनकवि वारवरा
राव की बेटी-दामाद के घर पर भी छापा मारा गया और खोज-बीन की गयी। पुलिस प्रो.
सत्यनाराण की बहुत सी पांडुलिपियां ठा ले गयी। इंडियन एक्सप्रेस में छपी उनसे
पुलिसिया पूछ-ताछ राज्य के दमन तंत्र की बेशर्मी की मिशाल है। मसलन, उनके दामाद,
लेखक प्रो. सत्यनारायण से पूछा कि उनके पास इतनी किताबें क्यों हैं? इतनी किताबें
पढकर वे बच्चों को बिगाड़ते हैं। निजता के सारे अधिकारों की धज्जियां उड़ाते हुए
उनकी पत्नी नसे पूछा गया के वे अंबेडकर और मार्क्स की ही तस्वीरे क्यों हैं, किसी
देवी देवता की क्यों नहीं?
सरकार दमन
किस्तों में कर रही है। पहली किश्त में सांईबाबा, प्रशांत राही, हेम मिश्र और 2
अन्य मावाधिकार कार्यकर्ताओं को दबोचा, फिर जून 2018 में, सांईबाबा समेत राजनैतिक
कार्यकर्ताओं की रिहाई के आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता रोना विल्सन समेत अन्य
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को धरा। राजनैतिक विरोधियों को कानूनी-गैर कानूनी से
निपटाने की जारी इस फासीवादी प्रक्रिया में, उपरोक्त वरिष्ठ, मुखर मानवाधिकार
कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी ताजी लेकिन अंतिम कड़ी नहीं है।
आपातकाल के
बाद मानवाधिकर आंदोलन का विकास, विस्थापन विरोधी; स्त्रीवादी, दलित तथा
पर्यावरणवादी आंदोलनों के साथ-साथ हुआ तथा इनसे जैविक रूप से जुड़ा रहा है।
मानवाधिकार आंदोलनों पर बढ़ता दमन इस बात का परिचायक है कि सरकार और संघ परिवार
मानवाधिकार आंदोलनों तथा तर्कवादी बुद्धिजीवियों को अपने अस्तित्व के लिए सबसे
बड़ा खतरा मानते हैं। सत्ता का भय होता है, विचारों का आतंक। यदि अदालत का
नकारात्मक फैसला आता है तो शहर-शहर, कैंपस-कैंपस में अर्बन नक्सल पाए पकड़े
जाएंगे, निडर मुखरता को डराकर चुप कराने की कोशिस की जाएगी। लेकिन प्रतिरोध के
कार्यक्रमों में शिरकत देखते है लगता नहीं कि कोई डरा है, बल्कि ज्यादा निर्भकता से
और मुखर हो कर, फैज अहमद फैज के गीत गा रहे हैं, ‘सिर भी बहुत बाजू भी बहुत, कटते
भी चलो बढ़ते भी चलो’। इससे सत्ता और संघ प्रतिष्ठान और भी डर गए हैं तथा बौखलाहट
में मानवाधिकार पर तेज हमले कर आत्मघात कर रहे हैं। इस लेख का समापन, भगत सिंह के
एक छोटे से प्रेरणादायी वाक्य से करना अनुचित न होगा। ‘क्रांतिकारी मजलूमों के लिए
लड़े, क्योंकि उन्हें लड़ना ही था’।
28.09.2018