चंचल भाई, मुख्य और गौड़ धारा उसी तरह कल्पित अवधारणायें हैं जैसे एक समरस हिंदू या मुस्लिम समुदाय. साम्प्रदायिकता कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है और न ही कोई साश्वत विचार जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हम तक चली आयी हो. साप्रदायिकता विचार नहीं विचारधारा है जो रोजमर्रा के आचार-विचार से निर्मित और पुनर्निर्मित होती है. यह विचारधारा लोगों की अटूट धार्मिक आस्थाओं का इस्तेमाल करके एक धर्मोन्मादी मिथ्या चेतना के जरिये असंबद्ध लोगों में एक कृतिम संबद्धता का भाव भरती है. कुछ चालाक लोग धार्मिक भावनाओं का इसेमाल करके लोगोबं को लड़ा-भिडाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं. सगे भाई-बहन तो एक जैसे होते नहीं. मैं अपने भाई-बहनों में शरीर और सोच दोनों में इकलौता नमूना हूँ. सब सत्यनारायण की कथा सुनते हैं बाकी ही भक्तों की तरह बिना जाने कि आखिर ऊ कथावा है क्या जिसके सुनने या न सुनने से जो भी होता है. चंचल भाई क्षमा कीजियेगा, मुस्लिम युवकों को मुख्यधारा से जोड़ने के आपके सरोकार से निहितार्थ निकलता है कि कोई हिन्दू धारा है जो मुख्य-धारा है. हम जैसे नास्तिकों की क्या स्थिति है? चंचल भाई जब सगे भाई-बहन एक जैसे नहीं होते तो लाखों मुसलामानों या करोणों हिन्दुओं का कोई एकरस/समरस समुदाय कैसे हो सकता है? इन काल्पनिक समुदायों के स्व-घोषित प्रवक्ताओं ने लाखों करोणों लोग क्या सोचते हैं उसका खुलासा करने का अधिकार अर्जित करने का कोई जनमत संग्रह करते हैं? या तो इस अमूर्त मुख्यधारा को परिभाषित कीजिये अन्यथा इससे साम्प्रदायिक सन्देश जा रहा है. सादर.
Thursday, August 30, 2012
Monday, August 27, 2012
संख्यातंत्र
नटों-भांटो से भरी संसद में जनतंत्र का मतलब संख्या तंत्र है. कारपोरेटी मुनाफे के जरिये आर्थिक विकास को सिर्फ इसलिए नहीं रोका जा सकता कि इससे देश की नामाकूल जनता पर १.८२ लाख करोड़ या १८२ लाख करोड़ रूपये की मार पड़ रही है. विदेशी बैंकों में बेशुमार संपत्ति जमा करने वाले देश की जानी-मानी हस्तियों का नाम बताकर देश को शर्मसार करने की बेईमानी इतने ईमानदार प्रधानमंत्री कैसे कर सकते हैं? फुटकर बाज़ार को भूमण्डलीय पूंजी के हवाले करने से सिर्फ इसलिए रोक दिया जाए कि इससे एकाध करोड़ लोग बेरोजगार हो जायेंगे? खनिजों, जंगलों, जल और जमींन की बेशकीमती संपदा टाटा, पास्को, वेदांता,जिंदल जैसे देशभक्त उद्योगपतियों को न सौंप कर असभ्य आदिवासियों के ही अधिकार को वे मान लें तो देश विकास करके आर्थिक शक्ति कैसे बनेगा? अमरीका जैसा बनने के लिए उसका अनुनय और कुछ वैसा ही इतिहास रचना पड़ेगा? धन्य हैं हम विश्व बैंक के विशवास-पात्र और ईमानदारशिरोमणि प्रधानमंत्री पाकर. बस एक ही बात खटकती है किस पाठशाला से इन्होने अर्थशास्त्र पढ़ा होगा?
Sunday, August 26, 2012
दमन विरोधी सम्मलेन
दमन विरोधी सम्मलेन
ईश मिश्र
बहुत ऊंची हैं
तुम्हारे जेल की चहारदीवारियाँ
हमा आवाज की
बुलंदियों से फिर भी कमतर हैं
कौन कहता है पस्त हो
गए हौसले हमारे
अभी तो नाव मझधार
में पडी है
हम तो माझी हैं, संभाल लिया है पतवार हमने
बस हवा का रूख बदलने की तनिक देर जो बाकी है.
(जेल में लिखी
विश्वविजय की कविता)
11 अगस्त 2012 को सरकारी दमन के
विरुद्ध इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र-संघ भवन के सभागार में कई जनसंगठनों -- पीयूसीएल;
जनहस्तक्षेप; जन संस्कृतिक मंच; अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा आदि -- एवं
सीपीआई(माले) न्यू डेमोक्रेसी एवं सीपीआई(माले) लिबरेसन तथा कई ट्रेड-यूनियनों
द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित, दमन-विरोधी सम्मलेन में “अघोषित आपात काल” एवं
यूएपीए, आईपीसी धारा १२४-ए, यूपी गैंगेस्टर ऐक्ट आदि काले कानूनों की समवेत स्वर से
भर्त्सना करते हुए, इन कानूनों के तहत जेलों में बंद राजनैतिक बंदियों की अविलम्ब
रिहाई की मांग की गयी. प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए, वयोवृद्ध न्यायमूर्ति
(सेवान्निवृत्त) रामबल्लभ मल्होत्रा ने इन कानूनों को औपनिवेशिक और जनविरोधी
बतायाप्रतीत. सम्मलेन के दौरान न्यायमूर्ति मल्होत्रा के नेतृत्व में प्रतीकात्मक
विरोध स्वरुप इन काले कानूनों की प्रतियां जलाई गयीं.
जनतांत्रिक
अधिकारों पर सरकारी दमन के इस सम्मेलन का आयोजन मूलतः माओवादी साहित्य रखने के
आरोप में निचली अदालत द्वारा पत्रकार एवं उ.प्र. पीयूसीएल की संगठन सचिव, सीमा
आज़ाद और उनके पति, मानवाधिकार कार्यकर्ता विश्व विजय को सजा सुनाये जाने के विशेष
सन्दर्भ ‘अघोषित आपात काल’ पर बहस एवं इसके विरुद्ध जनमत तैयार करने के लिए लिया
गया था. इसी दौरान इन दोनों को उच्च न्यायालय से जमानत मिल गयी. सम्मलेन में इनकी
उपस्थिति ने विमर्श को और भी जीवंत बना दिया. इन्होने जनान्दोलनों और मानवाधिकारों
के प्रति अपनी असंदिग्ध प्रतिबद्धता का इज़हार करते हुए बताया कि जेल की यातनाओं
बने उनके इरादों को और भी मजबूत कर दिया है, तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र-संघ
भवन का सभागार ‘लाल सलाम’ के क्रांतिकारी अभिवादन से गूँज उठा. और विश्वविजय ने जब
उपरोक्त कविता सुनाया तो लाल सलाम की जगह ‘इन्किलाब जिंदाबाद’ के नारों ने ले ली. अभी
वक्ताओं ने मौजूदा दौर को अघोषित आपात काल बताया और घोषित आपात काल से ज्यादा
खतरनाक है. सम्मेलम में विश्वविद्यालय के शिक्षकों की नगण्य उपस्थिति से शहरी
बुद्धिजीवियों के जनतांत्रिक मूल्यों के प्रति सरोकार के स्तर को लेकर चिंता
अस्वाभाविक थी क्यों कि अघोषित आपात काल और उसके असाधारण काले कानूनों के निशाने
पर सिर्फ गरीब, मजदूर, किसान, आदिवासी और उनके अधिकारों के हिमायती चंद मानवाधिकार
कार्यकर्त्ता और जनतांत्रिक बुद्धिजीवी हैं, जब कि घोषित आपात काल में निशाने पर
मध्य-वर्ग और शासक वर्गों के भी कुछ टपके
थे. इस सम्मलेन की खास बात इन्किलाब जिंदाबाद के नारों के साथ पहुंचे २०० से
किसान-मजदूर स्त्री-पुरुषों की भागीदारी थी. कुछ किसान-मजदूरों के भाषण में और
गीतों से झलकती भूमंडलीकरण के आर्थिक-सांस्कृतिक खतरों की समझ गौर-तलब थी. यह भी
गौर तलब था कि यमुना घाटी के दूर दराज गावों से आये इन किसानो-मजदूरों के
प्रतिबद्ध, जुझारू संघर्षों ने सैंड माइनिंग माफिया और भूमि माफिया की सत्ता से
मिलीभगत को बेनकाब और नाकाम कर दिया है. इन आन्दोलनों के लगभग सभी प्रमुख
कार्यकर्त्ताओं पर बहुत सारे फर्जी मुक़दमे दायर हैं. सम्मलेन ने एकमत से इस तरह की
दमनकारी कार्रवाइयों की निंदा करते हुए सरकार से सभी फर्जी मुकदमें वापस लेने की
मांग किया.
सेवा-निवृत्त
न्यायमूर्ति राम बल्लभ मल्होत्रा, ओ.डी.सिंह सिंह, इतिहासकार प्रोफ़ेसर लाल बहादुर वर्मा जैसे
बुजुर्गों की सक्रियता, जोश और युवकों में घुल-मिलकर उनका मार्ग दर्शन
करते देखना प्रेरणादायी था. वर्मा जी ने दमन और दमनकारी कानूनों की सटीक व्याख्या की
कि दमन की जड़ शोषण है इस दमन-विरोधी
संघर्ष को शोषण-विरोधी संघर्ष से जोड़ने की आवश्यकता है. इसलिए शोषण और लूट के
विरुद्ध जहाँ भी संघर्ष हो रहे हैं हमें उनका समर्थन करना चाहिए चाहें वह ग्रीस
में हो, स्पेन में या कलिंग नगर, मानेसर, नारायण
पटना, नियामगिरी, जगतसिंघपुर, देवरिया, .... जहाँ भी
किसान/मजदूर/आदिवासी और दलित अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं हमें उनका समर्थन
करना चाहिए. इन्ही वर्गों में क्रांतिकारी संभावनाएं हैं. छात्रों की मुखर
उपस्थिति नई पीढ़ियों में क्रांतिकारी संभावनाओं की परिचायक है.
सम्मलेन को संबोधित करते हुए वरिष्ठ
अधिवक्ता एवं पीयूसीएल राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, रविकिरण जैन ने देश के क़ानून व्यवस्था
को औपनिवेशिक शासन की विरासत बताते हुए कहा कि अदालतें आज़ादी और अधिकारों के तर्क
बिना सुने ही अर्जियां खारिज कर देती हैं. गौरतलब है कि रविकिरण जैन सीमा आज़ाद और
विश्वविजय के मुकदमें में उनके वकील हैं और उनके अथक प्रयासों से ही इन्हें जमानत
मिली. प्रथम सत्र का संचालन करते हुए पीयूसीएल के उत्तर प्रदेश प्रदेशाध्यक्ष श्री
चितरंजन सिंह ने दमन-विरोधी अभियान को
व्यापक बनाने औत तेज करने पर जोर दिया. जनहस्तक्षेप – फासीवादी मंसूबों के
विरुद्ध अभियान – की तरफ से सम्मलेन में हिस्सेदारी करते हुए इन पंक्तियों के लखक
ने भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में पूंजी के भूमण्डलीय चरित्र को रेखांकित करते हुए
शोषण-दमन के मौजूदा दौर की तुलना यूरोप में पूजनी के तथा कथित आदिम संचय से करते हुए,
कहा कारपोरेट के मुनाफे लिए किसानों-आदिवासियों के विस्थापन और दमन; सामन्ती और
माफिया गुंडागर्दी; गुन्डाबल के बलबूते बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा मजदूरों का
शोषण पूंजी के तिजारती युग की याद दिलाता है जब यूरोप में तिजारती पूंजी के मुनाफे
के लिए किसानों के गाँव के गाँव उजाड दिए गये थे और सस्ते में जबरन काम कराने के
तमाम काले क़ानून बना दिए गये थे. जिस तरह अमेरिका में १७५० के दशक में मैकार्थीवाद
के तहत वित्तीय पूंजी के हित में साम्य्वाद का हौव्वा खड़ा करके किसी भी विरोध को दबाया जा रहा था और
जनतांत्रिक अधिकारों के हनन के लिए तमाम काले क़ानून बनाए जा रहे थे, कुछ वैसा ही
भारत के मौजूदा शासक साम्राज्यवादी, भूमण्डलीय पूंजी की सेवा में नाक्सालवाद का
हौव्वा खड़ा करके कर रहे हैं.
जाने-माने गांधीवादी कार्यकर्त्ता हिमांशु
कुमार ने नक्सलवाद के नाम पर छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के दमन का आँखों देखा मार्मिक
वर्णन करते हुए एक दीर्घकालीन दमन विरोधी संयुक्त मंच के गठन पर जोर दिया.
सीपीआई(माले) – न्यू डेमोक्रेसी के उत्तर प्रदेश के राज्य सचिव डाक्टर आशीष मित्तल
ने कारपोरेट घरानों की अबाधित लूट के पक्ष में सरकारी नीतियों के चर्चा करते हुए
देश के संसाधनों एअवं फुटकर बाज़ार समेत अर्थतंत्र के सभी क्षेत्र को भूमण्डलीय पूंजी के हवाले
करने पर चिंता जाहिर किया. डाक्टर मित्तल, जो इलाहाबाद और कौशाम्बी जिलों में
किसान-मजदूर संगठन के नेतृत्व में जारी बालू खनन अधिकार के जुझारू संघर्ष के
मार्गदर्शक हैं. यमुना घाटी के बालू संघर्ष की चर्चा करते हुए
कन्होने कहा कि जनता के माफिया विरोध से सरकार इतनी भयभीत है कि पूरे इलाके में जनसभाएं नहीं होने देती और हर
विरोध प्रदर्शन पर कार्यकर्त्ताओं पर झूठे मुकदमें दर्ज कर देती है. सम्मलेन को
जसम के सचिव, इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी साहित्य के प्रोफ़ेसर प्रणय कृष्ण,
साहित्यकार शेखर जोशी, मानवाधिकार कार्यकर्त्ता प्रशांत राही, मेगासेसे परस्कार से
सम्मानित संदीप पाण्डेय एवं ज्यां देरेज एवं अन्य वक्ताओं ने भी दमन विरोधी
अन्दोलान को व्यापक बनाने पर जोर दिया. ट्रेड यूनियन नेता डाक्टर कमल उसरी ने
सरकारी दमन के विरुद्ध औद्योगिक ट्रेड यूनियनों तथा किसानों और खेत-मजदूरों की
एकता और उके बीच समन्वय पर जोर दिया. बुजुर्ग नेता कामरेड ओ.डी. सिंह ने अपने
जोशीले भाषण में कारपोरेटी पूंजी की सेवा में सरकार की की दमनकारी नीतियों के खिलाफ व्यापक जनांदोलन
की भविष्यवाणी की.
सम्मलेन का समापन एक अखिल भारतीय दमन
विरोधी मंच के गठन के निर्णय के साथ हुआ. सम्मलेन में, सर्वसम्मति से छत्तीसगढ़ की
बीजापुर जिले में सीआरपीएफ और कोबरा बलों द्वारा में १७ निर्दोष आदिवासियों की
नृशंस हत्या की निंदा और आपरेसन ग्रीन हंट को समाप्त करने के प्रस्ताव पारित हुए.
सर्वसम्मति से पारित एक अन्य प्रस्ताव में मारुती उद्योग में हल के पूरे घटनाक्रम की
न्यायिक जांच; आंदोलनकारी मजदूरों की अविलम्ब रिहाई, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में
मजदूरों के ट्रेड यूनिय के अधिकार एवं श्रम कानूनों को लागू करने की मांग के साथ
मारुती उद्योग के संघर्षरत मजदूरों के साथ एकजुटता दिखाई गयी.
Monday, August 20, 2012
चौथी सदी ईशा पूर्व
चौथी सदी ईशा पूर्व
ईश मिश्र
बात है यह
बहुत पुरानी
चौथी
शताब्दी ईशा-पूर्व की
अफलातून
के आदर्श राज्य में
सुकरात
ने एक नई तक़रीर की
पूरा
यूनान हो गया था हक्का-बक्का
सुन उस
दार्शनिक के शब्दों का धमाका
भला-बुरा
कहा उसने मर्दवादी समाज को
ढक रखा
था जिसने सर्जना के आधे आकाश को
सुकरात
ने खुले आम ऐलान किया
नारी-प्रतिभा
का खुलकर गुणगान किया
लड़कों
की ही तरह लडकियां भी जायेंगी स्कूल
करेंगी
व्यायाम और पाएंगी शिक्षा माकूल
नहीं
रहेगी कैद घर में अब नारी
न कूँटेगी धान न भरेगी पानी
हो सवार
घोड़े पर रखायेगी राजधानी
होगी जो
सयानी ज्यादा, बनेगी
दार्शनिक रानी
इस अनूठी
बात से सबको बहुत हुई हैरानी
मर्दों
की तरह लंगोट में नारी करे व्यायाम
टूट
जायेंगे सभ्यता के कई सारे आयाम
सुकरात
ने तर्कों से उन सबको ललकारा
नारी को
कम आंकने के लिए काफी फटकारा
कहा
कराने को नीयत-ओ-नज़र का उपचार
देखते ही
नारी-देह टपके न
मुंह से लार
फिर समझाया प्यार से मानवता का सार
जीवविज्ञान होता नहीं प्रतिभा का आधार
कोइ भी नई बात है असहज लगती ही
अहम् है ऐसे में आदत तन-मन के आँखों की
हिमायत की उन्होंने सामान अवसर की महज
कहा, आदत से दिखने लगेगा सब सहज
हर औरत दार्शनिक रानी है, यह नहीं कहा
मगर मौक़ा देने से ही चलेगा इसका पता
और भी बहुत कुछ कहता है अफलातून का सुकरात
जरूरी नहीं है सही ही हो उसकी हर नई बात
भीड़तंत्र के पीर ने लगाया उनपर नास्तिकता का आरोप
काजियों
के भी दिमाग पर छा गए कुतर्क के बादल घटाटोप
कुतर्क
के बहुमत ने घोषित कर दिया सुकरात को पागल
सत्य की खोज
में उनको पीना पड़ा गरल
सुकरात अपने वक़्त से ढाई हजार साल आगे थे
उनको न
समझने वाले एथेन्सवासी अभागे थे
समझ लिया
था उनने तभी नारी प्रतिभा का प्राकार
ले रही
है इक्कीसवीं सदी में जो ठोस आकार
पहनेगी
कपड़े जन्चेंगे जैसे उसे जब
नहीं
मानेगी तुम्हारे कोई भी निर्देश और तलब
दो जवाब
अब उसके तर्कों का
नहीं
मानेगी वह अब आदेश परंपरा के कुतर्कों का
२० जुलाई
२०१२
Sunday, August 19, 2012
लल्ला पुराण ३३
मेरे जैसे अदना से व्यक्ति के लिए इतना बवाल उचित नहीं है. शिक्षक काम जब तक बच्चा सीख न जाए सिखाने की कोशिस करते रहना चाहिए, असफलताओं से निराश हुए बिना. मैं पहले ही आग्रह कर चुका हूँ कि विमेश में मेरी सफ़ेद दाढ़ी और दुर्घटनावश प्राप्त पद के चलते कोई रियायत न दी जाए. नैतिकता के मानदण्ड और आचारसंहिता के नियम शिक्षक और वियार्थी के लिए एक से होने चाहिए. मैंने कभी अपनी राजनैतिक पहचान नहीं छिपाया. मैं एक स्वघोषित मार्क्सवादी; प्रामाणिक नास्तिक; और कर्म-वचन से नारीवादी (मर्दवाद विरोधी) हूँ और सामाजिक विज्ञानों में वस्तुपरकता को एक छलावा मानता हूँ. जिनके पास अपने पक्ष में तर्क नहीं होते वे निष्पक्ष होने का ढोंग करते हैं. मैं एक नारीवादी होने के नाते नूतन सिंह के गुस्सा करने और मेरे बारे में अपनी राय जाहिर करने के अधिकार का सम्मान करता हूँ इस आग्रह के साथ कि यह गुस्सा सीखने की बेचैनी बननी चाहिए. ऐसे मौकों पर मुझे फ्रांसीसी नारीवादी चिन्तक, सिमन दी बुआ का डाइलाग याद आता है. उनसे कुछ पत्रकारों ने पूंछा, "When women are happy with the traditional way of life, what is your problem? Why do you want to impose your views on them?" सिमन दी बुआ: "We do not seek to impose anything on any one. They are happy with traditional ways of lie as they do not know the other ways. We just seek to expose them to other ways of lives. And what can you do if someone can learn to derive some amount of power even within the prison?" नूतन सिंह जी मैंने क्लास न लेने वाले शिक्षकों के लोइए हरामखोर शब्द का इस्तेमाल किया था जिसे अनावश्यक समझ संपादित किया था. जो व्यक्ति बिना काम किये मोटी कमाई करे उसे क्या कहा जाता है? अन्य नौकरियों की ही तरह शिक्षकों के चयन मे भी मठाधीशी और जोड़-तोड़ के गणित का वर्चस्व होने के चलते कई लोग सारी प्रतियोगात्मक परीक्षाओं की असफलता के बाद किसी मठाधीश की कृपा से शिक्षक हो जाते हैं.निजी पूंजी के मुनाफे के लिए एक सार्वजनिक उपक्रम के निदेशक द्वारा सैकड़ों करोड़ की मूर्खतापूर्ण निजी संचय की मिथ्या चेतना में आम जनता के अरबों रूपये का चूना लगाकर एक अतिमहत्वपूर्ण संयंत्र को तबाह करने को कमीनापन ही कहना मेरी शब्द-सीमाओं का द्योतक है. काश! मैं भाषाविद होता या भाषा ही समृद्ध होती?.
Saturday, August 18, 2012
lalla puran 32
Sanat Singh Froend, I am never worried or bothered about unpopularity or being in minuscule minority in the matters of expressing what I am convinced is right and am ready to be convinced other way round if proved wrong with facts and logical arguments. I have never said that I knew the comprador character of the national capital since 1967 when I was a 12 year old village boy and first generation learner in the modern Education. Change is law of nature and that applies to the nature of the contradictions too. Your queries can be answered in a big write up for which I do bot have time right now. After the end of the cold war with the disintegration of Soviet Union, the bipolar world became uni-polar and imperialist capital triumphantly declared "the end of the history" and became more aggressive in capturing the world market and resources. The nature of Capital changed from international to global; in the sense that it is no more geo-centric, either in terms of it's source or in terms of investment. The conformist governments of the third world adopted the policies of globalization, i.e. privatization; deregulation;disinvestment; dismantling of welfare institutions; opening the country for FDI; ......... with SAP(Structural Adjustment Program) under TINA (There is no Alternative) syndrom ..[VIKALPHEENTA MURDA QAUMON KEE NISHANEE HAI, ZINDA QAUMEN KABHI VIKALHEEN NAHEE HOTEEN]. The globalization phase of imperialism is different from its colonial phase in terms of military or direct political intervention unless some governments become inconvenient for the smooth plunder of the resources like Iraq or Iran.
Friday, August 17, 2012
लल्ला पुराण ३१
इस तरह की बातें सवर्ण असुरक्षा का परिचायक है. आज के अखबार में खबर के अनुसार,यूनिसेफ और विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा लेप्रोसी उन्मूलन के लिए प्रदत्त करोडों के घपले के लिए सजा पाने वाले डाक्टर मित्तल और गुप्ता आरक्षण से नहीं आये थे. कई लाख का कोयला खा जाने वाले प्रधान मंत्री और कोयला मंत्री भी आरक्षण से नहीं आये हैं. नाल्को का पूर्व निदेशक कमीना श्रीवास्तव जो नहीं भी पकड़ा जाता तब भी ८० किलो सोना बैंक के लाकर में ही रख कर मर जाता, वह भी आरक्षण से नहीं आया था. देश भर में करोणों की जमीने और घर रखने वाले आईएस जोशी पति-पत्नी भी योग्याता के ही आधार पर ही आये थे. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के क्लास न लेने वाले तमाम हरामखोर शिक्षक सवर्ण ही हैं. सिर्फ सुविधाओं के लिए पदासीन, होस्टलों को सराय बनाने वाले वार्डन और सुपरिन्तेंदेंत भी सभी सवर्ण ही हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में पढाने के अलावा सभी धंधे करने वाले ज्यादातर शिक्षक सवर्ण ही हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में जातिवाद फ़ैलाने और नादिरशाही से विश्वविद्यालय को बर्बाद करने वाला भ्रष्ट कुलपति भी सवर्ण ही है. हिन्दू कालेज में ओबीसी एक्सपेंसन फंड से निर्माण के नाम पर दलाली खाने वाले प्रिंसिपल और वार्डन भी सवर्ण ही हैं. वहीं पर तमाम दलित शिक्षक विद्यार्थियों में लोकप्रिय होने के साथ ही कलम का भी कमाल दिखा रहे हैं एवं शिक्षा को व्यापार बनाने की सरकारी नीतियों के विरुद्ध संघर्षों में दलित शिक्षक और विद्यार्थी अगली कतारों में पाए जाते हैं. इस तरह की पोस्ट सवर्ण असुरक्षा और कुंठा से उपजे जातीय उन्माद का द्योतक है.
Thursday, August 16, 2012
लल्ला पुराण ३०
Chanchal Bhu चंचल भाई, आप सही फरमा रहे हैं लेकिन जिस बात का ज़िक्र फ़साने में न था वो बात उनको बहुत नागवार गुज़री. इस पोस्ट में मार्क्सवाद या क्रेमलिन/बेजिंग की कोई बात नहीं है. लेकिन आप से सहमत हूँ कि हर कम्युनिस्ट एक अंतरर्राष्ट्रीय नागरिक होता है. मैंने १९८९ में २ लेख लिखे थे एक सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के बिखराव पर और एक चीनी छात्रों द्वारा समाजवादी आज़ादी के क्संघर्ष पर. रंधीर सिंह ने Crisis of Socialism में इसकी बृहद व्याख्या किया है.जनांदोलनों के पैरोकारी के जिस मोड से हम अलग हुए थे, मैं आज वहाँ से काफी आगे उसी रास्ते पर बढ़ रहा हूँ, एक शोषण-दमन रहित मानवीय समाज की मंजिल अभी काफी दूर है. क्रेमलिन और बेजिंग के बीच नहीं मैं तो इलाहाबाद/कौशाम्बी/कलिंगनगर/जगात्सिंघ्पुर/नियामगिरी/नारायणपटना/आजमगढ़/मुजफ्फरपुर/सासाराम/कैमूर .... को ही अपनी कर्मभूमि बनाया हूँ. आज शोषण दमन ग्लोकल है, ग्लोबल पूंजी की विसंगतियाँ लोकल विसंगतितियों के साथ गठजोड़ बना चुकी हैं इस लिए संघर्ष भी ग्लोकल ही होगा. आप पता नहीं किस भट्टाचार्या की बात कर रहे हैं लेकिन मैं तो इलाहाबाद और कौशाम्बी जिलों में रेत-खनन मजदूरों-मल्लाहों और भूमि अधिकार के लिए संघर्षरत किसानों-खेत मजदूरों के साथ और मुजफ्फरपुर/कैमूर/रोहतास जिलों के भूमि-आन्दोलनों से जुड़े किसान-मजदूरों के साथ स्टडी-क्लासेस के लिए जाता हूँ उन्ही के साथ रहता हूँ और उन्हें मेरी बातें समझ आ जाती हैं. उडिया के अज्ञान के बावजूद उड़ीसा के आंदोलनकारियों को भी मेरी बातें समझ में आ जाती हैं. गांधी एक महान चिन्तक और जननेता थे और रूसो की ही तरह आधुनिक सभ्यता के सही आलोचक. लेकिन रूसो की तरह द्वंदात्मक समझ की कमी के कारण एक रोमांटिक समाधान पेश करते हैं. सत्ता परिवर्तन के बाद गांधी के ही अनुयायी सत्ता में रहे, क्यों नहीं उनके समुद्री वृत्तों के राज्य-सिद्धांत को लागू कर सके? लोहिया और मसानी संयुक्त मोर्चे के दौरान टार्च और खुरपे लेकर साम्यवादी साज़िश कोदते रहे, कहाँ गए लोहिया के लोग? कुछ संघ की गोद में बैठकर सत्ता भोग रहे हैं तो कुछ आपराधिक बाहुबल की बदौलत मुलायामी समाजवाद ला रहे हैं!! Sanat Singh मार्क्स के जीवन काल से ही लोग मार्क्सवाद का मर्सिया पढ़ रहे हैं. एक मूर्ख डैनियल बेल ने १९६७ में "विचारधारा का अंत" घोषित कर दिया औए १९९२ में उसी के भाई-बंधु फुकोयामा ने तो इतिहास का ही अंत घोषित कर दिया. लेकिन आज भी आप जैसे प्रतिक्रियावादियों के सर पर मार्क्सवाद का भूत सवार रहता है. जैसे ही दबे कुचले लोगों की बात कीजिये लोग, अपनी गिरेबान में झांके बिना मार्क्सवादी होने का complement देने लगते हैं. फिलहाल इतना ही.
लल्ला पुराण २९
Very true sir and that amounts to wastage of the national resources but this is not an error but innate attribute of class societies more particularly of capitalism, the most advanced class society. It has simplified the contradictions by dividing the world into two hostile camps -- the capitalist and the workers -- with irreconcilable class interests. The better paid sections of the working population harbors the illusion of being the ruling classes and objectively act as its cronies causing harm to its own class. Marx had called them lumpen proletariat and I call them LUMPEN BOURGEOISIE .
Saurabh Raj you have raised very pertinent question that needs a detailed discussion, I will try to write a detailed post on the innate attributes of capitalism --accumulation; concentration and centralization of capital -- and the conspiracy of gifting away the peoples' resources to the Corporate giants in disdainful violation of workers' hard fought constitutional rights by the comprador political classes under the facade of public-Private partnership. Developments in Maruti and its support by the crony governments is glaring example. Let me first answer the apprehensions and astrological predictions of Chanchal Bhai and Sanat Singh.
Saurabh Raj you have raised very pertinent question that needs a detailed discussion, I will try to write a detailed post on the innate attributes of capitalism --accumulation; concentration and centralization of capital -- and the conspiracy of gifting away the peoples' resources to the Corporate giants in disdainful violation of workers' hard fought constitutional rights by the comprador political classes under the facade of public-Private partnership. Developments in Maruti and its support by the crony governments is glaring example. Let me first answer the apprehensions and astrological predictions of Chanchal Bhai and Sanat Singh.
Wednesday, August 15, 2012
अदब
अदब
ईश मिश्र
अदब थी यहाँ नज़रें ज़िन्दाँ
जहाँ नहीं पंख मार सकता कोई भी परिंदा
छात्र था यहाँ भौंचक्क और डरा डरा
मुदर्रिस था ३-५ के चक्करों में फंसा बेचारा
छात्रावास दिखे ऐसे
विस्थापितों के डेरे हों जैसे
हाकिमों का आना होता है १५ अगस्त या २६ जनवरी को
हाकिमों का आना होता है १५ अगस्त या २६ जनवरी को
जैसे कुछ मुल्ले निकले हों नमाज़ी तफरी को.”
लल्ला पुराण २८
मित्रों, इस मंच पर कभी विआद हुआ था कि एक व्यक्ति एक दिन में कितनी पोस्ट डाल सकता है, यह मेरी तीसरी पोस्ट है. लेकिन बहुत दिनों बाद मंच पर आया हूँ और आगे भी वास्तविक दुनिया की व्यस्तताओं के चलते कम समय दे पाऊंगा. इ.वि. छात्रसंघ भवन के सभागार में ३७ साल बोलने का उत्साह और उल्लास था. लेकिन पहुंचते ही उल्लास अक़धा हो गया. भगत सिंह सिर्फ अंग्रेजी शोषण- दमन को नहीं बल्कि देशी शोषण दमन को भी खत्म करना चाहते थे. सभागार में� गांधी की तस्वीर के बाएं भगत सिंह की तस्वीर थी और दाहिने सुभाष बोस की तस्वीर थी. भगत सिंह की जगह राजीव गांधी विराजमान हैं और नेता जी की जगह खाली. शासक वर्गों को क्रांतिकारियों के विचारों से तो भय लगता है लेकिन विचारों से वे इतने खौफज़दा हैं कि उनकी तस्वीरों से भी उन्हें भय लगने लगा है. परिसर की परिक्रमा और कुछ शिक्षकों एवं छात्र-छात्राओं से बात-चीत के बाद इस मंच के कुछ सदस्यों के बौद्धिक स्तर पर मेरा आश्चर्य काफी कम हो गया.
एक और पोस्ट न डालनी पड़े इसलिए लगे हाथ एक बात और कह दूं और इसे मेरा अहंकार नहीं बल्कि मर्यादित स्वीकारोक्ति समझा जाये. कुछ लोगों को गुरेज है कि उनके सवालों का उत्तर नहीं देता, न उत्तर देना भी उत्तर है. मेरी मित्रता के लिए पात्रता की आवश्यकता होती है और शत्रुता के लिए भी. मित्रता की पात्रता कोई भी अर्जित कर सकता है. जैसे सम्मान अर्जित किया जाता है वैसे ही मित्रता भी. मेरी शत्रुता सीधे बराक ओबामा से है इसलिए उसके छोटे-मोटे संस्करण शत्रुता की खुशफ़ह्मी पाल सकते हैं. मित्रता और शत्रुता की ही तरह मुझसे बात चीट की पात्रता की आवश्यकता होती है जिसे अर्जित नहीं खोना पड़ता है, जो यह पात्रता खो देते हैं उनके वजूद का मैं संज्ञान नहीं लेता. खोने के बाद पात्रता अर्जित करनी पड़ती है.
लल्ला पुराण २७ : किसकी आज़ादी?
मित्रों, आज आज़ादी के पैंसठवे साल में सामर्ज्य्वादी गुलामी का दूसरा दौर अपने अंतिम चरण में पहुँच चुका है जिसमें कार्पार्पोरेटी लूट की खुली आज़ादी है और जैसे अंग्रेजी फौज के भाड़े के हिन्दुस्तानी सिपाही लूट के मुहरे थे वैसे ही आज हिन्दुस्तानी फौज/पुलिस के सिपाही कारपोरेटों द्वारा लूट के मोहरे हैं. दोनों हालात में फर्क यह है कि अब किसी लार्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है सभी सिराज्जुद्दौला मीर जाफर बन गए हैं. पिछले कई सालों से लाल किले से आज़ादी का झंडा फहराने का कर्मकांड विश्वबैंक के एक ऐसे पेंसंखोर के हाथों होता रहा है जिसके इतिहासबोध और अर्थशास्त्र बोध के अक्षर-अक्षर से जहालत और गुलामी की मानसिकता झलकती है. सर्वविदित है कि माननीय प्रधानमंत्री ने कुछ साल पहले आक्सफोर्ड विश्विद्यालय में मानक उपाधि लेते समय औपनिवेशिक आकाओं का कशीदा पड़ने के साथ आभार भी व्यक्त किया कि उन्होंने आकर हमें विक्सित कर दिया. गौरतलब है कि अंग्रेजी राज के पहले अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का मतलब होता था भारत और पूर्व, विशेष रूप से चीन से व्यापार. अन्तराष्ट्रीय व्यापार में भारत का हिस्सा एक-तिहाई से अधिक था. अकाल और महामारी किस्से, कहानियों में ही पाए जाते थे. अंग्रेजी राज के दौर की महामारियां इतिहास की बातें हो गईं हैं. १९४७ में जब सत्ता जस-के-तस अंग्रेजी शासकों से हिन्दुस्तानी शासकों के हाथ आयी, यानि कि जब अंग्रेज यहाँ से गए, भारत की अर्त्थ्व्यवस्था में भारतीय रेल समेत सेवा-क्षेत्र सहित कुल औद्योकिक योगदान ६.७% था. यूरोप में सार्वजनिक क्षेत्र का उदय पूंजीवाद को संकट के लिए हुआ हिंदुस्तान में पूंजीवाद के विकास के लिए. कुन आज़ाद हुआ? पूंजीपति और उनके जरखरीद गुलाम.
शिक्षक
शिक्षक
ईश मिश्र
यदि शिक्षक हो जाएगा लाचार और निरीह
मिट्टी में मिल जायेगी मुल्क की तकदीर
खोने को पास उसके कुछ भी नहीं है
पाने को सारा आसमां-ओ-जमीं है
मोल ली हैं उसने बेचारगी और लाचारी
चाहे गर मन से तो बदल दे दुनिया सारी
लेकिन उसे तो आदत है देने की अर्जुनों को दीक्षा
बर्दास्त नहीं कर पाता एकलव्यों की शिक्षा
एकलव्यों ने अब पकड़ा रास्ता कबीर का
मानेगे नहीं बात वे अब किसी पंडे और पीर का
जंग होगा शब्दों का, नहीं धनुष और तीर का
रचेंगे वेद ऐसा जो काम करे शमसीर का
इसलिए ऐ दानिशमंदो! बनाओ एकलव्यों को इतना समझदार
कि बदल दें वे हवा का रुख और नदियों की धार.
आमीन
Tuesday, August 14, 2012
इलाहाबाद के संस्मरण.1
विश्वविद्यालय अतिथिगृह, चैतम लाइन्स, इलाहाबाद विश्वविद्यालय.
Sunday, August 12, 2012; 6:35 AM
४ बजे ही नीद खुल गयी. लेकिन कलम सोफे की दरार में
छिप गयी थी और यह सोच कर परेशान होने लगा कि कहाँ गयी, फिर चला गया प्रयाग
स्टेसन चाय पीने. १९७६ की वह रात याद आयी, छात्रावासों में छापा पड़ने वाला था. सोचा किसी होटल मे३न रुक लूं लेकिन संगम स्नान
के किसी पर्व के चलते कहीं जगह नहीं मिली. बहादुरगंज थाणे के पास एक मित्र रहते
थे. उनके घर गया तो उन्होंने छत पर दुर्गन्धपूर्ण स्टोर रू में जगह दी. ग्लानी और
गुस्से से मैं वहां से निकल पड़ा और याद नहीं किन रास्तों से होता हुआ रात ११.३० के
पास प्रयाग स्टेसन पहुंचा और रात भर दुकानें बदल बदल कर चाय सिगरेट पीता रहा. उसी
के कुछ दिनों बाद दिल्ली चला गया कुछ दिनों भूमिगत रहने और वहीं बस गया. गोरख
पाण्डेय से भी तभी मुलाक़ात हुई थी, वे भी गिरफ्तारी से बचने के लिए आये थे. बाकी तो अब
उनकी कहानी इतिहास बन चुकी है. कल सम्मलेन के बाहर शबद के स्टाल पर उनकी कुछ
किताबें देखने को मिली और उनके नेतृत्व में शुरू हुए जसम की सक्रियता देख कर खुशी
हुई.
I was really thrilled to be in AUSU hall after almost 37 years and the idea
of addressing a houseful gathering on the issue of undeclared emergency and
state repression in the context of conviction of Seema Azad and Vishvvijay.
First thing that truck me and saddened was replacement of Bhagat Singh’s
picture by that of Rajiv Gandhi on the left side of Gandhi’s picture and
removal of Subhash Chandra Bose’s picture. Ruling classes are always afraid of
the ideas of the revolutionaries but now they and their minions and zealots are
scared of even their pictures.
It was really pleasant to be there and the applaud I received, overwhelmed
me, though I was just to finish the prelude, but people felt that prelude
itself had swaid a lot. I began with my pet dialogue, “capitalism is a bastard
system” and it innate attribute of suppressing the dissent through
extra-ordinary blaws in the sevice of the Corporate, i.e. the ruling classes.
It was really great feeling to see Seema and Vishvvijay out of jail after
almost two and a half a year. मैंने
सीमा से कहा कि पुलिस ने तो तुम्हे हीरोइन बना दिया. Both of them have come out stronger instead of breaking down.
विश्वविजय की कविता,
बहुत ऊंची हैं तुम्हारे जेल की चहारदीवारियाँ
हमारी आवाज की बुलंदियों से फीर नही कमतर हैं
कौन कहता है पस्त हो गए हौसले हमारे
अभी तो नाव मझधार में पडी है
हम तो माझी हैं, संभाल लिया है पतवार हमने
बस हवा का रूख
बदलने की तनिक देर जो बाकी है.
ने नई पीढ़ियों की क्रांतिकारी सम्भावनाओं के बारे में
आश्वस्त किया.
सेवा-निवृत्त न्यायमूर्ति राम बल्लभ मल्होत्रा, ओ.दी.सिंह सिंह, प्रोफ़ेसर लाल बहादुर
वर्मा जैसे बुजुर्गों की सक्रियता, जोश और युवकों में घुल-मिलकर उनका मार्ग दर्शन करते
देखना प्रेरणादायी था. वर्मा जी ने दमन और दमनकारी कानूनों की सटीक व्याख्या किया
कि दमन की जड़ शोषण है इस इये दमन-विरोधी संघर्ष को शोषण-विरोधी संघर्ष से जोड़ने की
आवश्यकता है. इसलिए शोषण और लूट के विरुद्ध जहाँ भी संघर्ष हो रहे हैं हमें उनका
समर्थन करना चाहिए चाहें वह ग्रीस में हो, स्पेन में या कलिंग नगर, मानेसर, नारायण पटना, नियामगिरी, जगतसिंघपुर, देवरिया, .... जहाँ भी
किसान/मजदूर/आदिवासी और दलित अपने अधिकारों की लड़ाए लड़ रहे हैं हमें उनका समर्थन
करना चाहिए. इन्ही वर्गों में क्रांतिकारी संभावनाएं हैं.
सम्मलेन विश्वविद्यालय प्रांगण में होने के बावजूद
छात्रों और शिक्षकों की समुचित उपस्थिति का अभाव अच्छा नहीं लगा लेकिन जितने भी
छात्र थे उनके प्रतिबद्ध-सक्रियता अच्छी लगी. इस कमी की सूद समेत भरपाई कर दिया
लाल झंडे के साथ लाल सलाम बोलते, नारे लगाते, गाने गाते दूर दराज गावों से आये किसानों मजदूरों ने
जिनकी जुझारू संघर्षों ने सैंड माइनिंग माफिया और भूमि माफिया की सत्ता से मिलीभगत
को बेनकाब और नाकाम कर दिया था.
अब सोच रहा हूँ दोनों में से कोई कहानी टाइप करूं कि
किसी लेख के ड्राफ्ट पर काम करूं? फिलहाल तो थोड़ा घूमने जाता हूँ.
University Guest House, AU, Allahabad.
Monday, August 13, 20126:59 AM
सुरक्षा गार्डों ने बताया उन्हें न्यूनतम से भी कम मजदूरी
मिलती है और वह भी कई महीनों बाद. इस पर फिर लोखूंगा. इतना लिखने के बाद, कल, न तो
कहानी पर काम किया न ही किसी लेख पर. निकल गया बैंक रोड पर पैदल पानी की टंकी
चौराहे और लक्ष्मी टाकीज की तरफ. कितनी रातों को हम लोग समूह में, पैदल ही जी.एन.झा से प्रयाग चाय पीने लेकिन कल यह दूरी लंबी लग रही थी तो
रास्ते में एक टेम्पू में बैठ गया. वहाँ से पुराने मर चुके चाय सिगरेट वालों की
जानकारी मिली. जी.एन. झा के बरामदों में टहलते हुए बरामदे में कुछ indifferent
से लड़के मिले. ११९ में गया, वहाँ हॉस्टल के
लिए व्कानूं की पढ़ाई करने वाले एक वज्जन थे. मेस नहीं चलती सभी अपने अपने कमरों और
बरामदों में खाना बनाते है या कोई ‘नौकर’ आकर बना जाता है. ब्लाक सर्वेंट की प्रथा अभी तक कायम है. वैसे आधा घंटा
में किसी जगह की वस्तुस्थिति की जानकारी नहीं मिल सकती, लेकिन
कुल मिलाकर निराश सा हुआ. सामुदायिक जीवन और समाजीकरण के अभाव के बारे में बच्चों
का रटाया रटाया जव्वाब था, रैगिंग की समाप्ति. बात-चीत में
वे मुझसे रैगिंग जैसी औपनिवेशिक प्रथाओं की अप्रसांगिकता पर सहमत हुए अश्रेणीबद्ध
समाजीकरण उन्हें यूटोपिया लगा. जब तक जो हो न जाए वह यूटोपिया लगता है और
असंभाव्यता के की अमूर्त धारणा के चलते व्यक्ति बदलाव का प्रयास नहीं करता और
व्यापक फलक पर न्यूटन के नियम आज भी लागू होते हैं. हमारे बच्पकं में औरत के जहाज
चलाने की बात या एक दलित महिला के मुख्यमंत्री होने और मंत्री पद के लिए पंडित जी
लोगों द्वारा उसके चरण-चुम्बन बात
यूटोपिया लगती. उन बच्चों ने वार्डन और सुपरिंटेंड के बारे में बताया कि वे सिर्फ
सुविधाओं के लिए ये पद ले लेते हैं लेकिन हास्टल में वे १५ अगस्त या २६ जनवरी के
कर्म-कांडों में ही आते हैं. कुल मिलाकर शिक्षकों के बारे में भी बच्चों ने अच्छी
राय नहीं दी.
यूनिवर्सिटी रोड के रास्ते में अनमनस्क से कुछ
सुन्दरलाल हास्टल के लड़के दिखे, एक
चाय के ठेले पर. सभी सिविल्स के राग में मस्त. उनमें से किसी को नहीं मालुम थे कि एक दिन पहले उनके छात्रसंघ
भवन के सभागार में एक बड़ा दमन विरोधी सम्मेलन हुआ था और सभी अखबारों में उसकी खबर
थी. विश्व विद्यालय मार्ग़ पर कुछ दुकानों में ऊपरी मंजिलें जुड गयी हैं. रविवार
होने से गहमागहमी नहीं थी. फिर पैदल चलने का मन नहीं था और रिक्शा ले लिए लल्ला की
तरफ, प्रोफ़ेसर बनवारीलाल शर्मा से मिलने. आनंद आ गया मिल कर
वैसे ही जैसे उनके गणित बकी कक्षाओं में आता था और उनकी सक्रियता देख कर उनकी
जवानी से रस्क होने लगा. कारपोरेटीकरण और खासकर पाने के कारपोरेटीकरण पर सरोकारों
का आदान-प्रदान हुआ उन्होंने परिसर घुमाया और वैकल्पिक विश्वविद्यालय (प्रयाग विद्यापीठ) पर लंबी
चर्चाएं हुईं. बचाते-बचाते भी जीरो की चर्चा के बहाने लगभग ४५ साल पहले की उनकी
अमूर्त अलजेब्रा की पुस्तक के बहाने उनके प्रिय विषय टोपोलाजी पर चर्चा आ गयी. मैं
बीच-बीच मेंयाद दिलाता था कि गणित से जैविक संपर्क छोटे २७ साल हो गये, बात फिर प्रकाशनों और पानी के निजीकरण की नीतियों और उन्हें रोकने के
अभियानों पर आ गयी. उन्होंने अपनी अतिथिशाला भी दिखाया और आगे से वहीं रुकने का
निमंत्रण दिया. गुरूजी से विदा लेकर आया तो गेस्ट हाउस में बिजली नहीं थी. सोचा
बलरामपुर हाउस में कुलपति रह चुके, पत्नी के मामा ९२ वर्षीय,
एपी मिश्र से मिल लूं. बाप रे, पोतों-पोतियों
और घर बनाने और शादी और ४-६ लाख की बातें नई इनोवा और मेरी बेटियों की शादी की
चिंता....... सोच रहा था कैसे निकलूँ, तभी आशीष का फोन आ गया
जिनके साथ बालू-खनन के किसान मजदूर सभा
(लाल सलाम पार्टी) के आन्दोलन के क्षेत्र
घूरपुर/बिगति आदि जगहों पर जाना था. बाहर निकलते ही बारिस शुरू हो गयी और विधि
विभाग के एक प्रोफ़ेसर बीपी सिंह ने अपने बरामदे में आश्रय का आमंत्रण दिया. विश्व
विद्यालय के गिरते स्तर चिंता जताते हुए अध्यापकों बके पक्ष में खड़े होकर कहने लगे
कि अध्यापक छात्रों की बदतमीजी से इज्ज्ज़त बचाने के लिए विद्यार्थियों से कोर्स
के अलावा कोई बात नहीं करते. लंबी बहस हुई मैंने कहा कि इज्ज़त न तो आनुवंशाकीय
होती और न ही दहेज या दलाली में मिलती है. इज्ज़त कमाई जाती है और पारस्परिक होती
है. यह पारस्पारिकता ही उसकी हिफ़ाज़त की गैंती है. और यह कि कोई भी स्टूडेंट कभी किसी
टीचर के साथ बदतमीजी नहीं करता जब तक टीचर की बदतमीजी बर्दाश्त के बाहर न हो जाए.
खैर, बारिस बंद हुई और वापस गेस्ट हाउस आ गया. बारिस के चलते
१.३० बजे की बजाय हम घूरपुर, कुन्हासा और बेकार के लिए ३ बजे
निकले और उफान मारती यमुना के किनारे-किनारे हरियाली को बाधित करती कांक्रीट
जंगलों से होते हुए मोटरसाइकिल की सुखद यात्रा के बाद घूर पुर पहुंचे. वहां से फिर
एक गाँव में जहाँ कुछ लोग मुझे पहचानने वाले थे, या तो
सम्मलेन में भाषण सुने थे, या फिर पिछले साल के स्टडी कलासेज
में मिले थे. पुस्तकालय की योजना और धारा से ऊपर के क्षेत्र में मशीनों से माइनिंग
के चलते नीचे बालू की बाधित पहुँच को रोकने के लिए मशीनें तोड़ने और उसके कानूनी
परिणामों पर चर्चा हुई. फिर हमलोग उस गाँव में गए जहाँ पिछली बार सभा हुई थी औत नौकाविहार किया था.
पुस्तकालय की योजना पर डाक्टर साहब के साथ बात-चीत हुई. बारिस की संभावना के चलते
हम लोग ७ बजे वहाँ से निकल लिए और फिर २५-३० किमी की सुखद मोटरसाइकिल यात्रा के बद
८-८.३० बजे ल्क्ल्ला पहुंचे, एक चाय-समोसे के बाद आशीष विदा
हुए और मैंने कृश को फोन किया जो आचमन में साथ देने आ गया. उसे कुछ कवितायें
सुनाया और १०.३० बजे उसके साथ पान खाकर मैं वापस आकर हरबर्ट मार्क्यूस के रीजन और
रेवोल्युसन के कुछ पन्ने पढ़ कर सो गया. आज सुबह चाय पीने में एक वकील से बात हुई.
११ बजे सामान आशीष के यहाँ छोड़कर दिन में विश्वविद्यालय में लोगों से मिलने का
इरादा है. लाल बहादुर वर्मा जी से भी मिलने का वायदा किया है, देखिये पूरा कर पाता हूँ कि नहीं? ८:५४ पूर्वाह्न
17B
University Road
Wednesday, August 15, 2012; 6:27 AM
१३ अगस्त को उपरोक्त विवरण लिखने के बाद नाश्ता करके, जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मिली १९८८
की एक कहानी कम्पूटर में पुनार्लिखित करने बैठा और १२ बजे तक आधा ही पेज हो पाया
और सामान समेट कर गेस्ट हाउस से आशीस के घर चला गया. भोजनोपरांत काफी हाउस परवेज
से मिला और फिर किसी तरह रिखा-टेम्पो बदलते हुए कला संकाय पहुंचा, कैम्पस की जीवन्तता का कहीं आभास ही नहीं था. इतिहास विभाग किसी जेल की
बैरक की छवि पेश कर रहा था.
“अदब थी यहाँ नज़रें ज़िन्दाँ/जहाँ नहीं पंख मार सकता कोई भी परिंदा/ छात्र था
यहाँ भौंचक्क और डरा डरा/मुदर्रिस था ३-५ के चक्करों में फंसा बेचारा/छात्रावास
दिखे ऐसे/ विस्थापितों के डेरे हों जैसे/ हाकिमों का आना होता है १५ अगस्त या २६
जनवरी को/ जैसे कुछ मुल्ले निकले हों नमाज़ी तफरी को.”
विज्ञान संकाय जैसा था वैसा ही दिखा. अच्छी ब्क़तें
जो दिखीं वह लड़कियों की संख्या में इजाफा और उनके भावों का आत्मविश्वास और पिछड़े
तप्कों के छात्रों की संख्या में वृद्धि से सवर्णी दबंगई में कमी आयी दिखी. तरस
आया उन शिक्षकों पर जो शिक्षक होने के महत्त्व की समझ के सुख से वंचित हैं.
Friday, August 3, 2012
लल्ला पुराण २६
Sumita Kamthan and Aayat Zaidi, I am quite cautious about selection of words to the extent of not complimenting a girl by calling her Beta. To be critical is not to be a victim of negativity. It's just that I do not heed Dushyant Kumar's advice:
मत कहो आकाश में कुहरा घना है/यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है.
I am an ever optimist with tremendous trust in the radical potentials of the young and next generations. I feel proud of people like you, my young friends, who are, advertently or inadvertently, but certainly and substantially, contributing in the ongoing, non-stoppable march of feminist scholarship and assertion by demolishing story-by story the patriarchal pyramid of the myths of masculinity and femininity with their authentic intrusion into the realms of the supposedly male domain. There is no final truth and hence no one can be its custodian. Beauty of the society skies in the fact that it not only consists of many but many kinds of people. I keep telling my friends and students that key to any knowledge is unceasing questioning that does not exclude anything and anyone, not at least an ordinary persons like Ish Mishra (Immodesty apart, ha ha), not even God. I really respect most inconvenient questions and questioners and try to continuously learn from even children. I am tempted to narrate few experiences, but next time, if and when....... Good morning to every one on the Chauraha.
समाजवाद
जिस तरह विनोबा सरकारी साधू थे उसीतरह अन्ना सरकारी अन्संकारी. काँग्रेस सोसलिस्ट पार्टी के वाम एकता के दिनों में मीनू मसानी और अशोक मेहता के साथ लोहिया भी हर बात में कम्युनिस्ट षड्यंत्र की तलाश में प्रकारांतर से वाम आंदोलन को कमजोर किया. मसानी तो सामंतों के साथ मिलकर स्वतंत्र पार्टी बनाया और अशोक मेहता ने भीतर घुस कर क्रान्ति के स्द्धंत के तहत तमाम समाजवादियों के कांग्रेसी होने का पथ प्रशस्त किया. लोहिया की कांग्रेस विरोध की परिणति संविद सरकारों में हुई जिनमें जनसंघ के साथ हाथ मिलाकर सोसलिस्टों और कम्युनिस्टों ने संघ की हासिस्त साम्प्रदायिकता को राजनैतिक स्वीकृति प्रदान किया. १९७० के दशक की शुरुआत तक जेपी के राजनैतिक जीवन का अवसान सा आ गया था, दलविहीन सर्वोदयी राजनीति के सगूफे की हवा निकल चुकी थी. बहु-प्राचारित सभाओं में २००-३०० लोग आते थे. भ्रष्टाचार के विरुद्ध छात्रों के स्वस्फूर्त आंदोलन ने जेपी को नया जीवन दिया.बिना किसी कार्यक्रम के संघ के प्रचारकों के साथ मिलकर सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा दिया जिसकी परिणति जनता सरकारों में हुई और संघ को अपने मंसूबों के लिए धर्मनिरपेक्ष साद मिल गयी. उसके बाद लोहियावादियों ने लूट-लम्पटता-शिक्षा-संथाओं को आपराधिक केन्द्र बनाने का पुन्य कार्य किया. लालू-मुलायम के राज अपराधिओं और गुंडों का राज बना. लोहिया के एक अन्य भक्त भाजपा के साथ मिलकर समाजवाद ला रहे हैं.
जनतंत्र
संसदीय जनतंत्र का उदय ही पूंजीवाद की चेरी के रूप में हुआ और भ्रष्टाचार इसका दोष नहीं बल्कि नैसर्गिक गुण है. जहाँ देखोये वहा पूंजीपतियों के प्रति राज्य की वफादारी साफ़ दिखती है चाहें सुजुकी जापानी-भूमानादालीय पूंजी की सेवा में मानेसर में अमानवीय शोषण के शिकार मजदूरों पर कहर बरपाना हो टाटा की वफादारी में निजी गुंडों के साथ मिलकार आदिवासियों की ह्त्या करनी हो या अंगुल में जिंदल के गुंडों को प्रश्रय दे ना हो या कोरिया स्थिति अमेरिकी कारपोरेट पास्को के मुनाफे के लिए पारादीप बंदरगाह को प्रदूषित करके हजारों मछुआरों को बेरोजगार करना हो और जगात्सिंघ्पुर के पान के समृद्ध किसानों को बेघर करना हो,,,,,,,,,,,,,,,,,, संसदीय जनतंत्र में स्वस्थ जनपक्षीय राजनीति असम्भव है. जरूरत इसके विकल्प पर विचार करने की है.
Wednesday, August 1, 2012
lalla Puran 25
When ever there is choice between being correct and being popular/unpopular, one must have courage and self-confidence to choose to be correct, unpopularity is very unstable. Even if lasts longer, you have the superior moral pleasure of being correct, despite odds. I do not mind, rather enjoy being in minuscule minority or one-versus-all situation, as long as I am convinced about the righteousness of my stand. Similarly, if there is choice between being correct and facing difficulty, choose to be correct difficulties would ease away. (otherwise also,everyone can do the easy things, try the difficult ones.)
Correctness is not absolute and quantifiable notion but a relative, qualitative concept and particular correctness depends upon the particular historical context and considerations.For me, basic preconditions of arriving at relatively correct decisions; talking correct actions; and uttering correct words are: 1. Honesty introspection by questioning one's own mindset and consequent self-criticism; 2. total transcendence of personal considerations while performing public obligations, including writing on the FB; 3. Resolution of the contradiction of praxis, that is, establishment of unity between theory and practice; 4. being democratic; transparent and honest in words and deeds; 5. Respect for everyone's right to equality, at least, in terms of basic human dignity, ass talent is a natural endowment, no one should be looked up or down for having or not having it; and 6. Juxtaposition.
Correctness is not absolute and quantifiable notion but a relative, qualitative concept and particular correctness depends upon the particular historical context and considerations.For me, basic preconditions of arriving at relatively correct decisions; talking correct actions; and uttering correct words are: 1. Honesty introspection by questioning one's own mindset and consequent self-criticism; 2. total transcendence of personal considerations while performing public obligations, including writing on the FB; 3. Resolution of the contradiction of praxis, that is, establishment of unity between theory and practice; 4. being democratic; transparent and honest in words and deeds; 5. Respect for everyone's right to equality, at least, in terms of basic human dignity, ass talent is a natural endowment, no one should be looked up or down for having or not having it; and 6. Juxtaposition.
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