मंडल कमीसन को लागू करने की घोषणा से जातिवाद के संचार की बात स्वार्थबोध से प्ररित सवर्णों का कुंठा विसर्जन है। वर्णाश्रमी जातिवादी भेदभाव अपने वीभत्स रूप में पहले से मौजूद था, 1990 के बाद सवर्ण वर्चस्व को चुनौती मिलना शुरू हुई। इवि में हमारे समय (1970 के दशक का पूर्वार्ध) गैर-सवर्ण छात्रों की संख्या नगण्य थी। 1990 में कैंपसों की संरचना आज जैसी होती तो हिंसक मंडलविरोधी उन्माद एकतरफा न होता। दिवि और जेएनयू में कुछ वामपंथियों समेत तमाम स्वघोषित जातिवादविरोधी सवर्ण बेनकाब हो गए। मिश्र सरनेम के बावजूद मंडलविरोधी उन्माद का मेरा समर्थन न करना कई लोगों को घोर आश्चर्यजनक लगा था। जेएनयू जैसी जगह में भी वहां के छात्रसंघ के अध्यक्ष को इस्तीफा देना पड़ा (वह भी सवर्ण था) वही हाल दिवि के शिक्षक संघ के अध्यक्ष मुरली मनोहर सिंह की हुई थी। 1990 के बाद जातिवाद शुरू नहीं हुआ बल्कि जातिवादी सवर्ण वर्चस्व को चुनौती मिलना शुरू हुई। प्रतिक्रिया में जवाबी जातिवाद शुरू हुआ, जो कि उतना ही अधोगामी है जितना जातिवाद। समाधान जातिवादी प्रतिस्पर्धा नहीं, जातिवाद का विनाश है।
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