741
ये शहर इलाहाबाद
कभी मेरा भी अजीज़ शहर होता था
इसके घाट, गली-कूचों से था खास रिश्ता सा
निरंतर बदलाव है मगर प्रकृति का साश्वत दस्तूर
होता भी है किशोर मन में नए की कल्पना सुरूर
बदलता रहा मैं अंदाज़-ए-आवारगी में
बनते रहे अजीज और नये नये शहर
चलता रहा भटकता भी रहा
मुकाम-दर-मुकाम मंजिल-दर-मंजिल
हक़ीकत की तलाश और उसे बदलने के प्रयास में
दिल तो कचोटता ही है छूटती है जब कोई जगह
जिया हो जहां ज़िंदगी के अनंत हसीन लम्हे
तैर जाती हैं आंखों में तमाम यादें तमाम बातें
जीवंत हो उठती हैं दृष्य-दर-दृष्य
श्याम बेनेगल की किसी फिल्म की रील की तरह
जैसे शांत पोखर में हलचल पैदा कर दी हो किसी ने
फेंककर एक छोटा सा कंकड़
शहर छूटने का थोड़ा मलाल जरूर था
मन में मगर
नई जगह के नए ज़ोख़िमों की कल्पना का सुरूर था
अब भी अज़ीज है ये शहर इलाहाबाद
है जिसमें जरूर कोई खास बात
जब भी इस शहर में जाता-आता
कभी नहीं खुद को अजनबी पाता
लगते नहीं कभी अजनबी शहर के तेवर औ जज़्बात
बदली है साजोसज्जा बदले हैं भूगोल और इतिहास
बदला नहीं शहर का मगर सामंती मिजाज़
नाटक वही है बस बदल गये हैं कुछ किरदार
होता नहीं एक ही किसी शहर का मिजाज़
निकलती है उसी में से ही विद्रोह की भी आग
आओ डालकर घी इसमें फैलाएं इंकिलाबी ज्वाला
दुनिया का मेहनतकश हो जिसका रखवाला
आओ मिजाज इस शहर का बदल दें
दुनिया में इसको इक मिशाल बना दें,
(पहली 2 पंक्तियां ही
लिखना चाहता था बाकी ऐसे ही लिखा गयीं)
(ईमिः 12.09.2015)
742
बंद करो अब देखना हाथों की रेखाएं और आसमान के तारे
टांको लाल फरारे में प्यार के कुछ सुंदर लाल सितारे
तोड़कर मैं और तुम की सीमाएं और वर्जनाएं बनो
एक हम
महसूसो पारस्परिकता अनूठा सुख और अदम्य दम
बंदकर देखना पीछे बढ़ो आगे लिए हाथों में हाथ
होगी मंजिल कदमों में चलेंगे ग़र साथ साथ
(बस ऐसे ही-- प्रातकालीन बौद्धिक आवारगी)
(ईमिः 12.09.2015)
743
हे
विदुषी बालिके, B|
तुम
शब्द-शिल्प की धनी हो
संवाद
में मगर कुछ अनमनी हो
सही ही
नहीं सौ टके की है तुम्हारी यह बात
गज़लगोई
ने ही कराई थी पहली मुलाकात
कविता को
कैसी भी हो कहकर करना निरस्त
है
आलोचना का तुम्हारा काव्मयय अंदाज़
नहीं
जानता छंद व लय के द्वंद्व का राज़
पद्य में
कह देता हूं कभी अंतःमन की बात
हों गर
दिल में इंसाफ के बेचैन ज़ज़्बात
और मन के
हक़ीकी विचार साफ
खुद-ब-खुद
साथ हो लेती है भाषा-शैली की विसात
जैसी भी
हो अद्भुत है कविता से संयोग-वियोग की बात
(हा हा यह तो कविता हो
गय़ी)
(ईमिः29.09.2015)
744
जो
कष्टदायक हद तक प्यार करे
उसे कहते
हैं बिटिया
बात बात
पर तकरार करे जो
उसे कहते
हैं बिटिया
चाय
बनाने से इंकार करे जो
बोले मैं
तो हूं बिटिया
बेटा
कहने पर भौंह चढ़ाये
बोले मैं
हूं बिटिया
फर्राटे
से फटफटी* चलाये
उसे कहते
हैं बिटिया
शोहदों
को दो चपत लगाये
उसे कहते
हैं बिटिया
मर्दवाद
की शामत लाये
उसे कहते
हैं बिटिया
मां-बाप
को राह दिखाये
उसे कहते
हैं बिटिया
ब्याह
करके जो बहुत रुलाये
उसे कहते
हैं बिटिया
मर्दवाद
का जो बैंड बजाये
उसे कहते
हैं बिटिया
असंभव को
संभव जो कर दे
उसे कहते
हैं बिटिया
(हा हा बहुत दिनों बाद
तुकबंदी में कमेंट लिखा गया....... मेरी तो 2 हैं)
(ईमिः 28.09.2015)
*फटफटी -- मोटरसाइकिल
745
फैला रहे
हैं भक्तगण नफरत का ऐसा जहर
याद आता
है नाज़ी तूफानी दस्तों का कहर
क्या कहें
इस जनता का है जो धर्म के नशे में चूर
रख विवेक
ताक पर करती इंसानियत चकनाचूर
सुनते ही
मंदिर के पुजारी का यह जीवविज्ञान
इंसान से
अधिक मूल्यवान है गाय की जान
किया
उसने से हिंदुत्व पर खतरे का ऐलान
गोमांस
खाता है इस गांव का एक मुसलमान
किया
उसने भकतों का मंदिर में आह्वान
पलक
झपकते ही जुट गये सैकड़ों नवजवान
बहुतों
को पहले से मालुम थी यह बात
सोये
नहीं वे बीत जाने पर काफी रात
दिखाया
एक भक्त एक टांग सी तस्वीर
अखलाक़
के घर तक जाती खून की लकीर
किया एक
भक्त ने आध्यात्मिक तकरीर
गोभक्षक
रहा जीवित तो कि्स काम का शरीर
सुनते ही
खौलने लगा भकतों का खून
सवार हुा
उन पर गोभक्ति का जुनून
ब्राह्मणों
के बीच रहता था यह अख़लाक
भक्तों
की भीड़ ने कर दिया उसे हलाक
(ईमिः08.10.2015)
746
रूहे अब
भी तड़पती हैं
दब जाती
है तड़प कीर्तन के शोर में
जिस तरह
भीड़ के उंमाद में खो जाता है विवेक
मरती
नहीं खो जाती हैं रूहें बिकने से जमीर
गिरा
दिया जाता है पर्दा
मंदिरों
की प्राचीरों से गूंजती है देववाणी
हादसा
बताती है जो रूहों की गुमशुदगी
आगाह
करती है गड़े मुर्दे उखाड़ने के विरुद्ध
दैविक
प्रकोप के गंभीर नतीजों की धमकी के साथ
लेकिन अब
उठने लगे हैं गड़े मुर्दे
चलने लगी
हैं हाथ लहराते हुए लाशें
फैलने
लगी हैं गलियों, सड़कों, शहरों गांवों में
खंड खंड
करते हुए देववाणी का पाखंड
बंद हो
जाएगा कीर्तन का शोर रूहों की तड़प की गर्जना से
जज्बात
की जगह दिमाग से सोचने लगेंगे लोग
जागेगा
जमीर
संख्या
बल होगा जनबल में तब्दील
चीरकर
धर्माधता की धुंध के बादल
करेंगी
रूहें अपनी मौजूदगी का ऐलान
खुद-ब-खुद
नेस्त-नाबूद हो जयेगा
देववाणी
के हादसों का खेल
(ईमिः09.10.2015)
747
जी हां
तटस्थ हूं मैं
नहीं
शामिल था अखलाक़ की हत्या में
लेकिन जो
होता है भले के लिए होता है
ईश्वर ने
सजा दी गोमांस भक्षण को
माना कि
नहीं मारा अख़लाक़ ने गाय
लेकिन
सोचें जरा तटस्थ होकर
भविष्य
की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता
मुझसे मत
पूछो कि मोदी जी क्यों बार बार अमरीका जाते हैं
और दुम
हिलाते हैं उनके सामने
जो
नियमित गोमांस खाते हैं
मैं तटस्थ
हूं
यह मामला
है भूमंडलीय पूंजी की निष्ठा का
हिंदु
राष्ट्र की सुरक्षा का
दुनिया
में राष्ट्र की प्रतिष्ठा का
पहले ही
लिख चुके हैं संत तुलसीदास
गलत नहीं
हो सकता कभी शक्तिशाली सम्राट
वैसे भी
दस दिन बाद सही
बिहार की
चुनावी सभा की जुमलेबाजी में ही सही
किया
मोदी जी ने अख़लाक़ की मौत में अपना हाथ होने से इंकार
सोम-साक्षी-शर्मा
को लगाई शाहजी ने फटकार
नहीं थी
इस देशभक्ति के जश्न की दरकार
मैं
तटस्थ हूं
आज़दी का
मतलब है अपने काम से काम रखना
जुबान पर
अपनी लगाम रखना
दुष्यंत
की सलाह पर शरीफ लोगों में मिल जाना
जहां भी
चले लहू-लुहान नज़ारों की बात
उठकर
वहां से दूर बैठ जाना
आज़ादी
से निजाम की वफादारी करना
खुद्दारी
के नाम पर कुछ लोग अपनाते हैं विद्रोही तेवर
गलतफहमी
में हुई हत्या को बताते सोचा समझा कहर
मैं वाकई
तटस्थ हूं न्याय-अन्याय से परे
(अरुण माहेश्वरी के माध्यम से
सरला जी की कविता से प्रेरित, कमेंट)
(ईमि-20,10.2015)
748
सही कहा
राहत इंदौरी ने
"सभी का
खून शामिल है यहां की मिट्टी में
किसी के
बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है"
ललकारा
था कॉमरेट पाश ने कंजी आंखों वाले पाइलट को
काटने को
अपना नाम यदि हो उसका कोई अपना हिंदुस्तान
तो सुनो
लाशों की तिजारत के सरताज
यह किसी
के बाप का नहीं आवाम का है हिंदुस्तान
दुहराता
हूं कॉमरेड पाश की चुनौती
क्योंकि
तुम भी तो उसके ही मौसेरे भाई हो
बस
तुममें है उससे थोडा ज्यादा गरूर
और हो
कुर्सी के नशे में थोड़ा ज्यादा चूर
हुआ था
दिल्ली में जब भीषण नऱसंहार
बताया था
उसने
बडे पेड़
के गिरने से धरती हिलने का परिणाम
तुम्हे
भी याद आया महज बारह साल बाद
गुजरात
का भीषणतम नरसंहार
था जो
कार के सामने कुत्ता आ जाने के हादसे सा
तुम भी
जानते हो सारी दुनियी की तरह
खत्म हो
गई खानदानी सल्तनत
समा गया
वह इतिहास के कूड़ेदान में
तुम भी
जानते हो सारी दुनिया की तरह
खत्म हो
जाएगी धर्मोंमाद पर टिकी संघी सल्तनत
समा
जाओगे इतिहास के किसी कूड़ेदान में उसी की तरह
हिंदुस्तान
रचता रहेगा अपने इतिहास का गतिविज्ञान
क्योंकि
इतिहास का अंत नहीं होता
इसलिए भी
कि किसी के बाप का नहीं आवाम का है हिंदुस्तान
(ईमिः22.10.2015)
749
कहा था सुकरात ने पचीस सौ साल पहले
समझे जो अपने को सर्वज्ञ
होता है ज्ञान की परिभाषा से अनभिज्ञ
होता नहीं कोई परम ज्ञान
वैसे ही जैसे होता नहीं कोई अंतिम सत्य
लेकिन मठाधीश बने सर्वज्ञ
इतना जानता है कि कुछ और जानने से घबराता है
ओढ़ आभामंडल की चमकती चादर
जिज्ञासा के खतरों से बाल-बाल बच जाता है
कूपमंडूक बन इतराता है सर्वज्ञ
हर सर्वज्ञ याद दिलाता है
गोरख पांडे के समझदारों का गीत के किरदार का
जो आज़ादी और बेराजगारी के खतरों से बाल बाल बच जाता है
जिज्ञासा का खतरा न हो तो
कुछ भी कर सकता है यह सर्वज्ञ
(ईमिः 26.10.2015)
750
जी हां, मैं हूं मोहन भागवत
हिंदु-राष्ट्र का चितपावनी स्वागत
मैं व्यक्ति नहीं व्यवस्था हूं
नागपुर में बैठा लगाम देश की कसता हूं
हमारा धर्म है बहुत सहिष्णु
हमारे अवतारी भगवान हैं भगवान विष्णु
जब भी बढ़ता है पाखंड पर अत्याचार
अवतरित होते हैं करने वे असुरसंहार
कलयुग में बदला है असुरों ने भेष
बन गये हैं कम्युनिस्ट, बुद्धिजीवी और म्लेच्छ
बुद्धिजीवी है असहनशीलता की जीवंत मिशाल
करता है तर्कों से अवतारों की लीला पर
सवाल
कर दिया सहिष्णु भक्तों चंद चरमपंथी
हलाल
उठा लिया दानिशमंदों ने विद्रोह की
मशाल
कलयुग के अवतारों पर होती संवैधानिक
सीमा
बना देते वरना इन सबका कीमा
इनके विचारों मैं है कटु असहनशीलता
कब तक धीरज धरेगी हमारी सहनशीलता
करेंगे भक्त खत्म इनमें संख्याबल की
आस्था
करेंगे दानिशमंदी की वैकल्पिक व्यवस्था
लग गये हैं इस मिशन में दीनानाथ बत्रा
टीवी पर काबिज पराक्रमी संवित पात्रा
वैसे तो चैनलों पर है हमारी पूरी
निगरानी
फिर भी कुछ कहते हैं नामाकूल कहानी
उन्हें भी खरीद लेंगे हमारे अंबानी
थिंक-टैंक हमारे सिन्हा राकेश
मचाता जो विमर्श में भाषा का भदेस
पाते रहे अवतार पुरुष यदि ऐसे ही
जनादेश
बना देंगे भारत को ऋषि-मुनियों का देश
होगा तब हिंदुओं में स्वर्णयुग का
जुनून
हिंदुराष्ट्र में लागू होगा मनु महराज
का कानून
(ईमिः 02.11.2015)
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