मैं आप से बिल्कुल सहमत हूं. जेएनयू आंदोलन के बाद के आंदोलनों में , खासकर सीएए विरोधी राष्ट्रव्यापी आंदोलनों में युवाओं की पीढ़ी बहुत रचनात्मक एवं उत्साहपूर्ण रही। जेएनयू में 1983 में एक लंबा आंदोलन हुआ था, विवि अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया गया था। 1983-84 ज़ीरो सत्र हो गया ता। 1983 में प्रवेश नहीं हुए। जैसे ही दमन शुरू हुआ सभी बड़े संगठनों और ज्यादातर लोगों ने समर्पण कर दिया था। 17-18 लोगों को निष्कासित कर दिया गया था जिसका सांकेतिक प्रतिरोध भी नहीं हुआ। 2016 से जारी आंदोलन में युवा साीथी लड़ते रहे हैं। युवा साथियों को जयभीम लाल सलाम। दिवि में पिजड़ातोड़ की लड़कियां कई सालों से राजनैतिक रूप से अन्यथा प्रतिक्रियावादी कैंपस को जीवंत बनाए हुए हैं -- नए नारों और नए गीतों के साथ।
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जीएन झा के एक सीनियर थे (नाम नहीं बताऊंगा) गुलाब की पंखुड़ी के साथ सिगरेट 'बनाते थे', आईएस (एलाइड) हो गए। कई जूनियर नकल में पीने लगे, मैंने कहा अबे क्छ फिलॉस्फर पागल हो सकते हैं सारे पागल फिलॉस्फर नहीं होते। 36-37 साल पुरानी बात है। एक दिन मेरा एक मित्र (आजकल अमेरिका की एक नामी यूनिवर्सिटी में अर्थशास्त्र का प्रोफेसर है) तीनमूर्ति लाइब्रेरी में सीट पर से उठाकर कोई जरूरी बात करने कैंटीन बुलाकर लाया। बोला कि उसके पास थेसिस जमा करने के लिए बहुत कम समय बचा था 'स्मोक' के साथ लिखे कि बिना स्मोक के। मैंने कहा कि वैज्ञानिक बात तो यह है कि फ्रेस दिमाग बेहतर काम करता है। उसने कहा बिना स्सोक के लिखने का उसका अनुभव नहीं है और एक्सपेरीमेंट का टाइम नहीं। खैर उसने डेडलाइन में अच्छी थेसिस जमा कर दी। यह बात सही है कि भांग-गांजा-चरस (मैरिजुआना) के बाद आदमी शराब के बाद जैसा पगलाता नहीं, हिंसक नहीं होता।
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