Wednesday, August 31, 2016

पीठ पर बस्ता और सर पर लकड़ी का बोझ

पीठ पर बस्ता और सर पर लकड़ी का बोझ
चेहरे पर साधने को असंभव पर निशाने का बोध
लड़ते हुए पढ़ेगी पढ़ते हुए लड़ेगी
और बूझेगी बचपन पर बोझ का राज़
करेगी हमला ज़ुल्मत के किले पर
बना कलम को औज़ार-ओ-हथियार
बन योद्धा हिरावल दस्ते की
लगाएगी मेहनतकश को गुहार
धसक जाएगी बुनियाद लूट-खसोट के नजाम की
हाथ लहराते हुए साथ होगी जब ज़ुल्म के मातों की कतार
(ईमि: 31.08.2016)

Tuesday, August 30, 2016

शिक्षा और ज्ञान 72

 Saurabh Malviyaबंद दिमाग ब्राह्मणवादी भक्तों का कोई इलाज नहीं. वैसे भी भक्तिभाव एक लाइलाज रोग है जो रोगी को आजीवन मानसिक विकलांग बना देता हेै. तोते की तरह रट लेता है सत्य नारायण की कथा की तरह जिसमें कथा गायब होती है. इन मूर्खों को यह नहीं मालुम कि आजाद जिस दल के मुखिया थे उसका घोषित वैचारिक आधार मार्क्सवाद है. यहयसआरए का मेनिफेस्टो पढ़ो जिसमें जनसंघर्षों से सर्वहारा की तानाशाही स्थापित करना दल का लक्ष्य बताया गया है. नेच पर उपलब्ध है बम का दर्शन. पढ़ लो. ब्राह्मण से इंसान बनने में अक्षम लोगों की पढ़ने और तर्कशीलता की आदत नहीं होती. शाखा की ड्रिल दिमाग कुंद कर देती है. विषयांतर से विमर्श विकृत करना ब्राह्मणवाद (जातिवाद) की पुरानी चाल रही है. संघियों का इतिहास अंग्रेजों की दलाली का इतिहास है, इनके पास तो सावरकर और गोलवल्कर जैसे खलनायक ही हैं जो माफी मां अंग्रेजी सेना में भर्ती का अभियान चलाते थे और हिंदुओं से आजादी की लड़ाई में ऊर्जा न व्यर्थ कर मुसलमानों और कम्युनिस्टों से लिए संरक्षित करने की अपील करते थे. अफवाहजन्य इतिहासबोध वाले संघी ब्राह्मणवादी अपने खलनायकों का भी लेखन नहीं पढ़ते. गोलवल्कर आजादी की लड़ाई से दूर रह हिटलर के अनुशरण की हिमायत करता है. वि ऑर आवर नेसन डिफाइन्ड पढ़ो, लगता है इतना बड़ा मूर्ख और देशद्रोही जिनका विचारपुरुष है उनका नैतिक-वैचारिक स्तर क्या होगा सोचा जा सकता है. इन जाहिलों के सर पर वामपंथ का भूत मड़राता रहता है, पूछो वामपंथ परिभाषित करो तो सांप सूंघ जाता है जैसे देशद्रोह की परिभाषा पर. सुनो, बंद दिमाग संघियों वर्तमान तो विकृत कर ही रहे हो, इतिहास को बख्स दो. जिस वामपंथ को गालियां दे रहे हो उसकी परिभाषा कर सकते हो?

शिक्षा और ज्ञान 71

Alok Kumar Pandey भाई अपने ही नायकों को हम अपना नायक मानते हैं आपके पास तो सारे खलनायक हैं तो दूसरों के नायकों का भौड़ेपन से संघीकरण करना चाहते हैं. भगत सिंह खुद को मार्क्सवादी लिखते हैं और यचयसआरए का लक्ष्य सर्वहारा की तानाशाही स्थापित करना था. पढ़ने की आदत डालिए आप भी संघी खाई से निकल भागेंगे. भगत सिंह संप्रदायिकता को समाज का कोढ़ मानते हैं. लेकिन संघी की पढ़ने की आदत नहीं होती अफवाह फैलाता है. मैं लिंक देता हूं. आपने तो दीन दयाल और गोलवल्कर को भी नहीं पढ़ा होगा जो मनु को दुनिया का महानतम विधिवेत्ता मानते हैं और मनु दलितों और शूद्रों के बारे में कितना अमानवीय विचार रखता है सब जानते हैं. मैंने पढ़ा है. मैं भगत सिंह का सांप्रदायिकता पर लेख और पूजीवाद की जुड़वा नाजायज औलादों -- आरयसयस और जमातेइस्लामी का तुलनात्मक लेख का भी लिंक देता हूं. वही पढ़ लीजिए तो पता चल जाएगा हिंदुओं को आजादी की लड़ाई से दूर रहने की सलाह देने वाले पपू गुरू जी का मानसिक स्तर क्या था?

शिक्षा और ज्ञान 70

@ Arvind Rai मैं जानता नहीं कि त्रिभुवन का लेख क्या है.अफवाहें और गाली गलौच नहीं पढ़ता. तरस आती है इतना सीनियर डॉक्टर होकर तुच्छ फरेब करता ह फेसबुक पर बहुत समय नष्ट हो जाता है. त्रिभुवन हर संघी की तरह अफवाहें फैलाते हैं क्योंकि पढ़ने की न तो उनका प्रशिक्षण होता है न आदत. मुझे निकालने का आशय यह भी है कि मेरी पोस्ट लाइक करने वाले या न जाने का आग्रह करने वाले लोग उनके मकड़जाल से छटक न जाएं. मुझे तुमसे उम्मीदें हैं इसी लिए समय खर्च कर रहा हूं नहीं तो प्रमाण मांगिए. पहले आखिरी बात से शुरू करता हूं. मेरे मन में कोई कुंठा नहीं है, न चोट खाया हूं. भूमिहार से इंसान बनने की बात मुहावरे के रूप में करता हूं, यह तो सिर्फ आपसे कहा बाकी तो आपने देखा मैं कितनी बार खुद के बाभन से इंसान बनने की बात कर चुका हूं. संस्कार में मिली नैतिकता को विवेकसम्मत नैतिकता से विस्कीथापित करने जरूरत पड़ती है. दिमाग का मुक्त इस्तेमाल. इसके लिए ईमानदारी से आत्मावलोकन करना पड़ता है. सोचिए अगर मैं 100 मीटर उत्तर पैदा होजाता तो अलग इंसान होता? बाभन से इंसान बनने के मुहावरे का मतलब है, जन्म की जीववैज्ञानक दुर्घटना की अस्मिता से ऊपर उटकर एक चिंतनशील व्यक्ति की अस्मिता का निर्माण. अगर बाभन होना व्यक्तित्व निर्माण का कारक होता तो मिश्र, पांडे, अवस्थी, तिवारी आदि सारे बाभन गालियों की कटार लेकर मेरे पीछे क्यों पड़ जाते? आज का आखिरी ब्लॉक एक ओछा बभनपिल्ली है जो माकंडे के बिहाफ पर मेरे बुढ़पे पर लानत भेज धमकाने आया था और मैं भगवान और भूत से नहीं डरता और कुत्तों और गुंडों को खदेड़ता हूं. आप कहां पैदा हो गये उसमें आप का क्या हाथ है? कहीं भी पैदा होकर आप क्या करते हैं यह महत्वपूर्ण है. जो भी कहता है जातिवाद अंग्रेजों की देन है, वह धूर्त है या जाहिल. मैं 61या हुआ आवारा हूं कई पूर्णकालिक काम करता हूं, आवारा; ऐक्टिविस्ट; शिक्षक; लेखक; कवि (किसी मे 19 नहीं) तो हर बात मुझसे विस्तार से हर बात मत पूछिए, खुद पता कीजिए. इससे बौद्धिक आत्मविशास बढ़ेगा और फिर कोई आपको कह देगा कि यह वामपंथी विकृति है तो फिर आप मुझ पर टूट पड़ेंगे. 'अनगत्तरा निकाय' और 'दीघनिकाय', 'कौटिल्य के अर्थशास्त्र' के पहले के संकलित बौद्ध ग्रंथ है. अनेक कहानियां हैं जिनमें भिक्षु ब्राह्मणों का मजाक उड़ाते हुए कहते हैं कि ब्राह्मण कितने मूर्ख हैं कि समाज को ऊंच-नीच में बांटकर खुद को समता के सुख को वंचित रखते हैं. कौटिल्य के अर्थशास्त्र के "दुर्ग निवेश" खंड में कहा गया है कि शूद्रों को नगर के एक कोने में बसाया जाय जिससे उनकी दुर्गंध नगर में न फैले. अंत्यजों को नगर के बार. आरपी कांगले और यलयन रंगराजन के अनुवाद (अंग्रेजी) बहुत अच्छे हैं. चलिए मूल ग्रंथ नहीं पढ़ना चाहते तो प्राचीन भारत के एक महान इतिहासकार आरयस शर्मा की 'Perspectives on Idea and Institution in Ancient India' का सातवां अध्याय है "Saptang Theory in Kautilya;s Arthshastra" इस अध्याय का एक खंड है 'दुर्ग', 3-4 पेज होगा, पढ़ लें. वैसे "बाभन से इंसान बनने का मुहावरे के मौलिक रचइता शर्मा जी ही हैं.(दिवंगत शर्माजी दिवि में प्रोफेसर थे)1986 (रिटायरमेंट के 2 साल पहले) राजधानी से पटना जाते हुए सुखद संयोग से उनकी बगल में मेरी बर्थ थी. मैं तो पहले से जानता था. वे पटना अपने घर जा रहे थे और मैं अरवल दनसंहार की फैक्ट फाइंडिंग में. हमारी दोस्ती हो गयी उन्होने प्राचीन भारत में राज्य के उदय पर हस्ताक्षर युक्त पुस्तक भेट किया. बात चीत में उन्होंने कहा, "अरे यार हमारा समाज ऐसा जड़ है कि मानने को तैयार ही नहीं होता कि मैं स्टूडेंट लाइफ में ही भूमिहार से इंसान बन गया था" मैने कहा " सर मैं भी बाभन से इंसान बन गया हूं." हम दोनों खूब हंसे. मुझे लगा इतना बड़ा आदमी इतना सहज, लेकिन बड़ा आदमी सहज होता ही है. माफ करना शर्माजी की याद आ गई और लंबे फुटनोट में फंस गया. मनुस्मृति में साफ लिखा है कि शूद्र और औरत गलती से भी वेदमंत्र सुन लें तो उनके कान में पिघलता सीसा डाल देना चाहिए. "बचपन में उसे पिता के आधीन रहना चाहिए, शादी के बाद अपने स्वामी के और स्वामी की मौत के बाद अपने बच्चों के. एक औरत को कभी आजाद नहीं होने देना चाहिए". तुलसी की चौपाई "ढोल, गंवार शूद्र, पशु नारी, ये सब तोड़न के अधिकारी" तो सर्वविदित है. किसी बात के बारे में लिखा तब जाता है जब उसका अस्तित्व होता है. ये सब अंग्रेजों के पहले के हैं. मेरे बचपन में जाति की यही व्यवस्था थी. हमारे बाप-दादा चमरौटी नहीं जाते थे मजदूर बुलाने, दूर से गाली देकर बुलाते थे कि इतनी दिन निल आया और आए नहीं. जो भी कुछ कहे उसका प्रमाण मांगो. जिसका प्रमाण नहीं वह असत्य है. त्रिभुवन जैसे लोगों को पता नहीं क्या मिलता है, अफवाहों से माहौल विसाक्त करने में. पढ़ना शुरू करो.( मनुस्मृति, ऋगवेद सबह नेट पर उपलब्ध हैं), सोचना शुरू करो और भूमिहार से चिंतनशील इंसान बनने की प्रक्रिया शुरू कर दो. मैं राष्ट्रोंमाद पर लेख बीच में छोड़कर तुम्हारा जवाब दिया. किसी की या मेरी बात से राय मत बनाओ. तथ्यान्वेषण करो, नहीं तो आगे से जवाब नहीं दूंगा. शुभाशिष.

Monday, August 29, 2016

आज़ाद और भगत सिंह

एक स्वघोषित दक्षिणपंथी पत्रकार ने पुलिस से छिपकर लाहौर से निकलने के लिए कीर्तनमंडली के सदस्य का भेष बदले आज़ाद के जनेऊ वाली तस्वीर के ज़िक्र से मजाक बनाते हुए लिखा कि वामपंथियों का बस चलता तो आजाद को भी कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पकड़ा देते, पढ़ने लिखने से परहेज न होता तो संघी जान पाता कि आज़ाद एक ऐसे दल के मुखिया था जो मार्क्सवाद के सिद्धांतों पर आधारित था. उस पर यह कमेंट:

मान्यवर, शहीद चंद्रशेखर जैसे इतिहास क्रांतिकारी को कठमुल्ला बताने के पहले थोड़ा ऐतिहासितकतथ्यान्वेषण कर लेना चाहिए. चंद्रशेखर आजाद उतने ही क्रांतिकारी थे, जितने भगत सिंह. भगत सिंह लेखक भी थे आजाद नहीं. पुलिस को चकमा देने के लिए उनकी छद्मभेष की तस्वीरों से उनके व्यक्तित्व का चित्रण, इन महान क्रांतिकारियों के अपमान के साथ, इतिहास को विकृत करने का अपराध है. न तो भगत सिंह शूट-बूट वाले साहब थे न आजाद ब्राह्मणवादी कठमुल्ले जैसा आप साबित करना चाह रहे हैं.1928 में बढ़ती उपनिवेशविरोधी भावनाओं को देखते हुए, 1922 में गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद शचींद्र सान्याल के नेतृत्व में 1923 में गठित "हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी"(यहआरए) के नेतृत्व ने दल को सामाजवादी आयाम देने के लिए पुनर्गठन का निर्णय लिया. 7-8 अगस्त को फिरोज शाह कोटना में नए दल का स्थापना सम्मेलन हुआ जिसमें हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का नाम बदल कर 'हिंदुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएसन'(यचयसआरए) रखा गया. घोषणा पत्र, 'बम का दर्शन' शहीद भगवती चरण वोहरा तथा भगत सिंह ने तैयार किया जिसमें हिदुस्तान के कामगारों को विदेशी-देशी शोषकों-उत्पीड़कों से मुक्त कर "सर्वहारा के तानाशाही" की बात की गयी है. काकोरी कांड के आरोपी, आजाद भूमिगत थे तथा सम्मेलन में भागीदारी नहीं किए. आजाद की अनुपस्थिति में, उनके अनुभव, समझ और संगठन क्षमता को देखते हुए उन्हें नए दल का 'कमांडर' चुना गया. घोषणापत्र आजाद से विस्तृत बहस के बाद उन्ही (बलराम छद्म नाम) के हस्ताक्षर से जारी किए गया. हां, यह जरूर है कि दल के नाम और विचारधारा में परिवर्तन, उपनिवेशविरोधी कार्यक्रम के साथ देश में समाजवाद के निर्माण का भी कार्यक्रम शामिल हो गया. हां इतना जरूर है कि दल की समाजवादी दिशा के पीछे भगत सिंह का प्रभाव था. काकोरी कांड और उसके मुकदमें के दौरान, भगत सिंह के प्रयोसों में पंजाब, बंगाल, बिहार जैसी कई जगहों पर छोटे-छोटे क्रांतिकारी संगय़नों/समूहों का उभार हुआ. इन दलों के साथ मिलकर यचआरए ने उपरोक्त सम्मेलन आयोजित किया था. 1923 में व्ययापक पैमाने पर वितरित यचआरए के घोषणा पत्र में एक ऐसा निजाम कयम करने की बात की गयी है स्काथापना की बात की गयी है जिसमें "मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण असंभव बना दिया जाएगा". यचआर केो इस समाजवादी रुझान ने यचयसआरए में मार्क्सवादी रूप ले लिया. इसका लक्ष्य जनसंघर्षों से, "सर्वहारा की तानाशाही" स्थापित करना तथा "परजीवी शासकों की बेदखली" हो गया. इसने अपने को जनसंघर्षों की अग्रिम पंक्ति में जनता के सशस्त्र दस्ते के रूप में पेश किया. जिसका काम था शब्दों और कार्रवाइयों द्वारा क्रातिकारी जनचेतना का प्रसार. इसके आदर्सशअन्य आंदोलनों -- कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियनों की कार्रवाहिओं तथा ग्रामीण किसान आंदोलनों -- में भी परिलक्षित होने लगे. भगत सिंह के अनुरोध पर दल ने साइमन कमीसन के काफिले पर बम फेंकने का निर्णय लिया था.भगवती भाई और भगत सिंह दल के मुख्य सिद्धांतकार थे. लेकिन कोई भी दस्तावेज बिना आजाद की व्यापक विमर्श तथा सहमति के बिना नहीं जारी होता था.

सांडर्स हत्या के बाद पुलिस को इनके अड्डे का पता चल चुका था. भगत सिंह और सुखदेव भगवती भाई के घर आए. भगत सिंह ने अपने बाल कटवाकर हैट पहन लिया था. आनन-फानन में लाहोर से पुलिस को चकमा देकर निकलना था. भगवती चरण वोहरा की पत्नी, दुर्गा भाभी (मैंने 1987 में दुर्गा भाभी का एक पत्रिका के लिए इंटरविव किया था) और गोद में उनका नवजात बेटा सचिन मेम साहब बन गयीं. जल्दी-जल्दी सामान बांध तांगा मंगा 'साहब-मेम साहब' के दो चिकट और 'नौकर' राजगुरु का सर्वेंट क्लास का टिकट ले, 500 से अधिक पुलिस वालों को चकमा देकर तीनों कलकत्ता चल दिए. एकमात्र उपलब्ध भगत सिंह की वह तस्वीर पुलिस को चकमा देने के छद्मभेष की है. उस तस्वीर से भगत सिंह को 'साहब न मानें. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गोलवल्कर भगत सिंह और गांधी की, आंदोलन की दोनों धाराओं को अंधकार लके गर्त निकली बताता था और आरयसयस का उद्देश्य देश को गौरव छिखर पर ले जाना है. फासीवादी अपरिभाषित शब्दावली में फरेब करता है. उसने कभी नहीं बताया कि वह गौरव का शिखर है क्या? हरिश्चंद्र का सतयुग, जहां इंसानों की खरीद-फरोख्त की खुली बाजार थी? या त्रेता जहां एक शूद्र, संबूक की तपस्या से ब्रह्मांड हिल जाता है और हनुमान, भरत जैसे चेलों को भेजने की बजाय महाराज राम खुद उसका बध करने निकल पड़ते हैं? या द्वापर, जहां एक दरबारी गुरू एकलब्य की तीरंदाजी से आतंकित हो उसका अंगूठा काट लेता है? फासीवादी परिभाषा नहीं करता लोगों की भावनाओं को दोहकर उल्लू सीधा करता है. इन्होने भगत सिंह के भी संघीकरण का प्रयास किया, लेकिन उनके लेखन ने उन्हें बचा लिया. आजाद भेष बदलने में माहिर थे. काकोरी कांड में पुलिस उन्हें नहीं पकड़ पाई थी. उन्होने एक आस्थावान ब्राह्मण का भेष धर ढोल मृदंग बजाती जा रही एक कीर्तन मंडली में मिल गए, पुलिस उनका सुराग न पा सकी. बड़ी कृपा होगी यदि छद्म भेष में जनेऊधारी क्रांतिकारी को पोंगापंथी ब्राह्मण साबित करने की कोशिस कर एक मार्क्सवादी सिद्धांतो पर आधारित दल के मुखिया और महान शहीद का और इतिहास का इतना भयंकर अपमान न करें. आभारी रहूंगा.

फुटनोट 73 (ब्राह्मण)

Arvind Raiसार्वजनिक बाते हर सार्वजनिक जगह होनी चाहिए. मैं एक लेखक हूं. कला कला के लिए अपराध है. मैं तफरी के लिए नहीं लिखता. अपना हर बड़ा कमेंट अपनी वाल पर पोस्ट करता हूं और ब्लाग में सेव करता हूं, भविष्य के लेखन की सामग्री के रूप में. नाम के साथ इसलिए पोस्ट करता हूं कि पाठक को लगे कि यह मौलिक पोस्ट नहीं, किसी पोस्ट पर कमेंट है. यह कमेंट भी पोस्ट करूंगा. ग्रुप के इस अनुभव पर तो एक लंबा लेख लिखूंगा. एक बार पहले निकाल कर भरती करना. जिसने भरती किया उसकी गलती है क्योंकि उसे मालुम है कि मैं कौन हूं और क्या लिखता हूं. 2 ही दिनों में मुझे 8 लोगों को ब्लॉक करने पर मजबूर होना पड़ा. मैं उन्ही को ब्लॉक करता हूं जो विषय से इतर ऊल-जलूल बातों में समय नष्ट करते हैं या मेरे बारे में ऐसी ऐसी जानकारियां देने लगते हैं जो मेरे लिए अन्यथा दुर्लभ होतीं. मैं अपना अन्वेषण स्वयं करना चाहता हूं, दूसरों के माध्यम से नहीं. बेहतर होता कि मैं इन बंद दिमागों को नज़र- अंदाज करता. लेकिन जैसा कि मेरे साथ अक्सर होता है कि भूल जाता हूं कि 41 साल पहले 20 साल था और इनकी भाषा की तमीज का श्रोत पूछ बैठता हूं.. त्रिभुवन सिंह के बजरंगीर तो ऐसे त्रशूल-तलवार तेज करके दौड़ पड़े जैसे देवलोक में कोई महिषासुर (महिषासुर पर एक किताब की समीक्षा करनी है) आगया हो. तुमलोगों के लिए तो काफी उपयोगी पाठ्य सामग्री छोड दिया था लेकिन मुझे चोरों की तरह बिन बताए निकाल कर ग्रुप(लल्ला की चुंगी) के बाकी लोगों को भी वंचित कर दिया. मुझे एक सुंदर सा विदागीत लिखकर स्व-निष्कासन के सुख से वंचित कर दिया.I am used to carrying a bit rustic-intellectual arrogance and say, "loss is yours". बहुत जनतांत्रिक हैं आप लोग? एक पोस्ट को 21 लोग पसंद करते हैं, 4-5 लोग गाली गलौच करते हैं. गाली-गलौच करने वाला कोई ऐडमिन या उसका आदमी होता है जो "सर्वसम्मति" से चोरी से बिन बताए निकाल देता है. वैसे उसका शुक्रगुजार हूं कि और भी कीीमती समय भैंस को बीन सिखाने में बर्बाद होने से बचा दिया. बहुमत हमेशा सज्जनता का होता है लेकिन सज्जनता के बहुमत की आपराधिक चुप्पी दुर्जनता के अल्पमत को खेल बिगाड़ने का मौका देती है. कोई् मेरी अंत्येष्टि की विधि जानना चाहता है तो कोई मेरे दिवंगत पिता की. जैसे इन्हे पक्का पता हो कि ये मेरे पहले नहीं मरेंगे. इनसेसे पूछ दिया कि भाषा की तमीज शाखा में सीखा, मां-बाप से या विवि में? इसमें कौन सी गाली हो गयी? यदिआप इस सवाल को गाली मानते हैं तो मतलब हुआ कि खुद भी अपनी भाषा की तमीज पर आश्वस्त नहीं हैं. मुझसे पूछिए यह सवाल. मैंने अपनी सदाकत लिखने की जुर्रत की बेबाक भाषा की तमीज अपने कॉमरेडों के साथ पढ़ते-लड़ते-बढ़ते सीखा. बां-बाप से सीखी तमीज 13 साल में जनेऊ तोड़ने के साथ भूलना शुरू कर दिया था यानि ब्राह्मणवादी संस्कारों से विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था. गाली-गलौच संघी अतिवादियों का काम है, मेरा. नहीं मैंने किसी पर निजी आक्षेप नहीं लगाया. मैंने पहले ही आग्रह किया था कि मेरे विचारों पर बात करें निराधार निजी आक्षेप नहीं. लंपट को लंपट कहना गाली नहीं होता. वैसे मैंने किसी को लंपट नहीं कहा, सिर्फ इतना कहा कि विमर्श में विषयांतर बौद्धिक लंपटता है. लल्ला चुंगी पर 2 दिन के अनुभव पर लेख की बात फ्री प्ररे से हो गयी है. छपने के बाद शेयर करने में जो लोग उसमें जो टैग हो सकते हैं कर दूंगा. सारे चरित्र बेनाम रहेंगे.

बाकी मैंने तो आप में कभी समय निवेश की सोचा था. मैं आपको गाली क्यों दूंगा? बस बढ़-लिख कर, दिमाग इस्तेमाल करना सीख कर भूमिहार से इंसान बनने की प्रक्रिया शुरू कर दें अपनी उपलब्धि मानूंगा और आपका एहसान. शिक्षक हूं बच्चों को पढ़ाता हूं, गरियाता नहीं.
पुनश्च: चाहो तो चुंगी पर कॉपी पेस्ट कर सकते हो.

फुट नोट:
"संयोग से" मुझसे ब्राह्मणवाद की आलोचना करते हुए नाम में मिश्र पर आपत्ति करने वाले, विप्र जैसी बेहूदी गाली देने वाले और मेरी ब्लॉक लिस्ट को सुशोभित करने वालों में ज्यादातर/सभी मिश्रा/पांडे/तिवारी-त्रिपाठी/अवस्थी/शुक्ला .. ही हैं

Saturday, August 27, 2016

बेतरतीब 10

चुंगी के सदस्यों को अपना परिचय:

1. भूमिका

मणि बाला​ तुमने एक कमेंट में कहा था कि सब लोग मेरे बारे कुछ-कुछ जानते हैं तुम सिर्फ यह जानती हो कि मैं  एक शिक्षक हूं, वैसे तो यही मेरा संपूर्ण परिचय है. लोग तो मेरे बारे में ऐसा भी बहुत कुछ जानते हैं जो मैं भी नहीं जानता. हा हा. आत्मावेषण जिंदा कौमों की उसी तरह निरंतर प्रक्रिया है जिस तरह मुर्दा कौमों की विकल्पहीनता. श्री Markandey Pandey​ जी का आभार कि उन्होंने (मेरे ख्याल से) मुझे दुबारा इस ग्रुप में भर्ती किया कि इलाहाबादियों से मेरा विमर्श होता रहेगा. बहुत से वोगों ने उनकी इस घोषणा का स्वागत किया. मैंने जीवन के 17-21 वर्ष(नैनी में बिताए कुछ वक्त समेत)का महत्वपूर्ण भाग इलाहाबाद में बिताया है. मैं जो हूं (जैसा भी), उसकी बुनियाद इलाहाबाद में पड़ी जिस पर भवन जेयनयू में खड़ा हुआ. पांडेय जी ने जोड़ लिया तो, जंह-जंह पांव पड़ें संतन के तंह-तह बंटाधार. वास्तविक दुनिया के कामों से समय चुराकर काफी वक्त यहां लगा दिया. किंतु मैं समय निवेश करता हूं नष्ट नहीं. हो सकता है एकाध लोगों की आस्था डिगकर तर्क का सहारा मांगे. आज तक पर गाय पर हाथ फेरने से रक्तचाप की बीमारी से मुक्ति और गोमूत्रपान से कैंसर से मुक्ति की गडकरी की घोषणा से प्रेरित गोमाता पर ताजी कविता डाल  दी, जरा निजी आक्षेपों के कमेंट्स देखो. कोई मेरी उम्र का लिहाज करके ज्यादा बुरा नहीं कहता तो कोई मेरी अंत्येष्टि की क्रिया पूछता है तो कोई मेरे पिताजी की. जोहरा बेगम जो हाल में दिवंगत हुईं, उनसे एक पत्रकार ने (1992-93 के आसपास) पूछा कि इस उम्र में उन्हें मौत का डर नहीं लगता तो उन्होने उससे पूछा कि वह जानता है कि वह उनसे पहले नहीं मरेगा? इन कुसंवेदनशील बंद दिमागों के ऊपर समय बर्बाद करना मूर्खता है इस लिए मैं अदृश्य कर देता था. अरे भाई मेरे विचारों का खंडन-मंडन करो, सीधे मेरी मौत पर मत पहुंचो क्योंकि आपको भी नहीं मालुम है कि आप मुझसे पहले नहीं मरेंगे. मैं तो 135 साल जिऊंगा और जब तक जिऊंगा, जो सच लगे वह कहूंगा, उसके लिए अड़ूगां लड़ूंगा. न भगवान से डरता हूं न भूत से, न ही मौत से, गुंडों मवालियों से तो बिलकुल नहीं, मैं अपनी दिवंगत मां को ही मानता था और अब मातृविहीन हूं. किसी गाय, भैंस, बकरी को मां नहीं मानता न बैल-भैंसे को बाप. ये उपयोगी पशु हैं. बैल का तो अब कोई उपयोग भी नहीं रहा. गोमाता पर मेरी कविता से उत्तेजित लोग बौखलाहट में कभी मेरे सिर में गोबर भरते हैं तो और क्या क्या? दर-असल इन लोगों ने पढ़ना-लिखना बंद कर दिया है तो विषय पर बोलने में अक्षम निजी आक्षेपों से विषयांतर कर विमर्श को विकृत करते हैं. ऐसे कुछ ही होते हैं. बहुमत हमेशा सज्जनों का होता है लेकिन बहुमत सज्जनता की आपराधिक चुप्पी अल्पमत दुर्जनता को वर्चस्व का अवसर मिल जाता है.

शुरू किया था तुम्हें परिचय बताने कि एक पैराग्राफ परिचय के परिचय में चला गया. अगला भाग भोजनोपरांत अगली पोस्ट में.

चुंगी के सदस्यों से परिचय 2 
1. भूमिका  (भाग 2)
बचपन में पूरे गांव में मेरी बहुत अच्छे बालक की छवि थी उस छवि को निखारने के लिए मैं और अच्छा बनने की कोशिस करता. 8वीं में स्कूल में एक टीचर बच्चों से पूछ रहे थे कि कौन क्या बनना चाहता है? कोई दरोगा कोई बीडिओ कोई और ऐसा ही कुछ. मुझे ये सब बनना उपयुक्त न लगा. मैंने कहा मैं अच्छा आदमी बनूंगा. अच्छा करने से अच्छा बना जाता है. अच्छा करने के लिए जानने की जरूरत है कि अच्छा क्या है? जवाब दिमाग लगाने से मिलेगा. तब से मैं बचपन की तुलना में लगातार अच्छा बनने की कोशिस करता रहा. लेकिन बहुत लोगों का किसी और का अच्छा होना खलने लगता है. मैं जब 28 साल की उम्र में बाप बना तो सोचने लगा अच्छा बाप कैसे बनूं, मैं तो जन्मजात आवारा हूं (इसीलिए मेरा कलम भी आवारगी में कविता लिखने लगता है). गणित का विद्यार्थी रहा हूं, अध्ययन में ऐतिहासिक पद्धति के साथ विश्लेषणात्मक, इंडक्टिव तथा डिडक्टिव  पद्धतियों  का भी इस्तेमाल करता हूं. मैंने 3 सूत्री फॉर्मूला तैयार किया तथा अपने बचपन के अनुभवों की दुनिया में विचरणकरण कर उनका पुष्टिकरण किया. 
1. उनके साथ जनतांत्रिकता, पारदर्शिता और मित्रवत समानता का व्यवहार. (treat them democratically, transparently and at par as a friend). समानता एक गुणात्मक अवधारणा है; मात्रात्मक इकाई नहीं. 
2. अतिसय परवाह; अतिशय संरक्षण; अतिशय चिंता; और अतिशय अपेक्षा से उन्हें उत्पीड़ित न करें. (Don't torture them with over caring; and over expecting). तमाम मां-बाप अज्ञान में अपनी अपूर्ण इच्छाएं बच्चों पर थोपकर उनकी नैसर्गिक सर्जनात्कता को कुंद कर देते हैं. 
3. बाल अधिकारों तथा बालबुद्धिमत्ता का सम्मान करें. हम बच्चों का सोचने का हक ही हड़प लेते हैं. कभी आप भौंचक रह जाते हैं बच्चों की कई मौलिक बातों पर. उस मौलिकता को प्रोत्साहन चाहिए अनुशासन के नाम पर उनका दमन नहीं. 

मेरी बेटियां बड़ी हो गयी हैं, मेरी दोस्त हैं और हम तीनों को एक दूसरे पर फक्र है. कहने का मतलब मैं अच्छा बच्चा था और लगातार और अच्छा बनने की कोशिस में जितना अच्छा बच्चा था उससे तो अच्छा ही बुड्ढा होऊंगा. संयोगों की दुर्घटना से विवि में स्थाई नोकरी मिल गयी जिसके बारे लोग कहते हैं कि देर से नौकरी मिली मैं कहता हूं सवाल उल्टा है मिल कैसे गई? वास्तविक दुनिया और आभासी दुनिया से निष्कासनों का मेरा रिकॉर्ड बहुत अच्छा है. और अकड़ कर सोचता हूं नुक्सान उन्हीं का है. हा हा. वास्तविक दुनिया के निष्कासनों की कहानी फिर कभी. फेसबुक की आभासी दुनिया में सबसे अधिक इलाहाबाद के ग्रुपों से निष्कासित हुआ हूं. प्रयाग कुटुम्ब; प्रयाग की माटी; लल्ला की चुंगी; तफरीहगाह या ऐसा ही कुछ (Pushpa Tiwari​ जी सही नाम बता सकती हैं);Alumni of university  of Allahabad. मुझे लगता है लोग नाम के आगे पीछे क्रमशः प्रोफेसर और मिश्र देखकर जोड़ लेते हैं और प्रोफेसरी तथा मिश्रपन के कोई लक्षण न पा निकाल देते हैं. 

दूसरी पोस्ट भी भूमिका का ही विस्तार हो गयी. तीसरी मैं परिचय शुरू करता हूं. इस बहाने आत्मकथा की सामग्री में बढ़ोत्तरी होती रहेगी.
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Thursday, August 25, 2016

शिक्षा और ज्ञान 69

जन्म के अाधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलभूत सिद्धांत है जो भी ऐसा करता है वह ब्राह्मणवाद के फंदे में फंस कर वर्ग-द्रोही की भूमिका निभाता है. इतिहास के अंधों को नहीं दिखाई देता कि शासक जातियां ही शासक वर्ग रही हैं. वर्ण-व्यवस्था के शुरुआत से ही इसका विरोध भी होता रहा है. विरोध की लहर भी सदा मुख्यधारा रो तोड़ते हुए उससे ही निकलती है.जिन्हें साज के बौद्धिक संसाधनों की सुलभता होती है वही इतिहास की जटिलता को समझ कर वैकल्पिक दर्शन देते रहे हैं, कबीर-रूसो सरीके् अपवादों को छोड़कर. रामायण-महाभारत-मनुस्मृति में जिन भौतिकवादियों -- लोकायत-चारवाक परंपरारा -- को गालियां दी गयी हैं उन्हें नास्तिक ब्राह्मण भी कहा गया है. अब जब शासित वर्गों को बौद्धिक संसाधन सुलभ हैं तो उसका उपयोग मिथ्याचेतना के तहत वर्गीय लामबंदी विकडत करने में कर रहा है. शालू 'मिताक्षरा' -- अापकी पार्टी के सारे शीर्ष नेता सवर्ण रहे हैं, क्या सीयम-वीयम-डीबी सभी छद्म कम्युनिस्ट रहे हैं तथा कॉरपोरेटी दलाली वाले माया-मुलायम क्रांतिकारी?. कितनी प्रसन्नता होती यदि सारे बाभन बाभन से इंसान बन दो कदम अागे जाकर कम्युनिस्ट बन जाते. लेकिन ज्यादातर दुर्भाग्य से बाभन से इंसान नहीं बन पाते तथा सत्ता के दोने चाटने के लिए कभी मोदी भक्त बन जाते हैं या फिर मुलायम-माया के. मुलायम के लंबरदार राजा भैया-हरिशंकर तिवारी हैं तो माया के शशांकशेखर-सतीश मिश्र तथा भदोही का लंपट रंगनाथ मिश्र. जो जीववैज्ञानिक दुर्घटना से ब्राह्मण हो गया है उसे भी इतिहास समझने-बदलने का हक़ है. शासकवर्ग अपनी एकता बनाये रखने तथा शासितों को खानों में विभाजित करने की नीति अपननाता है. पूंजीवाद ने हिंदू जातिव्यवस्था की तर्ज पर मेहनतकश (जो भी श्रम बेचकर रोजी कमाता है) को इतने खानों में बाँट दिया है कि लगभग हर किसी को अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल जातता है. प्रति वर्चस्व वर्चस्व की समस्या का विकल्प नहीं है, विकल्प वर्चस्व का विनाश है.

मार्क्सवाद 25

जन्म के अाधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलभूत सिद्धांत है जो भी ऐसा करता है वह ब्राह्मणवाद के फंदे में फंस कर वर्ग-द्रोही की भूमिका निभाता है. इतिहास के अंधों को नहीं दिखाई देता कि शासक जातियां ही शासक वर्ग रही हैं. वर्ण-व्यवस्था के शुरुआत से ही इसका विरोध भी होता रहा है. विरोध की लहर भी सदा मुख्यधारा रो तोड़ते हुए उससे ही निकलती है.जिन्हें साज के बौद्धिक संसाधनों की सुलभता होती है वही इतिहास की जटिलता को समझ कर वैकल्पिक दर्शन देते रहे हैं, कबीर-रूसो सरीके् अपवादों को छोड़कर. रामायण-महाभारत-मनुस्मृति में जिन भौतिकवादियों -- लोकायत-चारवाक परंपरारा -- को गालियां दी गयी हैं उन्हें नास्तिक ब्राह्मण भी कहा गया है. अब जब शासित वर्गों को बौद्धिक संसाधन सुलभ हैं तो उसका उपयोग मिथ्याचेतना के तहत वर्गीय लामबंदी विकडत करने में कर रहा है. शालू 'मिताक्षरा' -- अापकी पार्टी के सारे शीर्ष नेता सवर्ण रहे हैं, क्या सीयम-वीयम-डीबी सभी छद्म कम्युनिस्ट रहे हैं तथा कॉरपोरेटी दलाली वाले माया-मुलायम क्रांतिकारी?. कितनी प्रसन्नता होती यदि सारे बाभन बाभन से इंसान बन दो कदम अागे जाकर कम्युनिस्ट बन जाते. लेकिन ज्यादातर दुर्भाग्य से बाभन से इंसान नहीं बन पाते तथा सत्ता के दोने चाटने के लिए कभी मोदी भक्त बन जाते हैं या फिर मुलायम-माया के. मुलायम के लंबरदार राजा भैया-हरिशंकर तिवारी हैं तो माया के शशांकशेखर-सतीश मिश्र तथा भदोही का लंपट रंगनाथ मिश्र. जो जीववैज्ञानिक दुर्घटना से ब्राह्मण हो गया है उसे भी इतिहास समझने-बदलने का हक़ है. शासकवर्ग अपनी एकता बनाये रखने तथा शासितों को खानों में विभाजित करने की नीति अपननाता है. पूंजीवाद ने हिंदू जातिव्यवस्था की तर्ज पर मेहनतकश (जो भी श्रम बेचकर रोजी कमाता है) को इतने खानों में बाँट दिया है कि लगभग हर किसी को अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल जातता है. प्रति वर्चस्व वर्चस्व की समस्या का विकल्प नहीं है, विकल्प वर्चस्व का विनाश है.
25.08.2016

शिक्षा और ज्ञान 68

अारक्षण शिक्षा के जनतांत्रिककरण में सकारात्मक भूमिका निभा रहा है जिसका असर प्रशासन-राजनीति पर पडना लाजमी है. शिक्षा में 100 फीसदी सवर्ण अारक्षण का अंत औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली का एक उपपरिणाम था जिसने जन्मना प्रतिभा का मिथक तोड़ दिया. शासक वर्ग की सुधारात्मक कार्रवाइयां ऐतिहासिक कारणों से संचित जनाक्रोष की धार को कुंद करने की रक्षात्मक कार्रवाइयां होती है. शिक्षा तथा शासन-प्रशासन एवं भ्रष्टाचार का लोकतंत्रीकरण और जातीय वर्चस्व की सैद्धांतिक समाप्ति इसके सकारात्मक उपपरिणाम हैं. अारक्षणवाद की राजनीति से वर्गीय लामबंदी में बिघ्न-बाधा इसका नकारात्क उपपरिणाम है. यह सुधार भी भक्तों के गले की हड्डी बना हुआ है. विश्वबैंक की योजना के तहत स्कूली शिक्षा की तरह उच्च शिक्षा को पूर्ण व्यावसायिक बनाने की नई शिक्षा नीति आरक्षण को निष्प्रभावी कर देगी. पैसा फेंको तमाशा देखो. संभावित वर्गीय ध्रुवीकरण इसका संभावित सकारात्मक उपपरिणाम है. आरक्षण को निष्प्रभावी होने से रोकने के लिए इस शिक्षानीति के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी व्यापक लामबंदी की जरूरत है.
(25.08.2015)

Wednesday, August 24, 2016

क्षणिकाएं 59 (801-810)

801
आवारगी की ज़िंदगी भी अजीब है
जरूरत नहीं होती संभलकर चलने की
बेपरवाही-ए-अंजाम भी कमाल है
खुद-ब-खुद आ जाता है 
जज़्बा-ए-जुर्रत बगागावत का
सपने देखतेै रहे हसीन दुनिया की
कदम पड़ते रहे राह बनती गयी
ठोकर खाते रहे हिम्मत बढ़ती गयी
लड़खड़ाते रहे और गिरते रहे
मगर लड़ते रहे और बढ़ते रहे
लड़ते रहे पढ़ने के लिए 
और पढ़ते रहे ज़ुल्म से लड़ने के लिए
चलते रहे और गिरते रहे
उठते रहे फिर चलते रहे
कटते रहे  और मुस्कराते रहे
मरते रहे और जीते रहे
उठते रहे और लड़ते रहे
बढ़ते रहे और कटते रहे 
मुड़कर मगर पीछे देखा नहीं.
(ईमिः25.07.2016)
802
न करना गिला जख़्मों का है रीतकाल की बात
होती थी औरत जब हुस्न के जलवे की सौगात
तोड़ दिया जब तुमने हुस्न के जलवे का पिंजरा
बंद करो ज़ख़्म सहने का सिलसिला बेशिकवा
जख़्म के बदले जख्म नहीं है उचित विचार
जख़्म दुखते रहेंगेे हो न अगर उनका प्रतिकार
होता नहीं तजुर्बा जिनका जख़्म खाने का
रंज नहीं होता उन्हें औरों को जख़्म देने का
माना कि खंजर का जवाब नहीं है खंजर
ढाल उठाना तो वाजिब है मगर
आ जाएगा इससे ख़ंज़र पे जो थोड़ा सा ख़म
इसका ही होगा उनको बहुत भारी ग़म
जख़्म के बदले गम है अच्छा प्रतिकार
आये शायद इससे उनमें रंज़ का विचार
(ईमि: 02,08.2016)
803
लौटना ही है तो थोड़ और ठहर जाओ
यादों की गठरी में थोड़ा भार तो हो
हा हा
(ईमि: 04.08.2016)
804

शाम लगती है मयखाने का एकांत
जाम छलकाते हुए अपने ही नाम
कहने का मतलब
खुद के साथ पीने में भी मजा आता है
(ईमि:8 04.08.2016)
805
परवाह क्यों करते हो किसी भी बात की
छोटी हो या बड़ी
तुमने तो पार किए हैं तकलीफ के उमड़ते समंदर
जज्बातों के दुस्साहस से
हा हा
(ईमिः 04.08.2016)
806
तफसील से पढ़ना पड़ता है तुम्हारी किताब
लफ्ज-दर-लफ्ज़
कहीं कोई हर्फ-ए-सदाकत छूट न जाये
ऐसे में जब
बाइजाजत इबादत लिखने लगे हों दानिशमंदों के कलम
चंद बगावती कलमअच्छे लगते हैं
आदत है जिनकी बेइजाजत बेबाकी की
ऐसे में जब
सौ साल जीने की ख़ाहिस करें नामवर लोग
पाकर अपसंस्कृति मंत्री से उपमा
बेकार बूढ़े बैल की
लिखता रहे तुम्हारा कलम हर्फ-ए-बगावत
बेख़ौफ, बेइज़ाज़त, बेबाक
(ईमिः04.08.2016)
807
न चौंकने की मजाल का उठता नहीं सवाल
नई बात से चौंकने का नहीं है मेरा मिजाज
हर लम्हा कमाल करना है ज़िंदगी की फितरत
रखती है जो खुदी के नित नये अन्वेषण की हशरत
इससे चौकते हैं यथास्थितिवादी अभागे लोग
होता जिन्हें विरासती भक्तिभाव का असाध्य रोग
बताता है इतिहास पर एक वैज्ञानिक दृष्टिपात
होता नहीं परिवर्तन के सिवा कोई और स्थिरांक
(ईमि: 14.08.2016)
808

इरोम शर्मीला के नाम

सुनो साथी इरोम!
मैं मिला नहीं कभी तुमसे
मगर समानुभूति है तुमसे
एक साथी इंसान के नाते
इंसानियत के साझे सरोकार के नाते
जानता हूं तुम्हारी जंग के बारे में
अपनी जमीन पर फौजी हुकूमत के खिलाफ
हत्या और बलात्कार के रिवाज के खिलाफ
तब से जब सुना था पहली बार
एक अकेली युवती की
विशाल सेना के विरुद्ध बुलंद ललकार

16 साल निराहार लड़ती रही
तुम्हे पता ही नहीं चला
कि तुम्हारी हाड़-मांस की काया
कब बुत बन गई
और आराध्य की तलाश में भटकते पंथ को
एक आराध्य देवी मिल गयी
तुम जानती ही हो बुतों पर चढ़ावे का रिवाज
फूलते-फूलते रहे कई मुल्ले-पुजारी
बनी रही जब तक तुम आराध्य मूर्ति
बढ़ती रही भक्तों की तादात देश-विदेश में
लेकिन मैं तो नास्तिक हूं
तन से तो नहीं मन से तुम्हारे साथ था
सलाम करता था
नाइंसाफी को ललकारने के
तुम्हारे तुम्हारे जज्बे को
हैरत होती थी
हृदयहीन हुकूमत में संवेदना जगाने की
तुम्हारी जुर्रत पर
खुश होता था
असंभव पर निशाना साधने की
तुम्हारी फितरत पर
जब तुम बुतपरस्तों की आराध्य थी
बुत को इंसान बनते देख
टूटने लगा भक्ति का नशा
किनारा कर लिया भक्तों ने
समझकर कोई प्रेतात्मा

और अब भी हूं साथी इंसान के नाते
इंसानियत के साझे सरोकार के नाते
तुम्हारे हाड़-मांस के इंसान होने के अधिकार के साथ
हर इंसान की तरह तुम्हारे प्यार करने के अधिकार के साथ
चुनाव से निज़ाम बदलने की खुशफहमी के अधिकार के साथ
इंसानियत के साझे सरोकार के नाते

सुनो शर्मीला!
हैरत में मत पड़ो पाकर खुद को अकेला
लड़ती रहो बढ़ती रहो
हम वाहक हैं अपनी गौरवशाली परंपराओं के
ढोते हैं बोझ पूर्वजों की पीढ़ियों की लाशों की
सनातनी कर्तव्यबोध के साथ
हम मुर्दापररस्त हैं
करते हैं बुतों की पूजा
पत्थर में प्राणप्रतिष्ठा
लेकिन जैसे ही बुत में आ जाती है सचमुच की जान
बन जाता है बुत सचमच का इंसान
भागता है भक्त समझकर उसे प्रेतात्मा
भटकता है इंसान भूतों की तरह
भटकाव बेहतर है मिथ्या स्पष्टता से
मैं नास्तिक हूं मैं
भटकते हुए तुम्हारी तलाश-ए-राह से
समानुभूति के साथ तुम्हारे साथ हूं
इंसानियत के साझे सरोकार के नाते
(ईमि: 15.08.2016)
809
सीरिया में रूसी मिसाइल हमले में बच गये बच्चे की तस्वीर पर टिप्पणी:

इस बच्चे का जुर्म है कि पैदा हुआ सीरिया में
खेल रहे हैं जहां नर आखेट दुनिया के दो महाबली
छिप कर करते हैं वार अपने अपने कारिंदों के दुश्मनों पर
फेकते हैं दूर से ही मिसाइल
मारते हैं बच्चे होते नहीं जो दुश्मन किसी के
बच गया यह बच्चा बड़ा होगा
बच गये और बच्चों के साथ खड़ा होगा
इस बच्चे का जुर्म है कि पैदा हुआ इस धरती पर
दूषित हो चुकी है जो बम-गोलों के जखीरे से
और उन्नति का प्रतीक है नर आखेट का खेल
गर चाहते हैं ये बच्चे बचपन में ही न मरें
खेलते-किलकारते पढ़ें-बढ़ें
खत्म करना होगा
नर आखेट का सिलसिला
ध्वस्त करना होगा
युद्धोंमाद की बुनियाद पर खड़ा सभ्यता का किला
(ईमि: 19.08.2016)
810
क्या नहीं कर सकती है औरत?
सरला माहेश्वरी, गीता गैरोला, महाश्वेता बन सकती है औरत
लॉरा ज़ेटकिन, रोज़ालक्ज़ंबर्ग बन सकती हेै औरत
औरत की परिभाषा बदल रही है औरत
तोड़कर हुस्न के ज़लवे का पिज़ड़ा
पाजेबों की बेड़ियां और कंगनों की हथकड़ियां
अंतरिक्ष नाप सकती है औरत
फौजी बर्बरता के विरुद्ध इरोम शर्मीला बन सकती है औरत
कलम को औजार-ओ-हथियार बना सकती है औरत
बंदूक से कायम ग़ुलामी के खिलाफ बंदूक उठा सकती है औरत
सफेद को स्याह और स्याह को सफेद कर सकती है औरत
चाय के प्याले में तूफान खड़ा कर सकती है औरत
छोड़कर पीठ देना हवा को
हवा का रुख़ बदल सकती है औरत
ध्वस्त कर मर्दवाद का किला
इंसानियत को मुक्त कर सकती है औरत
(ईमि: 24,08.2016)

(बस यूं ही, सुबह सुबह कलम आवारा हो गया)