Thursday, March 12, 2015

सियासत 5

विनोद यदुवंशी मुबारक़ हो अापके अंदर के अहिर ने खुदकुशी कर लिया, मुझे तो अपने अंदर के ब्राह्मण को मारने के लिये बहुत प्रयास करना पड़ा था. मेरा पहला कमेंट पढ़िये. मैंने सिर्फ यह कहा था कि वैचारिक दिवालियेपन के चलते जातीय अाधार पर राजनैतिक लामबंदी से वर्ग-चेतना बाधित होती है, यह कमेंट मैंने एक क्रांतिकारी छात्र संगठन की नेता, जो मेरी एक दिन की स्टूडेंट है, पोस्ट पर, राजनैतिक समझ के खास स्तर की उम्मीद के साथ किया था. राजनैतिक शिक्षा का ककहरा सिखाना होता तो अौर ढंग से लिखता. लेकिन अन्य संगठनों की तरह लगता है अाइसा भी जनबल अौर संख्या बल में अंतर भूल गयी है. दर-असल अाप की पीढ़ी के विद्यार्थियों में, लगता है, कोचिंग के नोट्स रटने के चलते पढ़ने-समझने की अादत छूट सी गयी है. अापकी गलती नहीं है, शिक्षा व्यवस्था का मकसद चिंतनशील इंसान नहीं, तोते अौर भेड़ तथा भक्ति भाव पैदा करना है. लेकिन इसके बावजूद निकलते ही हैं चिंतनशील इंसान, खुद के प्रयास से. इस मर्दवादी-जातिवादी अन्यायपूर्ण समाज को बदलने के लिये, पहले खुद को बदलना होगा. विरासत में मिली जन्म की अस्मिता से ऊपर उठना होगा. यह समझना होगा कि निजी संपत्ति की उत्पत्ति के बाद वर्ण-विभाजन, बहुसंख्यक कामगार के श्रम का चतुर अल्पसंख्यक परजीवियों द्वारा शोषण के लिये वर्ग-विभाजन था. शोषित जाति ही शोषित वर्ग अौर उत्पादन के साधन पर काबिज शासक जाति ही शासक वर्ग रही है. किसी के जन्म की अस्मिता विगत जन्म के कर्मो या ब्रह्मा की इच्छा का नहीं बल्कि जीववैज्ञानिक संयोग (दुर्घटना) का परिणाम है. जैसे ही मेरी बात अापको असुविधाजनक लगती है, अापको मेरे अंदर ब्राह्मण दिखने लगता है. जब कहता हूं ब्राह्मण या भूमिहार से इंसान न बन पाना जहालत है तब मेरे अंदर ब्राह्मण नहीं दिखता लेकिन जैसे ही कहता हूं कि यही बात अहिर से इंसान न बन पाने वालों पर भी लागू होती है वैसे ही बंददिमाग तोतों को मेरे अंदर ब्राह्मण दिखने लगता है. मित्र, जब तक लोग जाति-धर्म की अास्था-अंधविश्वासों से मुक्त नहीं होते चंद चतुर लोग जातीय-धार्मिक उन्माद के जरिये सियासी उल्लू सीधा करते रहेंगे. जी हां मैं ब्राह्मण परिवार में पैदा हुअा जो मेरे बस में नहीं था, क्रांतिकारी राजनीति का वरण मेरा चुनाव है.

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