Sunday, July 26, 2020

शिक्षा और ज्ञान 295 ( रामायण)

रामकथा कितनी पुरानी और किन रूपों में है यह बहस का विषय है। बौद्ध राम कथा वाल्मीकि की रामकथा से भिन्न है तथा वाल्मीकि की तुलसी की राम कथा से भिन्न है। जिन्होंने ऋगवेद पढ़ा है वे जानते हैं कि ऋगवेद में रामायण के 2 चरित्रों का जिक्र मिलता है -- विश्वामित्र और वशिष्ठ। सातवें मंडल में 10 राजाओं के युद्ध का वर्णन है। सिंधु और सरस्वती के बीच, सप्तसैंधव क्षेत्र (पंजाब की 5 नदियां मिलाकर) में बसे हमारे ऋगवैदिक पूर्वज कुटुंबोंमें बंटे थे तथा कुटुंब का मुखिया राजा कहलाता था। भरत कुटुंब काफी प्रभावशाली कुटुंब था। इसके राजा दिबोदास के समय कुटुंब के पुरोहित विश्वामित्र थे। दिबोदास के बेटे सुदास ने वशिष्ठ को कुटुंब का पुरोहित नियुक्त कर लिया। क्रोधित होकर विश्वामित्र ने दस कुटुंबों को लामबंद कर भरत कुटुंब पर हमला कर दिया। सुदास के नेतृत्व में भरत कुटुंब ने दस कुटुंबोंके गठबंधन को परास्त कर दिया। युद्धोपरांत समझौते में विश्वामित्र को भी वशिष्ठ के साथ पुरोहित रख लिया गया। इन दोनों के अलावा रामायण के किसी चरित्र का जिक्र नहीं मिलता। कहने का मतलब रामायण वेद से पुराना नहीं हो सकता।

कौटिल्य अर्थशास्त्र में शासनशिल्प पर अपने पूर्ववर्ती विचारकों के विचारों की विवेचना के बादव अपने विचार देते हैं। यदि वाल्मीकि रामायण उनसे पहले की कृति होती तो निश्चित ही उत्तकांड और अयोध्याकांड का जिक्र करते। वाल्मीकि रामायण निश्चित ही बुद्ध के बाद का है क्योंकि अयोध्याी कांड में बुद्ध का जिक्र मिलता है।

यथा हि चोर: स तथा हि बुद्धःस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि य: शक्यतम: प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुध: स्यात ।।

अर्थात- जैसे चोर दंडनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धतावलम्बी) भी दंडनीय है। तथागत (नास्तिकविशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इसलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के समान दंड दिलाया ही जाए, परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान ब्राह्मण कभी उन्मु्ख न हो- उससे वार्तालाप तक ना करे।

(अयोध्याकांड, श्लोक 34,109वां सर्ग, पेज 528, वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर)

हर समुदाय अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब से अपने मुहावरे, देवी-देवता तथा प्रतीक गढ़ता है। वाल्मीकि के समय के वर्णाश्रमी समाज की जरूरत एक महानायक के प्रतीक की रही होगी और उन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में चित्रित किया। तब तक अवतारों की प्रथा शायद शुरू न हुई हो। तुलसी के समय की जरूरत अवतार पुरुष की रही होगी, इसलिए उन्होंने वाल्मीकि के मर्यादा पुरुषोत्तम को अवतार बना दिया।

बौद्ध संस्कृति एवं जनतांत्रिक शिक्षा पद्धति के विरुद्ध हिंसक ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की शुरुआत पुष्यमित्र शुंग के साथ हुई जिसका उपसंहार शंकराचार्य के समय हुआ।

ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि के लिए 100 प्रतिशत द्विज-पुरुष आरक्षण वाली अधिनायकवादी गुरुकुल प्रणाली की शिक्षा पद्धति शुरू की गयी तथा पुराण लिखे गए।

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