संसदीय जनतंत्र का उदय ही पूंजीवाद की चेरी के रूप में हुआ और भ्रष्टाचार इसका दोष नहीं बल्कि नैसर्गिक गुण है. जहाँ देखोये वहा पूंजीपतियों के प्रति राज्य की वफादारी साफ़ दिखती है चाहें सुजुकी जापानी-भूमानादालीय पूंजी की सेवा में मानेसर में अमानवीय शोषण के शिकार मजदूरों पर कहर बरपाना हो टाटा की वफादारी में निजी गुंडों के साथ मिलकार आदिवासियों की ह्त्या करनी हो या अंगुल में जिंदल के गुंडों को प्रश्रय दे ना हो या कोरिया स्थिति अमेरिकी कारपोरेट पास्को के मुनाफे के लिए पारादीप बंदरगाह को प्रदूषित करके हजारों मछुआरों को बेरोजगार करना हो और जगात्सिंघ्पुर के पान के समृद्ध किसानों को बेघर करना हो,,,,,,,,,,,,,,,,,, संसदीय जनतंत्र में स्वस्थ जनपक्षीय राजनीति असम्भव है. जरूरत इसके विकल्प पर विचार करने की है.
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