विश्वविद्यालय अतिथिगृह, चैतम लाइन्स, इलाहाबाद विश्वविद्यालय.
Sunday, August 12, 2012; 6:35 AM
४ बजे ही नीद खुल गयी. लेकिन कलम सोफे की दरार में
छिप गयी थी और यह सोच कर परेशान होने लगा कि कहाँ गयी, फिर चला गया प्रयाग
स्टेसन चाय पीने. १९७६ की वह रात याद आयी, छात्रावासों में छापा पड़ने वाला था. सोचा किसी होटल मे३न रुक लूं लेकिन संगम स्नान
के किसी पर्व के चलते कहीं जगह नहीं मिली. बहादुरगंज थाणे के पास एक मित्र रहते
थे. उनके घर गया तो उन्होंने छत पर दुर्गन्धपूर्ण स्टोर रू में जगह दी. ग्लानी और
गुस्से से मैं वहां से निकल पड़ा और याद नहीं किन रास्तों से होता हुआ रात ११.३० के
पास प्रयाग स्टेसन पहुंचा और रात भर दुकानें बदल बदल कर चाय सिगरेट पीता रहा. उसी
के कुछ दिनों बाद दिल्ली चला गया कुछ दिनों भूमिगत रहने और वहीं बस गया. गोरख
पाण्डेय से भी तभी मुलाक़ात हुई थी, वे भी गिरफ्तारी से बचने के लिए आये थे. बाकी तो अब
उनकी कहानी इतिहास बन चुकी है. कल सम्मलेन के बाहर शबद के स्टाल पर उनकी कुछ
किताबें देखने को मिली और उनके नेतृत्व में शुरू हुए जसम की सक्रियता देख कर खुशी
हुई.
I was really thrilled to be in AUSU hall after almost 37 years and the idea
of addressing a houseful gathering on the issue of undeclared emergency and
state repression in the context of conviction of Seema Azad and Vishvvijay.
First thing that truck me and saddened was replacement of Bhagat Singh’s
picture by that of Rajiv Gandhi on the left side of Gandhi’s picture and
removal of Subhash Chandra Bose’s picture. Ruling classes are always afraid of
the ideas of the revolutionaries but now they and their minions and zealots are
scared of even their pictures.
It was really pleasant to be there and the applaud I received, overwhelmed
me, though I was just to finish the prelude, but people felt that prelude
itself had swaid a lot. I began with my pet dialogue, “capitalism is a bastard
system” and it innate attribute of suppressing the dissent through
extra-ordinary blaws in the sevice of the Corporate, i.e. the ruling classes.
It was really great feeling to see Seema and Vishvvijay out of jail after
almost two and a half a year. मैंने
सीमा से कहा कि पुलिस ने तो तुम्हे हीरोइन बना दिया. Both of them have come out stronger instead of breaking down.
विश्वविजय की कविता,
बहुत ऊंची हैं तुम्हारे जेल की चहारदीवारियाँ
हमारी आवाज की बुलंदियों से फीर नही कमतर हैं
कौन कहता है पस्त हो गए हौसले हमारे
अभी तो नाव मझधार में पडी है
हम तो माझी हैं, संभाल लिया है पतवार हमने
बस हवा का रूख
बदलने की तनिक देर जो बाकी है.
ने नई पीढ़ियों की क्रांतिकारी सम्भावनाओं के बारे में
आश्वस्त किया.
सेवा-निवृत्त न्यायमूर्ति राम बल्लभ मल्होत्रा, ओ.दी.सिंह सिंह, प्रोफ़ेसर लाल बहादुर
वर्मा जैसे बुजुर्गों की सक्रियता, जोश और युवकों में घुल-मिलकर उनका मार्ग दर्शन करते
देखना प्रेरणादायी था. वर्मा जी ने दमन और दमनकारी कानूनों की सटीक व्याख्या किया
कि दमन की जड़ शोषण है इस इये दमन-विरोधी संघर्ष को शोषण-विरोधी संघर्ष से जोड़ने की
आवश्यकता है. इसलिए शोषण और लूट के विरुद्ध जहाँ भी संघर्ष हो रहे हैं हमें उनका
समर्थन करना चाहिए चाहें वह ग्रीस में हो, स्पेन में या कलिंग नगर, मानेसर, नारायण पटना, नियामगिरी, जगतसिंघपुर, देवरिया, .... जहाँ भी
किसान/मजदूर/आदिवासी और दलित अपने अधिकारों की लड़ाए लड़ रहे हैं हमें उनका समर्थन
करना चाहिए. इन्ही वर्गों में क्रांतिकारी संभावनाएं हैं.
सम्मलेन विश्वविद्यालय प्रांगण में होने के बावजूद
छात्रों और शिक्षकों की समुचित उपस्थिति का अभाव अच्छा नहीं लगा लेकिन जितने भी
छात्र थे उनके प्रतिबद्ध-सक्रियता अच्छी लगी. इस कमी की सूद समेत भरपाई कर दिया
लाल झंडे के साथ लाल सलाम बोलते, नारे लगाते, गाने गाते दूर दराज गावों से आये किसानों मजदूरों ने
जिनकी जुझारू संघर्षों ने सैंड माइनिंग माफिया और भूमि माफिया की सत्ता से मिलीभगत
को बेनकाब और नाकाम कर दिया था.
अब सोच रहा हूँ दोनों में से कोई कहानी टाइप करूं कि
किसी लेख के ड्राफ्ट पर काम करूं? फिलहाल तो थोड़ा घूमने जाता हूँ.
University Guest House, AU, Allahabad.
Monday, August 13, 20126:59 AM
सुरक्षा गार्डों ने बताया उन्हें न्यूनतम से भी कम मजदूरी
मिलती है और वह भी कई महीनों बाद. इस पर फिर लोखूंगा. इतना लिखने के बाद, कल, न तो
कहानी पर काम किया न ही किसी लेख पर. निकल गया बैंक रोड पर पैदल पानी की टंकी
चौराहे और लक्ष्मी टाकीज की तरफ. कितनी रातों को हम लोग समूह में, पैदल ही जी.एन.झा से प्रयाग चाय पीने लेकिन कल यह दूरी लंबी लग रही थी तो
रास्ते में एक टेम्पू में बैठ गया. वहाँ से पुराने मर चुके चाय सिगरेट वालों की
जानकारी मिली. जी.एन. झा के बरामदों में टहलते हुए बरामदे में कुछ indifferent
से लड़के मिले. ११९ में गया, वहाँ हॉस्टल के
लिए व्कानूं की पढ़ाई करने वाले एक वज्जन थे. मेस नहीं चलती सभी अपने अपने कमरों और
बरामदों में खाना बनाते है या कोई ‘नौकर’ आकर बना जाता है. ब्लाक सर्वेंट की प्रथा अभी तक कायम है. वैसे आधा घंटा
में किसी जगह की वस्तुस्थिति की जानकारी नहीं मिल सकती, लेकिन
कुल मिलाकर निराश सा हुआ. सामुदायिक जीवन और समाजीकरण के अभाव के बारे में बच्चों
का रटाया रटाया जव्वाब था, रैगिंग की समाप्ति. बात-चीत में
वे मुझसे रैगिंग जैसी औपनिवेशिक प्रथाओं की अप्रसांगिकता पर सहमत हुए अश्रेणीबद्ध
समाजीकरण उन्हें यूटोपिया लगा. जब तक जो हो न जाए वह यूटोपिया लगता है और
असंभाव्यता के की अमूर्त धारणा के चलते व्यक्ति बदलाव का प्रयास नहीं करता और
व्यापक फलक पर न्यूटन के नियम आज भी लागू होते हैं. हमारे बच्पकं में औरत के जहाज
चलाने की बात या एक दलित महिला के मुख्यमंत्री होने और मंत्री पद के लिए पंडित जी
लोगों द्वारा उसके चरण-चुम्बन बात
यूटोपिया लगती. उन बच्चों ने वार्डन और सुपरिंटेंड के बारे में बताया कि वे सिर्फ
सुविधाओं के लिए ये पद ले लेते हैं लेकिन हास्टल में वे १५ अगस्त या २६ जनवरी के
कर्म-कांडों में ही आते हैं. कुल मिलाकर शिक्षकों के बारे में भी बच्चों ने अच्छी
राय नहीं दी.
यूनिवर्सिटी रोड के रास्ते में अनमनस्क से कुछ
सुन्दरलाल हास्टल के लड़के दिखे, एक
चाय के ठेले पर. सभी सिविल्स के राग में मस्त. उनमें से किसी को नहीं मालुम थे कि एक दिन पहले उनके छात्रसंघ
भवन के सभागार में एक बड़ा दमन विरोधी सम्मेलन हुआ था और सभी अखबारों में उसकी खबर
थी. विश्व विद्यालय मार्ग़ पर कुछ दुकानों में ऊपरी मंजिलें जुड गयी हैं. रविवार
होने से गहमागहमी नहीं थी. फिर पैदल चलने का मन नहीं था और रिक्शा ले लिए लल्ला की
तरफ, प्रोफ़ेसर बनवारीलाल शर्मा से मिलने. आनंद आ गया मिल कर
वैसे ही जैसे उनके गणित बकी कक्षाओं में आता था और उनकी सक्रियता देख कर उनकी
जवानी से रस्क होने लगा. कारपोरेटीकरण और खासकर पाने के कारपोरेटीकरण पर सरोकारों
का आदान-प्रदान हुआ उन्होंने परिसर घुमाया और वैकल्पिक विश्वविद्यालय (प्रयाग विद्यापीठ) पर लंबी
चर्चाएं हुईं. बचाते-बचाते भी जीरो की चर्चा के बहाने लगभग ४५ साल पहले की उनकी
अमूर्त अलजेब्रा की पुस्तक के बहाने उनके प्रिय विषय टोपोलाजी पर चर्चा आ गयी. मैं
बीच-बीच मेंयाद दिलाता था कि गणित से जैविक संपर्क छोटे २७ साल हो गये, बात फिर प्रकाशनों और पानी के निजीकरण की नीतियों और उन्हें रोकने के
अभियानों पर आ गयी. उन्होंने अपनी अतिथिशाला भी दिखाया और आगे से वहीं रुकने का
निमंत्रण दिया. गुरूजी से विदा लेकर आया तो गेस्ट हाउस में बिजली नहीं थी. सोचा
बलरामपुर हाउस में कुलपति रह चुके, पत्नी के मामा ९२ वर्षीय,
एपी मिश्र से मिल लूं. बाप रे, पोतों-पोतियों
और घर बनाने और शादी और ४-६ लाख की बातें नई इनोवा और मेरी बेटियों की शादी की
चिंता....... सोच रहा था कैसे निकलूँ, तभी आशीष का फोन आ गया
जिनके साथ बालू-खनन के किसान मजदूर सभा
(लाल सलाम पार्टी) के आन्दोलन के क्षेत्र
घूरपुर/बिगति आदि जगहों पर जाना था. बाहर निकलते ही बारिस शुरू हो गयी और विधि
विभाग के एक प्रोफ़ेसर बीपी सिंह ने अपने बरामदे में आश्रय का आमंत्रण दिया. विश्व
विद्यालय के गिरते स्तर चिंता जताते हुए अध्यापकों बके पक्ष में खड़े होकर कहने लगे
कि अध्यापक छात्रों की बदतमीजी से इज्ज्ज़त बचाने के लिए विद्यार्थियों से कोर्स
के अलावा कोई बात नहीं करते. लंबी बहस हुई मैंने कहा कि इज्ज़त न तो आनुवंशाकीय
होती और न ही दहेज या दलाली में मिलती है. इज्ज़त कमाई जाती है और पारस्परिक होती
है. यह पारस्पारिकता ही उसकी हिफ़ाज़त की गैंती है. और यह कि कोई भी स्टूडेंट कभी किसी
टीचर के साथ बदतमीजी नहीं करता जब तक टीचर की बदतमीजी बर्दाश्त के बाहर न हो जाए.
खैर, बारिस बंद हुई और वापस गेस्ट हाउस आ गया. बारिस के चलते
१.३० बजे की बजाय हम घूरपुर, कुन्हासा और बेकार के लिए ३ बजे
निकले और उफान मारती यमुना के किनारे-किनारे हरियाली को बाधित करती कांक्रीट
जंगलों से होते हुए मोटरसाइकिल की सुखद यात्रा के बाद घूर पुर पहुंचे. वहां से फिर
एक गाँव में जहाँ कुछ लोग मुझे पहचानने वाले थे, या तो
सम्मलेन में भाषण सुने थे, या फिर पिछले साल के स्टडी कलासेज
में मिले थे. पुस्तकालय की योजना और धारा से ऊपर के क्षेत्र में मशीनों से माइनिंग
के चलते नीचे बालू की बाधित पहुँच को रोकने के लिए मशीनें तोड़ने और उसके कानूनी
परिणामों पर चर्चा हुई. फिर हमलोग उस गाँव में गए जहाँ पिछली बार सभा हुई थी औत नौकाविहार किया था.
पुस्तकालय की योजना पर डाक्टर साहब के साथ बात-चीत हुई. बारिस की संभावना के चलते
हम लोग ७ बजे वहाँ से निकल लिए और फिर २५-३० किमी की सुखद मोटरसाइकिल यात्रा के बद
८-८.३० बजे ल्क्ल्ला पहुंचे, एक चाय-समोसे के बाद आशीष विदा
हुए और मैंने कृश को फोन किया जो आचमन में साथ देने आ गया. उसे कुछ कवितायें
सुनाया और १०.३० बजे उसके साथ पान खाकर मैं वापस आकर हरबर्ट मार्क्यूस के रीजन और
रेवोल्युसन के कुछ पन्ने पढ़ कर सो गया. आज सुबह चाय पीने में एक वकील से बात हुई.
११ बजे सामान आशीष के यहाँ छोड़कर दिन में विश्वविद्यालय में लोगों से मिलने का
इरादा है. लाल बहादुर वर्मा जी से भी मिलने का वायदा किया है, देखिये पूरा कर पाता हूँ कि नहीं? ८:५४ पूर्वाह्न
17B
University Road
Wednesday, August 15, 2012; 6:27 AM
१३ अगस्त को उपरोक्त विवरण लिखने के बाद नाश्ता करके, जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मिली १९८८
की एक कहानी कम्पूटर में पुनार्लिखित करने बैठा और १२ बजे तक आधा ही पेज हो पाया
और सामान समेट कर गेस्ट हाउस से आशीस के घर चला गया. भोजनोपरांत काफी हाउस परवेज
से मिला और फिर किसी तरह रिखा-टेम्पो बदलते हुए कला संकाय पहुंचा, कैम्पस की जीवन्तता का कहीं आभास ही नहीं था. इतिहास विभाग किसी जेल की
बैरक की छवि पेश कर रहा था.
“अदब थी यहाँ नज़रें ज़िन्दाँ/जहाँ नहीं पंख मार सकता कोई भी परिंदा/ छात्र था
यहाँ भौंचक्क और डरा डरा/मुदर्रिस था ३-५ के चक्करों में फंसा बेचारा/छात्रावास
दिखे ऐसे/ विस्थापितों के डेरे हों जैसे/ हाकिमों का आना होता है १५ अगस्त या २६
जनवरी को/ जैसे कुछ मुल्ले निकले हों नमाज़ी तफरी को.”
विज्ञान संकाय जैसा था वैसा ही दिखा. अच्छी ब्क़तें
जो दिखीं वह लड़कियों की संख्या में इजाफा और उनके भावों का आत्मविश्वास और पिछड़े
तप्कों के छात्रों की संख्या में वृद्धि से सवर्णी दबंगई में कमी आयी दिखी. तरस
आया उन शिक्षकों पर जो शिक्षक होने के महत्त्व की समझ के सुख से वंचित हैं.
bahut sundar
ReplyDeleteहकीकत का बयान
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