राजनैतिक शिक्षा और जनांदोलनों के माध्यम से अपना जनबल तैयार करने की बजाय पिछले 55 सालों से कम्युनिस्ट पार्टियां इस या उस शासकवर्ग की पार्टी का पुछल्ला बनकर अपना क्षरण करती जा रही हैं। आज तीनों पार्बिटियों का संसदीय आधार 1964 में सीपीआई की संसदीय शक्ति का 10% भी नहीं रह गया है। में महागठबंधन में शामिल होने की बजाय क्रांतिकारी उन्हें एक मजबूत वाम विकल्प तैयार करना चाहिए। वक्त की जरूरत है तीनों संसदीय पार्टियां आपसी गठबंधन से एक ताकतवर ब्लॉक बनाएं तथा एक ताकतवर स्थिति से फासीवाद-विरोधी दलों से सीटों का चुनावी समझौता करें तथा जनांदोलनों की रणनीति की छोटी कम्युनिस्ट पार्टियां चुनाव में इस ब्लॉक का समर्थन करें। मेरी राय में राममनोहर लोहिया-दीनदयाल उपाध्याय के कांग्रेस विरोधी समझौते के तहत 1967 में कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट पार्टियों का भारतीय जनसंघ के साथ संविद प्रयोग भयानक भूल थी जिससे आरएसएस की सांप्रदायिक राजनीति के सामाजिक समवीकार्यता की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। बिहार आंदोलन में जेपी द्वारा आरएसएस को अपना प्रमुख सहयोगी बनाने, प्रगतिशील छवि बनाने के लिए इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल में उसे प्रमुखता से निशाना बनाना तथा 1977 में जनता सरकार के प्रयोग में उसकी अहमियत से आरएसएस की सांप्रदायिकता पर सामाजिक स्वीकार्यता की मुहर लग गयी। मेरे ख्याल से बिहार चुनाव में तानों पार्टियों को मजबूत गठबंठन बनाकर जनता के प्रमुख समस्याओं के चुनावी मुद्दों पर लड़ना चाहिए। चुनाव के बाद जरूरत पड़ने पर महागठबंधन का सरकार बनाने में समर्थन करना चाहिए। अस्मिता की राजनीति ने बिहार के क्रांतिकारी आंदोलनों को बहुत क्षति पहुंचाया है।
28.08.2021
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