भाजपा के धर्मोंमादी, लंपट सांसद, अजय सिंह उर्फ आदित्यनाथ को विवि में न घुसने देने के संघर्ष को तथा चात्रसंघ की साहसी अध्यक्ष, रिचा सिंह को सलाम जो परिषदियों की गुंडागर्दी, लंपटता तथा बनरघुड़कियों की परवाह किये बिना डटी रही। उसके नेतृत्वत्र में छात्रों की निर्भीकता ने प्रशासन को इतना भयभीत कर दिया कि छात्र-छात्राओं के साथ बदतमीजी करने वाले, बलात्कार की धमकी देने वाले गुंडों के खिलाफ कार्वाई की बजाय छात्रसंघ अध्यक्ष को ही कारण बताओ नोटिस दे दिया. अब निडर हो चुके ये बच्चे इन नोटिसों से डरने वाले नहीं. अब नोटिस जारी करने वालों के डरने की बारी है. अभी तक तो बुजुर्गी का एहसास नहीं होता था अब यदा-कदा होने लगा है, अक्सर लोगों को याद दिलाने पर। नवजवान साथियों-विद्यार्थियों- के इन संघर्षों से उम्मीद के धागों की श्रृंखला टूटती नहीं. खतरनाक वक़्त की मुश्किल लड़ाई को विस्तार देना है। हम लोग तो 1970 के दशक में सोचते थे कि शताब्दी के अंत तक बुर्जुआ संविधान को अप्रासंगिक बनाकर जनवादी संविधान का सपना देख रहे थे, जो निराधार नहीं था. इतिहास की गाड़ी में बैक गीयर तो नहीं होता लेकिन कभी कभी यू टर्न ले लेती है. यह यू टर्न ऐसा है कि बुर्जुआ संविधान खतरे में है. तो हमारी फौरी लडाई बुर्जुआ संविधान की रक्षा है इसलिए व्यापक फासीवादी गठबंधन की जरूरत है जिसकी शर्त है कि संघर्षरत समूह एक दूसरे के खिलाफ अभियान अगली लड़ाई तक मुल्तवी कर दें.
Monday, November 30, 2015
Thursday, November 26, 2015
बदलना होगा ओस को अपना स्वभाव
बदलना होगा ओस को अपना स्वभाव
टिकने का कांटों की नोक पर
सहज क्षैतिज्य विस्तार के लिए
वैसे ही जैसे स्त्री को छोड़ना होगा
हर क्षण समझौतों की आदत
एक सर्जनशील इंसान बनने के लिए
(ईमिः27.11.2015)
Wednesday, November 25, 2015
स्वर्ग से अशोक सिंहल का सहिष्णुता पर बयान
स्वर्ग से अशोक सिंहल का सहिष्णुता पर बयान
(विधर्मियों के खिलाफ नफरत फैलाने के पुण्य वाले को तो स्वर्ग ही मिलेगा)
असहिष्णुता की हदें पार कर रहे हैं मुल्क के फनकार
ऊलजलूल तर्कों से कर रहे आस्था की सुचिता पर प्रहार
हमारी अपार सहिष्णुता भी कर जाती यदा-कदा सीमा पार
मारना पड़ता है कुछ कलबुर्गी, पंसारे और डोभालकार
ऊलजलूल तर्कों से कर रहे आस्था की सुचिता पर प्रहार
हमारी अपार सहिष्णुता भी कर जाती यदा-कदा सीमा पार
मारना पड़ता है कुछ कलबुर्गी, पंसारे और डोभालकार
मचा दिया कवि कलाकारों ने असहिष्णु हाहाकार
मारा भक्तों ने जो कुछ नास्तिक सुन प्रभु की पुकार
कर रह थे जो भगवान राम की महिमा को नकार
खत्म हो गया था जिनका जीने का मौलिक अधिकार
बचे कवि-कलाकारों में आ गया असहिष्णुता का विकार
देशद्रोह में बहकर लौटाने लगे सब अपने अपने पुरस्कार
हमारी सहनशीलता तो है अनंत और अपार
वरना सहते हम कभी राष्ट्र का ऐसा तिरस्कार
बुद्धजीवियों की कमी नहीं होने देंगे हम हिंदु राष्ट्र में
खोल दिए हैं बत्राजी ने कारखाने गुजरात व महाराष्ट्र में
मार दिया जो गफ़लत में भक्तों ने एक अख़लाक़
कर सकता था जो किसी गोमाता को कभी हलाक
बुद्धिजीवियों ने इसे असहिष्णुता की मिशाल बताया
ऐसा कर उनने गोमाता के प्रति अपमान जताया
गोमाता का है राष्ट्र में निज माता सा सम्मान
मारना पड़े चाहे कितने भी नास्तिक-ओ-मुसलमान
होते न हम अगर अतिशय सहनशील
जिंदा रहता एक भी गो-द्रोही जलील?
असहिष्णु हैं अाप सब कवि-कलाकार
हमारी सहिष्णुता को रहे जो ललकार
सह नहीं सकते देशभक्ति की जरा मार
इनको है शाखा की दीक्षा की दरकार
तब समझेंगे कितने खतरनाक होते मुसलमान
रहते हैं यहां रखते हैं मक्का में अपना ईमान
जीतता है क्रिकेट में जब भी पाकिस्तान
पटाखे छोड़ने लगता है हर मुसलमान
होते न हम अगर सहिष्णुता के प्रहरी महान
कैसे पनपते मुल्क में शाहरुख-ओ-आमिर खान
बनते हैं ये नायक हिंदुस्तान में
मगर इनका दिल रहता पाकिस्तान में
सहते हैं मुल्क में हम कितने हिंदु-द्रोही अदीब
आरयसयस को आईयस कहते इरफान हबीब
तलवार से कायम होती थी जब सल्तनतें
जंग में भी हमारे पूर्वज सहिष्णुता दिखलाते
उठा कर फायदा शूर-वीरों की सहनशीलता का
मुसल्लों ने फहराये परचम अपनी वीरता का
सहते रहे हम सैकड़ों साल धर्म का अपमान
राज करते रहे हम पर विधर्मी मुसलमान
निकल गयी हाथ से शासन की छोर
छोड़ा नहीं हमने मगर वर्णव्यवस्था की डोर
रहे हम सैकड़ों साल गुलामी के प्रति सहनशील
मगर धर्म की सुचिता को न होने दिया पतनशील
ब्रह्मा ने बनाया है जिसे जिस काम के लिए
करना है उसे वही हिंदु धर्म के सम्मान के लिेए
बढ़ गया धर्म पर जब इस्लामी अत्याचार
अंग्रेजों को भेजा प्रभु ने बनाके खेवनहार
बुद्ध की तरह कुछ हिंदुओं ने की धर्म से गद्दारी
धर्मनिरपेक्ष बन अंग्रेजों से सत्ता हथिया ली
झंडे पर रखा निशान अशोक की लाट का
रंग-ढंग नहीं था ये किसी हिंदू सम्राट का
प्रभु ने हमारी प्रार्थना दुबारा सुन ली
भेज दिया दिल्ली गुजरात का नरेंद्र मोदी
दिल्ली की गद्दी पर हुआ पहला हिंदू शासक विराजमान
इसके पहले अंतिम थे सहनशाल पृथ्वीराज चौहान
(लंबी बौद्धिक आवारागर्दी करवा दी सरला जी की फैज कीः चली है रश्म कि कोई न सर उठा के चले - की याद दिलाती सटीक राजनैतिक टिप्णी ने. नागार्जुन कविता लिखने को बौद्धिक आवारागर्दी कहते थे, सठियाने के बाद भी न शारीरिक आवारागर्दी कम हो पा रही है, न ही बौद्धिक)
(ईमिः26.11.2015)
Sunday, November 22, 2015
मौत का क्या डर
मौत है एक अवश्यंभावी अनिश्चितता
जिंदगी एक खूबसूरत ठोस सच्चाई
डरना क्यों उस बात से
घटती है जो अक्सर अकस्मात
इसीलिए जीना तो कला है
रंग भरने की ज़िंदगी की हक़ीकत में
मरने में नहीं है किसी का अपना हाथ
कहां से आ गयी मरने की कला की बात
जब तक विधा खुदकुशी का कायरतापूर्ण पलायन न हो
जो कला तो नहीं प्रहसन है कला की
(बस ऐसे ही )
फुटनोट 54
फेसबुक की आभासी दुनिया में मेरे आभासी मित्रों की संख्या 4146 है जिनमें से 10-15% ही वास्तविक दुनिया के परिचित होंगे. आभासी दुनिया के कुछ मित्रों से वास्तविक दुनिया में भी मिलने का अवसर मिला. 1000+ मित्र-निवेदन लंबित हैं. पहले मैं कॉमन फ्रेंड्स देखकर जोड़ लेता था. मोहन भाई( Mohan Shrotriya) जैसे जेयनयू तथा इवि के कुछ वरिष्ठ सहपाठियों को मैंने भी सफल आवेदन किया. कई लोगों ने नाम का मिश्र देखकर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा तो कुछ ने प्रोफाइल में प्रोफेसर देख कर ज्ञानी समझ कर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजा, दोनो ही कोटि के लोग निराश हो कुछ ने मुझे अनफ्रेंड कर दिया तथा पता चलने पर कुछ को मैं कर देता हूं. चार हजार से अधिक आभासी मित्रों में से सक्रिय संवाद बहुत कम से है. मैंने 2 बार पोस्ट डाला कि जो लोग सक्रिय-सार्थक संवाद में रुचि रखते होँ इनबॉक्स करें. अब मैं परिचितों या कभी ताजी रिक्वेस्ट पर प्रोफाइल देखकर. पोस्ट पोस्ट इसलिये डाल रहा हूं कि फेसबुक की एक महिला आभासी मित्र (अब अमित्र हो चुकीं) ने इनबॉक्स किया कि मैं महिलाओं के ही रिक्वेस्ट ऐक्सेप्ट करता हूं तथा कुछ और बेहूदी बातें थीं, जिन्हें अपनी बुजुर्गी का लेहाज करते हुए (कभी-कभी कर लेना चाहिेेए)नहीं लिख रहा हूं. एकाध क्रांति-बालाओं की पोस्ट से दाढ़ी में खुजली हुई थी, लेकिन खुजलाया नहीं. मित्रता इंसानों से करता हूं, ब्राह्मण-भूमिहार, हिंदू-मुसलमान, स्त्री-पुरुष से नहीं. जिस किसी को लगता हो कि उसको मैंने इंसानेतर किसी कारण से जोड़ा है तो तुरंत अमित्र कर दें वरना संकेक मिलने पर मैं कर दूंगा. आशिकी कभी प्राथमिकता नहीं रही, अब तो वक्त ही नहीं है.
शिक्षा और ज्ञान 65
Shailendra Jha मैंने तो दिल्ली यूनिवर्सिटी का कोई जिक्र नहीं किया, न ही किसी राय को अंतिम कहा, न ही कहीं गांजे के खुनक की बात की. आप अपनी कमजेहनियत के कारण की तलाश कर रहे थे मैंने संभावित कारण सुझाया, कोई और कारण हो सकता है। आप किस प्रगतिशील ग्रुप में हैँ, न जानता हूं न जानना चाहता हूं, फेसबुक की आभासी दुनिया में हम एक दूसरे को शब्दों से जानते हैँ. तमाम दिमागी दिवालिये तर्काभाव गांजा-चरस चिल्लाने लगते हैँ. कहीँ और से स्कोर कर लिया कीजिये, फेसबुक को बख्सिये. या आप को लगता है गांजा पीकर आदमी अच्छा लिखता है तब तो सभी गंजेड़ियों को विद्वान होना चाहिये.
नारी विमर्श 6
Shailendra Jha स्त्री-पुरुष में सामान्य मित्रता की असंभाव्यता की समझ की आपकी तंगजेहनियत या कमनिगाही का कारण का शायद अनुभव की दुनिया का सीमित होना हो. मैँ इलाहाबाद के संकीर्णतावादी, श्रेणीबद्ध सामंती माहौल से निकलकर, 1976 में आपातकाल में भूमिगत अस्तित्व की संभावनाओं की तलाश में जेयनयू पहुंचा तो किसी इलाहाबाद के सीनियर से मुलाकात हुई तो रहने का इंतजाम हो गया और एक अलग दुनिया देखने को मिली. आधी रात तक लड़कियाँ उतनी ही बेफिक्री से घूम रही जितने लड़के. कोई भी बात किसी लड़की से वैसे कह सकते हो जैसे किसी लड़के से। सेक्सुअल हैरेसमेंट की कभी कोई बात सुनने मे नहीं आती थी, शायद इसलिये भी की छोटा सा (आबादी के लिहाज से) सब एक दूसरे को कम-से-कम शकल से जानते थे. किसी मित्र ने नीलिमा की बात यूटोपिया कहा. जब तक कुछ हो नहीं जाता तबतक यूटोपिया लगता है. उच्चतम शिक्षा के बावजूद यदि हम ब्राह्मण-भूमिहार से इंसान न बन पाय़ें या पुरुष-स्त्री से इंसान न बन पाये तो शिक्षा तथा ज्ञान के अंतःसंबंधों पर गंभीर पुनर्विचार की जरूरत है. दुर्भाग्य से मर्दवादी मर्यादा स्त्री को स्त्री पहले इंसान बाद में मानती है. इससे भी दुर्भाग्य से अभी भी मर्यादा का जाल काटने में असमर्थ ज्यादातर स्त्रियां भी खुद को स्त्री पहले मानती हैं इंसान बाद में.
Saturday, November 21, 2015
भूमिकाः गुलेरीजी की आत्मा
गुलेरीजी की आत्मा (कहानी)
ईश मिश्र
सर्वाधिकारः सार्वजनिक.
बौद्धिक संपदा अधिकारः लेखक
इक़बाल (स्वीकरण) इस कहानी के पात्र तथा घटनाएं वास्तविक हैं कानूनी दाव-पेच से बचने के लिए काल्पनिक रूप दिया गया है जिससे जिसपर भी लागू हो मेरे विरुद्ध कानूनी कार्वाई न कर सके.
भूमिका
1987-89 के दौरान कलम की मजदूरी से जीवनयापन करते हुए पता नहीं कहां से हिंदी-अंग्रेजी में कुछ कहानियां (कुछ पूरी -कई अधूरी) लिखने का समय मिल गया था. दो पूरी की गयीं कहानियां छपने के लिए 2 अलग अलग पत्रिकाओं में भेजा, दोनों ने अस्वीकृत कर दिया. दोनों कहानियों को पहले कुछ मित्रों को सुनाया था और दरअसल उन्हीं की प्रतिक्रियाओं से प्रोत्साहित होकर छपने भेजा था. एक वरिष्ठ मित्र तथा प्रख्यात साहित्यकार से इस कहानी पर राय मागने पर उन्होने स्पष्ट राय दिया कि यह कहानी नहीं है, लेकिन मैं उनसे सहमत नहीं हूं. पता नहीं इससे हतोत्साहित होकर या जीविकोपार्जन तथा राजनैतिक गतिविधियों के चलते समयाभाव में या दोनों ही कारणों से फिर कोई कहानी लिखने नहीं बैठा. कालांतर में वे मेरे कागजों के बियाबान में गुम हो गयीं. 2-3 साल पहले किसी अन्य फाइल की तलाश में इन दोनों कहानियों की फाइल मिल गयी. पन्ने तो पीले पड़ गये किंतु लिखावट ताजी. दो कहानियां-- सातवां सवार तथा कॉमरेड का नौकर खोने का ग़म है. उस समय के श्रोताओं में पत्रकार मित्र राजेश ने कंप्यूटर में सेव करने की सलाह दी. इसे तो टाइप कर दिया, दूसरी भी करने का समय निकालूंगा.
विचार वस्तु से ही निकलते हैं कहीं हवा में से नहीं आते. अब 26-28 साल बाद याद नहीं है कि यह अमूर्तन किन मूर्त घटनाों से उपजा. श्री निर्मल वर्मा की 10 साल बाद छपी कहानी सूखा पर विमर्श चल रहा था, कुछ पुराने क़मरेड व्यवस्था में शामिल होकर व्यवस्था बदलने(to wreck from within) शासक दलों में शामिल हो रहे थे तथा इसी उद्देश्य से कुछ नौकरशाही में चले गये. ऱाजीव गांधी ठक्कर कमीसन की रिपोर्ट आने के बाद संसद को सूचित कर रहे थे कि इंदिराजी उनकी मां थीं. भाजपा राम मंदिर अभियान में शिलापूजन कार्यक्रम आयोजित कर रही थी. मुझे लगता है इन सब की खिचड़ी है. कहानी (या अकहानी) लंबी है, जो भी मुझे अनग्रहित करना चाहें, पढ़कर राय देकर मुझे कृतज्ञता ज्ञापन का अवसर दें.
शिक्षा और ज्ञान 64
भाजपा के धर्मोंमादी लंपट सांसद आदित्यनाथ का विवि कार्यक्रम रद्द करवाने के लिए इलाहाबाद के जुझारू छात्र संघर्ष को सलाम. इसे शिक्षा के व्यापारीकरण की नई शिक्षानीतियों के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी आंदोलन में तब्दील करना पड़ेगा. अगला पड़ाव बनारस. काहिवि के घोंचू, पोंगापंथी कुलपति को करारा जवाब देना पड़ेगा जो कहता है कि स्टूडेंट्स फेलोशिप से मोटरसाइकिल खरीदते हैं तथा और क्या करते हैं बताने में उसे शर्म आती है. अरे शर्म तो उसे खुद के शिक्षक होने पर आनी चाहिये, लेकिन आती तो कुलपति कैसे बनता. इससे पूछना चाहिए लाखों में वेतन के लिए कितना और क्या काम करता है .तथा कितनी किताबें खरीदता है? पता नहीं कैसे ऐसे ऐसे चीकट इतनी तादाद में शिक्षक बन जात हैं तथा शिक्षा को नष्ट करने की अपनी जवाबदेही विद्यार्थियों के सिर मढ़ देते हैं. छात्र-शिक्षक एकता ज़िंदाबाद. ऑकूपाई आंदोलन जिंदाबाद.
Friday, November 20, 2015
वह बहुत नज़ाकत से रहता है
वह बहुत नज़ाकत से रहता है
दिन में कई बार कपड़े और कौल बदलता है
देश में मनाता है गांधीबध के लिए गोडसे बलिदानदिवस
लंदन में गांधी की कसमें खाता है
जब वह देश में होता है बुद्ध को बताता है धर्मद्राही
विदेश में उनकी विरासत की दावेदारी करता है
चुनाव के पहले कालेधन की बात करता है
चुनाव के बाद इस बात को चुनावी जुमला बताता है
और भी नज़ाकते हैं इस बाजीगर के
आरक्षण को विकास में बाधा मानता है
चुनाव अंबेडकर को मशीहा बताता है
(बस ऐसे ही)
Tuesday, November 17, 2015
गुलेरी जी की आत्मा
कहानी
गुलेरी जी की आत्मा
ईश मिश्र
उसने कहना शुरू किया
–
“अपनी व्यथागाथा से पहले, मंगलाचरण के तौर पर, गुलेरी जी के बारे में दो
शब्द कहना जरूरी है. वैसे तो गुलेरी जी या उनकी आत्मा के बारे मे दो शब्द कहना
सूरज को दिया दिखाने सा है, फिर भी हिंदी साहित्य से अपरिचित या कम जानकारी रखने
वालों को इतना बता देना जरूरी और काफी है कि गुलेरी जी की गणना हिंदुस्तान के चंद
मशहूर अफसानानिगारों में होती है. वे तो अब दुनिया में नहीं रहे किंतु उनकी अदृश्य
आत्मा तो अजर-अमर है. मेरे इस इज्जतशुदा जिंदगी के पीछे दमाग तो खैर मेरा ही है
लेकिन हाथ गुलेरी जी की आत्मा का है.
“गुलेरी जी ने ही ’उसने कहा था’ नाम की मशहूर कहानी लिखी थी. यह कहानी हिंदुस्तान की अंग्रेजी फौज के
एक ऐसे वफादार सिपाही की है जिसका नाम लहना सिंह था. लहना सिंह की कुड़माई नहीं
हुई थी. लहना सिंह को इसका कोई गम नहीं था, उसका गम यह था कि उसकी हो गयी थी. उसकी
कुड़माई के गम में लहना सिंह शायद खुदकुशी कर लेते लेकिन भला हो जर्मनों का,
सौभाग्य से विश्व युद्ध छिड़ गया तथा लहना सिंह को उसके लिए शहीद होने का मौका मिल
गया. इसके अलावा गुलेरी जी ने और कोई कहानी लिखी की नहीं, इसकी सही जानकारी नहीं
है. सुनने में आया है कि विद्वानों के एक शिष्टदल ने “बुद्धू का कांटा“ नाम की उनकी एक और
कहानी खोज निकाली है. खैर इससे गुलेरी जी की महानता पर कोई फर्क नहीं पड़ता. हमारे
कुनबे के लोगों का मानना है कि गुलेरी जी की बहुत सी कहानियां उनके जीवनकाल में
अलिखित रह गयीं, जो गुलेरी जी की आत्मा के पास हैं.
“हमारे कुनबे में गुलेरी जी की आत्माजी का दैवीय स्थान है. दरसल आत्माजी
ही हमारे कुनबे की इष्टदेवी हैं. तमाम जाने-माने, ज्ञानी-मानी लोग उनकी तपस्या में
तल्लीन रहते हैं. उनका दृढ़विश्वास है कि गुलेरी जी ने उसने कहा था के
अलावा भी काफी कुछ कहा था. आस्था उन्हें निराश नहीं होने देती. कभी तो आत्मा जी
प्रसन्न हो गुलेरी जी की अलिखित कहानियों का वरदान देंगी, जिन्हें वे अपने नाम से
छाप सकेंगे. वैसे राज की बात यह है कि आत्मा जी ने अभी तक केवल मुझे ही दर्शन दिया
है, जिसका ज़िक्र उचित समय पर करूंगा.
-1-
“मेरी व्यथागाथा का टेढ़ा संबंध तो कई बातों से है, लेकिन सीधा संबंध माननीय
कखग जी की नई कहानी से है. उनका कलम दस साल मौन के बाद मुखर हुआ था. वैसे तो उनके
कलम को मौन तोड़ने की आवश्यकता नहीं थी. ये बातें तो वह दस साल पहले ही कह चुका
था. कलम के कष्ट उठाने की चर्चा मीडिया में गूंज गयी. सारी सुर्खियां कखग मय हो
गयीं. कलम के मौन तोड़ने को लेकर गोष्ठियों, सेमिनारों की धूम मच गयी.
“अतिविनम्र स्वभाव तथा मित और अतिमृदुभाषिता के गुणों से संपन्न, कखग
जी वैसे ही कुनबे के काफी सम्मानित सदस्य हैं. कलम के मौन परित्याग ने सम्मान की
पात्रता में चारचांद लगा दिया. इस कुनबे की प्रमुख, और शायद विशिष्ट प्रवृत्ति है
विचार-निरपेक्षता. यह प्रवृत्ति सम्मान के मामले में सबसे स्पष्ट दृष्टिगोचर होती
है. लोग सम्मान लेने और देने में विचारधारा से ऊपर उठ जाते हैं. अब काबुल में सब
घोड़े ही नहीं होते. कुछ ऐसे भी अभागे हैं जो ऊपर नहीं उठ पाते तथा धरातली विचारधारा
से ही आजीवन चिपके रहते हैं. इस जमात को कुनबावासी हिकारत से मिसफिट कहते हैं.
पिछले कुछ समय से मिसफिटों की बढ़ती संख्या से प्रशासन ने कुनबे के कानून को सख्त
बनाना शुरू कर दिया. मिसफिटों की जमात को कुनबे में वही स्थान प्राप्त है जो
गौरवशाली हिंदू व्यवस्था में शूद्रों तथा अन्त्यजों को. वैसे मैं तो ठीक-ठाक हूं
लेकिन कुछ मिसफिटों से घनिष्ठता के चलते कुनबे के खुफियातंत्र के संदेह के घेरे से
बाहर नहीं. मुझे लगा कि काश, कलम के मौन तोड़ने वाली किसी गोष्ठी या अन्य़ किसी समारोह
में माइक पकड़ने का मौका मिलता तो माननीय कखग जी के महिमामंडन से कुनबापरस्ती की
अपनी निष्ठा साबित कर सकता.
“ऐसी ही एक भव्य गोष्ठी थी. द्वीप के अन्य कुनबों तथा बाहर के द्वीपों
से भी वक्ता-श्रोता आए थे. कई तो बस कखग जी के दर्शन मात्र के लिए आए थे. इस द्वीप
के कुनबों की दूसरी प्रमुख प्रवृत्ति है भक्तिभाव. कुनबावासी बहुत सहनशील है,
लेकिन आराध्य की बातों पर तर्क-वितर्क से उनकी सहनशीलता का बांध टूट जाता है.
बिल्ली के भाग्य से छीका टूट गया. किसी अज्ञात तत्व ने मेरा नाम भी वक्ताओं की
सूची में डाल दिया. मन की मुराद पूरी होने पर कौन न गदगद होता. जाहिर है, मेरी
बाछें खिल गईं. नाम बुलाये जाने पर, मंच की तरफ बढ़ते हुए, भाषण के कथ्य को दिमाग में
बिंदुवार सहेजने लगा. लोग मुझे ऐसे अकबकाये, आश्चर्य से देख रहे थे जैसे कहीं कोई
बम गिर गया हो. आलोचना की नकारात्मकता की जगह सम्मानित का सम्मान करने की
सकारात्मकता ने ले ली. वैसे भी सभी तो सम्मान कर ही रहे हैं तो मेरे एक के सम्मान
का कम ज्यादा होना कखग जी के संचित सम्मानसागर में घड़े की तो छोड़िए, लोटे के भी
जल बराबर भी नहीं होगा. लेकिन जरा भी चूक हुई कि सौभाग्य से मिला अवसर दुर्भाग्य
बन सकता है. ऐसे विरले अवसर भाग्य से मिलते हैं. मन ही मन वाकपटुता से कखग जी के
सम्मान में पहाड़ खड़ा करके पेशेवर चारणों को पराजित करने का फैसला किया.
“विचारधारा से ऊपर उठने का इरादा तो पक्का था, मगर मन को एक अज्ञात भय
भी सता रहा था ऊपर उठने की कोशिस में कोई दुर्घटना न हो जाये तथा लेने के देने पड़
जायें. स्पष्टवादी तेवर से चारणप्रवृत्ति का तथा विप्लवी भाषा से महिमामंडन की
भाषा का संक्रमण नामुमकिन नहीं है, क्योंकि नामुमकिन महज एक सैद्धांतिक अवधारणा
है, मगर मुश्किल तो है ही. वैसे भी गुरुत्वाकर्षण के नियमों के चलते, उठना धरातल
से चिपके रहने या गिरने से मुश्किल होता है. सोचा, आसान काम तो सब कर लेते हैं.
उठने का इरादा इतना पक्का था कि मुश्किलें आसान दिखने लगीं. अफसोस हो रहा था कि
काश, इस सौभाग्य का जरा भी पूर्वाभास होता तो वक्तव्य पहले से ही लिख लेता. खैर,
अब क्या था. अतीत को केवल याद ही किया जा सकता है, जिया तो जा नहीं सकता. मंच पर
चढ़ते हुये मेरे पांव कांप रहे थे. पता नहीं भय से या उल्लास से. गोष्ठी का आकार
कुनबे की आमसभा का आभास दे रहा था. माइक पकड़ते ही मेरा आत्मविश्वास सुदृढ़ हो
गया.
“पूरी एकाग्रता से चुन-चुन, मधुर शब्दों में माननीय कखग जी की महानता का पहाड़ खड़ना शुरू किया.
मसलन, ‘शब्दशिल्प में समृद्ध, कखग जी किसी भी पात्र या घटना को भाषा के जादू
से जब चाहें गायब कर सकते हैं तथा जब चाहें प्रस्तुत. शब्दशिल्प और भाषा के जादू
का ही कमाल है कि उनकी रचनाओं के पात्र, नदी के किनारे, हवा का एक झोंका, हरी घास
पर एक क्षण, धूप का एक टुकड़ा सभी अलग-अलग अपने-अपने एकांत की नितांतता में
रॉबिंसन क्रूसो से दिखते हैं. पाठक चाहें तो उन्हें जोड़कर समग्रता का निर्माण
स्वयं कर सकते हैं. कुनबे तथा द्वीप की एकता-अखंडता के प्रति माननीय की
प्रतिबद्धता के चलते इनकी रचनायें विवादास्पद मुद्दों को उभारने की बजाय भाषा के
जादू से आध्यात्मिकता के धुंध में छिपा देती हैं. माननीय की एक महानता यह भी है कि
ये बिना कथानक के भी कहानी लिख सकते हैं, जिसे कहीं से भी पढ़ना शुरू इसीलिए उनका संक्षिप्तीकरण नहीं हो सकता और इसीलिए
इनकी रचनाओं से लाभान्वित होने के लिए पूरी कहानी पढ़ने के धैर्य की जरूरत होती
है. .........’ . समयसीमा की सीमा न होती तो शब्दों में यथासंभव शहद घोल कर तथा
वाक्यों में मक्खन लपेट कर, अतिविऩम्र लहजे
में कखग जी के गुणगान में और भी सितारे मढ़ता. भाषण के बीच-बीच में मंच पर
बैठे कुनबे के महामंत्रीजी तथा कखग जी की तरफ देखता. चेहरे के गूढ़ भाव का मंतव्य
नहीं समझ पा रहा था लेकिन सम्मानित समूह में एंट्री के पूर्वाभास में पुलकित हो
रहा था.
“पूरी सावधानी के बावजूद, बिना रिहर्सल के अभिनय में कोई बड़ी चूक हो
गई. अगले दिन नुक्कड़ों की अड्डेबाजी में कुनबे से मेरे निष्कासन की बात कानाफूसी
की चर्चा का विषय बन गई. कहां तो सोचा था छूने को आसमान लेकिन अब तो पांवों के
नीचे से धरती ही खिसकती लगी.
“नुक्कड़ीय अड्डेबाजी की चर्चाओं से ही याद आया कि 10 सालों से मेरी भी
कोई कहानी कुनबे की आधिकारिक पत्रिका, कुनबानामा में नहीं छपी थी. कुनबानामा
में ही छपी कहानियों को मौलिकता एवं प्रामाणिकता की मान्यता प्राप्त थी. ऐसे-वैसे
प्रकाशनों से छपे संकलन को कुनबे का प्रशासन मान्यता नहीं देता. कुनबे के कई
नामी-गिरामी सम्मानित तो मेरे प्रवेश के ही विरुद्ध थे. उनका मानना था जो कि अब भी
है कि असम्मानित कुछ भी करले, जन्मजात दुर्गुणों से मुक्त नहीं हो सकता. ऐसों के
प्रवेश से सम्मानित कुनबे की प्रतिष्ठा को आंच लग सकती है और कि एक ही मछली पूरे तालाब को गंदा कर सकती है. वैसे यह आशंका निर्मूल थी. संख्याबल पर आश्रित संख्यातंत्र में भला
एक मछली की क्या औकात? हमारे ही नहीं द्वीप के सभी कुनबों तथा द्वीप के केंद्रीय प्रशासन में
संख्याबल को जनबल के पर्याय का सम्मान प्राप्त है तथा संख्यातंत्र को जनतंत्र का.
लेकिन शंका का तो समाधान हो ही नहीं सकता. इस शगूफे से बहुतों को विद्वता की भड़ास निकालने का मौका मिल गया.
सब सर्वज्ञ तथा मर्मज्ञ बन गये थे ‘मुझे तो पहले से ही इसकी नीयत पर संदेह था........ ‘, ‘इतने बड़े समारोह का मजा किकिरा कर दिया‘, ‘बड़ा क्रांतिकारी
बनता था चारवाक की औलाद....... अब मजा
मारे .. ‘, ‘अराजक तत्वों के
लिए इस सम्मानित कुनबे में कोई जगह नहीं होनी चाहिए.’; ‘अरे मैं तो पहले से
ही जानता था....... ऐसे लोग बहुत खतरनाक होते हैं....’; ‘मैंने तो कहा ही था
कि............’; ‘मैं तो ऐसों की सूरत से कीरत का अंदाज़ लगा लेता हूं..........’; ’मुझे तो यह किसी
दुश्मन द्वीप का जासूस लगता है. ………… .’ किस्म के डायलॉग सर्वव्यापी से हो गये. कइयों ने कुनबानामा
में छपी मेरी इकलौती कहानी की मौलिकता पर तो कइयों ने उसकी प्रामाणिकता और कइयों
ने दोनों पर संदेह सार्वजनिक करना शुरू कर दिया. इस बहाने कई सम्मानितों ने
अभिलेखागार से पत्रिका का वह अंक निकालकर पढ़ा. ‘ऐसी कहानी की रचनात्मक प्रतिभा का कलम दस साल चुप
रह ही नहीं सकता. जरूर ही वह कहानी किसी भूत से लिखवाई होगी’.
“गोया कि मैं अड्डेबाजी के विमर्श में इंसान से मुद्दा बन गया था.
कुनबे के कई युवा सदस्य दस साल पहले की घोस्टौराइटिंग के भाव पूछने लगे. शराबखानों
तथा कहवाघरों में मेरी ही चर्चा. अपने बारे में कई नई नई जानकारियां मुझे भी
इन्हीं चर्चाओं से मिल रही थी. अगर अस्तित्व पर खतरे का मामला न होता तो इतनी
लोकप्रियता से फूलकर कुप्पा हो जाता. मगर हालात ऐसे थे कि कुछ कुछ होने लगा. शराबखानों
तथा कहवाघरों में यही चर्चा थी कि माननीय कखग जी की अवमानना के साथ मुझ पर कुनबे
में अवैध घुसपैठ का भी मामला बनता है जिसकी न्यूनतम सजा कुनबे से निष्कासन है.
अवमानना की सजा तो अर्थदंड तथा माफीनामा एवं हलफनामा है. कई सम्मानितों ने कहना
शुरू किया कि कुनबानामा में दस साल पहले की मेरी इकलौती कहानी में इस्तेमाल
इमेजरी तथा इतिहासबोध की परिपक्वता उस मेरी उम्र में संभव ही नहीं. इनके इस कुतर्क
से तो सभी बुड्ढे विद्वान होते हैं. मगर कुनबे के संख्यातंत्र के इतिहास में सदा ही कुतर्क का वर्चस्व रहा है. समय समय पर
छद्म तर्कवादी घोषित कर कइयों का निष्कासन हो चुका है और कई रहस्यमय परिस्थियों
में गायब हो गये.
“घटनाक्रम की गति
इतनी तेज थी कि किंकर्तव्यविमूढ़ सा अपने सर्वनाश की तैयारी के माजरे देखने-सुनने
के अलावा कुछ सूझ ही नहीं रहा था. आंखों के सामने इज्जतशुदा वज़ूद की अपनी दुनिया
उजड़ने-डूबने के नज़ारे तैरने लगे. जिंदगी में पहली बार भांटकर्म अपनाया जिसमें,
लगता है, कुछ ऐसी अदृष्य चूक ही नहीं अंग्रेजी वाला बड़का ब्लंडरह हो गया कि
लेने-के-देने पड़ रहे थे. माननीय कखग जी की रचनाओं की चीड़-फाड़ से परहेज कर, महिमामंडन का पहाड़ खड़ा कर ऊपर उठने का प्रयास
विनाश का कारण बन गया. होनी को कौन टाल सकता है? वैसे तो अपना ब्लंडरवा समझ में नहीं आ रहा था,
लेकिन उसे समझने का वक़्त नहीं था बल्कि उससे उठ रहे बवंडर से बचने की रणनीति
सोचना था.
“कई क्रांतिकरी बुद्धिजीवी अनुशासन तथा प्रतिष्ठानात्मक प्रतिष्ठा की
पवित्रता आदि आदि पर प्रवचन देने लगे. अतीत सुधारने के सुझाओं की तो भरमार हो गयी.
रातोंरात संबंधों के समीकरण उलट-पुलट हो गये. मेरे साथ सतसंग को अन्यथा लालाइत लोग
देख कर आंखे फेरने लगे. फैसले से पहले ही हुक्का-पानी बंद.
“माहौल इस कदर बदला हुआ था कि जी में आया कि गाऊं, ‘बदले-बदले मेरे सरकार
नज़र आते हैं.... ‘. और फिर ‘आग लागे हमरी मड़इया
में हम गाई मल्हार..... ‘. जब मड़इया में सचमुच आग लगी हो तो मल्हार गाने के लिए बहुत बड़ा
कलेजा चाहिए. ‘जो घर जारे आपना चले हमारे साथ‘ वाले कबीर के दोहे के पाठ से भी हिम्मत नहीं बंध पा रही थी. यहां तो
मड़इया में आग लगने की आशंका से ही अपना कुछ-कुछ होने लगा था.
-- 2 --
“हमारा कुनबा जिस द्वीप में स्थित है, उसे सभ्यद्वीप कहते हैं. पहले कुछ और
कहते थे लेकिन कई पीढ़ियां बीत गयीं जब सभ्यता का बेड़ा द्वीप के मुख्य बंदरगार पर
आ लगा था तथा पूरा द्वीप सभ्य हो गया. अब
किसी को इसका पुराना नाम नहीं याद है. एक परिचित कह रहा था कि उसके परदादा को पता
था, उसे एक बार बताया था लेकिन उसे भूल गया. वैसे भी अतीत तो इतिहास की बात है,
इतिहास की किताबों में तो होगा, मगर हमारे द्वीप में इतिहास पढ़ने-पढ़ाने पर
प्रतिबंध है. द्वीप के कर्ता-धर्ता नहीं चाहते कि भविष्य के कर्णधार भूत में
उलझें. उन्हें इतना जान लेना पर्याप्त है कि अपना अतीत गौरवशाली रहा है तथा भविष्य
उज्ज्वल होगा एवं वर्तमान की विद्रूपताओं से शीघ्र निजात पा लिया जायेगा. सभ्य
होने की प्रक्रिया के पहले चरण में, प्रशसनिक तथा कानूनी व्यवस्था को सुचारु बनाने
के लिए द्वीप कुनबों में बांट दिया गया. चंद अभागे नई व्यवस्था की खूबियों की
नासमझी के चलते कुनबापरस्ती को खारिज कर रहे थे. विनाशकाले विपरीत बुद्धिः. इतिहास
की गति से छेड़-छाड़ के आरोप में उन्हें जंगलों में भगा दिया गया या वे सभ्यता के
भय से स्वयं जंगल की शरण चले गये. सुना है उनके वंशज अभी भी असभ्य ज़िंदगी जी रहे
हैं. कुछ कुनबे में रहकर भी कुनबापरस्ती तथा द्वीपप्रेम के संस्कारों से वंचित रह
जाते हैं. इन्हें मिसफिट कहा जाता है, जैसा अभी बताया. संबूकत्व पर प्रतिबंध था. वही
त्रेतायुग वाला संबूक जो जन्मना शूद्र होते हुए कर्मणा ब्राह्मण बनने के प्रयास
में तपस्या कर रहा था. कुछ लोग तो उसे ऋषि संबूक कहने लगे थे. ब्रह्मांड हिल गया
था. जिस तरह जनहित में महाराज राम को अपनी प्राणों से प्रिय गर्भवती पत्नी त्यागना
पड़ा था उसी तरह जनहित में संबूक बध के लिए स्वयं धनुष उठाना पड़ा था। संबूकत्व पर
अंकुश लगाने में, वैसे तो कुनबे खुद ही पर्याप्त हैं लेकिन आवश्यकता पड़ने पर
द्वीप की केंद्रीय सत्ता, केंद्रीय बल भेजने में दरियादिल है.
“द्वीप की केंद्रीय तथा कुनबों की कुनबीय सत्ता-प्रतिष्ठानों में
रिलेटिव ऑटोनॉमी यानि सापेक्ष स्वायत्तता का रिश्ता है. लेकिन विवाद की स्थिति या/और आपातकाल में
केंद्र कुनबीय स्वायत्तता अनिश्चितकाल के लिए निलंबित कर सकता है.
“द्वीप की अपार प्राकृतिक संपदा के विदेशी प्रबंधन की कृपा से
द्वीपवासियों के सम्मानित समूह की इज़्ज़तशुदा, निजी ज़िंदगी ऐशो-आराम से कटती है.
किसी-न-किसी कुनबे की सदस्यता सम्मानित द्वीपवासी होने की अनिवार्य शर्त है.
“प्रत्येक कुनबे की सदस्यता की अलग-अलग शर्तें हैं. हमारे कुनबे का नाम
कथा कुनबा है. कुछ और भी हो सकता था, पर नहीं हुआ. इस कुनबे की सदस्यता की
अनिवार्य शर्त है कथाकार होना. मापदंड-मानदंडों का काफी मोटा मैनुअल कोई पढ़ता
नहीं. कुनबे में कथाकार की मान्यता का आधार, कुनबे की आधिकारिक पत्रिका कुनबानामा
में कम-से-कम एक कहानी का प्रकाशन. कुनबे के संविधान में प्रशासनिक
कार्यकारिणी के पास अदालती हद से परे, कुनबाविरोधी गतिविधियों में संलिप्त किसी भी
सदस्य की छपी कहानी को अमान्य़ करने का अधिकार है. मेरी तो कुनबानामा में
कुल एक ही कहानी छपी है, वह भी दस साल पहले.
“कुनबे के अध्यक्ष तथा महामंत्री को किसी व्यक्ति विशेषों या विशेष को
सामूहिक रूप से या अलग-अलग, बिना शर्त सदस्यता के लिए आमंत्रित करने का
विशेषाधिकार है. अध्यक्ष जी कुनबे के आभूषण हैं, महामंत्री जी कर्ता-धर्ता.
“कुनबे से निष्कासन की अफवाह से मेरी रूह कांप गई. अफवाहों का इतिहास
दिल दहलाने वाला है. अफवाहों के सच होते देर नहीं लगती. रातों की नीद उड़ गई. दिल
का चैन लुट गया. और भी जाने क्या-क्या हुआ. मामला जीने-मरने का था. कुनबे से
निष्कासन का मतलब था, द्वीप से ही बेदखली. और एक बार सभ्यद्वीप की हवा लग जाने के
बाद कहीं और की हवा में सांस लेना मुश्किल है. सांस की समस्या से भी बढ़कर मसला
मेरे अगाध द्वीपप्रेम तथाकुनबापरस्ती का
था.
“एक कुनबे से निष्कासित हम जैसे आमलोगों को किसी अन्य कुनबे में प्रवेश
पाना मुश्किल है जब तक कोई क्विंटल न हो अपन के पास तो छटंकी भी नहीं थी. राजनैतिक
शरण की तो बात सोचना ही बेकार था, हमारे कुनबे के सब कुनबो के साथ सौहार्दपूर्ण
संबंध हैं. आंखों के सामने जीवन-मरण का सवाल तैरने लगा. इज्जतशुदा वजूद ही नहीं
द्वीप प्रेम पर भी खतरे का मामला था.
“द्वीपप्रेम पर मंडराते खतरों के बादल की आशंका से मन बेचैन हो उठा. वैसे
तो हम जानते हैं कि भगवान-वगवान कुछ नहीं होता. मरता क्या न करता. फटी में इंसान
असंभव के चमत्कार की उम्मीद करने लगता है. क्या पता हो ही. और मनाने लगा, ‘हे परमपिता
परमेश्वर, यदि आप महज कल्पना नहीं हैं, तो इस अफवाह को सच होने से रोक दें’. लेकिन अगर रहा भी
होगा तो उसमें मॉफ करने का बड़प्पन नहीं था. जैसे ही, दिमाग को ताक पर
रख, उसका स्मरण किया तैसे ही अफवाह हकीकत में बदलती दिखी. दीवारों पर ‘वांटेड’ की तर्ज पर अपनी
तस्वीर दिखी. दम निलते निकलते बचा. तभी आचार्य कौटिल्य के साम-दाम-भेद-दंड के
उपायों की याद आई. मुझे तीन ही उपाय सुलभ थे, दंड के लिए तो सत्ता की शक्ति चाहिए.
“तभी कुनबे के समाचार-सूचना केंद्र की दीवार के सूचनापट के पास हलचल
दिखी. वालमैगजीन तथा नोटिस पढ़ने के लिए अफरातफरी मची थी. पास जाकर देखा तो कखग जी
की सम्मान-गोष्ठी में शब्दों के साथ मेरे दुराचार वाल मैगजीन की सुर्खियों का विषय
था. सूचना पटल पर धोखाधड़ी से कुनबे में घुसपैठ समेत मेरे ऊपर तमाम आरोपों पर विचार
के लिए कुनबे की आमसभा की नोटिस थी.ऐसे मामलों में आमसभा जनअदालत बन जाती है. सबको मालुम है कि इस जन अदालत का मतलब था
आलाकमान के फैसले की पुष्टि. बलि के बकरे सा महसूस होने लगा. मुझे स्पष्टीकरण का
भी मौका नहीं दिया गया. बड़ी मुश्किल से तो सम्मान देने के मामले में विचारधारा से
ऊपर उठने का ऩिर्णय कर पाया था. महिमामंडन की अतिरंजना के लिए शब्दों के चयन में
पूरी सावधानी बरत रहा था. मेरी तो समझ नहीं आ रहा था लेकिन अगर इतनी शॉर्ट नोटिस
पर इमर्जेंट मीटिंग बुलाई जा रही थी तो कोई बड़ी चूक हुई होगी. ऊपर उठने के पहले
ही प्रयास में नीचे गिरने के कगार पर खड़ा था. दिल मजबूत न होता तो दौरा पड़ जाता.
लेकिन जो नहीं हुआ उसकी बात क्यों करूं.
“मैं भी इतनी जल्दी हार मानने वाला नहीं था. हाथ पर हाथ रख भाग्य भरोसे
बैठना कायरतापूर्ण पलायन है. और ज़िंदगी में जब भी लगता है कि अब क्या होगा,
कोई-न-कोई रास्ता दिख ही जाता है. अंत भला तो सब भला. आचार्य कौटिल्य के साथ अबकी मैक्यावली
की भी बातें याद आने लगीं. साध्य ही साधन की सुचिता का निर्धारक है. इश्क तथा जंग
में सब जायज है. इश्क वाली बात से असहमत हूं तथा जंग खुद ही नाजायज है. नाज़ुक,
वक़्त का तकाजा जायज-नाजायज से ऊपर उठ सुरक्षा की रणनीति सोचना था. मौके की नज़ाकत
तथा नतीजों की भीषड़ता के भय से दिमाग तेजी से दौड़ने लगा. नाज़ुक मौकों पर
बुद्धिमान पूर्वज बहुत कृपालु होते हैं. भय के बादल चीरती एक आशा की किरण दिखी.
सुनाई दिया, “एकै साधे सब सधै“.
-- 3 –
“मैं जिस राजपथ पर चल रहा था वह महामहिम महामंत्री की वातानुकुलित
कुटिया तक जाता था. इन राजपथों की एक खूबी यह भी होती है कि इनके चिकने धरातल, हम
जैसों के आने जाने के चंद हादसों के गवाह भी नहीं छोड़ते. वैसे तो यह राजपथ और भी अहम कुटियों तक जाता
होगा लेकिन उस समय तो मुझे सिर्फ मछली की आंख दिख रही थी. शेष दृष्टिसीमा लांघे जा
रहे थे.
“एक नामी-गिरामी कथाकार के रूप में महामंत्री जी की ख्याति पूरे द्वीप
में व्याप्त है. अब कुनबे की प्रशासनिक जिम्मेदारियों तथा राजनैतिक जोड़-तोड़ की
जटिलताओं की उलझनों में लिखने का समय नहीं मिल पाता. मुश्किल से तो अपनी इष्टदेवी
गुलेरी जी की आत्मा जी की वंदना-अर्चना के लिए समय निकाल पाते हैं. उनके कुछ भक्त
उनकी भावनाओं को आत्मसात कर लिखते रहते हैं तथा महामहिम के रचनासंसार को विविधता
प्रदान करते हैं.
“महामहिम, महामंत्री जी गुलेरी जी के तो प्रशंसक ही हैं, लेकिन उनकी
आत्माजी के परम भक्त. उनकी ही कृपा से कुनबे के गली-कूचों में भी आत्माजी के अनेक मंदिर
है. और कुनबे की राजधानी, कथाकुंज के मंदिर की गणना तो दुनिया के आठवें अचंभे के रूप में होनी
चाहिए लेकिन दुनिया का दुर्भाग्य है कि ऐसा नहीं है. किसी भी अच्छे काम के मीन-मेख
निकालने वाले तो हर जगह मिल जाते हैं. खुलकर तो नहीं लेकिन दबी जबान से
टेंडर-कमीशन की बात करने वाले भी कुछ हैं, लेकिन उनमें कहानी की पात्रता नहीं है.
महामंत्री जी की दिनचर्या का श्रीगणेश आत्माजी की पूजा-आरती से होता था तथा रात्रि
का भोजन आत्माजी के भोग के बाद ही करते हैं. उनको पूरा विश्वास है कि उनकी भक्ति
एक-न-एक दिन जरूर रंग लायेगी तथा गुलेरी जी की अलिखित कहानियों की उनकी तलाश पूरी
होगी. आंखों के सामने उन्नत ललाटों वाली महामंत्रीजी की भव्य मूर्ति नाचने लगी.
कदम गंतव्य की तरफ तेजी से बढ़ने लगे. अतीत शुरू से ही इस रास्ते का विरोधी था. बदले
समय की नज़ाकत नहीं समझ रहा था. जैसे-जैसे मंजिल नजदीक आ रही थी, उसका अवरोध भी
बढ़ता जा रहा था. उसके ऊपर लहना सिंह का भूत सवार था जो उसे भविष्य के सितारे
देखने से रोक रहा था. वक्त शहीद होने का नहीं, सुरक्षा तथा उसके बाद के आक्रमण
रणनीति-कूटनीति बनाने का था. अपने पास आचार्य कौटिल्य के चार उपायों में महज साम
तथा भेद के ही संसाधन सुलभ थे. दाम की भी औकात नहीं थी. कुनबे के हाई कमान भेद
डालना असंभव है. मैं मूर्खों की तरह आचार्य कौटिल्य द्वारा राजा के लिए बताये
उपायों को अपने ऊपर लागू कर रहा था. तो कुल मिलाकर मेरे पास एक ही उपाय था साम.
फौरी लक्ष्य था, आत्मरक्षा
-- मनुष्य की नैसर्गिक प्रवृत्ति. सीधी सी यह बात अतीत के पल्ले नहीं पड़ रही थी
कि पहले विश्वयुद्ध का मामला नहीं है कि लहना सिंह अपने उसके लिए शहीद हो जाये और अपन
तो कोई वह भी नहीं है. कुनबे से निष्कासन का मतलब था ज़िंदा मौत. जिंदा ही न रहे
तो क्रांतिकारिता किस काम की? मेरे तर्कों का उस पर उल्टा असर हुआ. उसका अवरोध बढ़ता ही गया और इस
हद तक पहुंच गया कि खिसकना तो छोड़िए, रेंगना भी मुश्किल हो रहा था. आज़िज आकर
मैंने उसे एक सुरक्षित खूंटे से कसकर बांध दिया और तेजी से चल पड़ा मंजिल की ओर.
“मैं बढ़ता जा रहा था तथा बढ़ती जा रही थी अतीत पर मेरी खीझ. वह समझ
नहीं पा रहा था कि आत्मरक्षा तथा भविष्य को उज्ज्वल बनाने के नेक इरादों से किए गए
समझौते टैक्टिकल रिट्रीट्स होते हैं, समझौता नहीं. लेनिन की एक कदम आगे, दो कदम
पीछे की रणनीति का सिद्धांत याद दिलाने पर भी उसे नहीं याद आया. इस तरह के समझौते क्रांतिकारी
ढंग से किया जाये तो न सिर्फ क्रांतिकारी छवि बरकरार रहेगी बल्कि इसे क्रांतिकारिता
में एक नया प्रयोग माना जायेगा. भितरघाती क्रांति का एक नया सिद्धांत विकसित होने
की संभावनाएं बनेंगी. वैसे भी क्रियाविशेषण कर्त्ता पर निर्भर करता है. क्रांतिकारी
का समझौता भी क्रांतिकारी ही होगा और यदि वह क्रांतिकारी बुद्धिजीवी हुआ तब तो
सोने में सुहागा. उसके पास तो हर तरह के अकाट्य तर्कों का पिटारा होता है.
बुद्धिजीवी सर्वज्ञ माना जाता रहा है. पूर्वजों की मान्यता गलत कैसे हो सकती है?
“कुनबे में तदुपरांत पूरे द्वीप में क्रांति की भावी संभावनाओं को
मूर्तरूप देने के माकूल हालात के निर्माण के लिए क्रांतिकारी बुद्धिजीवी का निजी
तरक्की के साथ कुनबे में बने रहना निहायत जरूरी है. लेनिन ने ऐसे ही तो नहीं
क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों की भूमिका को जोर देकर चिन्हित किया है.
“बात साफ थी. क्रांतिकारी बुद्धिझीवी क्रांति की वैचारिक बुनियाद डालता
है. यानि की क्रांतिकारी बुद्धिजीविता का वर्तमान भावी क्रांति की मूलभूत शर्त और
कुनबे में बुद्धिजीवी का तरक्कीशुदा वज़ूद उसकी तार्किक परिणति है. हमारे द्वीप
में किसी की भी तरक्कीशुदा ज़िंदगी की मूलभूत शर्त है किसी-न-किसी कुनबे की
सदस्यता या राजनैतिक शरणार्थी की मान्यता.
“मामला घूम-फिर कर फिर वहीं पहुंच गया, जहां से शुरू हुआ था. कुनबे से
मेरे निष्कासन से संभावित क्रांति पर संभावित प्रतिकूल प्रभाव पर. तभी असंभव सा
घटित हुआ. जागृत अवस्था में सपना सा दिखा. दिव्य घोडों वाला एक दिव्य रथ हवा में
तैर रहा था. तभी ऱथ पर घोड़ों की लगाम थामें एक इंसानी आकृति उभरती दिखी. सर पर
मोरपंख, ललाट से फूटती दिव्य किरणें. साक्षात द्वारकाधीश श्रीकृष्ण. क्या मोहिनी
मूरत थी. ऐसे ही नहीं इतनी गोपियां फिदा हो जाती थीं. भाव-भंगिमा तो रास लीला वाले
ही थे लेकिन तेवर अलग. हाथ में बांसुरी की बजाय, दायें हाथ की तर्जनी पर तेज गति
से घूमता चक्रसुदर्शन था.
“रथ पर पीछे, मायूस शकल बनाये एक और व्यक्ति गुमशुम बैठा था. समझते देर
न लगी कि गांडीवधारी अर्जुन थे. कृष्ण उन्हें युद्ध में गांडीव के तांडव से दुश्मन
के नरसंहार का उपदेश दे रहे थे. धीरे धीरे पूरा कुरुक्षेत्र का दृश्य आकाश में
तैरता दृष्टिगोचर होने लगा. अर्जुन गुमसुम बैठे विचलित से दिखे. द्रौपदी जैसी
सुंदरी के लिए टंगी मछली की आंख भेदना अलग बात थी. यहां तो मामला भीष्म, द्रोण,
कृपाचार्य, कर्ण और अश्वत्थामा जैसे महान धनुर्धरों का सामना करने का था. द्वारकाधीश
ठहरे त्रिकालदर्शी. अर्जुन के मन की बात समझ गये. धिक्कारते हुए बोले कि गांडीव है
तो डर किस बात का? ज्यादा-से-ज्यादा क्या होगा मारते मारते मर भी सकते हो. मरना तो सभी
को है, यहां तक कि मुझे भी. क्षत्रिय होकर बिना लड़े बेरोजगारी की ज़िंदगी का क्या
मतलब? दुश्मनों का संहार करने में
मौत भी आ गयी तो स्वर्ग में अप्सराएं मिलेगीं और जीत गये तो धरती के मजे लूटना.
“द्वारकाधीश की यह बात अर्जुन के साथ ज्यादती थी. उनकी गुमशुदी का कोई
और कारण रहा होगा मौत का डर नहीं. स्वयं द्वारकाधीश जिसके सारथी हों, उसे मौत का
क्या डर? वैसे भी तीरंदाजी की निशानेबाजी
में अर्जुन का कोई जोड़ नहीं था. जब द्रोण को लगा कि कर्ण और एकलब्य नामक भील मुकाबले
में आ सकते हैं तो कर्ण को सूतपुत्र कहकर प्रतियोगिता के बाहर कर दिया तथा एकलव्य ने स्वयं ही अपना अंगूठा काटकर गुरु के
चरणों में अर्पित कर दिया. वही द्रोण दुशमनों की कतार के महारथी थे. कृष्ण उन्हें
समझा रहे थे कि राजनीति में कोई स्थाई गठबंधन नहीं होता.
“अर्जुन राजनैतिक आचार संहिता के विपरीत नैतिकता के हवाले से गुरुजन-परिजनों
पर जानलेवा हमले के औचित्य पर सवाल उठा रहे थे. श्रीकृष्णजी समझाने लगे कि जब
मामला सिंहासन का हो तो उचित-अनुचित; नैतिक-अनैतिक किस्म के सवाल बेतलब हैं. जंग सत्ता प्राप्ति तथा
विस्तार का अपरिहार्य साधन है, साध्य नहीं. साध्य सधने के बाद हर साधन अपने-आप
पवित्र तथा अनुकरणीय बन जाता है. अर्जुन कर्म करने की बजाय दिमाग लगाने लगे तथा
युद्धोपरांत की विभीषिका का रोना रोने लगे.
“लेकिन कृष्णजी तो करुणा की मूर्ति लग रहे थे. छत्रिय धर्म की आस्था से
विचलित चिंतन की वर्जित दिशा में अर्जुन के बढ़ते कदम देख, द्वारिकाधीश क्रोधित
नहीं हुए, हां चेहरे पर साश्वत मुस्कान गूढ़ हो गई. अर्जुन के कंधे पर स्नेहिल
स्पर्श के साथ युधिष्ठिर को गद्दी पर बैठाने के अपने वचन का हवाला देते हुए समझाया
तथा चिंतन के वर्जित क्षेत्र में प्रवेश के खतरों से आगाह करते हुए, मछली की आंख
भेदने की एकाग्रता सी युद्ध-कर्म पर चित्त
लगाने की सलाह दी. अर्जुन को फिर भी चिंतनमग्न चुप्पी में देख, द्वारकाधीश की
मुस्कान की गूढ़ता बढ़ने लगी तथा तर्जनी पर घूमते सुदर्शन चक्र की रफ्तार भी. अर्जुन के
चेहरे पर वीर रस उभरने लगा तथा उनके हाथ खुद-ब-खुद गांडीव की तरफ बढ़ने लगे.
“कुरुक्षेत्र के घमासान के दृष्य आने से पहले ही हवा में तैरता सुनहरा
रथ आंखों से ओझल होने लगा. देववाणी सी हवा में एक आवाज तैरने लगी, ‘अंत भला तो सब भला ‘. इस दिवा-स्वप्न ने
मेरी आंखें खोल दी. जीने-मरने के सवाल की डेडलाइन बहुत नजदीक थी. दिमाग तेज गति से
चक्कर काटने लगा. अब परियोजना के औचित्य के बारे में कोई संदेह नहीं रहा. क्रांति
की संभावनाओं के विकास के मद्देनज़र किया गया कार्य उचित ही नहीं, वांछनीय होता है.
“क्रांतिकारी संभावनाओं के हितवर्धन में एक भी पत्थर पलटे बिना छोड़
देने का मतलब था क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों की भावी पीढ़ियों में अराजक अथवा
प्रतिक्रंतिकारी उपमा पाना. वैचारिक अकड़ के चलते समझौतापरस्ती के विरोध की हेकड़ी
से इतिहास में अपनी छवि के कलंकित होने की संभावनाओं से अधिक, मेरी चिंता का विषय
संभावित क्रांति के इतिहास का संभावित कलंक था. वैचारिक सुचिता के मोह में अनुशरण
का अड़ियल विरोध वामपंथी उच्छृंखलता के बीज बो सकता था जिसका प्रतिकूल असर
कुनबापरस्ती तथा द्वीपप्रेम की गौरवशाली संस्कृति पर पड़ना अवश्यंभावी था.
“अब मैं संभावित अपराधबोध से पूरी तरह मुक्त था तथा प्रयोग में सफलता
के प्रति आश्वस्त. अतीत के क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों से प्रेरणा ले, तहेदिल से
आत्माजी का स्मरण करते हुए गंतव्य की तरफ बढता रहा. महामंत्रीजी की कुटिया की
यात्रा की दूरी की अनुभूति ने प्लेटो की कृति ‘कानून’ में तीन बुज़ुर्गों की ज्वायस की गुफा की यात्रा के वर्तालाप की याद
दिला दी, जिससे इतना भारीभरकम ग्रंथ रचा गया. लेकिन मेरी यात्रा में कोई सहयात्री
तो था नहीं इसलिए आत्मालाप ही संभव विकल्प था. हर किसी को अपनी लड़ाई खुद लड़नी
पड़ती है, सोचकर खुद को शांत्वना दी. अभेद्य सुरक्षाकवच से लैस महामंत्रीजी की
कुटिया अब दृष्टि सीमा में थी.
“परिसर का प्रवेश विस्मयकारी था. अनिवार्य खानातलाशी की रस्म की
खानापूर्ति की जगह द्वारपालों ने अभिवादन से आवाभगत के साथ, विनम्रभाव से महामंत्रीजी
के कक्ष की तरफ इस अंदाज में इशारा किया जैसे महामहिम मेरा ही इंतजार कर रहे हों.
महामंत्री जी त्रिकालदर्शी से लगे. या फिर कुनबे का खुफियातंत्र इतना प्रखर है कि
लोगों के मन की बात जान लेता है. लेकिन अब यह सब सोचने का क्या फायदा जब दे ही
दिया सिर ओखली में. चेहरे पर तनाव या घबराहट के तनाव के संभावित भावों का दृढता से
दमन करता हुआ, बढ़ता रहा. हिम्मत तथा चतुराई वक्त का तक़ाजा थी. लड़ाई तलवार से नहीं
साहस और बुद्धि से लड़ी जाती है.
“यह देखकर तो विस्मय सीमापार चला गया कि महामंत्री जी वाकई मेरा इंतजार
कर रहे थे. दरवाजा खुला था कुटिया में वे अकेले थे. प्रवेशद्वार पर बलि के बकरे का
आभास हकीकत होती दिखी. दिल मजबूत है नहीं तो दौरा पड जाता. संदर्भ से परे स्कूल
दिनों की दो पंक्तियों का स्मरण आया. ‘तोड़कर दुनिया की दीवार, साजना करलो हमसे प्यार, जो होगा देखा जायेगा‘. उन्नत ललाट,
दुग्धधवल परिधान में, सादगी की मूर्ति से, दुग्धधवल आसन पर विराजित गहरे सांवले
रंग के महामहिम को देखकर लगा जैसे कपास के खेत में कोई भैंसा कूद गया हो. लेकिन इस
नाज़ुक घड़ी में ऐसा लगना खतरनाक हो सकता था. लगने को रोक दिया.
“मिठास के तड़के वाली कुटिल मुस्कान के साथ आसन की तरफ इशारा किया. मैं
शाष्टांग करने 45 अंश ही झु पाया था कि उन्होंने कर्कश आवाज में डांटते हुए कहा कि
नये नाटक की जरूरत नहीं है. मैं डरकर सीधा हो गया. खिसिया कर सामने आसन पर बैठ
गया. शुरुआत का बिंदु यानी कि संवाद के ज़ीरो प्वॉइंट के बारे में सोचने लगा.
-- 4 –-
“महामंत्री जी से यह मेरी पहली निजी मुलाकात थी. अविश्वसनीय किंतु
सत्य. बिल्कुल आमने-सामने. मैं थोड़ा सकपकाया सा तथा महामहिम कुटिल मुस्कान की
मुद्रा में. मौन मुस्कान की मुखरता से ऊंट तथा पहाड़ वाली कहावत की चरितार्थता का
परसंतापी सुखबोध टपक रहा था. लेकिन यह
वक़्त प्रतिष्ठा तथा आत्मसम्मान जैसे विचारों को मन में आने से रोकने का था. वक़्त
की नज़ाकत देख मन को समझाया कि पेट का सवाल अंतरात्मा की सुचिता के सवाल से पहले
आता है, फिर मुफ्त में तो कुछ मिलता नहीं. बलिदान की जरूरत होती है. अंतरात्मा से
बडी कोई बलि होती नहीं. मैं मुंह खोला ही था तथा ‘महामहिम’ ही कह पाया था कि महामहिम ही बोल पड़े, ‘रास्ता कैसे भटक
गये. कल की जन अदालत में तो मिलते ही, चलो बोलो’.
“दुबारा भी आधा ही वाक्य बोल पाया था, ‘नहीं महामहिम, रास्ता भूलकर नहीं, दर्शनार्थ आ
गया, कई दिनों से........ , ‘ कि महामहिम ने फिर बीच में ही टोक दिया लेकिन मैं असीम धीरज का प्रण
करके गया था. बोले, हे, सुनो ज्यादा चालाकी तथा नौटंकी की जरूरत नहीं. मैं
तुम्हारी रग रग से वाकिफ़ हूं. तुम्हारी हर करतूत का चिट्ठा है हमारे पास‘.
“चेहरे पर दीनहीन भाव लाने के प्रयास के साथ बोला, ‘महामहिम आप तो
सर्वज्ञ हैं, आप क्या नहीं जानते, वैसे भी हमारे कुनबे की गुप्तचर व्यवस्था का
पूरे द्वीप में दबदबा है. कौन नहीं जानता कि आप की इच्छा के बिना कुनबे में पत्ता
भी नहीं हिलता. आपसे चालाकी की किसकी मजाल?
तथा अभिनय कला से तो मैं बिलकुल ही अनभिज्ञ हूं.
मैं तो वाकई दर्शनार्थ ही आया हूं तथा यह निवेदन करने महामहिम, उस दिन..........
“फिर बात बीच में ही रह गई. ‘किस दिन’? कहते हुए महामहिम के चेहरे का कुटिलभाव रौद्र रस में तब्दील होने
लगा. दहकती आंखें किसी भयानक ज्वालामुखी का पूर्वाभास दे रहीं थी. उनकी दुग्ध धवल
मूछें फड़कने लगीं. बोले, ‘जब ....... … (एक प्रचलित अश्लील
उक्ति) तब दर्शन की यद आ गई. सीधे काम की बात करो.‘ शील-अश्लील पर चिंता का वक्त नहीं था, क्रोध को
एक ही घूंट में पी जाने का था. पी गया.
“इतना कहकर महामंत्री जी क्रोध से हांफने लगे. सोचा हांफना रुके तो बात
का सिलसिला आगे बढ़े. लेकिन बीच में हांफना रोक फिर बोलना शुरू किया. रौद्ररस वापस
कुटिलभाव में बदल गया. कुनबे कल की जनरल बॉडी यानि कि जन अदालत में आ जाना. नहीं
आओगो तो भी फैसला हो ही जायेगा. आ जाओ तो ठीक ही रहेगा क्योंकि शायद तुम्हारे लिए
कुनबे की आमसभा में उपस्थिति का अंतिम मौका होगा. उनके चेहरे रोबीले पर फिर परसंतापी
सुख के भाव तैरने लगे.
“मामला सुलझने की बजाय उलझता ही जा रहा था. योजना ध्वस्त होती दिखी. अभिव्यक्ति
पर नियंत्रण के गतिरोध की जटिलता की काट ही नहीं सूझ रही थी. महामहिम एक वाक्य भी
नहीं पूरा करने दे रहे थे. शब्दों का जादू तभी रंग ला सकता है जब जादूगर को मंच
मिले. संकटकाल में मान-अपमान से ऊपर उठ, धैर्य से काम लेने की उक्ति याद आई. शायद उक्तियों
से ही युक्ति निकले. निराशा ऐसे वक्त विनाशकारी हो सकती थी. आशा को कसकर पकड़
लिया. दुम हिलाकर, रिरियाने के अंदाज में गतिरोध तोड़ने के इस प्रयास से रास्ता
बनता दिखा. ‘महामहिम, एक बार, सिर्फ एक बार पूरी बात सुनने की कृपा करें, बिना शर्त आजीवन
आभार का वायदा रहा‘. उस दिन माननीय कखग जी की सम्मान सभा का भाषण स्वस्फूर्त होने के
कारण, धृष्टता क्षमा हो महामहिम, पूरी सावधानी के बावजूद, शब्दों के चयन में शायद
कोई मिस्टेक हो गई. दर-असल, महामहिम........ ‘
“बात आगे बढ़ती कि फिर उनके तेवर गरम हो गये. टोक कर तमतमा कर बोले, ‘क्या
मिस्टेक-मिस्टेक लगी रखा है. उस दिन, किस दिन?’
जब अस्तित्व का खतरा हो तो निराशा की अनुभूति को
रोकने लिये धैर्य तथा साहस खुद-ब-खुद आ जाता है. दुबारा शुरू हो गया – ‘अब आप यक़ीन नहीं
करेंगे, लेकिन मेरी नीयत में कोई खोट नहीं है महामहिम, सच कह रहा हूं कि उस दिन,
माननीय कखग की प्रतिष्ठा में प्रशंसा के अतिरेक भावावेश में शायद कोई अवांछनीय
तत्व मेरे भाषण में घुसपैठ कर गया, लेकिन महमहिम मेरा द्वीपप्रेम तथा कुनबापरस्ती ........’
“महामहिम के चेहरे पर इस बार न तो कुटिलता दिखी न क्रोध, बल्कि इनकी
जगह कुशल राजनीज्ञ की विनम्रता दिखी. मैं डर सा गया. लेकिन डरा तब तो जरूर मरा.
मैंने चेहरे पर निडरता का मुखौटा पहन लिया. एक तपे हुए राजनीज्ञ की तरह, अतिमृदुभाषिता
की मिशाल कायम करने के अंदाज में बोले, ‘देखो मेरे युवा मित्र, मैंने तो कुनबे के महामंत्रित्व के काटों का
ताज़ पहना ही इस लिए कि कुनबे में अभिव्यक्ति तथा विचारों की आजादी को संस्थागत कर
सकूं. तुम्हें कुनबे की गौरवशाली न्यायप्रणाली पर नाहक ही संदेह हो रहा है. जब तक
मैं महामंत्री हूं, इस कुनबे में अन्याय का प्रवेशनिशेध है. परम पूज्यनीय कखग की
सम्मान सभा में तुमने जो कुछ कहा, असहमति के बावजूद, मैं तुम्हारी क्या पूरी
दुनिया के हर इंसान की अभिव्यक्ति तथा असहमति के अधिकार का महानतम समर्थक हूं, यदि
वह कुनबापरस्ती तथा द्वीप प्रेम की भावनाओं को आहत न करे. तुम्हारे उस दिन के भाषण
का तुम्हारे विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई का कोई ताल्लुक नहीं है. तुम तो जानते
ही हो सभ्य द्वीप की लोकतांत्रिक परंपराओं की जड़ें कितनी गहरी हैं. हर किसी को
कुछ भी सोचने-बोलने या बिना सोचे बोलने की पूरी आज़ादी है. लेकिन इस बात से तो कोई
इंकार नहीं कर सकता कि कुनबापरस्ती और द्वीप की प्रतिष्ठा तथा गौरव की बातें किसी
भी व्यक्ति की नाक से ऊपर होती है. बल्कि सर्वोपरि होती है. तुम्हारे खिलाफ आरोपों
का घड़ा कब का भरा पड़ा है. वैचारिक तोड़फोड़ से लेकर इस अनूठे कुनबे में घुसपैठ
तक, वाह्य-द्वीपों के चरमपंथियों के साथ खतोकिताबत से लेकर द्वीप-द्रोह की जघन्य
हरकतों तक. द्वीप के केंद्रीय सतर्कता विभाग से भी तुम्हारी फाइल मंगाई गई है.
तुम्हे तो मालुम ही होगा कि द्वीप-द्रोह तथा घुसपैठ जघन्यतम
अपराधों की श्रेणी में आते है’. महामहिम की वाणी में विराम देख, आगे की उनके मन की बात के बारे में सोचने
लगा. कितना परसंतापी सुख मिल रहा होगा. महामंत्री जी मेरे चेहरे की प्रतिक्रिया
पढ़ने लगे. तभी सेवक कोई पेय ले आया. महामंत्री जी ने स्वयं अपने कर कमलों से मेरी
तरफ ग्लास बढ़ाया तथा मैंने आभार व्यक्त करने के लिए टप-टप चापलूसी टपकानें में
जान लगा दी, लेकिन टपकी कि नहीं, पता नहीं चल पाया. लगा कि महामहिम किसी गहन चिंतन
में खो गये. उनके चेहरे के भावों में करुणा की रेखाएं तलाशते हुए, मन ही मन
आत्मालाप करने लगा.
“कुनबे के संविधान में घुसपैठ या द्वीप द्रोह का आरोप प्रमाणित करने का
दायित्व प्रशासन का नहीं है, बल्कि उसे अप्रमाणित करना आरोपी का दायित्व है. आमसभा
जन-अदालत का काम करती है. यदि आरोप तय हो गया, वैसे तय होना तय ही होता है, हाई
कमान की राय ही सबकी राय होती है, तो आरोपित के पास न्यायिक सभा का सामने करने या
स्वतः आत्मनिर्वासन के विकल्प होते है. कहा जाता है संविधान निर्माताओं ने यह
प्रावधान प्राचीन एथेंस के संविधान से उठाया था. सुकरात ने न्यायिक सभा का सामना
किया और सजा-ए-मौत का सम्मान हासिल किया. अरस्तू ने आत्म-निर्वासन का चुनाव किया
तथा एक साल बाद खुद-ब-खुद मर गये. यही सब सोच रहा था कि महामंत्री जी ने तांबूल
पेश किया. इनके मन की बात पकड़ नहीं पा रहा था. महामहिम के मुखारविंद में हरकत
हुई, स्नेहिल मुस्कान उभरी, मधुर स्वर में बोले, ‘अब तो यकीन हो गया कि इस मुकदमें का तुम्हारी सोच
तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी से सीधे कोई लेना-देना नहीं है. ठीक.’ इतना कह कर मेरी
रुकसती का इशारा करने लगे. संकल्प पक्का न होता, तो दिल में तूफान आ जाता.
“चक्रव्यूह की जटिलता विकट होती जा रही थी. लेकिन मैं भी दुस्साहस से आगे बढ़ने
को प्रतिबद्ध था. महाभारत वाले, अर्जुनपुत्र, अभिमन्यु का स्मरण किया. एक बार अंदर
घुसने को मिल जाये फिर देखा जायेगा. सोचा कुछ शॉक ट्रीटमेंट आजमाऊं. चेहरे पर
दीनहीनता का भाव लाते हुए, भावुकता का पुट देते हुए परत-दर-परत मक्खन लपेटना शुरू
किया. ‘महामहिम, आप तो करुणानिधान हैं, कृपावान हैं. एक बार, बस एक बार बात
पूरी करने का अवसर दें तो ऐसे-ऐसे गूढ़ रहस्य उद्घाटित होगें कि आप विस्मय से
चकित-व्यथित हो जायेंगे. आपका यह परम भक्त, आपके सियासी दुश्मनों की साज़िश का
शिकार हुआ है, महामहिम को मेरे बारे में गलत सूचनाएं दी गयी हैं. मेरे विरुद्ध भड़काया गया है जिससे
कि...... ‘
“यह पाशा भी सही नहीं पड़ा. मुंह चिढ़ाने के अंदाज में बाअदब बोले ‘बकवास बंद. हा हा.
गलत सूचनाएं. साज़िश. भड़काना. रहस्य. परम भक्त. शब्द ज्ञान अच्छा है. मेरी शकल पर
बेवकूफ लिखा है क्या कि तुम्हारे शब्दजाल में फंस जाऊंगा.’ मामला बनने की राह पर दिखा. मौके का फायदा उठाते
हुए, बीच में बोल पड़ा. ‘नहीं करुणानिधान, महामहिम, आप तो सर्वज्ञ तथा मर्मज्ञ हैं. आप की शकल
पर यह लिखने की किसकी मज़ाल?’
“मक्खन की परतें लगता है गलत लग गयीं. असर उल्टा हो गया. क्रोध मे
बोले, ’बहुत दिनों से निगरानी में हो. तुम्हारी रग रग से वाकिफ हूं. तुम क्या
सोचते हो, माननीय कखग की सम्मान सभा में तुम्हाऱा नाम तुक्के से पहुंच गया था.
तुम्हें योजना के तहत अवसर दिया गया जिससे कि संदेह की अंतिम पुष्टि हो सके. बहुत
हो चुकी आवभगत. अब अपनी तशरीफ का टोकरा ले जाओ यहां से. कल की सभा के कई
दिशा-निर्देश देने हैं. अलविदा.’ पाशा फिर गलत पड़ गया. अनापेक्षित
कुठाराघात. लेकिन मेरे पास लौटने का कोई रास्ता ही नहीं था. पांव पर गिर पड़ा. ‘दया करें महामहिम.
ऐसा न करें. बस एक बार, सिर्फ एक बार बात पूरी करने दें. दूध का दूध, पानी का पानी
हो जायेगा.’ पांव पड़ना काम न आया. मुझे अपने ब्रह्मास्त्र की सफलता पर कोई संशय
नहीं था, लेकिन चलाने की भूमिका ही अटक-अटक जा रही थी. अब बिना भूमिका के ही
ब्रहमास्त्र चलाने की सोचा. गुलेरी जी का ज़िक्र करने का संदर्भ गढ़ने की सोच ही
रहा था कि महामहिम भांप गये. चेहरे पर रौद्ररस दौड़ने लगा. ‘गुलेरी जी का नाम
तुम्हारे पापी मुंह में शोभा नहीं देता. तुम्हारे पास साम्राज्य की आन में जान की
बाजी लगाने वाला लहना सिंह सा चरित्र है, जो इसलिए शहीद हो गया कि उसने कहा था?’ एकाएक महामहिम के चेहरे से रौद्र रस गायब हो गया
उसकी जगह रहस्योद्टन की मुद्रा ने ले लिया. धीमी आवाज में कान में मुह लगभग सटाकर
बोले, ‘वैसे लहना सिंह इसलिए नहीं शहीद हुआ कि उसने कहा था. यह रहस्य महज
मुझे मालुम है. उचित समय पर रहस्योद्घाटन करूंगा. वह समय दूर नहीं जब गुलेरीजी की
तमाम अलिखित कहानियां प्रकाश में आयेंगी. जनसाधारण उन्हें मेरी समझेगा. आत्मा को
नाम से क्या काम, फिर वह चाहे गुलेरीजी की ही क्यों न हो.’ तीर निशाने पर लगा.
बात बनती दिखी. चाह कर भी मुस्कान में कुटिलता न ला सका.
“जटिलता कमती दिखी तो साहस बढ़ा. ‘गुस्ताखी मॉफ हो महामहिम. मेरी क्या औकात गुलेरीजी से तुलना की जिनकी
आत्माजी हमारे कूनबे की इष्ट देवी है. ऐसे दुस्साहस की तो कोई भी कल्पना ही नहीं
कर सकता. वैसे भी धार्मिक भावनाओं की हता-हती के दुष्परिणामों का खतरा खतरनाक होता
है. और महामहिम, आप जानते ही हैं कि धार्मिक भावनाएं द्वीपवाद की भावना से भी ज्यादा
नाजुक होती हैं. फिर गुलेरी जी तो हमारी इष्ट देवी के अस्तित्व के श्रोत हैं.
“पते की बात पर पहुंचता कि महामहिम कुपित हो, डांट कर चुप करा दिया.
उन्हें कुत्ते की दुम की न जाने क्यों याद आ गयी. ‘बंद करो यह बकवास. कुत्ते की दुम की तरह पता नहीं
क्या ऊल-जलूल बके जा रहे हो‘. अन्य अवसर होता तो कुत्ते की दुम तथा ऊल-जलूल के अंतःसंबंधों पर
उनकी राय मांगता. लेकिन वक़्त की नज़ाकत ने यह कह कर ऐसा करने से रोक दिया कि
संकटकाल में आत्मसम्मान, मान-मर्यादा तथा विवेक को दंभ, अहंकार तथा कुमति समझ ताख
पर रख देना चाहिए. मैं खिसियानी बिल्ली सा ही ही करने लगा, नोचने को खंभा था नहीं.
महामहिम के चेहरे से रौद्र भाव फिर धीरे धीरे कुटिल भाव में बदलता दिखा. आत्मालाप
के अंदाज़ में बोले, ‘हर कोई प्रवचन देने लगता है. पता नहीं क्यों लोगों को सातवां सवार
बनने का इतना शौक क्यों होता है?’
“फिर वहीं पहुंच गये जहां से चले थे. वाद-प्रतिवाद घातक होता और मैं दुम
हिलाने के अंदाज में चारण शैली अपनाते हुए बोला, ‘सातवां सवार वाली आपकी कहानी तो अद्भुत है’. महामंत्रीजी मुदित भाव
छिपाने की चेष्टा में बोले, ‘मक्खन मारने की कोशिस कर रहे हो‘? ‘धृष्टता क्षमा करें महा महिम, मैं शायद अपनी बात ढंग से कह नहीं पाया.
दर-असल कुनबे में कदम रखने के साथ ही मैं आपकी आभा से इतना अचंभित हुआ कि आपके
प्रति त्वरित स्वस्फूर्त भक्तिभाव स्वाभाविक था. दर-असल आत्माजी के बाद सबसे बड़ा
भक्त तो मैं आपका ही हूं. और महामहिम जानते ही हैं कि भक्तिभाव मन की आंतरिक
प्रवृत्ति है जिससे आंतरिक अद्भुत सुख मिलता है, इसीलिये कभी इस भाव को वाह्य जगत
में प्रकट नहीं किया. इसलिए भी इस भाव को मन में ही छिपाये रहा कि प्रशंसा, प्रचार
तथा चापलूसी से दूर रहने की आपके संत स्वभाव पर आंच का भी खतरा था. विश्वास करें
महामहिम, ........ .’ महामंत्री जी के चेहरे पर
हास्यभाव आ गया और कुछ शरमा से गये. कहीं से आवाज आई, ’पतन की भी कोई सीमा
होती है’ . कमबख्त अतीत था, अब तक भी नहीं समझा था कि पतन की उसी तरह कोई सीमा नहीं होती जैसे
उत्थान की कोई सीमा नहीं होती. मैं जब अतीत से बात कर रहा था, महामंत्री जी
आत्ममुग्ध हो अपनी मूंछ के बालों से खेल रहे थे. वातावरण के मौन को तोड़ते हुए
बोले, ‘तुम्हारी इस बात से सहमत हूं कि खुशामद तथा आत्मप्रचार मुझे वाकई
निहायत नापसंद हैं, जब तक कि किसी बडे मकसद की मूलभूत जरूरत न बन जाय‘.
“आशा की किरण जो बादलों में छिपने जा रही थी पुनः प्रकट होने लगी.
गाड़ी पटरी पर आती दिखी. अब इसे उतरने नहीं देना था. मूलभूत शर्तों की बात सुन,
मैं संभावित क्रांति के प्रति अपने मूलभूत कर्तव्यबोध के प्रति सजग हो एक कदम आगे,
दो कदम पीछे के लेनिन के सिद्धांत के क्रियान्यवन की रणनीति का इस्तेमाल करते हुए,
बिना मौका गंवाए बोल पड़ा, ‘आप की सिद्धांतप्रियता तो जगजाहिर है, महामहिम! ऐसा गौरवशाली
व्यक्तित्व जिसकी रग रग से टप-टप महानता टपती हो, जो इतने समय से इस सम्मानित
कुनबे के महामंत्री के रूप में पूरे द्वीप में कुनबे का नाम रोशन करता रहा हो, जो
निःस्वार्थ भाव से इस पद पर रहते हुए आजीवन कुनबे की सेवा के लिए संकल्पबद्ध हो, इतना ही नहीं, जो अगली
पीढ़ियों को भी इस अहम जिम्मेदारी के लिए प्रशिक्षित कर रहा हो, चाटुकारिता या
चापलूसी उसे पसंद आ ही नहीं सकती. ‘
“महामंत्री जी द्रवित होते दिखे उनकी आंखों में सहानुभूति की एक रेखा
दिखी. मेरी आशा की किरण की चमक बढ़ने लगी. महामंत्री जी के चेहरे पर दय़ा भाव तैरता
दिखा. द्रवित हो बोले, ‘देखो बाकी आरोप तो फिर भी उतने संगीन नहीं हैं. लेकिन घुसपैठ का मामला
संगीन है. बात अब हाथ से निकल चुकी है. कुनबानामा में छपी तुम्हारी कहानी की
प्रामाणिकता पर सवाल उठ गया है. वैसे मैं क्या सारा निदेशक मंडल जानता है कि
कुनबानामा मे छपी तुम्हारी कहानी तुम्हारी ही है. वस वही कुनबे की तुम्हारी आजीवन
नागरिकता के लिए पर्याप्त है. लेकिन अब तो उसकी मौलिकता पर ही प्रश्न-चिन्ह लग गया
है. और लग गया है तो लग गया है. ज्यादा क्रांतिकारी बनते हो. अब भुगतो. क्योंकि
कुनबे की कसौटियों पर मौलिकता प्रमाणित कर पाना नामुमकिन है. किसी भी लेखक के लिए
रचना की मौलिकता के प्रमाण की असंभाव्यता के मकसद से व्यापक विचारविमर्श के बाद ही
इन कसौटियों का निर्धारण किया गया है.’
“परिस्थितियों के अनुकूलन के आभास से जान-में-जान आई. लेकिन तभी
महामहिम के चेहरे के भाव कठोरता की तरफ बढ़ने लगे. जान-में आई जान फिर से जाने को
हुई. ‘क्या पड़ी रहती है तुम्हें सारे बड़े लोगों से बिगाड़ कर रखने की.
गुप्तचर सूचनाओं से पता चलता है कि जबान तुम्हारी बेलगाम है. सम्मानितों का उचित
सम्मान नहीं करते. जिसके बारे में जो मन में ऊल-जलूल आया बक देते हो. मेरे तथा
कुनबे आभूषण, परम पूज्य अध्यक्ष जी के बारे में भी तुम्हारे लूज़ टॉक्स की सूचनाएं
दर्ज हैं‘. पॉज़ लेकर मेरे चेहरे के
भाव पढ़ने लगे, जिन्हें मेंने छिपा लिया था. संवाद का मौन तोड़ते हुए मैंने निवेदन
किया, ‘महामहिम आप भी जानते हैं, सीधे-सादे ईमानदार लोगों के हजार दुशमन बन
जाते हैं. मैं तो द्वीपप्रेम और कुनबापरस्ती तथा इष्ट देवी, आत्माजी की तपस्या तथा
अपने आराध्य तथा मिसालपुरुष, यानि कि महामहिम की भक्ति में इतना व्यस्त रहा कि
अपने भक्तिभाव को अभिव्यक्ति देने का भी समय नहीं मिला. पीठ पीछे कुनबे के आंतरिक
शत्रु मेरे बारे में क्या क्या कहते रहे, मुझे पता भी न चला. अतीत में कोई गलती
ङुई भी हो तो, महामहिम गड़े मुर्दे उखाड़ने ...... ‘. महामंत्री जी के चेहरे पर झल्लाहट के भाव देख
सकपका गया तथा हड़बड़ी में मुंह से निकल गया, ‘वैसे भी, महामहिम, अतीत को मैं खूंटे में कस कर बांध आया हूं. ‘
“चेहरे पर तैरती
झुंझलाहट, क्रोध-भाव में तब्दील होने लगी. डांटने के अंदाज में बोले, ‘ज्यादा बकवास नहीं.
मुझे बच्चा समझ रखा है. तुम्हारे जैसे कितनों को पढ़ा चुका हूं. अब और एक भी शब्द
नहीं. चुपचाप मेरी बात सुनो, नहीं तो .......
‘. नहीं तो के बाद वाली बात उन्होने उंगलियों के
इशारे से बाहर जाने का संकेत देकर पूरी की. आशा की किरण दुबारा बादलों में छिपती
सी लगी. मैंने हाथ जोड़कर, संकेत से चुपचाप रहने का वायदा किया और महामंत्रीजी की
वाणी गतिशील हो गयी. लगा किसी चुनावी रैली को संबोधित कर रहे हों. कुनबे तथा द्वीप
की कई गौरवशाली परंपराओं के बारे में ज्ञानवर्धन के बाद कुनबे की मर्यादा के प्रतिकूल, मेरे निंदनीय
चाल-ढाल के बारे में लोगों की राय पर लंबा भाषण देने के बाद बोले, ‘बात महज चालचलन की
होती तो यह नौबत नहीं आती. कुनबे में वरिष्ठता-कनिष्ठता की आचार संहिता का उल्लंघन
करते हो. विश्वस्त सूत्रों का मानना है कि तुम चरमपंथी हो तथा कुछ भूमिगत
अतिवादियों से तुम्हारे गुप्त संबंध हैं. तुम्हारे ऊपर विमर्श में पौरुष-स्त्रीत्व
के द्वीप के स्थापित मूल्यों के उल्लंघन तथा आध्यात्मिक आस्थाओं के खंडन के भी
आरोप लगते रहे हैं. दैवीय शक्तियों का मजाक बनाना तुम्हारा मिज़ाज बन चुका है. न
भूत से डरते हो न भगवान से तो फिर छोटी मोटी सत्ताओं की परवाह क्यों करोगे? किशोरों में
नास्तिकता की भावना तो भरते ही हो आस्थावानों की नाज़ुक भावनाएं आहत कर आह्लादित
होते हो. देवलोक का मजाक बनाने वाला तुम्हारे अप्रकाशित लेख की नकल भी तुम्हारी
फाइल में है. बोल दो, यह सब गलत तथा निराधार है, राजनैतिक विरोधियों की साज़िश है.
है न? तुम्हारी फाइल काफी मोटी हो गयी है. कब तक नहीं फूटेगा पाप का घड़ा?’
“उत्तेजना से महामंत्री जी हांफने लगे थे. सांस की गति सामान्य करने के
लिए हथेली पर मत्था टेक कर चिंतन की मुद्रा में सुस्ताने लगे. शायद अगले वाक्यों
के बारे में सोच रहे हों. मेरी समझ में नहीं आया वह लेख कैसे इन्हें मिल गया. जी
में आया कि गांधीजी की तरह कह दूं कि ‘जी, आप के सब आरोप सच
हैं और आगे भी ऐसा करता रहूंगा?‘ लेकिन गांधीजी तो फिर गांधीजी थे. अदालत में पहुंचते ही सम्मान में
जज खड़ा हो गया था. हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई का जुनून था तथा पूरा मुल्क
गांधी के पीछे था. यहां तो जन अदालत में एक भी व्यक्ति मेरे साथ नहीं होगा. यहां
की कार्यकारिणी तथा न्याय प्राधिकरण में गजब की एका है. जी में इतिहास के कुछ बड़े
लोगों, जैसे कि सुकरात या गैलेलिओ के साहस की याद आई. लेकिन ये तो वाकई बड़े लोग
थे. यह भी जी में आया कि इस महामंत्री का कच्चा चिट्ठा खोलना शुरू कर दूं. लकिन
अभी तो अपना ही खुला हुआ तोपना था. संकट के गुरुत्व तथा मौके की नज़ाकत देखते हुए
चुप रहने में ही भलाई थी. ये नजाकत भी अजीब है, कभी वक्त से चिपक जाती है, कभी
धार्मिक भावनाओं से तो कभी रिश्तों से. माथे को हथेली से मुक्त कर दार्शनिक अंदाज
में महामहिम बोले, ‘कुनबे के बहुत से सदस्यों ने तो जीवन में मौलिक कुछ किया ही नहीं,
लिखना तो दूर. कट-पेस्ट से ग्रंथ छाप देते हैं. उन्हें तो कोई कुछ नहीं कहता. सारे
जाने-माने लोग तुमसे ही क्यों ख़फा रहते
हैं?’
“अब बताइये,
महामंत्री जी को यह सवाल उन जाने माने लोगों से पूछना चाहिए जो ख़फा होने क धतकरम
करते हैं. लेकिन हालात की नज़ाकत देखते हुए मौन ही उपयुक्त रणनीति थी और महामंत्री
जी का आदेश भी. नशीहत देने वाले पिदराना अंदाज़ में बोले, ‘देखो मैं जानता हूं
कि तुम प्रतिभाशाली हो तथा बेहतर इंसान भी. प्रतिष्ठान के साथ मिलकर कुनबे की
गरिमा में चार चांद लगा सकते थे. बुरी सोहबत में बिगड़ गये. विप्लवी बनने का शौक
है न. बनो. दुनिया से अलग दिखना है, दिखो. सोहबत ही बनाती बिगाड़ती है. अंग्रेजी
की वह कहावत याद है, न कि तुम अपनी सोहबत बताओ मैं तुम्हारा चरित्र बता दूंगा, या
ऐसा ही कुछ. यह बातें इस लिए बता रहा हूं कि मैं तुम्हारा शुभचिंतक हूं. तुम जानते
ही हो कि जन अदालत में तुम्हारे खिलाफ घुसपैठ का आरोप सर्वसम्मति से तय ही हो
जायेगा. तुम न्यायिक सभा में सजा तय होने की बजाय आत्म-निर्वासन ही चुनोगे. कितना
लोकतांत्रिक है हमारा कुनबा, द्वीपद्रोहियों को भी विकल्प मिलता है. तुम कुनबे की
रीति-रिवाजों के प्रति थोड़ी भी वफादारी दिखाते तो नौबत यहां तक न पहुंचती. अपने
किये का फल तो भुगतना ही पड़ता है. यह बातें इसलिए भी बता रहा हूं कि यदि किसी
अन्य कुनबे या किसी अन्य द्वीप के किसी कुनबे में प्रवेश मिल जाये तो मेरी बातें
गांठ बांध लो, काम आयेंगी.’
“कितना दोगलापन है,
सभ्यद्वीप में निष्कासन को स्वैच्छिक आत्मनिर्वासन कहा जाता है. खैर यह सभ्यता के
दोगलेपन पर विमर्श का उचित अवसर नहीं था. बार बार बात वहीं आकर रुक जा रही थी जहां
से शुरू हुई थी. जी में आया कि सुना दूं इस गुरुघंटाल को और यह गुगुनगुनाते हुए
चलता बनूं, ‘तोड़कर दुनिया की दीवार, साजना कर लो हमसे प्यार, जो होगा देखा जायेगा‘. लेकिन मामला साजना
का नहीं, द्वीप में संभावित क्रांति के भविष्य का था. तभी अतीत को क्या सूझी
चोंकरते हुए खूंटे से तोड़ाने की कोशिस करने लगा. उपदेश के मूड में था. गिड़गिड़ाना,
चापलूसी, भांट-कर्म, धतकरम जैसे तमाम विशेषणों तथा क्रियाविशेषणों से मुझे शर्मसार
करने की कोशिस के साथ प्रतिष्ठा, आत्मसम्मान आदि भावबाचक संज्ञाओं का हवाला देने
लगा. उस समय संभावित क्रांति के भविष्य के प्रति फर्ज का स्मरण न आता तो अतीत के
चक्कर में फंस जाता तथा अनर्थ हो सकता था. संकट काल में अग्रगामी प्रोत्साहन देने
की बजाय प्रतिगामी गति का उत्प्रेरक बन रहा था. विचारधारा से ऊपर उठ कर मेरा आगे
बढ़ना उसे पसंद नहीं था. तरक्की के रास्ते का रोड़ा बन रहा था. संभावित क्रांति के
भविष्य के विरुद्ध मुझे भड़काना चाहता था. बुद्धिमानी इसी में थी कि उज्जवल भविष्य
के लिये अतीत को नज़र-अंदाज करना, वह कितना भी सुनहरा या बैगनी हो. उसकी साजिश समझ
आते ही पगहे में आई ढील को कस दिया तथा खूंटे को थोड़ा और ठोंक दिया. मुंह पर जाबा
लगा दिया जिससे उसके उपदेश अंदर ही अंदर घुट कर रह जायें, मैं निर्विघ्न तरक्की के
रास्ते की तलाश कर सकूं. तभी देववाणी सी हुई, ‘बढ़ता जा तुम पथ पर अपने मंज़िल दूर नहीं है’. जरूर किसी बुद्धिमान
पूर्वज की अत्मा होगी. गुलेरी जी की आत्माजी का स्मरण कर, रणनीति के अगले कदम के
बार में सोचने लगा.
“महामंत्री जी का
वरदहस्त हो तो किसी माई के लाल की क्या मजाल मेरे ऊपर उंगली उठा सके. और ई
बरदहस्तवा, सर पर आते-आते छटक जा रहा था. स्थिति अब
उतनी प्रतिकूल नहीं थी. चेहरे के भाव घृणा-प्रेम के बीच झूलते दिखे तथा निगाहों
में भी हमदर्दी की एक झलक दिखी. जैसे कह रही हों, ‘काश तुमने मदद पाने की गुंजाइश छोड़ी होती’. इतना तो बहुत था. बस
शब्दों तथा भावों के चयन में फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाने की जरूरत थी. वैसे तो
निगाहों के जादू के बारे में काफी कुछ पढ़-सुन-देख चुका था. निगाहें धोखा खाती ही
नहीं देती भी हैं. पूर्णतः निराश तो कभी न था. लेकिन आशा की किरण की चमक थोड़ा बढ़
गयी. एक युद्धोंमादी शासक ने कहा था कि असंभव शब्द उसके शब्दकोश में था ही नहीं.
कई बार कुछ प्रतिगामी तथा तानाशाही प्रवृत्ति के लोग भी सही बात कह जाते हैं, करते
उसका उल्टा हैं, अलग बात है. खैर मैंने तो अपनी जन्मजात दुस्साहसी प्रवृत्ति के
चलते, बचपन से इस शब्द का अपने शब्दकोश में प्रवेश-निषेध कर रखा है. संकटकाल में आत्मालाप
बड़े काम का होता है.
“महामहिम मुझे ऐसे
देख रहे थे जैसे कोई बुजुर्ग सहानुभूति के साथ किसी अच्छे घर के बिगड़े लड़के को
देखता है. रामबाण चलाने का यह उचित वसर था. ‘महामहिम की कृपा हो तो क्या नहीं हो सकता? मजाल है महामहिम की
मर्जी के बगैर कुनबे का कोई पत्ता भी हिल सके. क्षमा करें महामहिम, मैं कतई नहीं
चाहूंगा कि आप अपनी मर्यादा या गरिमा या फिर कुनबे की आचार संहिता से कोई समझौता
करें. फिर क्षमा करें महामहिम, अनजाने में बिनबोले सुनने का अपना मौन वायदा भूल
गया. तहे दिल से मॉफी मांगता हूं, महामहिम, बस एक ही निवेदन है, एक बार, बस एक बार
मुझे अपनी पूरी बात महामहिम के समक्ष रखने की अनुमति मिल जाती तो मेरी आने वाली
पीढ़ियां तक महामहिम के प्रति कृतज्ञ रहेंगी.
“इतनी देर मे पहली
बार महामंत्री जी के चेहरे पर सहज मुस्कान दिखी. ‘अतिविनम्रता की जरूरत नहीं है‘. हथेली के इशारे से
अनुमति का संकेत देते हुए बोले, ‘लेकिन संक्षेप में‘.
“फिर क्या था शुरू हो
गया. ‘महामहिम, मेरी चिंता का विषय कुनबे से बेदखली, जिसे आत्मनिर्वासन या
निष्कासन जो भी कहें, मेरी चिंता का विषय नहीं है. अपने इज्जतशुदा वजूद पर खतरा भी
मेरी चिंता का कारण नहीं है. आत्माजी की कृपा तथा महामहिम के प्रति मेरी निष्ठा से
स्वार्थ मुझे छू भी नहीं सकता. लेकिन मैं बाकी जीवन अपनी कुनबापरस्ती, द्वीपप्रेम
और सबसे बढ़कर महामहिम के प्रति निष्ठा पर प्रश्न चिन्हों के कलंक के साथ नहीं जी
सकता. वरना मेरे जैसे तुच्छ जीव का क्या कहीं भी, कैसे भी रह लेगा. नहीं भी रहेगा
तो धरती का कोई नुसान तो होगा नहीं, उल्टे भार ही कम होगा. मैं महामहिम की तरह कोई
युगद्रष्टा तो हूं नहीं. महामहिम, मेरे ऊपर हमला दर-असल कुनबे में महामहिम की स्थिति
कमजोर करने के लिए हो रहा है. यही कारण है कि कुनबे के कुछ तत्व आपके पद-प्रतिष्ठा
की ईर्श्या की भड़ांस आपके सेवकों की सेवा भावना की निरंतर नियोजित हत्या की गुप्त
योजनाओं को अंजाम देने में जुटे हैं. मैं इनकी गुप्त साजिशों को नामाक करने की
गुप्त कोशिसों में इस कदर लगा रहा कि महामहिम के प्रति अपनी निष्ठा की अभिव्यक्ति
का भी वक़्त नहीं मिला. और मेरी चिंता का मुख्य कारण यही है, महाहिम. आत्माजी झूठ
न बुलवाएं महामहिम, इस साजिश में कुनबे की कार्यकारिणी के कुछ गणमान्य व्यक्ति भी
शरीक हैं, लेकिन जब तक पक्के सबूत न हों तब तक किसी का नाम नहीं लूंगा. मेरे निकल जाने के
बाद इनके रास्ते का एक कांटा निकल जाएगा. महामहिम के चेहरे पर बातों का असर देखने
के लिए, रुककर पानी पीने लगा. तीर निशाने पर लगता दिख रहा था. छू मंतर हो चुकी
चेहरे की रंगत वापस बुलाने की कोशिस कर रहे थे.
“महामंत्री सकते में
आकर सकपकाकर, मद्धिम गुस्से में बोले, ‘क्या ऊलजलूल पहेलियां बुझा रहे, साजिश, गणमान्य...? जो कहना है, साफ-साफ
कहो. मैं तो कुनबे का एक लोकप्रिय सेवक हूं, मेरे खिलाफ कोई क्यों ......’. समीकरण बदलते दिखे,
मैं बीच में बात काट कर बोल पड़ा. ‘महामहिम आपकी लोकप्रियता ही तो है जो लोग नहीं पचा पा रहे हैं.
महामहिम तो कुछ खास लोगों के ही साथ रहते हैं और वे कुछ खास लोग महामहिम के ही साथ
रहते हैं. कुनबे में क्या-क्या हो रहा है, महामहिम के कानों तक पहुंच ही नहीं
पाता. निश्छल-निष्कपट प्रवृत्ति तथा सहज स्वभाव के चलते हामहिम को तो यह भी यह भी
नहीं जान पाते कि इन खासों में कुछ के अपने गोपनीय खास भी हैं. आपके मन में मेरी
विश्वसनीयता खत्म करने के लिए मेरे खिलाफ जनमानस तथा महामहिम को भड़काने के पीछे
कुनबे के इन्हीं सफेदपोश, नकाबपोश, अवांछनीय तत्वों का हाथ है, महामहिम’.
“महामहिम शब्द की
पुनरावृत्तियां सकारात्मक रंग दिखाने लगीं. इंसान अनवरत अपना अन्वेषण करता है तथा
अपनी नई-नई प्रतिभाओं का एहसास पाता है. मैं अपनी इस चारण प्रतिभा से अभी तक
अनभिज्ञ था. कहां तो तय था महामहिम बोलेंगे मैं चुपचाप सुनूंगा. पाशा पलट रहा था.
अब धीरे धीरे निर्णायक वार की तरफ बढ़ने का उपयुक्त अवसर था. ‘महामहिम, यह न समझें
कि मैं अपनी खाल बचाने के लिए यह सब बता रहा हूं. मैं तो महामहिम, पहले ही कह चुका
हूं, महामहिम कि मेरी खाल की तो कोई कीमत नहीं है. मेरा मामला रफा-दफा करना तो
महामहिम की चुटकी बजने से ही हो जायेगा. लकिन मैं नहीं चाहूंगा कि महामहिम की
नियमपरायणता तथा सिद्धांतप्रियता पर कोई उंगली उठाए कि महामहिम अपने कृपापात्रों का
पक्षपात करते हैं.’ हा हा. वैसे अब तक
तो कोपपात्र ही था.
“साजिश के शगूफे से
महामंत्री के ललाट की रेखाएं तन गईं. चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभर आईं. लेकिन
निश्चिंतता का अभिनय करते हुए आध्यात्मिक लहजे में बोले, ‘जिसको जो करना हो
करे मुझे तो बस कुनबे की प्रतिष्ठा की चिंता है. लोग कुनबे के लिए मेरे बलिदानों
का संज्ञान लेकर मुझे बार बार कुनबे का कर्ता-धर्ता बनाते रहे हैं. अनवरत गौरवशाली
जनादेश का अनवरत सम्मान करते हुए मैं कुनबे के विकास का अनवरत प्रयास करता रहा
हूं. मुझे कुनबे के महान आवाम पर महान भरोसा है कि मेरी निःस्वार्थ, महान सेवाओं
का सम्मान करत हुए मुझमें विश्वास जताने की अपनी महान गौरवशाली परंपरा को अनवरत
अंजाम देता रहेगा. आत्माजी के आशिर्वाद से कुनबे की भलाई ही मेरे महान जीवन का
इकलौता मकसद रहा है. मैंने कभी किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं, बिगाड़ना मेरा काम नहीं,
मेरा काम तो बनाना है, ईश्वर ने मुझे इस कुनबे के उद्धार के लिए ही बनाया है. हर
संकटग्रस्त, जरूरतमंद का संकटमोचक बनने को सदैव तत्पर रहता हूं चाहे उसके लिए जान
ही क्यों देनी पड़े.‘ अचानक आई छींक ने महामंत्री की वाणी पर संक्षिप्त विराम लगा दिया. पानी
पीकर महामहिम ने हल्का पॉज लेकर प्रतिक्रिया के लिए मेरी तरफ देखा. जी में आया कि
कहूं ‘महामहिम, यहां कोई चुनावी रैली नहीं है. चुनावी भाषण तथा सगूफेबाजी
आपके व्यक्तित्व का स्थाई भाव बन गया है.’ लेकिन नज़ाकत फिर सामने आ गई. जब इतनी मन की बातें मार गया तो अब तो
वार्ता नाज़ुक मोड़ पर थी. महामंत्री जी का पॉज़ खत्म हुआ तो कहीं खो से गये,
पूछा, ’तो मैं क्या कह रहा था? ’ परिस्थिति अनुकूल देख सोचा
कहूं कि महामहिम की मुझ पर कृपा कृपाशील स्वभाव की ही परिणति है. लेकिन जल्दबाजी
से बचने की पूर्वजों की नसीहत काम आई तथा मैं बच गया. मामला सही दिशा में जाते देख उत्साहित हो,
विनम्र उल्लास के साथ कहा, ’महामहिम, आप जो कह रहे थे वह ध्रुव सत्य तथा उसके सिवा कुछ भी नहीं.
पूरा कुनबा परिचित है, महामहिम की इन महानताओं से. तो आप यह कह रहे थे कि हर
संकटग्रस्त, जरूरतमंद की हर संभव मदद को सदैव तत्पर, उद्यत रहते हैं. लेकिन घोर
कलियुग है महामहिम, एहसानफरामोश खासों की तादाद बढ़ती जा रही है. किसी ने, कोई
बुद्धिमान पूर्वज ही होगा, सही कहा है कि कलियुग में सब उलट-पलट हो जायेगा.
ब्राह्मण हल जोतेगा, शूद्र वेद पढ़ेगा. इससे बड़ी विडंबना क्या होगी, महामहिम, कि
महामहिम की कृपा से खास तथा खासमखास बने लोग वफादारी की नकाब ओढ़ कर महामहिम के ही
खिलाफ गुप्त अभियान चलाएं. कुछ लोग कितना गिर सकते हैं, महामहिम?’ महामंत्री जी की प्रतिक्रिया
जानने के लिए वाणी को विराम दिया. आश्चर्यचकित महामंत्री जी बोले, ’असंभव, अविश्वसनीय’.
“हवा माफिक थी डोज
बढ़ाने के लिए उपयुक्त. ’महामहिम आपकी इस लिश्छलता तथा सबको निश्छल मान लेने की सहजता का मैं
मुरीद हूं. लेकिन कुनबे में नामुरीदों की तादाद, दिन-दूना रात-चौगुना बढ़ने की
कहावत चरितार्थ करती दिख रही है. धृष्टता क्षमा करें महामहिम, कहां आप कहां मैं,
लेकिन स्वभाव की समानता के चलते ही मैं इन नामुरीदों के नापाक इरादों को नाकाम
करने में लगा रहता हूं. आत्माजी जी इन कृतघ्न आत्माओं को कभी न क्षमा करें. धृष्ठता
क्षमा करें महामहिम, तुलना की जुर्रत न समझें, लेकिन कुनबे का हित महामहिम के साथ
मेरा भी उभयनिष्ठ सरोकार है तथा कुनबे एवं द्वीप का सामाजिक नैतिक पतन दोनों की
उभयनिष्ठ चिंता का विषय. महामहिम, महामहिम के विरुद्ध गुप्त साजिशों को नाकाम करने
के गुप्त अभियान में इस कदर तल्लीन रहा कि मुश्किल से आत्माजी की तपस्या का समय
निकाल पाता हूं. आलम यह हो गया, महामहिम, कि दस सालों में कुनबानामा के लिए कोई कहानी
ही नहीं लिख सका. दस साल पहले छपी कहानी की प्रामाणिकता को ही चुनौती मिल रही है.
जब भी कलम उठाता महामहिम के विरुद्ध साजिश का भूत सर पर चढ़ जाता तथा धिक्कारता कुनबे के नेकदिल,
करुणानिधान, यशस्वी महामंत्री के खिलाफ साज़िशो का सिलसिला चल रहा है और तुम्हें
कहानी की पड़ी है. किसी अंग्रेज, क्रांतिकारी लेखक की कहानी सुनाता जो स्पेन के
गृहयुद्ध में शहीद हुआ था. महामहिम, मेरी कुनबापरस्ती जोर मारती और मैं कलम को
विश्राम देकर, महामहिम के विरुद्ध गुप्त अभियान के विरुद्ध गुप्त अभियान के संचालन
में जी-जान से लग जाता.’
“महामहिम ग्लानि से
ओत-प्रोत लहजे में बल पड़े, ‘मैं जानता हूं कि तुम्हारे खिलाफ भी साजिश रची गयी है. मुझे लगता है
किसी साज़िश के ही तहत किसी अज्ञात तत्व ने तुम्हारा नाम माननीय कखग जी की
सम्मानसभा में सम्मिलित कर दिया होगा. तुम अनजाने में बहक गये. लेकिन मामला अब
इतना आगे बढ़ चुका है कि कुछ भी नहीं किया जा सकता, फिर भी कुछ करने का प्रयास
करूंगा‘. लगा कि मामला अब बना ही जानो. अब गुनगुना सकता था कि बढ़ता जा पथ पर
अपने मंजिल दूर नहीं है.
-- 5 --
“अब रामबाण चलाने का
उपयुक्त अवसर था. माकूल माहौल तथा माफिक हालात. अंतिम शस्त्र बचा था. इस्तेमाल में
सूक्ष्मतम सावधानी की आवश्कता थी. मलीन मन तथा रुंआसे स्वर में बोला, ‘महामहिम महान हैं.
मेरा अहोभाग्य कि महामहिम को मेरी चिंता है, मेरे लिए इतना ही बहुत से भी बहुत है.
अब होनी को कौन टाल सकता है. महामहिम, मेरी चिंता का कारण मेरा अपना कष्ट नहीं है,
आत्माजी के आशिर्वाद से अपनी सहनशक्ति अनंत है. महामहिम मेरी असली चिंता का कारण
तो कुछ और ही है जिसे मैं समुचित समय पर उद्घाटित करता, इसीलिए कहने में हिचक रहा
हूं, लेकिन मामला इतना चिंताजनक है कि हिचक की सीमाओं का उल्लंघन अपरिहार्य हो गया
है. ..... ‘. स्तब्ध महामंत्री जी के धैर्य का बांध टूटा तो नहीं लेकिन उसमें
दरारें पड़ गयीं. बीच में टोक कर बोल पडे, ‘बेहिचक, बताओ, क्या है असली कारण‘?
“लोहा गरम था. अब
रामबाण के इस्तेमाल में देरी करना प्रतिक्रांतिकारी अकर्म होता. ‘महामहिम, मेरी चिंता तथा मानसिक क्षोभ का असली कारण,
कुनबे से मेरी रुख़सती के बाद, आत्माजी, गुलेरी जी की आत्माजी को होने वाली
संभावित असुविधाओं को लेकर है. अब आत्माजी को किसी अन्य कुनबे या द्वीप के भूगोल
की जानकारी तो है नहीं, अगली बार जब मुझे तलाशने आएंगी तथा मुझे ढूंढ़ने में
दर-ब-दर भटकने के बाद भी मुझे नहीं पाएंगी तो उन्हें मेरी भक्ति पर तो संदेह होगा
ही, मेरी तपस्या में खोट भी निकालेंगी‘.
“तीर निशाने पर लगा.
महामंत्रीजी की दुखती रग पर हाथ पड़ गया. विक्षिप्त से हो गये. तिलमिलाकर बोले, ‘क्या ऊल-जलूल बके जा
रहे हो. तुम्हें क्यों ढूढेंगीं, आत्माजी की अंतरंगता तो मुझसे है, ढूढ़ना भी होगा
तो मुझे ढूढ़ेंगी. नित उन्ही की पूजा अर्चना करता रहता हूं, ढूंढ़ता रहता हूं
उन्हें कुंज में, चमन में, दीन के वतन में और न जाने कहां कहां........ ‘
“यह आदमी भी अजीब जीव
है. संकटकाल में भी परसंतापी सुख का आनंद लेने से नहीं चूकता. अपना कष्ट भूल उनकी
छटपटाहट का मजा लेने लगा. ‘धृष्टता क्षमा करें महामहिम, दर-असल गुलेरी जी की अलिखित कहानियों में
महामहिम की अनंत रुचि देखकर, मैं आत्माजी को खुश करने के लिए उनकी तपस्या में लीन
हो गया. तन कहीं भी हो मन आत्माजी की तपस्या में ही रहता है’. महामंत्री जी के
चेहरे पर बेचारगी के भाव तैरने लगे, हताशाभाव में बोले, ‘फिर?’
“महामंत्री की
व्यग्रता देख, मैं हिंदुस्तान के उन तमाम बाबाओं, स्वामियों, महर्षियों,
श्रीश्रियों के बारे में सोचने लगा जो आत्मा-परमात्मा का चक्कर चलाकर अरबों-खरबों
का आध्यात्मिक धंधा करते हैं. लगता है सभ्यता का बेड़ा, हिंदुस्तान के बंदरगाहों
से गुजरा होगा. मेरी क्षणिक चुप्पी ने महामंत्री जी के धैर्य का बांध तोड़ दिया.
बेसब्री से उंगलियां कांपने लगीं, बोले, ‘जल्दी बताओ न फिर क्या हुआ?’ अब, बस आखिरी मोर्चा बचा था. ’चमत्कार महामहिम, चमात्कार. अप्रतिम, अद्भुत, अविश्वसनीय. मेरी तो
आंखें चकाचौंध हो गयीं. सच्चे हृदय, असीम भक्ति तथा अटूट श्रद्धा से की जारही मेरी
तपस्या से प्रसन्न हो आत्माजी प्रसन्न हुईं तथा दे ही दिया भव्य़ दर्शन. साक्षात्
प्रकाशपुंज, महामहिम. एक हाथ में दिव्य रूप से चमकता त्रिशूल तथा आशिर्वाद के लिए
उठे दूसरे हाथ से निलती तेज किरणों से आत्मा जी का स्वरूप देख पाना असंभव सा लग
रहा था. मुझे, महामहिम, कल्पना भी नहीं थी कि यह चिरप्रतीक्षित क्षण इतने सीघ्र आ
जायेगा. अचंभे से मैं हतप्रभ हो गया निःशब्द’. ध्यान की मुद्रा में आंखे बंदकर मन-ही-मन मुस्कराने लगा, जैसे कि
आत्माजी के दर्शन के खयालों में खोया हूं. कनखियों से महामंत्री जी के चेहरे के
बदलते रंग और माथे की चढ़ती-उतरती त्योरियां देख मन-ही-मन मजा ले रहा था. लंबे
उच्छास के साथ आंखें खोला तो बेताबी से चहलकदमी करते हुए महामंत्रीजी अधीर हो
बोले, ’आत्माजी ने मेरा कुशलक्षेम तो पूछा होगा. तुमने तो उनसे मेरी चर्चा की
होगी?’
“महामंत्रीजी के सवाल
नज़र अंदाज कर, आत्मलीन भाव से, प्रवचन मोड में शुरू हो गया, ’दिव्य आभा, न देखी
हुई, न सुनी हुई, कल्पना में भी नहीं. वैसे भी आत्मा का स्वरूप शरीर के स्वरूप से
भिन्न होता है. आभामंडल की लहलहलहाती किरणों के चमत्कारी प्रकाश में मूर्ति स्पष्ट
नहीं दिखी, लेकिन हल्की सी गुलरीजी की झलक जरूर थी. अद्भुत, अप्रतिम, अविश्वसनीय.
क्या बताऊं महामहिम. ....... ’.
“महामंत्रीजी आत्माजी की महिमा सुन प्रसन्न तो दिखे, लेकिन उद्वेलित
भी. अधीर हो, बीच में टोक कर बोल पडे. ’मैंने कोई सवाल किया है?,’ मन की बात फिर टाल गया कि हर सवाल का जवाब नहीं होता. दुबारा आंखें
बंद, प्राणायाम की मुद्रा में मौन धारण कर लिया. आम हालात में महामंत्रीजी इतनी
नज़र-अंदाजगी से आगबबूला हो जाते, मगर मामला नाजुक था. वे मेरा ध्यान टूटने की
प्रतीक्षा करने लगे. ’क्षमा करें मामहिम, मैं तो आंखों में तैरते आत्माजी के दिव्य रूप में
विलीन हो गया था. मैंने तो पहले ही बताया, महामहिम, कि कुनबे के हित में ही तो
आत्माजी की तपस्या करता हूं. और महामहिम का हित कुनबे का हित है तथा कुनबे का हित
महामहिम का. लेकिन महामहिम, आत्मा जी लोगों की दुनिया सांसारिक दुनिया से कितनी
भिन्न होती है तथा उनकी आचार संहिता दिव्य. आत्माजी लोगों के मामलों में धैर्य की
इल्तेजा होती है’.
“यह सुन महामंत्री जी
धीरज की मूर्ति बन गये. ’महामहिम, आत्माजी अपने श्रद्धलुओं में लहना सिंह का रूप देखती हैं.
प्रकट होते ही बोलीं, “लहना सिंह, उठ जाओ, आधा चांद निकल आया है. जर्मन खाई में कूद पड़े
हैं. कर्नल साहब मारे गये, तुम्हारी कुड़माई हुई कि नहीं? मागो, वर मांगो.” लेकिन महामहिम, मैं
तो दर्शन से ही इतना धन्य-धन्य, गद-गद, बाग-बाग आदि-आदि हो गया. उल्लास, आह्लाद,
हर्ष आदि भावों से ओत-प्रोत निःशब्द हो गया. वर-कन्या की किसे परवाह. कह दिया कि
आत्माजी के दर्शन हो गये, मेरी तपस्या सफल हुई तथा यह कि इससे अधिक कुछ और नहीं
चाहिए. ’
“महामंत्रीजी का अब
और शांत रहना असंभव हो गया. झल्लाकर, मुंह चिढ़ाने के अंदाज़ में बोले, ’दर्शन से ही धन्य हो गये. हुंह. तुम्हारी यही प्रवृत्तियां तुम्हें ले
डूबेंगी’. मैंने जवाबी झल्लाहट के साथ उनका बात बीच में काट दिया. मन में सोचा
कि डुबाने वाला ही जब आध्यात्म के जाल में फंस गया तो अब तो दरिया तैर कर पार कर
लूंगा. ’महामहिम आत्माजी लोगों के साथ डीलिंग में थोड़ा कूटनीतिक होना पड़ता
है. तुरंत हाथ फैला देता तो आत्माजी की नज़रों में स्वार्थी बन जाता. आत्माजी ने
कहा कि सच्चे मन से कड़ी तपस्या से ही प्रकट होने के दुर्लभ क्षण को सुलभ बनाती
हैं. बिना बरदान दिये नहीं जा सकतीं. सोचा अपनी कुड़माई का वरदान मांग लूं. लेकिन
ऐसा स्वार्थी विचार मन में आने से ही अपराधबोध से ग्रस्त हो गया. निजी हित को
कुनबे के हित, यानि महामहिम के हित से ऊपर रखना कितना बड़ा नैतिक अपराध होता. और
कुनबे की भलाई के लिए गुलेरी जी की अलिखित कहानियों में महामहिम की अनंत रुचि की
विशाल याद आई. मैंने आत्माजी को महामहिम की अपार भक्ति की बात बतया तो आत्माजी
गद-गद हो गयीं’. अब तो मछली जाल में फंसी ही समझो.
“इतना सुनते ही
महामंत्रीजी की बाछें खिल गयीं. आंखों में बिल्ली की आंखों सी चमक आ गयी. बोले, ’फिर क्या हुआ. और
क्या कहा आत्माजी ने’?
“महामंत्रीजी को और व्यथित करना प्रतिलाभकारी साबित हो सकता था. ’महामहिम, आत्माजी तो
शांत थीं, मैंने ही गुलेरी जी की अलिखित रचनाओं का निवेदन किया. क्या बताऊं,
महामहिम, लगता है, माननीय कखग महोदय की सम्मानसभा की ही तरह, कूटनीतिक सावधानी के
बावजूद कुछ गड़बड़ हो गई. आत्माजी गुस्से से लाल होकर आगबबूला हो गयीं. मेरी असीम
भक्ति के चलते क्षमा कर दिया, कोई और होता तो शाप देकर भस्म कर देतीं. अलिखित
कहानियों का मसला होता ही नाज़ुक है’.
“महामंत्रीजी संवाद
का परिणाम जानने को बेताब हो रहे थे. परिणाम तो पूरी प्रक्रिया बाद ही पता चलता है. बोले, ’जल्दी बोलो फिर क्या
हुआ? आत्माजी नाराज होकर चली गयीं? ’. अब मामला और लंबा खीचने का
मतलब नहीं था. ’अरे नहीं महामहिम, ऐसे कैसे जाने देता? पैरों में लिपट गया. अनजाने में, कहा अज्ञानवश
बात की नजाकत नहीं समझ पाया. मैंने पैरों में लिपटे-लिपटे ही आग्रह किया कि कुनबे
की प्रगति के अलावा महामहिम के महान जीवन का महान उद्देश्य ही गुलेरी जी की अलिखित
कहानियां हैं. करुणामयी आत्माजी ने क्षमा करते हुए कंधा पकड़कर उठाकर मेरे सिर पर
हाथ रख दिया. शब्दातीत स्पर्श था महामहिम, वर्णनातीत, कल्पनातीत, महामहिम. आत्माजी
यह जानकर गद-गद थीं कि महामहिम जैसे कर्मठ प्रशासक तथा ज्ञानी-मानी विद्वान
आत्माजी के इतने परम भक्त हैं. द्रवित होकर बोलीं कि मृत्युपूर्व की अलिखित
कहानियां विसर्जित हो चुकी हैं. मरणोपरांत लिखी अलिखित कहानियों का वरदान देने को
राजी हो गयीं’.
“महामंत्री की बेताबी तथा बेचारगी देखने लायक थी. मन आई बातों की ही
तरह मन में आई हंसी को दबा दिया. बोले, ‘अरे वही ले लेते‘. अब गेंद मेरे पाले
में थी. अब मैं भी झल्ला सकता था, झल्लाकर
बोला, ‘महामहिम, मैं पहले भी कह चुका हूं कि आत्माजी लोगों से डीलिंग की
संहिता अलग होती है. थोड़ा ना-नुकर करना पड़ता है. थोड़ा ना-नुकर के बाद निवेदन
किया कि वैसे तो महामहिम की रुचि जीवित गुलेरी जी की अलिखित कहानियों में है,
लेकिन हमारे महामहिमजी “मरा हाथी तो भी सवा लाख“ की कहावत में यकीन करते हैं. मरणोपरांत की अलिखित कहानियों से भी काम
चला लेंगे. आत्माजी प्रसन्न हो बोलीं कि जब भी उन्हें फुर्सत मिलेगी आकर एक एक
कहानियां सुनाती रहेंगी, जिसे मैं याद करके लिखकर महामहिम के नाम से छपवा दूं. वैसे
तो महामहिम, मैं कमीसनखोरी में यक़ीन नहीं रखता लेकिन आत्माजी की इच्छा टालना विपत्ति
को बुलावा देना होता. आत्माजी ने मेरा कमीसन भी तय कर दिया. दस फीसदी. यानि, नौ
कहानियां महामहिम के नाम दसवी मेरे.’
“आत्माजी की कृपा ने
खेल का समीकरण ही बदल दिया. कुछ समय पहले तक मेरे खून के प्यासे दिखते महामंत्रीजी
ने भावविभोर हो मुझे गले लगा लिया. पिदराना स्नेह दिखाते हुए कहने लगे, दस क्या
बीस फीसदी ले लेना. दस में दो तुम्हारी. यह बात अभी तक क्यों नहीं बताया. यहां तक
नौबत ही न आती. कखग महोदय मुझे प्रिय हैं, लेकिन अपनों से अधिक नहीं और तुम तो
मेरे बहुत खास अपने हो.’
“निशाना सही बैठा.
परिणाम लगभग प्रत्यक्ष था. औपचारिक घोषणा भर बाकी था. ‘पहले, महामहिम, नहीं
बताया कि सोचा प्रमाण के साथ बताऊं, पहली कहानी मिलने के बाद. लेकिन, महामहिम
आत्माजी तबसे अभी तक आयीं नहीं, विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा. अब आत्माजी का क्या
पता कब आ जायें. मेरी व्यथा यही है कि आत्माजी जब कहानी सुनाने आयेंगी, मुझे न
पाकर उधर-उधर भटकती फिरेंगी. कहीं उन्हें मेरे निष्कासन की खबर मिल गई, जो मिलेगी
ही क्योंकि आत्माजी तो सर्वज्ञ हैं, और गुस्से में कहीं कुनबे को अभिशप्त न कर
दें, महामहिम. मेरी वेदना व अवसाद का प्रमुख कारण यही है, महामहिम. ‘
“रामबाण के परिणाम की
औपचारिक घोषणा भी हो गयी. महामंत्री जी ने दुबारा गले लगा लिया. पीठ पर हाथ रख
अतिमैत्री भाव से कहने लगे, ‘तुम कहीं नहीं जाओगे, कुनबे से जायेंगे तुम्हारे दुश्मन. तुम्हें जाने
कौन देगा, कुनबे तथा उसके महामंत्री के प्रति तुम्हारे जैसे निष्ठावान, कुनबापरस्त,
कभी कल्पना घुसपैठ जैसे धतकरम के बारे में, कल्पना ही नहीं कर सकता. कुनबे के किसी
भी सम्मानित सदस्य को अफवाहों तथा आधारहीन आरोपों के चलते आत्म-निर्वसन को वाध्य
नहीं किया जा सकता. और फिर तुम तो तुम हो. यह आत्माजी के एक परमभक्त की प्रतिभा से
इस सम्मानित कुनबे को वंचित करना होगा. ऐसा घोर अन्याय मेरे जीते नहीं हो सकता.
असंभव’.
“अब संकट लगभग टल
चुका था लेकिन इस बार भी ऊंट तथा पहाड़ की कहावत कहने की मन की बात टाल गया.
विनम्रता का गुरुत्व बढ़ाते हुए मृदुभाषिता की कसरत के साथ पूछा, ‘किंतु महामहिम,
कुनबे की आचारसंहिता के बिघ्नों, जनअदालत की गौरवशाली परंपराओं का क्या होगा? सबसे बढ़कर महामहिम
की नियमपरायणता दांव पर लग जायेगी. महामहिम, कल की जन-अदालत में मैं दस साल पहले
की कहानी की मौलिकता कैसे साबित कर पाऊंगा? आप ही ने तो बताया कि संवैधानिक प्रावधान बनाये ही यह सोच कर गये हैं
कि कोई मौलिकता साबित न कर पाये‘.
“अब महामंत्रीजी किसी
पहुंचे हुए पीर के अदाज़ में बोले, ‘जाको राख्यो आत्माजी, मार सक्यो ना कोय. नियमों के उल्लंघन का सवाल ही नहीं उठता. तुम कुनबे के वैध सम्मानित
सदस्य हो दस साल पहले कुनबानामा में छपी तुम्हारी वह अद्भुत कहानी
कुनबे की स्थाई सदस्यता के लिए पर्याप्त है‘. महामंत्री जी रंग बदलने में गिरगिट को भी मात दे रहे थे. ‘लेकिन महामहिम, अब
तो उस कहानी की मौलिकता ही संदेह के घेरे में है. कई युवा सदस्य तो, महामहिम,
मुझसे उस समय के भूत-लेखन माने घोस्ट-राइटिंग के भाव पूछने लगे हैं.‘
“महामहिम का इस बात
पर जोर का ठहाका कुछ समझ में नहीं आया. मुझे अचंभित देख बोले, ‘मूर्ख हैं सब. कुनबे की युवा
पीढ़ी में पिछले दिनों मूर्खता की मात्रा काफी बढ़ गई है. तुम जैसे कर्मठ,
कुनबापरस्त सहयोगियों के सहयोग से इस पर रोक लगाना पड़ेगा. तुम्हारी कहानी की
मौलिकता उतनी ही प्रामाणिक है जितनी कि पूरब में सूरज उगने की बात‘. महामहिम पूरे मूड
में थे. ‘लोगों का क्या ठल्ले बैठे, बिना सोचे-समझे किसी भी सम्मानजनक, भलेमानस
को बदनाम करने के शगूफे छोड़ते रहते हैं‘. महामंत्री जी लंबे भाषण के मूड में दिखे. बीच में ही टोक कर पूछा, ‘लेकिन महामहिम कल की
आमसभा – जन दालत – का क्या होगा?‘ महामंत्रीजी ने रहस्यमय मुस्कान के साथ विस्मय में बोले, ‘कौन सी आमसभा, कौन
सी जन अदालत?‘ मैं महामंत्री जी का मुंह ताकने लगा. बोले, ‘ऐसे क्या देख रहे हो? मैं पता करता हूं
कि महामंत्री कार्यालय के किन अधिकारियों की गलती से तुम्हारे खिलाफ मनगढंत आरोपों
की फाइलें मुझ तक पहंच पाई, मैं अभी प्रशासनिक अधिकारी को कल की जन अदालत निरस्त
करने की नोटिस निकलवाता हूं और इस साजिश में शामिल तत्वों की शिनाख्त के लिए एक
जांच आयोग गठित होगा. तुम्हारी उस कहानी की मौलिकता का मैं, कुनबे का महोमंत्री,
खुद गवाह हूं. कुनबानामा में भेजने के पहले तुमने मुझे पढ़ाया था तथा मेरे सुझाओं
को भी सम्मान दिया था’.
“मैं गद-गद भाव से आत्माजी की महिमा का अनुभव कर रहा था. ये नास्तिक
कितने मूर्ख होते हैं जो आत्मा-परमात्मा की अवधारणाओं को धर्मांधता तथा पाखंड कह
कर उन्हें खंड-खंड करने का असफल प्रयास करते रहते हैं. ’लेकिन महामहिम,
मैंने तो कभी आपको कुछ पढ़ाया-दिखाया ही नहीं, मैं नहीं चाहता महामहिम जैसे महानता
को मुझ जैसे अदना से जीव के लिए झूठ की दाग लगे. ’
“महामंत्री महोदय क
चेहरे पर रहस्यमय, कूटनीतिक मुस्कान उभर आई और काफी देर तक स्थाई भाव सी टिकी रही.
दार्शनिक अंदाज़ में बालने लगे, ’देखो सच-झूठ या नैतिक-अनैतिक कभी निखालिस या निरपेक्ष नहीं होता, सदैव
सापेक्ष होता है. वैसे तो यह एक ऐतिहासिक सत्य है लेकिन आइंस्टाइन के सापेक्षता
सिद्धांत के ईजाद के बाद तो इसे वैज्ञानिक मान्यता भी मिल गयी है. ’
“चिरपरिचित रहस्य से
परिचित कराते हुए, महामंत्री जी ने रहस्येद्घाटन की आध्यात्मिक अंदाज में बोले, ’जिस बात से स्वहित
या स्वजन हित सधे वही सबसे बड़ा सत्य है, क्योंकि स्वहित तथा स्वजनहित में ही
कुनबे एवं द्वीप का हित है. कुनबे की तरक्की के लिए तुम्हारे जैसे प्रतिभाली तथा
निष्ठावान व्यक्तियों की सख्त जरूरत है. अगर कुछ भी खोट होता तो तुमपर आत्माजी की
इतनी अतिशय कृपा कैसे होती? कुनबे के हित में यानि स्वजनहित में किया काम सर्वोच्च नैतिक होता है’. स्वहित तथा
कुनबाहित एवं द्वीपहित के अंतःसंबंधों को मैंने अंतिम सत्य के रूप में, संभावित
क्रांति के हित में आत्मसात कर लिया. मेरे ना-नुकर के बावजूद, महामंत्रीजी की
संस्तुति पर मुझे कुनबे की कार्यकारिणी में कोऑप्ट कर लिया गया’.“
उसने तो इतना ही कहा था. आत्माजी ने फिर कभी
उसे दर्शन दिया कि नहीं, इसका तो कुछ पता नहीं चला लेकिन विश्वस्त सूत्रों से पता
चला कि महामंत्रीजी तो कुनबे की ही सत्ता में डूबते-उतराते रहे और उसकी पहुंच
द्वीप की केंद्रीय सत्ता के गलियारों तथा बेडरूम से होते हुए सिंहासन तक हो
गयी.
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