Thursday, August 7, 2014

लल्ला पुराण 165

Pradip Singh आपका कथन संघी भाषा की तमीज का जीता-जागता उदाहरण है. भक्ति-भाव के आलोचकों को हरियाली भी दिखायी देती है. ये जाहिल पढ़ते-लिखते नहीं पशुवत नैसर्गिक प्रवृत्तियों का पशुवत अनुशरण करते हैं. नई गालियां भी नहीं ईज़ाद कर पाते दिमाग से पैदल अफवाहों और फतवों पर समझदारी विकसित करते हैं और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के ्मूर्त सगूफे और अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित रटी-रटाई  चाओ-माओ से काम चलाते हैं. बौखलाहच में संघियों की गालियों को मैं कॉम्लीमेंट के तौर पर लेता हूं. जिस प्रचारक ने संघ के शिविर में किशोर के साथ दुष्कर्म किया और उसने आत्महत्या की कोशिस की उस नरपिशाच का भंडाफोड़ क्यों नहीं करते? अगर आप बचपन से संघ से जुड़े रहे हैं और आप पर किसी सीनियर संघी ने कभी प्रयास नहीं किया तो या तो आप भाग्यशाली रहे हैं या झूठ बोल रहे हैं. मैं बचपन में संघी था और 17 साल की उम्र में अभाविप का इतना बड़ा नेता था कि भेड़ चाल में चलते हुए तोता रटंत करता रहता तोे आप का भी पूज्य होता. गर्व महसूस करता हूं कि संघी मकड़जाल से निकल सका. यकीन न हो तो मुरली मनोहर जोशी या नरेंद्र सिंह गौड़ या इवि के प्रो. राम किशोर शास्त्री से पूछ लें. मार्क्सवादी विलक्षण प्रतिभा के धनी नहीं होते विवेकशील होते हैं इसीलिए मार्क्सवादी बनते हैं और दिमाग से पैदल जहालत के गर्त से निकलने में असमर्थ संघी, आपकी तरह भेड़ और तोते बने रहते हैं. वैसे ज्यातर संघी बचपन से ही शुरू करते हैं, बच्चों को विवेकशीलता या विवेकहीनता में दीक्षित करना आसान होता है. कुछ बच्चे बड़े होकतर दिमाग का इस्तेमाल करने लगते हैं और अपसंस्कृति की जहालत से निकल पाते हैं.  Sumant Bhattacharya  आपने उनके मंच से क्या कहा मुझधे नहीं मतचलब. संघियों की लफ्फाजी में नहीं, 2 वाक्यों या पैरा में मुझ अज्ञानी को ठोस शब्दों में समझायें कि राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक कोटि क्या है? सांस्कृतिक राष्ट्रवाद तो मुखौटा है, मक्सद मुल्क की नीलामी है.

Sumant Bhattacharyai गैर वर्गीय राजनीति नहीं होती. जातिवाद और सांप्रदायिकता वर्गचेतना को कुंद करने की साज़िशे हैं. जनता का ध्यान भूमि आंदोलन जैसे मूल समस्यायों से भटकाव के उद्देश्य से सरकारी संत विनोवा भावे की गैर दलीय राजनीति करना चाहते हो या कोई नूतन विचार हैं तुम्हारे चिंतन में हो तो रूपरेखा बताओ, हम सब उस पर विचार करें. अतीत में पूंजी के रखैल बुद्धिजीवी विचारधारा औरक इतिहास के अंत के शगूफे छोड़ते रहे ङैं, इनसे अलग कोई बात हो तो बताओ

@ Pradip Singh. No intention to hurt your feelings.  Sorry for losing temper and answering you in your language. Has been edited. There is no final knowledge and no one can be all knowledgeable. One life time is not enough even for reading all that one wants to. Knowledge is an ongoing process it does not belong to any one/group. The ratio of literate (degree holding) duffers (whose education does not help them transcending their identity emanating from the biological accident of birth) exceeds their illiterate counterpart. To me key to any knowledge is questioning anything and everything beginning with one's own mindset  and accepting only that as truth that can be proved.The education should be (is not) about not only learning but unlearning too. Questioning our attributes that we acquire during our growing up without our conscious effort -- the acquired morality -- and if found irrational or socially detrimental must be unlearn and replaced by rational, socially useful morality, which is subtly discouraged by Sangh training. 

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