Saturday, July 20, 2013

सलामती-ए-ज़मीर


सलामती-ए-ज़मीर
मंजिलें और भी हैं मंजिल-ए-खुदी के सिवा
सलामती-ए-ज़मीर खुद एक मुकम्मल मंजिल है
दिल की तसल्ली ही नहीं
उसूलों का उद्गम भी है ज़मीर की सलामती
लगा देती है प्रवेश-निषेध की तख्ती अवांछनीय रास्तों पर
ज़िंदगी का होता नहीं कोइ जीवनेतर मकसद
ज़िंदगी-ए-ज़मीर खुद-ब-खुद एक मकसद है
तय होती हैं मंजिलें सफ़र के अनचाहे परिणामों की तरह
हर पड़ाव है एक मंजिल ऐसे सफ़र की
कोई अंतिम मंजिल नहीं होती मौत के सिवा.
[ईमि/२१.०७.२०१३]

जो जीते हैं ज़मीर बेचकर

रहते हैं वहम-ओ-गुमान में
सलामत है ज़मीर जिनकी
बनाते हैं कारवानेजूनून.
[ईमि/२१.०७.२०१३]










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