आस्था व्यक्तिगत मामला होता तो अलग-अलग आस्थाओं के नाम पर इतनी उत्पात क्यों? गैलीलियो ने ईशामशीह को गाली नहीं दी थी, सिर्फ यही कहा था कि धरती सूरज के चक्कर करती है, आस्थावानों ने उसे कत्ल कर दिया था। क्यों? सुकरात किसी यूनानी देवी-देवता को गाली नहीं देता था, बस यही कह रहा था कि ज्ञान ही सद्-गुण है, आस्थावानों ने उसे नास्तिकता फैलाने के आरोप में मार डाला। खोमैनी ने गद्दी हासिल करने के बाद तमाम क्रांतिकारियों को मार डाला जिन्होंने अमेरिकी शह की शाह की सल्तन के विरुद्ध सबसे बहादुरी से संघर्ष किया था, वे किसी खुदा या उसके किसी पैगंबर के गाली नहीं दे रहे थे, वैज्ञानिक सोच और समाजवाद की बात कर रहे थे। डोभोलकर, पनसरे, कलबुर्गी, गौरी जिन्हें आस्थावान नरभक्षियों ने मार डाला, वे तर्क और विवेक से अंधविश्वासों, पाखंडों और फिरकापरस्ती की मुखालफत कर रहे थे, किसी धर्म को गाली नहीं दे रहे थे, अब पाखंड के खंडन से किसी की भावनाएं आहत हों या भड़कें तो उन्हें किसी मनोवैज्ञानिक चिकित्सक की मदद लेनी चाहिए। आस्था शब्द ही अधोगामिता का प्रतीक है क्योंकि यह विवेक को पंगु बनाता है। हर मजहब में नस्ली/सांप्रदायिक हैवनियत की संभावनाएं अंतर्निहित हैं। इसलिए मैं कभी 'मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर करना' नारा कभी नहीं लगाता, मजहब आपस में बैर करना ही सिखाता है। आस्थावानों के ही चलते राम रहीम-रामदेव-आसाराम जैसे पाखंडी फूलते-फलते हैं।
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