संसदीय संविधान पर एक अलग पोस्ट डालने का वायदा जल्द पूरा करूंगा. फिलहाल तो हमारी लड़ाई वंचितों के संवैधानिक अधिकारों के लिए ही है. हमारे साथ बिहार कैडर के सेवा-निवृत्त आईएएस, केबी सक्सेना भी हैं जिनकी ईमानदारी और कर्तव्य-परायणता बारे में किम्वदंतियां सुनते थे हम जब इलाहाबाद में पढ़ते थे. वे सिद्धांत में बिलकुल मार्क्सवादी नहीं हैं, व्यहार में है क्योंकि उन्होंने पूरे जीवन करनी-कथनी के विरोधाभास के विरुद्ध संघर्ष किया. पूंजीवाद एक दोगली व्यवस्था है, यह जो कहता है, करता नहीं, जो करता है कहता नहीं. यदि राज्य अपने संवैधानिक दायित्व पूरा करे तो जनवाद की दिशा में आधा रास्ता तय हो जाए. हमारे नौकरशाह और पुलिस-सेना अधिकारी यदि राजनैतिक माफिया की चाकरी करने की बजाय अपने संवैधानिक दायित्व पूरा करें तो काफी जनकल्याण वैसे ही हो जाए. सभी उदारवादी (पूंजीवादी पढ़ें) संविधानों में 'संविधानेतर' कानूनों के प्रावधान होते हैं जिनके तहत जनता के संवैधानिक अधिकार मुअत्तल कर दिए जाते हैं. मीसा/टाडा/पोटा/ ...ज्वलंत उदाहरण हैं. इनका सर्वाधिक उपयोग-दरुपयोग अमेरिका में १९५०-६० के दशक में मेकार्तिज्म के ग्ताहत "लाल-शिकार" के नाम पर हुआ और मौजूदा वक़्त में इस्लामोफोबिया के तहत हो रहा है. आदिवासियों/किसानों को उनकी जमीनों से बेदखल करने के संवैधानिक प्रावधान हैं लेकिन भ्रष्ट और जमाखोर पूंजीपतियों की निजी संपत्ति के अधिग्रहण का कोइ क़ानून नहीं है. आज़ादी के बाद औद्योगीकरण के नाम पर औने-पौने दामों में पूजीपतियों को जमीनें दी गईं और अब जब वे रिहायशी इलाके बन गए तो जमीन वापस लेनी चाहिए लेकिन पूजीपतियों ने उन जमीनों को अरबोब-खरबों के रीअल एस्टेट में तब्दील कर लिया. मौजूदा संघर्ष संवैधानिक अधिकारों का ही है.
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