औरतें
ईश मिश्र
बेडिया तोड़ रही
हैं दुनिया की औरतें
मर्दवाद को अब
ललकारती हैं औरतें
सांस्कृतिक
संत्रास देती हैं औरतें
भोग्य-पूज्या
नहीं अब बनतीं ये औरतें
किफायती कपड़ों
में खोमैनी को चिढाती औरतें
गोमती से वोल्गा
तक घूमती हैं औरतें
फूल से अंगार बन
रहीं ये औरतें
शब्दों को औज़ार
बनाती हैं औरतें
भाषा के भदेश को
मिटाती हैं औरतें
जनसैलाब की अगली
कतर में हैं औरतें
इंक़िलाब की
गुहार लगाती हैं औरतें
हसीन दुनिया के
सपने सजोती है औरतें
मानवता की
मुक्ति चाहती हैं औरतें
जी हाँ कविता भी
लिकने लगी हैं औरतें
अपनी अलग पह्चान
बनाने लगी हैं औरतें
कलम को हथियार
बनाने लगी हैं औरतें
कलम ही नहीं
बंदूक भी उठाने लगी हैं औरतें
भेदभाव-उन्मूलन
करेंगी औरतें
अब ज़माना बदलने
निकाल पड़ी हैं औरतें
[2011]
No comments:
Post a Comment