हम सब जानते हैं कि उत्सव-धर्मिता बोध समेत, मानव-चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों और समाजीकरण के माहौल से बनती-बिगड़ती है. हमारे बचपन में आषाढ़ में पहली बरसात के बाद उलास और धमाचौकड़ी का माहौल बन जाता था. (तब तक मालुम नहीं था कि मैं आषाढ़ में पैदा हुआ था जिसके पखवाड़े बाद भीषण बाढ़ आ गयी थी गाँव की छोटी सी नदी में) बच्चों गर्मी से निजात की खुशी तो रहती ही थी जिससे बाग़ और बन में तरह तरह के खेल होते थे, इससे भी अधिक खुशी होती थी कि जामुन, आम, बदहल, कैंत, खिरनी के फलों में मिठास आ जाती थी और आम-जामुन खाते, शुट्तुर, लखनी और नदी के कई खेल खेलते हुए चरवाही करने में छुट्टियाँ तफरीह में बीतती थीं.
सावन में चहुँ-ओर फ़ैली हरियाली और सुविधाजनक मौसम से तो ख़ुशी होती ही थी लेकिन अतिरिक्त ख़ुशी इस बात की होती थी कि आषाढ़ में घर-द्वार में ही बोई गयी लौकी, कोहणा, नेनुआ, तरोई, सरपुतिया, कुनरू तथा मक्के और चारी में बोए गए बोड़ा अवं कुछ और फ़लिआ सावन में फल देने लगते थे और सभी घरों में रोज सब्जी बनती थी.
जहां तक सावन के अंधे गधे की कहावत है तो इसमे बेचारे गधों का कोई कसूर नहीं है उनके बारे में यह अफवाह इन्शानो ने फैलाई है.
सावन में चहुँ-ओर फ़ैली हरियाली और सुविधाजनक मौसम से तो ख़ुशी होती ही थी लेकिन अतिरिक्त ख़ुशी इस बात की होती थी कि आषाढ़ में घर-द्वार में ही बोई गयी लौकी, कोहणा, नेनुआ, तरोई, सरपुतिया, कुनरू तथा मक्के और चारी में बोए गए बोड़ा अवं कुछ और फ़लिआ सावन में फल देने लगते थे और सभी घरों में रोज सब्जी बनती थी.
जहां तक सावन के अंधे गधे की कहावत है तो इसमे बेचारे गधों का कोई कसूर नहीं है उनके बारे में यह अफवाह इन्शानो ने फैलाई है.
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