Saturday, July 16, 2011

आषाढ़-सावन

मित्रों ऋतुराज की "शिकायत" , आषाढ़ के साथ नाइंसाफी पर मेरे मौन पर वाजिब है. अषाढ़ के पक्ष में एक गद्यात्मक टिप्पणी किया था लेकिन ई-अज्ञानता के चलते चिपक नहीं पायी. मैं तो जैसा पहले बता चुका हूँ, स्लेट-पेन्सिल वाला तुक्बंदीबाज हूँ, नैसर्गिक कवि नहीं. इस लिए गद्य में कही बात को पद्य में लिखने की कोशिस करता हूँ.

आषाढ़-सावन
ईश मिश्र
दिखी बूदों की पहली फुहार
ख़त्म हुआ चिलचिलाती धूप और लिसलिसाती उमस से निजात का इंतज़ार
होने लगी निर्मल बूंदों की बौछार खुशियों की बाढ़ लिए आ गया आषाढ़
भीगते हुए रिम-झिम में मोटर-साइकिल पर
लगता आ गयी फसल-ए-बहार धरती पर
बैठी हो पीछे अगर कोइ जिगरी दोस्त
आषाढ़ की बूँदें करें और भी मदहोश
जब-जब बादल करता बरसना बंद
इन्द्र धनुष भरता प्यार के नए रंग

यादें हैं ये मेरे बचपन की
दस साल बीत गए थे आई थी जब बाढ़ पचपन की
हुई थोड़ी देर आषाढ़ के आगमन में
साँसें लगी फूलने धरती के चमन में
पेड़-पौधे सूख गए सूख गयी घास
फटने लगी धरती बढ़ने लगी प्यास
इंसानों के साथ-साथ पशु-पक्षी भी हो गए उदास
घरों में लगता जैसे ले लिया हो चूल्हा-चक्की ने संन्यास
बची रहीं फिर भी इंसानों की जिजीविषा और जीने की चाह
यकीन था की निकलेगी कोइ-न-कोइ राह
लगा लोगों को वह नतीज़ा इन्द्र की नाराज़गी का
खुश करने को उसे करने लगे टोना-टोटका
निर्वस्त्र महिलाओं ने रात में चलाया हल
कीचड़ में लोटते बच्चों ने किया कोलाहल
गाये गीत देते हुए इन्द्र को धमकी
क्या कर लेगा वह एक उजड़े उपवन की
"बादल सारे पानी दे नाहीं-त आपण नानी दे "
तब भी नहीं इन्द्र ज़रा भी पसीजे
हो गया था इंतज़ार का इन्तेहाँ
तभी बादल ने धरती के कान में कुछ कहा
धूप धीरे-धीरे छंटने लगी
उपवन में शीतल हवा बहाने लगी
आ गयी लगता सभी में नई जान
ताकने लगे सब मिलकर आसमान
बरसा आषाढ़, था उसका जब अवसान
बिलखती धरती में फिर भी दाल दी जान
पडी जब बुड्ढे आषाढ़ की पहली फुहार
आ गयी धरती पर जन्नत की बहार
बूढ़े-बच्चे- जवान उल्लास में नाचने-गाने लगे
आषाढ़ के आगमन का उल्लास मनाने लगे.

आता है मानसून जब आषाढ़ के साथ साथ
होती है तब कुछ और ही बात
मिलाती नहीं सिर्फ गर्मी और उमस से निजात
लाता है खुशियाँ तमाम साथ-साथ
जब हम बच्चे होते थे
पहली बारिस के कीचड में लोट-पोत हो जाते थे
खेलते थे तरह-तरह के खेल
बदता था इससे बच्चों में आपसी मेल
मिठास आम-जामुन-कैंत में आ जाती थी
फल का मजा लेते हुए पेड़ों पर लखनी शुरू हो जाती थी
खुलती थी नीद सुबह हल में नधाते बैलों की घाटियों से
निकल पड़ते थे बाग़ में मिलने साथियों से
हरे हो जाते थे खेत-बाग़ और चारागाह
छोटी सी मझुई का तट लगता जैसे कोइ बंदरगाह
जैसे-जैसे आषाढ़ बढ़ने लगा
हरियाली का आलम मचलने लगा
बढ़ता ही रहा बेबाक विस्तार की ओर
आते-आते सावन बचा न ओर-छोर
इसी लिए सावन की हरियाली पर जोर दिया कवियों ने
आषाढ़ के साथ नाइंसाफी की सबने
पड़ते नहीं बीज यादि खेत में आषाढ़ में
लहलहाती नहीं फसलें सावन की बाड़ में
होते अग़र निराला
कहते अबे सावन साला
जिस हारियाली पर तुझे है गुरूर
आषाढ़ की नीव पर खडी है, हुजूर !
आता सावन जोड़े हाथ
कहता मैं तो मिलकर रहता हूँ सावन के साथ
इन्सान करते रहते आपस में मार-पीट-लड़ाई
एकता हमारी उन्हें फूटी आँख भी नहीं सुहाई
लगा गए तोड़ने में हमारे एकता
आषाढ़-सावन की जोड़ी कोइ तोड़ नहीं सकता
करता है इन्शान प्रकृति से ज्यादा छेड़-छाड़ जब
मानवता के लिए आफत बुलाता तब-तब
आइये बंद करें प्रकृति से जंग
सामंजस्य से मिलजुल कर रहें संग-संग.

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