मंदिर-मस्जिद राजनैतिक कारणों से तोड़े बनाए गए। मैं यह पूछता हूं कि हम (हमारे पूर्वज) इतने कमजोर क्यों थे कि कोई नादिर शाह 2000 घुड़सवारों के साथ पेशावर से बंगाल तक रौंद डालता था? इसके लिए ज्ञान व्यवस्था और समाज व्यवस्था में जवाब ढूंढ़ना पड़ेगा। शस्त्र-शास्त्र का अधिकार जिस समाज में चंद लोगों के हाथ में सीमित हो, बड़े कामगर समूह के साथ पशुवत व्यवहार हो, ज्ञान के नाम पर अंधविश्वास और मिथक पढ़ाए जाते हों, उसे कोई भी रौंद सकता था। मैं अपने दलित साथियों से पूछता हूं कि हमारे पूर्वज तुम्हारे पूर्वजों से पशुवत व्यवहार करते थे तो वे सहर्ष उसे स्वीकार क्यों करते थे? (मेरे लड़कपन तक ऐसा ही था) ऐसा चेतना के स्तर और स्वरूप के चलते होता है। आज संवैधानिक जनतंत्र में कुत्तों की तरह झुंड में शेर बनते हुए संख्याबल के बूते किसी की हत्या कर देना या किसी का 400 साल पुराना भवन तोड़ देना बहादुरी नहीं कायरता और अपराध है। सुप्रीम कोर्ट के अन्यायमूर्तियों ने भी अपने उसी फैसले में बाबरी विंध्वंस को जघन्य अपराध कहा है। 10 साल के 10 लड़के मिलकर शहर के सबसे बड़े पहलवान को पीट सकते हैं, इसमें इन लड़कों की बहादुरी नहीं भीड़ की अपराधी प्रवृत्ति है। अतीत की गलतियां नहीं सुधारी जा सकतीं, उनसे सीख ली जा सकती है। 500 साल की गलती सुधारने में अमेरिका की पूरी आबादी को विस्थापित होना पड़ेगा।
04.08.2020
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