@Sunil patel मैें अापकी अाखिरी बात से शुरू करता हूं. हर युग में शासक वर्ग का चरित्र कथनी-करनी में दोगलेपन का रहा है अौर शासितों को छोटे-बड़े की कृतिम कोटियों में बांटकर राज करते रहे हैं.ये नकली या गौड़ अंतरविरोधों को तूल देकर, धर्म तथा जाति अादि की मिथ्या-चेतना फैलाकर रोजी-रोटी के मुख्य अंतरविरोध की धार कुंद करते हैं. इस साज़िश को नाकाम करने के लिये जनवादी जनचेतना की जरूरत है. कई बार अनचाहे परिणामों का दूरगामी असर होता है. अंग्रेजी राज में शिक्षा का सैद्धांतिक अधिकार अागे चलकर दलित चेतना-प्रज्ञा-दावेदारी के अभियान में बरदान साबित हुअा. नीचे से दूसरी बात कि उनके पूर्वज शोषक थे? अात्मालोचना के लिये साहस चाहिये. इस मामले में सामाजिक न्याय के रणबांकुरे उतने ही कायर हैं जितने कि तथाकथित प्रतिभा के पुजारी. मेरी एक पोस्ट पर वरिष्ठ स्तंभकार कुलदीप कुमार का कमेंटः "समस्या यह है कि सामाजिक न्याय और दलित संघर्ष के तथाकथित समर्थक जातिवाद को समाप्त नहीं करना चाहते, स्वयं ब्राह्मण बनना चाहते है---जीवन शैली, जीवन मूल्यों और सत्ताप्रेम---सभी दृष्टियों से. जन्म के आधार पर ब्राह्मण के प्रति हिकारत रखना असल में Inverse Brahmanism ही है. जन्म पर तो किसी का वश है नहीं. कर्म पर जरूर है. व्यक्ति के विचार और कर्म देखने के बजाय उसका जन्म देखा जा रहा है. इससे अधिक ब्राह्मणवादी नजरिया और क्या होगा?" अापकी पहली बात अनजाने में अपमानजनक है. संदर्भ गढ़ कर लिखूं कि मुलायम-माया ही नहीं, सोन्या मोदी भी कॉरपोरेटी पूंजी के उतने ही या उनसे बड़े वफादार सेवक हैं. यही तो कष्ट है मोदी-मुलायम में कोई गुणात्मक अंतर नहीं है. मुलायम-माया सरीखों को इतिहास रचने का अवसर मिला जिसे शान-ओ-शौकत अौर संचय की खुशफहमी के तुच्छ स्वार्थों में गवां दिया. अाप मुझसे उसी तरह प्रमाणपत्र मांग रहे हैं जैसे reserved category से प्रतिभा की अौर मुसलमानों से देशभक्ति की.
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