मार्क्स ने कहा है अर्थ ही मूल है. अाथिक स्वावलंबता ब्राह्मणवाद, मर्दववाद या किसी तरह के वर्चस्व से मुक्ति का प्रथम सोपान है. लेकिन अार्थिक मुक्ति स्वतः सामाजिक मुक्ति का पथ नहीं प्रशस्त करती. सचेत मानव प्रयास की अावश्यकता होती है. यह तभी संभव है जब हम शोषणकारी, ब्राह्मणवादी-मर्दवादी सांस्कृतिक-वैचारिक वर्चस्व की जटिलताओं-गूढ़ताओं को समझें. अंतिम सत्य के रूप में अात्मसात सामाजिक मूल्यों के निहतार्थ को समझें. पायल-चूड़ी (बेड़ी-हथकड़ी) के महिमामंडन के "हिडेन-एजेंडे" को समझें. हमें जोर देकर समझना-समझाना पड़ेगा कि शासक जातियां ही शासक वर्ग रही है. उत्पादन के साधनों (जमीन) पर उन्ही का सवामित्व रहा है. ब्राह्मणवाद वर्णाश्रम समाज की वर्गीय विचारधारा है उसी तरह जैसे राष्ट्रवाद पूंजीवाद का. लगता है शोषत वर्गों को ऊंच-नीच के पिरामिड में संयोजन का मंत्र, लगता है, पूंजीवाद ने ब्राह्मणवाद से सीखा. हर किसी को अपने से नीचे देखने को मिल जाता है जो वर्गचेतना को कुंद करने का शासकवर्गों का कारगर अौजार है. शासक वर्ग हमेशा गौड़ अंतरविरोधों को अहमियत देकर प्रमुख अंतरविरोध (अार्थिक) की धार कुंद करने की सतत शाजिस करता रहता है, इस साजिश को नाकाम करने के सतत अभियान की दरकार है. क्रांति महज जज़्बात अौर जोश से नहीं होती. डाकुओं में भी इन तत्वों की की नहीं होती. विगत 40 सालों में कई क्रांतिकारी संभावनाओं को जड़ीभूत-विकृत होते देखा. विचारों की शान के बिना क्रांतिकारी की तलवार तथा डाकू की तलवार में कोई अंतर नहीं होता. सगठन, साधन है साध्य नहीं. वर्ग-वर्चस्व की ही तरह, उसके समानांतर वर्ग संघर्ष भी एक निरंतर प्रक्रिया है. दलितों-किसानों-अादिवासियों-महिलाओं के संघर्ष के ही स्वरूप हैं. दलितवाद-पिछड़ावाद वर्ग संघर्ष की उसी तरह विकृत विचारधारायें हैं जिस तरह सांप्रदायिकता शासक वर्गों की सोची-समझी साजिश. जवाबी जातिवाद अौर जवाबी असमानता क्रमशः ब्राह्मणवाद अौर असमानता को कमजोर करने की बजाय मजबूत करते हैं. जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना से मिली अस्मिता से ऊपर उठकर, चिंतनशील इंसान की अस्मिता अर्जित करने की जरूरत है. शासकचेतना यानि युगचेतना के विरुद्ध क्रांतिकारी जनचेतना के निर्माण में ब्राह्मणवादी जातिवाद से अधिक बाधक दलितवाद-पिछड़ावादी जातिवाद है. अल्पसंख्यक जातिवाद को शासक विचार के रूप में अलग-थलग कर उससे निपटना अासान होता है. बाकी बाद में.
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