धीरेन्द्र जी मैंने बहुतों से बहुत कुछ सीखा है अपने छात्रों और बे५तियोन से सीखता रहता हूँ.. Words acquire meaning through tone and connotation. आपका गुरू चेला का tone and connotation भक्ति- भाव से अनुशरण वाले गुरू चेले का है. आपकी याददाश्त साथ नहीं दे रही है. आपके प्रोफाइल के अनुसार आ १९७४ में इलाहबाद आये. मैं १९७२ में .आया था. जिन राकेश श्रीवास्तव की आप बात कर रहे हैं और जिन्होंने खुद (आपके बताने से शायद) वे मेरे गुरू नहीं सीनियर मित्र थे. क्रिसन प्रताप (स्वर्गीय); रमाशंकर प्रसाद; शीश खान; रामजी राय; देवी प्रसाद त्रिपाठी (तबके वियोगी), राकेश भी "परिवेश" पत्रिका से जुड़े थे, मैं भी नए नए मार्क्सवादी के रूप में इनका सहयोगी था. इन सबके सत्संग में बिना गुरू-चेले के झमेले के बहुत कुछ सीखा.कुछ औपचारिक शिक्षकों की भी इज्ज़त करता हूँ. राकेश श्रीवास्तव को आचरण में विरोधाभाषों के चलते लोग श्री राकेश कहते थे. उनके शिक्षक होने और शादी के३ बाद हमारी मुलाक़ात इलाहाबाद में कभी नहीं हुई न ही मैं कभी उनके घर गया. शादी के बाद हमारी उनसे मुलाक़ात दिल्ली में हुई जब वे सपत्नीक युपीएससी में साक्षात्कार देने आये. अपने श्री राकेश के घर किसी और को भक्ति-भाव से प्रवचन सुनते देखा होगा. मैं इलाहाबाद पहुँचने तक प्रामाणिक नास्तिक हो चुका था इसलिए भक्ति-भाव का सवाल ही नहीं होता. श्री राकेश को जब विश्वविद्यालय में नौकरी मिली तो मं आपातकाल में नैनी में था और दीआईआर से छूटने के बाद मीसा के वारंट से बचने के लिए दिल्ली आ गया था भूमिगत रहने. सुखद संयोग से डीपी त्रिपाठी को ख्जते वजे.एन.यु. पहुँच गया था. मैं तो तब भी जूनियर सीनियर में यकीन नहीं करता था आप को देखा होगा कभी मिले नहीं इसलिए मुझे आपकी तस्वीर बिलकुल अपरिचित लगती है. जी हाँ आपने ही बतया की आपकी श्री राकेश से बात होती रहती है और आपने फोन नंबर दिया था और हमारी एक बार बात भी हुई थी. जो लोग ७० के दशक में फैशन या मौकापरस्ती में मार्क्सवादी बने थे वे भूतपूर्व हो गए सम्प्रति निष्ठा वाले बचे हैं. कीजिये श्री राकेश के घर आपने किसे देखा था? मैं तो इलाहाबाद में कभी उनके घर गया नहीं. नहीं तो श्री राकेश से फोन कर पूछ लीजिये. आमीन.
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment