अदब
ईश मिश्र
अदब थी यहाँ नज़रें ज़िन्दाँ
जहाँ नहीं पंख मार सकता कोई भी परिंदा
छात्र था यहाँ भौंचक्क और डरा डरा
मुदर्रिस था ३-५ के चक्करों में फंसा बेचारा
विस्थापितों के डेरे हों जैसे
हाकिमों का आना होता है १५ अगस्त या २६ जनवरी को
जैसे कुछ मुल्ले निकले हों नमाज़ी तफरी को.”
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