Wednesday, January 31, 2018

लल्ला पुराण 179 (ज्ञान, शिक्षा .. की भूमिका)

चुंगी के मित्रों,
यह ग्रुप इविवि के वरिष्ठ-कनिष्ठ सहपाठियों का है जिनमें ज्यादातर से परिचय फेसबुक का ही है, हम एक दूसरे को शब्दों से ही जानते हैं। विवि ज्ञानार्जन का केंद्र होता है, लेकिन कई मुद्दों पर शिक्षित अज्ञानी-कुज्ञानियों और अशिक्षित अज्ञानियों की अतार्किक राय एक सी होती है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि हम ज्ञान और शिक्षा के अंतःसंबंधों और अंतःविरोधेों पर पूर्वाग्रह से मुक्त विमर्श करें। क्या शिक्षा और ज्ञान में समानुपाती संबंध है? विमर्श की शुरुआत मैं 'समकालीन तीसरी दुनिया' के सितंबर, 2016 अंक में छपे लेख से कर रहा हूं।

संदर्भ:
2016 में अगस्त में एक कार्यक्रम में इलाहाबाद जा रहा था, कार्यक्रम सरकारी (जीबी पंत संस्थान) था इसलिए फर्स्ट क्लास में जा रहा था। कूपे में बाकी तीन लोग आपस में परिचित थे। एक ने दूसरे से पूछा वह (नाम भूल रहा है, मैं परिचित तो नहीं थाआईएस में अच्छी रैंक आनेै पर काफी नाम हुआ था) अभी जेल में है या छूटा? पता चला भ्रष्टाचार में पकड़ा गया था। आदत के प्रतिकूल बिना टांग अड़ाए उनकी बातें सुनते सुनते और यह सोचते हुए कि शिक्षित तपके के क्रीम समझे जाने वाले ये नौकरशाह कितने मूर्ख होते हैं कि इतना भी नहीं जानते कि एक ही जिंदगी है जिसके लिए इफरात धन नहीं चाहिए और पूंजीवाद में महज पूंजीपति संचय कर सकता है, बाकी महज संचय की भ्रांति में रहते हैं।

विवि में एक साथी प्रोफेसर के चैंबर में हम अपने समय में ब्राह्मण-कायस्थ लॉबी की जाति आधारित गुटबाजी की यादें शेयर कर रहे थे। तभी वहां मौजूद कुछ युवा शिक्षकों ने बतायेै कि वह गुटबाजी और गहन हो गयी है। लगा कि कितने मूर्ख है ये पीयचडी की उपाधि और 'ज्ञान' बांटने के सालों के अनुभव के बाद इतना नहीं जानते कि व्यक्तित्व जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घना का नहीं, सामाजिक परिस्थितियों और समाजीकरण का परिणाम है, वरना मैं भी अभी तक पंजीरी खाकर कहीं भजन गा रहा होता। जन्म की अस्मितागक प्रवृत्तियों से ऊपर उठने को लक्षणा में बाभन से इंसान बनना कहा जाता है।

एकाध 'प्रयागराज' प्रोफेसरों से मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ, तरस आया, कितने अभागे हैं कि शिक्षक होने की महत्ता नहीं समझते। यह लेख इलाबाहाद की उस यात्रा के अनुभव के चलते लिखा गया। लंबा है, जब फुरसत मिले, पढ़ें और निर्मम समीक्षा करें जिससे यह महत्वपूर्ण विमर्श आगे बढ़ सके, भूलकर कि लेखक कौन है।

Monday, January 29, 2018

सीपीयम में घमासान

सीपीयम में घमासान
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन में एक और फूट: ऐतिहासिक परिप्रक्ष्य
ईश मिश्र
भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में एक और अवश्यंभावी विघटन की आहट देते हुए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [सीपीयम] में लंबे समय से चल रही गुटबाजी, 3 दिन चली केंद्रीय कमेटी की मीटिंग में मत-विभाजन में जगजाहिर हो गयी। बैठक में दोनों – करात समर्थक और येचूरी समर्थक – गुटों के बीच आरोप-प्रत्यारोप किसी वैचारिक टकराव या नवउदारवादी पूंजी के गतिविज्ञान के नियमों की व्याख्या में मतभेद का नहीं, वैचारिक दिवालिएपन का परिचायक है। दोनों ही गुटों में शक्ति-प्रदर्शन का मुद्दा बना भाजपा के विरुद्ध 2019 के चुनाव में कांग्रेस के साथ व्यापक फासीवादी मोर्चा। गौरतलब है कि 1990 के दशक में कांग्रेस के समर्थन से ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने के प्रस्ताव को बहुमत से खारिज करवाने में सीताराम येचुरी और प्रकाश करात साथ थे। प्रकाश करात के ही नेतृत्व में सिंगूर और नंदीग्राम जैसे अधोगामी फैसलों ने न महज संसदीय वामपंथ को रसातल में पहुंचा दिया बल्कि शासकवर्ग के भोपुओं को वामपंथ-विरोधी प्रोपगंडा का मुद्दा भी थमा दिया। भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में फूट की प्रक्रिया की शुरुआत 1920 में ताशकंत में यमयन रॉय और अबनी मुखर्जी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी के गठन के समय ही शुरू हो गयी थी[1]। शीघ्र ही रॉय और मुखर्जी के मतभेद कटुता में बदल गए। कॉमिंटर्न की दूसरी कांग्रेस में औपनिवेशिक सवाल पर राष्टीय आंदोलन के साश असहयोग की रॉय की थेसिस के विपरीत सहयोग की लेनिन की थेसिस स्वीकार हुई थी।
औपनिकशिक सवाल पर रॉय-लेनिन की बहस में जाने की गुंजाइश नहीं है, वह अलग चर्चा का विषय है[2]। मुद्दा वही था- कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन से सहयोग- असहयोग का। 1905-07 की रूसी क्रांति-प्रतिक्रांति के बाद लेनिन ने लिखा था कि क्रांतिकारी परिस्थिति क्रांति की आवश्यक शर्त है। तत्कालीन औपनिवेशिक परिस्थिति में उपनिवेशों में साम्राज्य-विरोधी आंदोलनों के चरित्र को लेनिन प्रगतिशील मानते थे। उनकी थेसिस के अनुसार, उपनिवेशों में कम्युनिस्ट पार्टियों को अपनी अस्मिता बरकरार रखते हुए आंदोलन में शिरकत करना चाहिए तथा आंदोलन के क्रांतिकारी तत्वों को अपने साथ लाने की कोशिस। साम्राज्यवादी पूंजी की किसी भी कड़ी पर प्रहार पूंजीवाद को क्षतिग्रस्त करेगा। इसके उलट रॉय आंदोलन की तुलना जर्मनी तथा पूर्वी यूरोप में देर से हुए पूंजीवाद के विकास से करते हैं जहां बुर्जुआ जनतांत्रिक आंदोलन ने सामंतवाद के विरुद्ध संघर्ष को तार्किक परिणति तक ले जाने की बजाय मजदूर वर्ग को काबू में रखने के मकसद से उससे समझौता कर लिया था। उनका मानना था कि कांग्रेस के नेतृत्व में चल रहा राष्ट्रीय आंदोलन अंततः साम्राज्यवाद से समझौता कर लेगा। उनकी राय में सर्वहारा अपने बल पर दोनों क्रांतियां – राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन और सामाजवादी – संपन्न करेगा। रॉय का परिस्थिति का आकलन इस अर्थ में फैंसी लगता है कि आर्थिक (संख्या) तथा राजनैतिक (वर्गचेतना से लैस संगठन) रूप से सर्वहारा की मौजूदगी नगण्य थी। गौरतलब है कि 1947 में जब अंग्रेज भारत छोड़कर गए तो देश की अर्थव्यवस्था में औद्योगिक योगदान दो अंकों से कम फीसदी था तो 1920 की स्थिति सोची जा सकती है। कॉमिंटर्न के निर्देशानुसार पार्टी ‘वर्कर्स एंड पीजेंट पार्टी (डब्ल्यूपीपी)’ नाम से जनसंगठन के जरिए आंदोलन में शिरकत से जनपक्षीय पहचान अर्जित कर रही थी कि 1928 में कॉमिंटर्न की छठी कांग्रेस में औपनिवेशिक मुद्दे पर राय बदल दी। यमयन रॉय को कॉमिंटर्न से निष्कासित कर दिया गया और राष्ट्रीय आंदोलन से असहयोग की उनकी थेसिस लागू कर दी गयी। रॉय के निष्कासन के बाद पार्टी के नेतृत्व में शक्ति अर्जित करने के शुरुआती दौर में ही दोफाड़ गया। कम्युनिष्ट आंदोलन में फूट के इतिहास की चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, मकसद महज यह इंगित करना है कि कम्युनिस्ट आंदोलन में दो लाइनों तथा उस आधार पर गुटबाजी की प्रक्रिया शुरुआती दौर से ही जारी है। आज हालत यह है कि मार्क्स के दुनिया के मजदूरों की एकता का नारा भारत के कम्युनिस्टों के संदर्भ में कम्युनिस्टों की एकता के असंभव से दिखते नारे में सिमटकर रह गया है।
कम्युनिस्ट पार्टी अन्य पार्टियों से इस अर्थ में भिन्न होती है कि यह सिद्धांत पर ज्यादा जोर देती है और उसी के अनुसार अपनी नीति-रणनीति निर्धारित करती है। कॉमिंटर्न के तत्वाधान में गठित दुनिया की सभी कम्युनस्ट पार्टियों का सैद्धांतिक श्रोत मार्क्सवाद है। मार्क्सवाद क्रमिक और क्रांतिकारी आर्थिक विकास की प्रक्रियाओं का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में व्याख्या का विज्ञान है  तथा शोषणकारी व्यवस्था के बदलाव की विचारधारा। मार्क्सवाद करनी-कथनी के अंतर्विरोध उसी तरह पूंजीवाद का अभिन्न अंग मानता है जैसे वैतनिक गुलामी को और दोनों का अंत सर्वहारा क्रांति का मकसद। कथनी-करनी यानि सिद्धांत-व्यवहार का अंतर्विरोध वर्ग समाजों का अंतर्निहित अंग है। ये जो कहते हैं करते नहीं और करते हैं, कहते नहीं। वर्ग समाजों के जैविक और पेशेवर बुद्धिजीवी शब्दाडंबरों से हकीकत पर पर्दा डालते हैं। जितना कहते हैं, उससे अधिक छिपाते हैं। रूसो इसकी प्रतिक्रिया में यह कहकर  सभ्यता को ही खारिज करते हैं कि यह दोगलेपन का संचार करती है। मार्क्स इनके लेखन से धुंध (समोक स्क्रीन) हटाकर पढ़ने की सलाह दी है, स्वरूप की तह में जाकर हकीकत समझने की। आत्मालोचना के सिद्धांत की ही तरह प्रैक्सिस का सिद्धांत, यानि करनी और कथनी की द्वंद्वात्मक एकता का सिद्धांत भी मार्क्सवाद की एक प्रमुख अवधारणा है। मार्क्सवाद समाज के गतिविज्ञान के नियमों के समझने का गतिमान विज्ञान है, जो समाज की भौतिक उत्पादन पद्धति पर आधारित आर्थिक संरचना और उनमें बदलाव को इतिहास की गाड़ी की धुरी है तथा समाज की बुनियादी संरचना, जो ऐतिहासिक; राजनैतिक; वैधानिक तथा बौद्धिक संरचनाओं का निर्णायक तत्व है। मार्क्सवाद, उदारवाद (पूंजीवाद) की वैकल्पिक विचारधारा और इसकी परिकल्पना का वर्गविहीन साम्यवादी समाज, पूंजीवादी आर्थिक-सामाजिक व्वस्था का कम्युनिस्ट पार्टी अन्य पार्टियों से इस अर्थ में भिन्न होती है कि यह विच सिद्धांतों पर जोर देती है। इसके अस्तित्व का स्वघोषित मार्क्सवाद है, जो दुनिया की वैज्ञानिक समझ का विज्ञान और बदलने की विचारधारा है। यहां स्थापना के बाद से ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की मार्क्सवाद की व्याख्या और अमल तथा कॉमिंटर्न और सोवियत पार्टी के प्रभाव पर चर्चा की गुंजाइश नहीं है। सीपीआई ने मार्क्सवाद को खास ऐतिहासिक परिस्थितियों को समझने के विज्ञान की जगह मिशाल मान लिया। यूरोप में नवजागरण एवं प्रबोधन काल में सामाजिक विभाजन का जन्म का मानदंड खत्म हो चुका था। सामाजिक विभाजन का प्रमुख आधार आर्थिक था इसीलिए मार्क्स-एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में लिखा कि पूंजीवाद ने समाज को पूंजीपति और सर्वहारा के परस्पर विरोधी खेमों में बांटकर वर्ग-विभाजन को आसान बना दिया। भारत में ऐसी कोई प्रबोधन क्रांति हुई नहीं और जाति आधारित वर्णाश्रम व्यवस्था जस-की-तस कायम थी। इस क्रांति की जिम्मेदारी भी कम्युनस्टों की ही थी। यद्यपि जातीय उत्पीड़न समेत सभी उत्पीड़नों के विरुद्ध मुखरता से सक्रिय वामपंथी ही रहे हैं, लेकिन जाति-उन्मूलन यानि सामाजिक क्रांति का मुद्दा अलग एजेंडा न बन सका, जिससे पहचान की राजनीति के माध्यम से एक नवब्राह्मणवादी तपका पैदा हो गया जो सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में उतना ही बड़ा गतिरोध है जितना सांप्रदायिक ब्राह्मणवाद।
1934-42 के दौर में अवैध पार्टी के ज्यादातर सदस्य जेल में थे, जो बाहर थे वे “मार्क्सवाद के प्रभाव मे आए” कांग्रेसियों द्वारा गठित कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी के सदस्य के रूप में सक्रिय थे तथा इस दौर में टेड यूनियनों तथा किसान और छात्र संगठनों के बीच अच्छी पैठ बनाने में सफल रहे। इस दौर की और युद्धविरोधी प्लेटफॉर्म से युद्ध-समर्थन प्लेटफॉर्म की चर्चा की गुंजाइश नहीं है। आजादी की लड़ाई के दौरान से जारी निजाम शासन के विरुद्ध किसानों की सशस्त्र क्रांति के आजाद भारत की नेहरू-पटेल की सरकार द्वारा निर्मम दमन के बाद से ही पार्टी में वाम-दक्षिण लाइन की लड़ाई जारी रही। 1950 में पार्टी की क्द्रीय कमेटी द्वारा जारी ‘तेलंगाना दस्तावेज’[3] का अध्ययन करने से पता लगता है कि एक लाइन बलिदान देते हुए आंदोलन जारी रखने के पक्ष में थी दूसरी शासक वर्गों की दमनकारी ताकत को देखते हुए कूटनीतिक विराम की। दो लाइनों के संघर्ष के विश्लेषण में जाने की गुंजाइश भी यहां नहीं है, वह एक अलग चर्चा का विषय है। चुनाव और ‘प्रगतिशील’ नेहरू सरकार के साथ सहयोग-विरोध तथा संसदीय चुनावों में भागीदारी पर भी लाइनों का संघर्ष चलता रहा। इस बीच कुमारमंगलम थेसिस के तहत तीसरी लाइन उभरी ‘व्यवस्था के अंदर से व्यवस्थाबदलने’। इसके तहत बहुत से सदस्य सीपीआई से निकल कर कांग्रेस में शामिल हो गये, वे व्यवस्था तो नहीं बदल सके, व्यवस्था में अनुकूलित हो गए। संसद में भागीदारी की नीति इस तर्क के तहत स्वीकार की गयी कि संसदीय मंच का इस्तेमाल क्रांतिकारी विचारों के प्रचार प्रसार के माध्यम के रूप में किया जाएगा। लेकिन माध्य ही मकसद बन गया और वर्ग संघर्ष तथा क्रांति दस्तावेजों में कैद शगूफे। जाति-धर्म आदि के चुनावी समीकरण-असमीकरण की राजनीति पर बुर्जुआ चुनावी पार्टियों का एकाधिकार नहीं रहा। कथनी-करनी के अंतर्विरोध अन्य संसदीय पार्टियों की तरह सीपीआई में भी व्याप्त गया। कार्ल मार्क्स ने हेगेल की सिर के बल खड़ी हकीकत के सिद्धांत पलटकर सीधा कर दिया था, भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने मार्क्स को उल्टा टांग दिया।
पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की गुटबाजी और लाइनों के टकराव से अनभिज्ञ पार्टी काडर और स्थानीय इकाइयां जनांदोलनों तथा भूमि आंदोलनों के जरिए जनमत और जनाधार तैयार करने में जुटे रहे। नतीजतन 1957 के चुनाव में कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर पर थी यानि प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभरी। केरल विधानसभा में बहुमत हासिल कर पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार की मिशाल स्थापित की और समाजवाद के संसदीय रास्ते के पैरोकारों को विचारधारात्मक तर्क प्रदान किया। 1962 में आंतरिक अंतःकलह के बावजूद सीपीआई मुख्य विपक्ष थी। 1964 तक लाइनों का विवाद और गुटबाजी का विकास अपने चरम पर पहुंच गया। ‘क्रांतिकारी’ गुट चीनी क्रांति-पथ की हिमायत के साथ संसदीय भटकाव वाले ‘संशोधनवादी’ गुट से अलग होकर नई पार्टी बनाया – भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) [माकपा]।[4] तीन साल में ही नई ‘क्रांतिकारी पार्टी’ संशोधनवाद में सीपीआई की प्रतिद्वंद्वी बन गयी। जहां सीपीआई ने उ.प्र. समेत कई राज्यों में भारतीय जनसंघ के साथ संविद सरकारों में शिरकत की तो सीपीयम ने बांगला-कांग्रेस के साथ पश्चिम बंगाल में। 1967 में नक्सलबाड़ी स्वस्फूर्त क्रांति के निर्मम सरकारी दमन के समय ज्योति बसु पश्चिम बंगाल के गृहमंत्री थे। सीपीयम के चारु मजूमदार, जंगल संथाल, कणु सान्याल जैसे कई स्थानीय नेताओं ने सीपीयम से अलग होकर नक्सलबाड़ी सशस्त्र किसान को नेतृत्व प्रदान किया। इस तरह पार्टी में पहली फूट तीन साल के भीतर दूसरी फूट। श्रीकाकुलम् और मुसहरी किसान विद्रोह को नक्लबाड़ी की कड़ियों के रूप में देखा जाता है। नक्सलबाड़ी ने राजनीति में विमर्श का एजेंड़ा ही बदल दिया। नक्सलबाड़ी शब्द के साथ तमाम मिथ और किंवदंदियां जुड़ गईं। देश भर में नक्सलबाड़ी क्रांति के समर्थकों के समूह बनने लगे।1968 में समन्वय के लिए आल इंडिया कमेटी ऑफ कम्युनिस्ट रिवल्यूसनरीज (एआईसीसीसीआऱ) का गठन किया गया जिसे चारु मजूमदार की अध्यक्षता में 1969 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लानिनवादी)[सीपीआई (माले) बनी जो गठन के तीन साल में ही विघटित होना शुरू हो गयी और अब तक नक्सलबाड़ी विरासत के दर्जन से अधिक छोटे बड़े दावेदार हैं। मातृ पार्टी का दावा करने वाली सीपीआई माले भी 1987 में संशोधनवाद का रास्ता अपना लिया। माले समूहों के एकीकरण और विघटन की चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, इतना जरूर है कि 1964 में सीपीआई की संसदीय उपस्थिति की तुलना में तीनों संसदीय पार्टियों की सम्मिलित संसदीय मौजूदगी दशमांश भी नहीं है।
1977 में इंदिरा फासीवाद के विरुद्ध सीपीयम जनता पार्टी का समर्थन किया और पश्चिम बंगाल केरल में सत्ता में आए। पश्चिम बंगाल में सीपीयम के नेतृत्व में भूमि सुधार से गांवों में जनाधार बढ़ा और वर्ग संघर्ष का शगूफा छोड़ते हुए सीपीयम पूर्ण रूपेण संसदीय पार्टी बन गयी और सत्ता की होड़ में गुटबाजी भी। 2007 तक आते आते सीपीयम और अन्य संसदीय पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया। सिंगूर और नंदीग्राम इसकी विश्सनीयता की कॉफिन की आखिरी कील थी। 2007 तक प्रकाश करात वैसे ही क्मयुनिस्ट थे जैसे मुलायम सिंह यादव सोसलिस्ट। लेकिन अगर पूंजी के पहरुए अपने को कम्युनिस्ट और शोसलिस्ट कहें तो यह क्रांतिकारी संभावनाओं के अपूरणीय व्याहरिक क्षति के वावजूद समाजवाद और साम्यवाद के विचारों की सैद्धांतिक विजय है। पिछले महीने कांग्रेस के समर्थन के मुद्दे पर एक और फूट की आहट देती सीपीयम की केंद्रीय कमेटी में गुटबाजी का सतह पर आना संशोधनवादी कम्युनिस्ट आंदोलन में बिखराव की ताजा मिशाल है, आखिरी नहीं।
29.01.2018         



[1] 1920 में ताशकंद और 1925 में कानपुर में पार्टी के गठन सम्मेलनों के संस्थापक सदस्य शौकत उल्मानी ने जुलाई-अगस्त 1967 के मेनस्ट्रींम में ‘रूसी क्रांति और भारत’ शीर्षक की लेखमाला में पार्टी के अंदर शपरुआती विवादों का भी विस्तृत जिक्र किया है। उन्हें कानपुर और मेरठ षड्यंत्र मुकदमों में कुल 16 साल की सजा मिली थी। 
[2]John P. Haithcox,  ‘The Roy-Lenin Debate on Colonial Policy: a New Interpretation’
The Journal of Asian Studies, Vol. 23, No. 1 (Nov., 1963), pp. 93-101

[3] Hisorical and Polemocal Documents of the Communist Movement of India, Vol. 1 (1943-51) complied and published by T. Nagireddi Memorial Trust, Vijayavada, 2008. pp. 449-592
[4] Hisorical and Polemocal Documents of the Communist Movement of India, Vol. 2 (1964 -72) complied and published by T. Nagireddi Memorial Trust, Vijayawada, 2008. pp. 20-233. 

Constitutionalism in Indian Communist Movement

Constitutionalism in Indian Communist Movement

Ish N. Mishra

Unlike other political parties, a Communist Party lays more emphasis on theory,  a theoretical system of ideas which defines and analyses the evolutionary and the revolutionary progress of the political processes with a historical perspective in terms of economic development at various times and spaces. The guiding principles of such a theory are derived from the principles of historical materialism, known to be the science of Marxism. The philosophical basis and the derivative of this theoretical system, founded by Karl Marx and F. Engels, is called as the dialectical materialism by subsequent Marxists after Marx’s death. are based on an empirical understanding of society, within which lies the roots of social and economic change. Change is necessary in class divided systems, the Marxists believe, which is ‘exploitative’, ‘unjust’ and clearly based on the domination of the majority by a few who not only control the means of production, but also ‘power’ in all its institutional dimensions. “The state is the instrument of the ruling classes”. However, the evolution of theoretical and pragmatic Marxism has gone through immense internal stress, encountered multiple contradictions and faced various questions, the answers of which it has failed to provide, or it has simply reduced them into black and white categories, in a way, the international Communist movement witnessed many tragic situations when history overtook them with an unimaginable pace and “official” revolutionaries sought immediate, and almost stupid answers  to highly complex situations.
The more complex political contests became, the more they turned to simplistic reductionism. The fear of confusion tormented the Communist leadership, the fear of innovation of looking beyond the foundations of set, structured laws – an insecurity symbolic of the Freudian ‘daughter-father’, ‘son-mother’ relationship the acceptance of the “objective reality” that the world had changed, and so has the equations of the power and social relations, came very hesitantly, while contradictions diversified, multiplied and acquired more complex possibilities. Marxism remained reduced within the parameters of the basic contradiction – ‘Labour – Capital’, ‘Proletariat– Bourgeoisie,
The world, thereby, became a matter of easy comprehension.
Though various streams of analytical, unconventional Marxism have entered the realm of social sciences especially after the 2nd world war – the dominant section of the International Communist movement is led by the Central Committee of C.P.S.U. The Central Committee Remained happily submerged in the dogmatic theoretical structures of early Marxism, later reinforced by Lenin in the precarious conditions of Russia, the revolution and the aftermath. .
The Indian Communist movement also constituted a part of the same political attitude. Since its birth in 1925, after the initial commitment to revolutionary politics, especially in the 1930’s when as part of the Congress Socialist Party, it consolidated its mass base in trade unions, student movements, and grass root politics in Kerala, West Bengal, Tripura, Bihar, and Marginally in Punjab, Andhra and other states, the post-colonial Communist Movement has gradually, and steadily moved towards unilineal political passivity and degeneration.
The Marxist- Leninist emphasis on mass based politics no more troubled their conscience. The “mistakes” (which were quite a few) of the past revolutionary years were “regretted” and conveniently sidetracked. Blatant pragmatism became the fundamental premise of the bankrupt politics – ornamented with the liberal use of jargons and slogans. (Karl Marx is in heaven and everything is alright with the world)
  100 years ago Marx turned Hegel upside down. over  100 year after, the Indian Communist movement has certainly succeeded in turning Marx upside down.
Since then, it has pragmatically rejected the “violent overthrow of state and ruling class power” line and opted instead for the “peaceful transition” of power, through constitutional, electoral politics. And though the conceptions of the “dictatorship of proletariat”, and “classless society” remained the ideal of its socialism and Utopia – it entered the constitutionalism of “bourgeois–parliamentary democracy” with initial hesitation and gradually with greater scientific deliberation. Passive Constitutionalism has come to dominate the communist parties of this nation, though; at least apparently, its inherent political indecisiveness and guilt conscience has been haunting them from time to time.
Theory and Strategy - The Dichotomy of ‘No Return’
One of the fundamental problems which the Indian Communist Movement has been facing is evolving a correct, analytical explanation of the Indian State, the Congress, or, the “bourgeoisie” or the political elite. Unable to place the European context of Marxism directly in the Indian situation, the dilemma of a plausible definition, and thereby a strategic attitude towards it, continued to plague its theoretical ideologues. The Indian bourgeoisie and its leadership practiced policies which could not be explained in straight forward Marxist postulates – even in its most generalized form.
In fact, the Congress determined the articulation of political decisions and channelization during periods of crisis and otherwise, whereas the Communist leadership was forced to a position where it could only react or adapt, or adopt counter positions. While they participated in the mainstream of the struggle – the leadership and strategy of the movement was firmly entrenched in the hands of the Congress. It was believed that the congress, though a mass umbrella organization with various shades of political philosophies, was essentially led by big business, feudal interest groups – who will further reinforce the class divided exploitative structure of the polity if able to acquire political power. The successive debates of Comintern Congresses further reinforced   this belief. As late as, February 1984, this doctrine reappeared in the Congress of the CPI.
Therefore, one has witnessed the intense Love-hate fluctuations in the relationship-between the CPI - and the “bourgeois democratic national liberation movement” (as the 2nd Congress of the Comintern termed it after the famous debate between MN Roy and V. Lenin).
All future categories of the CPI are derived from this premise. And the contradictions increased many fold. Confused and pushed into the wall, the movement immersed in repeated exercises of self-introspection – but mostly, emerged, with a deeper sense of confusion. Thereby the need for reductionism and pragmatism became stronger.  Rigorous analysis was discarded. Jargons, slogans and orthodox Marxism was grasped with a drowning man’s delight, the second theoretical dilemma was related to the first. It was difficult for the Indian Communist to understand the “relative autonomy” of the political apparatus i.e. the superstructure which Nehru professed to adopt and pursue under the conception of a “mixed economy”
Nehru, despite the inherent problems of this framework, made an effort to transcend the stereotypes of existing societal models. His was a search for an alternative in a country where indigenous capitalism had immense potential to grow as a subsidiary force to the public Sector which comprised the core of the economy, Nehru’s alternative was borne out of a compromise between his socialism and the right wing, extremely powerful section of the Congress.
“The transfer of power:, therefore, from the ‘white to the Brown Masters’, as the Communist preferred to call it, resulted in the further strengthening of the indigenous bourgeoisie which had a knack for innovation and experimentation in the accumulation of private profit. The terrain was now wide open.
However, Nehru’s domestic and foreign policy could not be placed in the same context as that of banana republics or puppet regimes within the strait jacket to general Marxist laws.  The Communists were not able to clearly analyze the polarizations of the Nehruvian notion of a “mixed-economy based welfare state”. In its analysis of the nation-state, the CPI was partially right and partially wrong. While on the one hand its understanding seemed correct, but on the other this correctness could not be assumed as a political finality. When stereotypes change, especially in liberal bourgeoisie democracies, the deviations are much more difficult to perceive and analyses, so multifarious they are in quality and approach. What is visible might be an “objective reality” but the hidden “”invisibility” can also be a major propellant for its concrete determinations. The subtleties of such political processes are more intricate and intertwined, the balance of forces more indirect and subject to change, the fluctuations more sharp and unexpected. Here, the trap which pushes logic on either side of the cobweb, and thereby escapes the fluctuations, becomes more authentic and vicious. Theory manages to rationalize, if it does not innovate, to reject or accept, condemn or hail.
The 1949 February CPI Central Committee resolution saw a turnabout from the 1947, June (P.C. Joshi) resolution which welcomed the Mountbatten plan as a “Compromise” that the imperialists had been forced to make to the “urgent demands of national liberation movement”. However it pointed out that the forces of imperialism and feudalism were still strong. It called for a united anti-imperialist front – “unity of all from Gandhi to the Communists”.
Later, within a span of eight months it came round to the view that the Mountbatten plan was a natural “culmination of the betrayal of the revolutionary struggle”. This line continues to be reinforced even in the present state, although in certain crisis situations as in the 1962 war and 1975 emergency era a section of the CPI turned pro-congress.
Similar was the crisis of political strategy during the “people’s war” line, when Congress declared that the CPI has betrayed the movement and allied with Britain, a country which was an ally or Russia in the war against Fascism. If Russia lost the war, they believed, the world communist movement will be pushed back or even destroyed.
The second Congress of the CPI marked the stage for post war national independence, which was an integral part of the overall war against colonialism. Tactics, especially that of P.C. Joshi and the “rightists” within the CPI started governing revolutionary Commitment – armed struggle, et al. Though armed resistance or the violent overthrow of state was not ruled out, it was believed that the leadership structure of the nation should not be disturbed. Communists should mobilize grassroots opinion so as to create “pressure from below”. This was a dual policy, but an important starting point of constitutional pragmatism. This was the line taken by the Comintern from 1947 to 1953, and followed by most communist parties of the world in the postwar era.
The Bombay workers strike, the Telangana, Tibhaga movements, resulted again in the sharp polarization between the state and CPI. It was no longer General Dyer Killing people in Jalianwala Bagh but Indian Generals, commanded by Nehru and Patel themselves. An isolated Telangana movement was lost over the dead bodies of thousands of workers and peasants. The “historical blunder”, as Telangana movement was later called, is perhaps the last battle the communists have fought in their quest for socialism. The line changed rapidly after that and led to lesser optimism in the later years. Thus started the great debate -- Is armed struggle  by mass mobilization and as undertaken by the Bolsheviks and later by Mao’s Red Army, applicable in the Indian context? The polarization within the CPI sharpened. The left, center and right were clearly divided.
By the mid-fifties, in the aftermath of Talangana, the polarization within the CPI on political approach towards the Indian State became distinct. One stream of thought discarded the “adventurist” and hasty characterization of the Nehru regime. Led by PC Joshi, SA Dange and others, this line dictated a softer approach towards Nehru –the national bourgeoisie has a strong progressive element. It stated and suggested that questions of armed struggle, or direct confrontation and hostility with the government should be discarded. Instead, it argued that the “pressure from below” vis a vis cooperation theory should be applied. This line came to be known as that of the “rightists” line within the party. The other major deviation comprised a militant position led by Ranadive, Basavapunnaia, P. Sundarayia and others, which stuck to the old position that is was a neocolonial state controlled by monopoly business allied to the West and feudal interests.
Therefore, during this period one saw the party take up a position which was neither of the left nor of the right variety but that of the center – a “minority line” which was ambiguous and took no strong position on any issue.
The factionalism and power game inside the party, however, continued.  Which line will overwhelm? How long can this “false truce” sustain itself”?  The crucial questions became more pronounced, though, at a subterranean level. However, the more distinct the “internal crisis” turned, the more “left unity” became an issue. With Khrushchev, there again followed a break in the international theoretical line, which the Indian Communists had followed. The Zhdanovist’s “tow-camp” theory was discarded by Khrushchev and a period of “peaceful co-existence (even with the imperialist USA) followed.
In the Indian context, the state sprung another major surprise. Under the 2nd Plan, where emphasis was laid on heavy industry, large scale soviet collaboration was realized, both with the public and private sector. This further strengthened the “National bourgeoisie is progressive” thesis. Meanwhile, the first elected Communist Government in Kerala (1957) was toppled by the Congress Government at the Centre. The ideological confusion, now with the absence of the ‘two camp’ theory deepened. The 1962 China – India War was the final nail in the coffin of a United Indian Communist Movement based on Marxist – Leninist revolutionary principles.
While the rightists declared it as an aggression on Indian territorial independence, the left were hesitant to call it in such blatant terminology. ‘It is a border dispute, which should be resolved through negotiations’ they believed. The polarizations, having accumulated over the last two decades – between “revisionist” and  “revolutionary” ideology – clearly acquired objective conditions for the split. The split was inevitable – and its roots could be traced back to the historical evolution of global and national politics Vis a Vis the left movement. It was once again a replica of the Menshevik-Bolshevik conflict. If time is a great healer, the left movement has been certainly a beneficiary. The formation of the CPI and the CPI (M) in 1964 and their gradual internalization of bourgeois politics over the years, helped them accomplish themselves. While the rhetoric remained, as usual, more as a self-rationalization of militant nostalgia, the application of Marxism as a theory acquired new dimensions. Constitutional electoral politics requires different calculations, slogans, intrigues, conspiracies and power games. The connotations are certainly in absolute contrast to the militancy of the communist manifesto or the 1951 tactical document (circulated in secrecy and to a select few but later widely known), which did not rule out the inevitability of an armed overthrow of bourgeois state power.
For the CPI (M), the line, even now continues to remain, but both the left parties have been overtaken by the power game of parliamentarianism, with such remarkable consistency that despite the last semblances of revolutionary rhetoric, the Khrushchev thesis of capturing power through peaceful transitions – overpowered the political motivations and emotional sensibilities. Marxian humanism was discarded in Toto and what followed was a Comte-humanism reflected on the Congress Culture – with all its share of cold calculations, and blind miscalculations, which have since then, backfired on the movement.
The Love-hate relationship continued to flourish between the two left varieties and the Congress The premises for people’s struggle, democratic rights & consciousness, mobilizations of workers – peasants youth, women, intelligentsia and left unity, etc., automatically got geared towards one goal – electoral power.
Parliamentary politics sucked in the left so deep that the value systems practiced by bourgeois power games slowly got incorporated into it. Passivity, opportunism, and strategic silence dominated the political conscience of the left.
While history moved with its share of misfortune, brutality, and the state repression and private profit flourished famines and floods, mass killings and holocausts, even Fascism in its most blatant and naked reality, entered the polity with regular consistency, the logic of “Parliamentary Marxism” was maintained, legitimized and sustained.
Summing up in a few lines, the degenerations of Marxist Praxis, A. K. Gopalan the veteran Communist leader from Kerala wrote:
“A new life, a new environment, a new alliance – I found myself in an environment calculated to ruin a man. First class travel, comfortable chambers in the parliament, a surfeit of money, magnificent quarters – and a life devoid of heavy responsibility. All circumstances favorable to a life of pleasure. The overall framework was such that we did not feel hopeful about this much eulogized parliamentary democracy.”  (In the Cause of the People, 1972, pg. 181-182; Orient Longman, New Delhi)
The Naxalbari movement in the late sixties was an inevitable outcome of this stagnation. Mainly, a split from the local leaderships of West Bengal, Andhra and Bihar supported and provided leadership to the revolutionary flame ignited by the spontaneous peasants’ uprising at Naxalbari formed the core of the movement. After an initial burst of intense idealism and honesty, the movement fizzled out into disorganized, scattered realms of political anarchy;
Arter Telengana, this was the second major shock to the left moment, a shock, which their ideologues had not perceived even in their most militant logic of historical materialism and protest. Looking back into the dialectics of its growth, the Naxalbari movement and the further splits in the left ideology can be clearly traced back to the organizational and ideological crisis in the party formally recognized in 1950. The crisis remained in the depths of its structure, in undercurrents which grew stronger over an accumulated period of stagnation. ‘Constitutional Freedom”, even in the divided CPI continued to be viewed by a large section as illusions, a farce and a pseudo rationalization. The crisis of constitutionalism in the left remained unresolved. The choices now remained limited within the paradigm of bourgeois politics. Mass participation became directly proportional to the number of votes required. Caste-clan calculations no longer were purely bourgeois – communal gains but also that of secular, communist forces. The state might still be the “instrument of the ruling class” – but it certainly has a “progressive foreign policy”. The CPI went so far as to declare its support for Mrs. Gandhi’s Emergency at the behest of the Kremlin.
The cycle of degeneration and perversions, as it seems, has ripened to a state – where even rhetoric is not used, nor the pretentions of raising “mass consciousness” or the workers – peasants’ unity in the democratic movement for equality, justice and freedom. While the Indian state violates the constitution as a matter of attitude the communists dip into it, with a ‘holier than the Ganga belief.
Theoretically, the left variety of parliamentary Marxism is trapped in the quagmire of no return. Its methodology needs an “epistemological break” if it wishes to restore and consolidate the essential doctrines of Marxism. A new tradition has to be built, based on the changing forces of societal complex and state power, and existential experiences directly linked to new modes of production, of class alienation, of organization and strategy. This tradition needs to respect the various streams of Marxist analysis which has flooded the theoretical market, find the reasons for its origin, its deviations from the established current, and seek more practical solutions based on humanism.
Reductionism, in a constitutional stagnation, is inevitable; it is the comfort of political hypocrisy clothed in mechanical, simplistic assessment of reality. Reductionism is categorical. It cannot transcend its own wall, its own fortress of pseudo rationalization, divorced from genuine self – introspection.
The communist movement in India, however, is not in a mood or position to enter into the trauma of self-realization
Conclusion
   Both the official communist parties (CPI & CPI (M) are at their peak of passivity, theoretically bankrupt, divorced from revolutionary praxis. The cobweb, in which it has entered, can now only expand further, till the point of Hegelian totality, when the cobweb, itself would transcend the dichotomy, break apart, and create, perhaps, another Telangana or Naxalbari. Till that time. There can be only a further elongation of postponement. The sky is the limit.
15.09.1985


Friday, January 26, 2018

लल्ला पुराण 178 (विषयांतर)

इलाहाबाद विवि के एक ग्रुप में मेरी एक पोस्ट

एक बार फिर मैं चुंगी के सदस्यों से एक पीड़ा शेयर करना चाहता है। फिराक वाली पोस्ट इस पोस्ट की भूमिका है। मैं 1972-76 में इवि में था। इस ग्रुप में सुपर-सुपर सानियर चंद्रशेखर जी के अलावा कुछ '80 के दशक के हैं ज्यादातर सदस्य भूमंडलीकरण (1990 के बाद) पीढ़ी के मित्र हैं, जिनमें अपार सर्जनात्मक युवा ऊर्जा होनी चाहिए। युवाओं में ही ऊर्जा, उत्सुकता और कुछ करने की अनंत संभावनाएं होती हैं, बुड्ढों में तो हम जैसे कुछ सनकी होते हैं जो लगे रहते हैं। मैं वैसे सीनियर-जूनियर की श्रेणीबद्धता का पक्षधर नहीं था, लेकिन हमारे समय में परिसर में विमर्श का एक सलीका था, और ज्ञानवर्धक। यदि यह सार्थक विमर्श का मंच है तो विमर्श विषय-केंद्रित होना चाहिए। विषयांतर से विमर्श विकृत करना दुराग्रही जहालत की निशानी है और बौद्धिक अपराध। मैं बुजुर्ग-युवा शिक्षक हूं लेकिन यह भूल जाने की कुआदत पड़ गयी है कि 42 साल पहले 20 का था और इस प्रायोजित जहालत को जहालत कह देता हूं। यदि यह तफरीह और लफ्फाजी या भजन-कीर्तन का मंच नहीं है तो यह रुकना चाहिए। मैं एक पूर्णकालिक नौकर और पूर्णकालिक लेखक हूं। काम ज्यादा है और वक्त कम। इस ग्रुप में कुछ लोग हैं मेरा नाम पढ़ते ही उनके सिर पर वाम पंथ, नक्सल, जेयनयू के भूत सवार हो जाते हैं, बात चाहे पर्यावरण की हो रही हो या करणी सेना की। वे अपने नाम देश का टेंडर ईसू कर लेते हैं और देशभक्ति के ठेकेदार बन जाते हैं पूछो देशभक्ति होकी क्या है तो बंदे मातरम् करने लगते हैं। मैं उपरोक्त कुआदतन, ऐसे बौद्धिक अपराधियों का जवाब देने लगता हूं। मेरे जीवन में तफरीह-लफ्फाजी और भजन-कीर्तन का वक्त नहीं हूं। यात्राएं भी वही संभव हैं जिन्हें काम से जोड़ा जा सके। पिछले 5 सालों में इलाहाबाद की 15-20 यात्राएं हुईं। यदि जनमत चाहे तो मैं इस मंच से विदा लूं। फिलहाल यह मेरी अंतिम पोस्ट है।

Thursday, January 25, 2018

छोटी-मोटी बातों का मातम नहीं मनाते

छोटी-मोटी बातों का मातम नहीं मनाते
हर गम में खुशी की तलाश करते हैं।
(कहना आसान है, हा हा)

लल्लापुराण 177 (करणी सेना)

इलाहाबाद विवि के एक ग्रुप में किसी ने लिखा कि जेनयू में नारे लगाने वाले बौद्धिक हैं और पद्मावत का विरोध करने वाले गुंडे? मेरा जवाब:
कानून तोड़ने वाले गुंडे भी हो सकते हैं, मवाली भी। संविधान की धज्जियां उड़ाने वाले धुर देशद्रोही हैं। भक्तिभाव असाध्य मानसिक रोग है, नारे लगाने वाले बजरंगी घुसपैठिए थे, जैसे दंगे की साजिश रचने वाला गोंडा का वह हिंदू वाहिनी का दीक्षित जो रात के अंधेरे में पड़ोसी का बछड़ा चुराकर काटता पकड़ा गया। वह भक्त पकड़ा न जाता तो क्या होता? उसकी फांसी की मांग गोरक्षक नरभक्षी क्यों नहीं कर रहे हैं?

लल्ला पुराण 176 (ईश्वर विमर्श 48)

Dinesh Pratap Rao Dixit मेरा शंकर पर कोई अध्ययन नहीं हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि यहां के आदिवासियों के देवता थे जिसे वैदिक धर्म की शाखाओं ने आत्मसात कर लिया। एक समय शैव मतालंबियों की उल्लेखनीय मौजूदगी रही है। भारत की संस्कृतियों में सामासिकता की प्रवृत्ति रही है, अलगाव की नहीं। 1857 की किसान क्रांति से आतंकित अंग्रेज शासकों और उनके इतिहासकारों ने अपने निहित स्वार्थों के लिए धर्म के आधार यहां की सामासिक संस्कृति तोड़ने की साजिश रची, जिसके लिए उन्हें दोनों बड़े धार्मिक समुदायों में कारिंदे मिल गए। पहले राजाओं में लड़ाइयां होती थी, हिंदू-मुसलमान में नहीं, दोनों ही कुछ और होने के पहले इंसान हैं, वे कहां पैदा हो गए उसमें उनका कोई योगदान नहीं. भारतीय राजनैतिक चिंतन पढ़ाने के लिए अद्वैत पढ़ा हूं, लेकिन तब तक मैं पहले ही वैज्ञानिकता की सोच से ग्रस्त हो चुका था और माया से मुक्ति ही नहीं चाहता, हा हा, मानवता की मोह-माया ही तो जीवन की संजीवनी है।

Monday, January 22, 2018

सीपीयम की सीसी की बैठक

ये तो निकले थे सारे जहां के मजदूरों को एक करने
करने लगे आपस में सरफुटौव्वल लंबरदारी के लिए

बनाया था पार्टी जमाने को चिराग दिखाने के लिए
घर में अपने ही अंधेरा फैलाने में होड़ करने लगे

लड़ना था इनको व्यक्तिवाद से है जो पूंजीवादी मूलमंत्र
नाक को मुद्दा बना पार्टी-तंत्र कब्जाने की होड़ में लग गए

Sunday, January 21, 2018

मोदी विमर्श 68 (पकोड़ा)

पकौड़े तलने का ही नहीं श्रम की अवमानना सभ्यता के दर्शन में अंतर्निहित है। मुख्यधारा के पाश्चात्य दार्शनिकों में रूसो पहले हैं जिन्होंने श्रमिक को इंसान माना और मार्क्स ने श्रम को जीवन की आत्मा। वर्णाश्रम व्यवस्था में श्रमिक को अछूत माना तथा उनके श्रम के उत्पाद का सेवन करने वाले परजीवियों को श्रेष्ठ। लेकिन बाकी रोजगार राष्ट्रवाद को समर्पित कर मोदी जी सभी को पकौड़े बेचकर रोजाना 200 की आमदनी से परिवार पालने की नशीहत तो दे रहे हैं लेकिन सब पकौड़े ही बेचेंगे तो खरीदेगा कौन?

Saturday, January 20, 2018

लल्लापुराण 176 (कश्मीरी पंडित)

इलाहाबाद विवि के एक ग्रुप में एक सज्जन हैं मेरी किसी भी पोस्ट या कमेंट पर या तो वाम-वाम अभुआने लगते हैं या रोहिंग्या, कश्मीरी पंडित टाइप के 2-3 रटे-रटाए भजन शुरू कर देते हैं। एक किसी असंबद्ध विषय पर पूछने लगे कि रोहिंग्या पर आप इतना लिखते हैं, कश्मीरी पंडितों के पलायन पर क्यों नहीं? उस पर:

Arvind Rai आप पढ़ते ही नहीं। रोहिंग्या पर लिखने का मौका नहीं मिला, 20011 की कश्मीर पर हमारी(जनहस्तक्षेप की) रिपोर्ट में 30872 शब्दों का पूरा एक अनुभाग कश्मीरी पंडितों और संघी-फासावादियों द्वारा इस गंभीर मुद्दे के सांप्रदायीकरण पर है। थोड़ा तथ्यपरक इतिहासबोध विकसित करो, कब तक अफवाहजन्य इतिहासबोध से काम चलाओगे? दिमाग को कामचोर मत बनाओ। मैं बुड्ढा आदमी हूं, कितना लिखूंगा? आप भी लिखने की आदत डालें। लेकिन लिखना बहुत मुश्किल काम है, पढ़ना और दिमाग लगाना पड़ता है, रटे-रटाए जुमलों के विषयांतर से विमर्श विकृत करना आसान, जो आप करते रहते हैं। 3-4 बात रट लिया पंजीरी खाकर वही भजन गाते रहते हो। आपके भजनखोरी का यह अंतिम जवाब है, आपको ब्रह्मा भी बाभन से इंसान नहीं बना सकता। मस्त रहो, पंजीरी खाकर और चरणामृत पीकर भजनगाते हुए बाकी जीवन भी कट ही जाएगा।

Sunday, January 14, 2018

Footnote 12 (FDI)

Retail sector in India is largest employer with 420 million strong of work force, Walmart employs 42 million for same amount of transaction. With 100% FDI in retail, 378 million people shall be invisibly dispossessed like millions of platform vendors with the privatization of railway catering by Vajpai govt. For 200 years, their presence on railway platforms posed no threat to the security of the country, suddenly their presence became threat.

अगर तुम न होते..

अगर तुम न होते तो कोई फर्क न पड़ता कायनात को
चलती रहती दुनिया नियमों से अपने गति विज्ञान के
किसी के होने-न-होने से फर्क नहीं पड़ता तारीख को
इतिहास रचते हैं इंकिलाबी विद्रोह की रचनात्मकता से
(ईमि: 12.01.2016)

Tuesday, January 9, 2018

फुटनोट 158 (भगत सिंह और अंबेडकर)

किसी मित्र ने किसी की पोस्ट शेयर किया है कि भगत सिंह ने 'मैं नास्तिक क्यों हूं' में लिखा है कि वे छूट गए तो अंबेडकर के रास्ते पर चलेंगे, उस पर मेरा कमेंट:

पहली बात तो भगत सिंह जानते थे कि वे छूटेंगे नहीं नहीं तो संसद में बम फेंकने के बाद उनके वहां से निकलने के पूरे उपाय थे। मैं यह लेख एक से अधिक बार पढ़ चुका हूं, इस लेख और उनके अन्य किसी लेख में अंबेडकर का कोई जिक्र नहीं है। 1928 में अछूत समस्या में व्यक्त भगत सिंह के विचार सामाजिक क्रांति पर अंबेटकर के विचारों से मेल खाते हैं, अंबेडकर को हिंदू से बौद्ध बनने में दशकों लग गए, भगत सिंह किशोरावस्था में नास्तिक बन गए थे।

फुटनोट 157 (केोमल हिंदुत्व)

भाजपा और कांग्रेस दोनों विश्वबैंक संचालित साम्राज्यवाद की सेवा में प्रतिस्पर्धी पार्टियां हैं और 1984 से तो कांग्रेस हिंदू तुष्टीकरण में भी भाजपा की प्रतिस्पर्धी बन गयी है, बस उसके पास बजरंगी फौज नहीं है, फासीवाद विरोधी ताकतें फिलहाल लुंज-पुंज हालत है, तमाम वामपंथी गुजरात चुनाव में राहुल की राजनैतिक परिपक्वता के गुणगान कर रहे थे, संगठित वाम हताशा में है असंगठित न तो क्रांति कर सकता है न ही चुनावी विकल्प दे सकने की हालत में है। ऐसे में गुजरात चुनाव में कांग्रेस ही फासीवाद का विकल्प दिखी। लेकिन लगता नहीं कि इससे कुछ सीख लेकर झंडे-दुकान की बात भूलकर जनांदोलन के जरिए सामाजिक चेतना का जनवादीकरण करने का अभियान चलाएं जिससे संख्याबल जनबल में तब्दील हो सके। आजमगढ़ से झरखंडे राय (सीपीआई) सालों सांसद रहे और उनके बाद कई बार कम्युनिस्ट से कांग्रेसी बने चंद्रजीत यादव। यह आरोप नहीं है कुछ निर्मम आत्मालोचना है। यजि संख्याबल को जनबल में तब्दील करने की नीति रही होती, तो उसका चुनावी संख्याबल 2009 तक आते-आते भाजपाई संख्याबल में तब्दील हो जाता? शायद पार्टी लाइन का मामला होगा! यगी ने आजमगढ़ का आतंकगढ़ नामकरण कांग्रेस राज में किया था जिसे बटाला हाउस फर्जी मुठभेड़ के बाद पुलिस और मृदंग मीडिया ले उड़ी। जिस लड़के को पुलिस ने मास्टरमाइंड कह कर मारा था, 17 साल का वह अपने गांव संजरपुर से जामिया के स्कूल पढ़ने के लिए जीवन में पहली बार रेल में बैठकर दिल्ली आया था। छः में से 3 गोलियां उसके सिर में ऊर्ध्वाधार (वर्टिकल लगी थीं), परिजनों को पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट तक नहीं दी गयी। जनहस्क्षेप और पीयूडीआर के हमलोग पकड़े गए लड़कों के परिजनों के साथ उनसे मिलने लोधी कॉलोनी स्पेसल सेल की हिरासत में मिलने गए, मिलने नहीं दिया गया। उसके बाद हमलोग पूर्व कानूनमंत्री शांतिभूषण के साथ तत्कालीन कांग्रेसी गृहमंत्री, पाटिल (नाम दिमाग से उतर गया) से मिलने गए, वे हमसे मिलने को तो राजी हो गए लेकिन राष्ट्र की सुरक्षा के हवाले से बंद लड़कों से मिलने की अनुमति देने में असमर्थता जाहिर की। विश्वबैंक की नीति पक्ष-विपक्ष दोनों उपने पास रखने की है। एक की विश्वसनीयता कम हो तो दूसरा आगे कर दो। मनमोहन की जगह मोदी और मोदी की जगह राजीव गांधी। कांग्रस की जीत पर राहत महसूस करना हमारा विकल्प नहीं मजबूरी है। फासीवादी आहटें इतनी तेज हैं कि एक व्यापक फासीवाद विरोधी मंच की जरूरत है। फासीवाद के विरोध का मतलब है पूंजीवाद का विरोध।

Sunday, January 7, 2018

दलित सामूहिकता पर शासक वर्ग का सामूहिक हमला

दलित सामूहिकता पर शासक वर्ग का सामूहिक हमला
ईश मिश्र
पिरामिडाकार श्रेणीबद्धता के अर्थों में पूंजीवाद और हिंदू-जाति व्यवस्था में इतनी समानता है कि जातिवाद(ब्राह्मणवाद) और पूंजीवाद चाहे-अनचाहे; जाने-अनजाने एक दूसरे के सहयोगी बन जाते हैं। इसका ताजा, ज्वलंत उदाहरण पंजाब के मालवा क्षेत्र के दलित किसानों की जमीन के कानूनी अधिकारों की जारी लड़ाई का सामूहिक दमन है। जमीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (जेडपीयससी) के नेतृत्वमें इस आंदोलन की कुछ मोर्चों पर तत्कालिक विजय के बाद मिली जमीनों में साझी खेती के प्रयोग से दलित सामूहिकता की एक अनुकरणीय मिशाल कायम की है। यह आंदोलन सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय या यूं कहें कि सामाजिक और आर्थिक क्रांतियों यानि वर्ण-संघर्ष और वर्ग-संगर्ष की द्वंद्वात्मक एकता की एक मिशाल है। आंदोलन के बारे जनहस्क्षेप की रिपोर्ट (जून, 20016) में विस्तृत जानकारी है। मैंने कई हिंदी-अंग्रेजी के प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशनों में कई लेख लिखे थे। अभी संगरूर में उनके एक सेमिनार से लौटा हूं, अद्भुत सेमिनार था जहां न कोई ताम-झाम था न कोई विद्वान न शोधार्थी। वक्ता और श्रोता दोनों आंदोलन से जुड़े किसान और उनके नेता थे। महिलाओं की संख्या ज्यादा थी, आंदोलन में भी भागीदारी और मर्द पुलिस दल की बर्बरता झेलने में भी महिलाएं आगे हैं। मुझे आंदोलन के लोग बुलाते हैं तो बहुत सम्मान महसूस होता है, मैंने उनसे कहा भी। सेमिनार का संचालन दलित सामूहिता की सबसे मजबूत कड़ी और शासकवर्गों की आंखो की सबसे बड़ी किरकिरी, बाल्द कलां गांव की लड़की परमजीत कर रही थी, उसकी नेतृत्व क्षमता और वैचारिक परिपक्वता काबिले तारीफ है। ज्यादा बात नहीं हो पायी, उसे एक और सेमिनार में जाना था। उसके बारेनमें लेख में। इन्ही बच्चों में उम्मीदों की कुछ चिनगारियां दिखती हैं जो बनेंगी ही ज्वाला मिल एक-दूजे से एक दिन और फिर दावानल। रिपोर्टनुमा लेख कल लिखूंगा। सुबह-शाम मिलाकर 8 घंटे की रेल यात्राओं और 5 घंटे के सेमिनार तथा संगरूर में बाकी बचे समय में आंदोलन के कुछ युवा नेताओं के साथ चाय की अड्डेबाजी के बाद आंखों में थकान लग रही है। इस आंदोलन की एक और खास बात हमने अपनी रिपोर्ट में रेखांकित किया है, उस आंदोलन की शुरुआत क्षात्रों ने की तथा नेतृत्व में बहुमत युवा लड़के-ल़कियों का है।
08.01.2017
1:18 (अर्धरात्रि)

Friday, January 5, 2018

लल्ला पुराण 175 (जिग्नेश-उमर)

इवि के एक ग्रुप में जिग्नेश मेवानी और उमर की एकसाथ तस्वीर 'ये गंदे चेहरे कौन हैं?' सवाल के साथ पोस्ट की। उस पर मेरा कमेंट:

आप इन्हें जानते नहीं, उमर एक प्रतिभाशाली उदीयमान इतिहासकार है, उसे पढ़ें और इतने छोटे बच्चे की इतनी विशाल अंतर्दृष्टि देख दांतों तले उंगली दबा लेंगे। मेरे ही संसर्ग में वह नास्तिक और मार्क्सवादी बना। जिग्नेश से मैं एक ही बार मिला हूं, ऊना में दलित दमन से उपजे प्रतिरोध को उसने जातिवादी प्रतिरोध होने से बचाकर आर्थिक मांगों से जोड़कर वर्गीय प्रतिरोध का रूप दिया। 'गाय की अपनी पूंछ अपने पास रखो, हमें हमारी जमीन दो'। दर-असल इनके बारे में आपकी जानकारी छीः न्यूज जैसे मृदंग मीडिया चैनलों से प्रसारित अफवाहों पर आधारित है। तत्कालीन पट्टाधारी पुलिस कमिश्नर (रिटायर होते ही यूपीयससी का सदस्य बन गया) ने उमर और उदीयमान इतिहासकार अनिर्बन पर एक ही आरोप लगाया था लेकिन लोगों के दिमाग में इतना सांप्रदायिक जहर भरा है कि वे मुझसे अनिर्बन के नहीं उमर के ही 'देशद्रोह' का हिसाब मांगते हैं।इवि के एक ग्रुप में जिग्नेश मेवानी और उमर की एकसाथ तस्वीर 'ये गंदे चेहरे कौन हैं?' सवाल के साथ पोस्ट की। उस पर मेरा कमेंट:
आप इन्हें जानते नहीं, उमर एक प्रतिभाशाली उदीयमान इतिहासकार है, उसे पढ़ें और इतने छोटे बच्चे की इतनी विशाल अंतर्दृष्टि देख दांतों तले उंगली दबा लेंगे। मेरे ही संसर्ग में वह नास्तिक और मार्क्सवादी बना। जिग्नेश से मैं एक ही बार मिला हूं, ऊना में दलित दमन से उपजे प्रतिरोध को उसने जातिवादी प्रतिरोध होने से बचाकर आर्थिक मांगों से जोड़कर वर्गीय प्रतिरोध का रूप दिया। 'गाय की अपनी पूंछ अपने पास रखो, हमें हमारी जमीन दो'। दर-असल इनके बारे में आपकी जानकारी छीः न्यूज जैसे मृदंग मीडिया चैनलों से प्रसारित अफवाहों पर आधारित है। तत्कालीन पट्टाधारी पुलिस कमिश्नर (रिटायर होते ही यूपीयससी का सदस्य बन गया) ने उमर और उदीयमान इतिहासकार अनिर्बन पर एक ही आरोप लगाया था लेकिन लोगों के दिमाग में इतना सांप्रदायिक जहर भरा है कि वे मुझसे अनिर्बन के नहीं उमर के ही 'देशद्रोह' का हिसाब मांगते हैं।

लल्ला पुराण 174 (समाजवाद)

प्रिय चुंगीजन, मैंने समयांतर के मार्च-नवंबर के 9 अंकों पर समाजवाद के संक्षिप्त इतिहास  (1789-1917) पर एक लेखमाला लिखा है जिसे पुस्तक रूप देने के लिए फुटनोट और संदर्भ पर काम करने का समय नहीं निकाल पा रहा हूं, जल्दी निकालूंगा जो भी साथी पढ़कर राय दे सकें तो आभारी रहूंगा। हर रोज एक लेख शेयर करूंगा।
अगली श्रृंखला (1917-2017) में पहले 2 लेखों में कामिंटर्न और नई आर्थिक नीति पर केंद्रित करने की योजना है उसके बाद के 2-3 लेख स्टालिन कार्यकाल के विकास, पार्टी के अंतर्विरोरोधों और पार्टी नेतृत्व की गलतियों पर केंद्रित करने की। युवा मित्र अरविंद राय हर बात पर, स्टालिन के 'अत्याचारों' का हिसाब मांगते हैं। इतने जटिल मुद्दे पर अफवाहजन्य इतिहासबोध से निकले सरलीकृत सवाल का सरलीकृत जवाब नहीं दिया जा सकता। वैसे मेरे ब्लॉग (RADICAL, www.ishmishra.blogspot.com)में फेसबुक पर मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य के कमेंट 'मार्क्सवाद' शीर्षक की श्रृंखला में संकलित हैं, उनमें कुछ के आगे कोष्ठक में स्टलिन लिखा है। एक वामपंथी ग्रुप में स्टालिन पर घमासानी विमर्श चल रहा है। हमारे एक सीनियर, रामाधीन सिंह ने स्टालिन पर उतने लोगों को मारने का आरोप लगाया जो उस समय का सोवियत संघ की कुल आबादी का 4.75 गुनाव था और रोजा लक्जंबर्ग को 'घसीट-घसीट कर मारा'। युवा क्रांतिकारी नेता और बुद्धीजीव रोजा को 1918 में जेल से छूटने के बाद 1919 में जर्मनी की सोसल डेमोक्रेटिक सरकार के आदेश पर वर्दीधारी गुंडो ने मरकर लाश नहर में फेंक दिया था, लाश कई महीनों बाद मिली। 

साथियों सर्वज्ञ कोई नहीं होता न ही कोई अंतिम ज्ञान होता है उसी तरह जैसे कोई अंतिम सत्य नहीं होता, कभी का अंतिम सत्य कभी असत्य हो जाता है। ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है और स्वस्थ जनतांत्रिक विमर्श उसका एक माध्यम है। महान साहित्यकार ऐंटोनियो चेखव कला-के-लिए कला को अपराध मानते थे, बहस के लिए बहस भी उसी कोटि में आती है। इन लेखों में प्रूफ की गलतियां रह गयी हैं, जो छपें में दूर कर दी गयी हैं। इलाहाबाद में समयांतर आनंद भवन के सामने शबद पुस्तक भंडार पर मिलता है। लेख लंबे हैं। आइए इस मंच को स्वस्थ, जनतांत्रिक विमर्श का माध्यम बनाएं, मैं भी कोशिस करूंगा कि कम-से-कम सठियाऊं।

Wednesday, January 3, 2018

लल्ला पुराण 173 (लवदेहाद)

हर लड़के-लड़की को प्यार करने का अधिकार है, हमारे बेटे-बेटियां मूर्ख नहीं हैं कि कोई उन्हें बहका ले जाएगा। मैंने अपनी बेटियों से कभी नहीं कहा कि जाति-धर्म देखकर प्यार करना तो हमें उनके चुनाव को मानना ही पड़ेगा, न मानकर भी क्या कर लेंगे? ऑनरकिलिंग? मैं तो बेटी की शादी के एक सप्ताह पहले तक अपने होने वाले दामाद की जाति नहीं जानता था सिर्फ इतना जानता था कि एक शरीफ बालक है। शादी का मामला निजी है उसमें किसी भी बहाने सरकार या किसी संगठन का हस्तक्षेप संविधान का उल्लंघन और घोर अमानवीय अपराध है। आपकी बेटी को किसी ईशाई, मुसलमान या बौद्ध से प्यार हो जाए तो आप क्या करेंगे, लव जेहाद रोकने के नाम पर हत्या? व्यक्तित्व की प्रवृत्तियां जन्मजात नहीं होती वरना एक ही मां-बाप के सारे बेटे-बेटियां एक जैसे होते। मैं और मेरे बड़े भाई धुर विरोधी विचारों के हैं। गोंडा में दंगा कराने की नीयत से चोरी से गोहत्या करते पकड़ा गया दीक्षित तो मुसलमान नहीं था तो क्या सारे ब्राह्मणों या दीक्षितों को गोहत्यारा मान लिया जाय? वैसे आपके कमेंट का दूसरा हिस्सा अनायास विषयांतर है और मेरा जवाब भी। एडमिन चाहें तो दोनों कमेंट डिलीट कर सकते हैं।

मार्क्सवाद 102 (स्टालिन)

Damodar India साथी मैं आपकी सारी बातों से सहमत हूं। मैंने ख्रुश्चेव की गद्दारी के लिए स्टालिन को जिम्मेदार नहीं ठहराया बल्कि पूंजीपथगामियों की पहचान न कर पाने और उन्हें शीर्ष नेतृत्व में बने रहने देकर शक्ति अर्जित करने देने की इंसानी गलती के लिए। मैंने पहले ही युवा साथी प्रांशु द्वारा इंगित अपनी गलती मानकर कि ख्रुश्चेव के दुश्प्रचार की लिंक विषयांतर नहीं करना चाहिए। मैं एक साधारण बुड्ढा हूं और निजी आक्षेपों पर फौरी प्रतिक्रिया में यह भूलकर कि 42 साल पहले 20 का था तैश में आ जाता हूं, जो नहीं होना चाहिए था। समाजवाद के संक्षिप्त इतिहास पर समयांतर के लिए 9 लेखों की पहली श्रृंखला में 1789 से नवंबर क्रांति तक ही समेट पाया हूं, अगली श्रृंखला के पहले लेख नई आर्थिक नीति के बाद के कम-से-कम तीन लेख स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ के आर्थिक विकास और स्टलिन के बारे में साम्राज्यवादी दुश्प्रचार पर केंद्रत करने की योजना है। कई बार सोचता हूं इस उम्र में तैश में नहीं आना चाहिए क्योंकि क्रोध हमेशा आत्मघाती होता है। अब से निराधार निजी आक्षेपों को नजरअंदाज करने की कोशिस करूंगा, कितना सफल होऊंगा, कह नहीं सकता। लाल सलाम।