Chanchal Bhu चंचल भाई, आप सही फरमा रहे हैं लेकिन जिस बात का ज़िक्र फ़साने में न था वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री. इस पोस्ट में मार्क्सवाद या क्रेमलिन/बेजिंग की कोई बात नहीं है. लेकिन आप से सहमत हूँ कि हर कम्युनिस्ट एक अंतरर्राष्ट्रीय नागरिक होता है. मैंने १९८९ में २ लेख लिखे थे एक सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के बिखराव पर और एक चीनी छात्रों द्वारा समाजवादी आज़ादी के क्संघर्ष पर. रंधीर सिंह ने Crisis of Socialism में इसकी बृहद व्याख्या किया है.जनांदोलनों के पैरोकारी के जिस मोड से हम अलग हुए थे, मैं आज वहाँ से काफी आगे उसी रास्ते पर बढ़ रहा हूँ, एक शोषण-दमन रहित मानवीय समाज की मंजिल अभी काफी दूर है. क्रेमलिन और बेजिंग के बीच नहीं मैं तो इलाहाबाद/कौशाम्बी/कलिंगनगर/जगात्सिंघ्पुर/नियामगिरी/नारायणपटना/आजमगढ़/मुजफ्फरपुर/सासाराम/कैमूर .... को ही अपनी कर्मभूमि बनाया हूँ. आज शोषण दमन ग्लोकल है, ग्लोबल पूंजी की विसंगतियाँ लोकल विसंगतितियों के साथ गठजोड़ बना चुकी हैं इस लिए संघर्ष भी ग्लोकल ही होगा. आप पता नहीं किस भट्टाचार्या की बात कर रहे हैं लेकिन मैं तो इलाहाबाद और कौशाम्बी जिलों में रेत-खनन मजदूरों-मल्लाहों और भूमि अधिकार के लिए संघर्षरत किसानों-खेत मजदूरों के साथ और मुजफ्फरपुर/कैमूर/रोहतास जिलों के भूमि-आन्दोलनों से जुड़े किसान-मजदूरों के साथ स्टडी-क्लासेस के लिए जाता हूँ उन्ही के साथ रहता हूँ और उन्हें मेरी बातें समझ आ जाती हैं. उडिया के अज्ञान के बावजूद उड़ीसा के आंदोलनकारियों को भी मेरी बातें समझ में आ जाती हैं. गांधी एक महान चिन्तक और जननेता थे और रूसो की ही तरह आधुनिक सभ्यता के सही आलोचक. लेकिन रूसो की तरह द्वंदात्मक समझ की कमी के कारण एक रोमांटिक समाधान पेश करते हैं. सत्ता परिवर्तन के बाद गांधी के ही अनुयायी सत्ता में रहे, क्यों नहीं उनके समुद्री वृत्तों के राज्य-सिद्धांत को लागू कर सके? लोहिया और मसानी संयुक्त मोर्चे के दौरान टार्च और खुरपे लेकर साम्यवादी साज़िश कोदते रहे, कहाँ गए लोहिया के लोग? कुछ संघ की गोद में बैठकर सत्ता भोग रहे हैं तो कुछ आपराधिक बाहुबल की बदौलत मुलायामी समाजवाद ला रहे हैं!! Sanat Singh मार्क्स के जीवन काल से ही लोग मार्क्सवाद का मर्सिया पढ़ रहे हैं. एक मूर्ख डैनियल बेल ने १९६७ में "विचारधारा का अंत" घोषित कर दिया औए १९९२ में उसी के भाई-बंधु फुकोयामा ने तो इतिहास का ही अंत घोषित कर दिया. लेकिन आज भी आप जैसे प्रतिक्रियावादियों के सर पर मार्क्सवाद का भूत सवार रहता है. जैसे ही दबे कुचले लोगों की बात कीजिये लोग, अपनी गिरेबान में झांके बिना मार्क्सवादी होने का complement देने लगते हैं. फिलहाल इतना ही.
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