विनोद यदुवंशी जी, मैं ना-उम्मीद नहीं होता. मुझे पूरी उम्मीद है कि अाप भी एक-न-एक दिन हिरावल दस्ते की अगली कतार में होंगे. पुष्पा यादव जी, बहुत अच्छी बात है अापको अपनी चेतना के स्तर की चिंता है, मेरी भी चिंता युवाओं की चेतना के जनवादीकरण की ही है, यही क्रांति की असली कड़ी है. जन्म की विरासत अावाम को विखंडित करने की ब्राह्मणवादी साज़िश है. मैंने तो विरासत में मिले संस्कारों को 13 साल की उम्र में जनेऊ तोड़ने के साथ तोड़ना शुरू कर दिया था. sarcasm समझता हूं लेकिन अापका ताना एकांगी होने के नाते व्यंग्य कम अवमानना भाव ज्यादा दर्शाता है. किसी समीक्षक का नैतिक दायित्व है कि कम-से-कम पुस्तक का प्राक्कथन तो पढ़ ले. अाप तो, पूरा कमेंट तो छोड़िये, एक वाक्य का एक अंश ही पढ़ कर अागबबूला होकर ब्राह्मण की गालियों की धुंवाधार बौछार कर दी. वैसे छोटी-मोटी गालियों का मुझपर खास असर नहीं पड़ता. लेकिन ब्राह्मण की गाली बुरी लग जाती हैं तथा मैं भूल जाता हूं कि 40 साल पहले 20 साल का था, जिसका कईी बार खेद भी होता है.नास्तिकता तक की अात्मसंघर्षों की लंबी यात्रा में अंदर के जिस ब्राह्मण को हलाल कर चुका हूं, उसे जीवित करने के व्यर्थ प्रयास में युवा ऊर्जा की बरबादी पर कभी कभी क्रोध अा जाता है. नहीं अाना चाहिये, लेकिन क्रोध भी एक इंसानी फितरत है. क्रोध में विवेक पर भावना हावी होने लगती है. गलती हो जाती है तो शर्मिंदगी के साथ मॉफी मांग लेता हूं. शर्म एक क्रांतिकारी अनुभूति है. उक्त कमेंट के जिस व्यंजनात्मक वाक्य पर यदुवंशी कोप का पात्र बना वह था कि हमें जन्म के जीववैज्ञानिक संयोग से विरासत में मिली असमिता से ऊपर उठकर तर्कसंगत अस्मिता बनाने की जरूरत है, "..... बाभन, भूमिहार.. अहिर से इंसान " बनने की जरूरत है. बाभन से इंसान बनने की व्यंजना से अापको कोई अापत्ति नहीं हुई, अहिर से इंसान बनने पर हो गयी. ब्राह्मण संबोधन को मैं गाली मान रहा हूं तब भी अाप लोग ब्राह्मण साबित करने पर तुल जाते हैं. धार्मिक-जातीय अस्मितायें मर्दवाद से मुक्त समतामूलक जनवादी जनचेतना में बाधक हैं. जनवादी चेतना की बात इसलिये किया कि वह एक जनवादी व्यक्ति की पोस्ट थी. अापका यह तंज, "आप बुजुर्ग हैं और आपमें बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं", प्रतिगामी तथा एकांगी है. बदलाव की कोई उम्र नहीं होती. बस बदलाव अग्रगामी होना चाहिये, प्रतिगामी नहीं. निश्चित रूप से यदि कोई तर्कसंगत नई बात अाप कहेंगी तो निश्चित अपनाऊंगा. मैं किसी को नीचा दिखाने के लिये नहीं, शिक्षक हूं, विमर्श सिखाने-सीखने के लिये करता हूं. जो लोग "प्रोफेसर की भाषा" की दुहाई देने लगते हैं. अरे भाई, प्रोफेसर किसी अन्य ग्रह से नहीं अाता. सादर.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment