Saturday, August 21, 2021

नारी विमर्श19 (मर्दवाद)

 बहुत सारे लोग उच्चतम शिक्षा के बावजूद जाहिल बने रह जाते हैं क्योंकि वे केवल learn करते हैं, unlearn नहीं। मर्दवाद (gender) कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही नकोई साश्वत विचार। मर्दवाद या पितृसत्तात्मकता विचार नहीं विचारधारा है जिसे हम अपने समाजीकरण के दौरान अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेते हैं। विचारधारा शोषक (उत्पीड़क) या शासक को ही नहीं और शोषित (पीड़ित) या शासित को भी प्रभावित करती है। सांस्कृतिक मूल्य के रूप में विचारधारा हमारे नित्य-प्रति के क्रिया कलापों. विमर्शों, रिवाजों, त्योहार-उत्सवों, भाषा के संस्कार मुहावरों, चुटकुलों आदि के द्वारा निर्मित-पुनर्निर्मित और पोषित होते हैं। आर्थिक परिवर्तनों के साथ राजनैतिक तथा कानूनी परिवर्तन तुरंत होते हैं क्यों वे वाह्यगत होते हैं और आर्थिक परिवर्तनों को समेकित करने के लिए आवश्यक होते हैं। सांस्कृतिक परिवर्तन आत्मगत होते हैं और मुश्किल। बीसवीं शताब्दी के इतालवी दार्शनिक, एंतोनिीयों ग्राम्सी ने इसकी व्याख्या सांस्कृतिक वर्चस्व के सिद्धांत के रूप में की है। प्रभुता की स्थापना बल के अलावा सहमति से भी होती है। पारंपरिक पत्नियां बलपूर्वक नहीं सहमति से पतियों की प्रभुता स्वीकार करती हैं। हम जब किसी लड़की को बेटा कह कर साबाशी देते हैं तो सांस्कृतिक वर्चस्व के तहत वह भी इसे साबाशी ही समझती है। धीरे धीरे ही सही लेकिन सांस्कृतिक परिवर्तन भी अवश्यंभावी हैं, क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन परिवक्व होकर एक दिन क्रांतिकारी गुणात्मक परिवर्तन का रूप ले लेते हैं। पिछली आधी शताीब्दी में स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी का अभियान काफी दूरी तय कर चुका है, स्त्री चतेतना सामाजिक चेतना को काफी बदल चुकी है लेकिन पर्याप्त स्तर तक नहीं। आज कोई भी बाप सार्वजनिक रूप से नहीं दावा कर सकता कि वह बेटी-बेटा में फर्क करता है, एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले पैदा कर ले। यह स्त्रीवाद की सैद्धांतिक विजय है, वास्तविक, व्यवहारिक विजय तो विचारधारा क् रूप में मर्दवाद के अंत के साथ होगी। समयसीमा तो नहीं तय की जा सकती, लेकिन प्रकृति का नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है, उसका अंत भी निश्चित है। मर्दवाद इसका अपवाद नहीं है।

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