Tuesday, July 7, 2020

मार्क्स और महामारी


क्या 200 साल से अधिक पहले पैदा हुए कार्ल मार्क्स (18818-83) महामारी के मौजूदा संकट को समझने में हमारी मदद कर सकते हैं? दुनिया में तबाही मचाने वाली महामारी के इस संकट को समझने के सूत्र इतिहास के उनके सिद्धांत, ऐतिहासिक भौतिकवाद में, इस संकेत के साथ खोजे जा सकते हैं कि इसके बाद की दुनिया पूंजीवाद से इतर होगी। प्रसियन (जर्मन) सरकार के दबाव में फ्रांस से निकाले जाने के बाद ब्रुसेल्स (बेल्जियम) में राजनैतिक प्रवास के दौरान, उन्होंने जर्मन विचारधारा में लिखा,
“उत्पादक शक्तियों के विकास की प्रक्रिया के खास चरण में, तत्कालिक परिस्तियों में,  विनाशकारी उत्पादक शक्तियों और व्यापारिक माध्यमों का उदय होता है। वे (मशीनरी और धन) उत्पादक शक्तियों से विनाशकारी शक्तियां बन जाती हैं”

1859 में लिखी राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान की सुविदित भूमिका में लिखते हैं,
“अपने विकास के खास चरण में उत्पादक शक्तियों का मौजूदा उत्पादन संबंधों से टकराव होता है, यानि संपत्ति के उन संबंधों से जिनके तहत उनका तब तक का विकास हुआ होता है तथा जिसकी वे कानूनी अभिव्यक्ति होते हैं। विकास के उस खास चरण में ये उत्पादक संबंध उत्पादक शक्तियों के विकास के कारक से विकास में रुकावटें बन जाते हैं। और तब शुरू होता है एक विप्लवी युग”  

उपरोक्त दोनों उद्धरणों पर गौर करने पर हम पाते हैंकि जर्मन विचारधारा के उद्धरण का फलक ज्यादा व्यापक है जबकि भूमिका का उद्धरण अर्थशास्त्र पर केंद्रित है। गौरतलब है कि कि विनाश की मार्क्स की व्याख्या 1840-44 की परिघटनाओं के उनके अध्ययन पर आधारित है। उन्होंने इतिहास के लंबे दौर में विश्वव्यवस्था में होने वाले आमूल परिवर्तन के बिंदुओं की पहचान की। यह एक द्वंद्वात्मक परिवर्तन है जिसमें उत्पादक शक्तियों (तकनीकी ज्ञान [technology], संप्रेषण माध्यम, पूंजी, कामगर, कार्यस्थल, वैज्ञानिक ज्ञान आदि) का कायाकल्प हो जाता है। ये शक्तियां विकास की शक्ति से विनाश की शक्ति बन जाती हैं। ये मुसीबतें ही पैदा करती हैं।

मौजूदा महामारी और पूंजीवाद
ध्यान से देखने पर हम पाते हैं कि कोरोना संक्रमण से पैदा महामारी के तमाम पहलू –  महामारी से निपटने की नीतियों के परिप्रक्ष्य में कारोबार तथा व्यापार का संचालन; रोकथाम की योजना का अभाव; स्वास्थ्य सुविधाओं की क्षेत्रीय तथा राज्य-स्तरीय असमानताएं; भूमंडलीय आर्थिक मंदी के अनिश्चित परिणाम -- मौजूदा नवउदारवादी भूमंडलीय पूंजी के अभिन्न अंग हैं। इनके विश्लेषण से पूंजीवाद से इस महामारी के संबंधों को दर्शाया जा सकता है।
उपरोक्त उद्धरणों का मकसद मौजूदा संकट की उत्पत्ति और इसके ऐतिहासिक कारणों की तार्किक व्याख्या करना है। इस बात का इस महामारी की आकस्मिक शुरुआत या इसके विस्तार-प्रसार के अन्याय कारणों से कुछ लेना-देना नहीं है। इंगलैंड में पूंजीवाद के विकास के इतिहास के अपने अध्ययन के आधार पर अपनी प्रसिद्ध कृति पूंजी मे मार्क्स ने मजदूरों की श्रमशक्ति के शोषण के आधार पर पूंजीवादी संचय के गतिविज्ञान के नियमों की व्याख्या किया है। उन्होंने सर्वहारा क्रांति के जरिए एक वैकल्पिक मानवीय, समानुभूतिक तथा शोषणविहीन समतामूलक दुनिया का खाका भी पेश किया। रचनात्मक सामाजिक ऊर्जा से निर्मित तथा क्षमतानुसार कार्य और आवश्यकतानुसार भुगतान के सिद्धांत पर आधारित यह नई दुनिया मानव मुक्ति की दुनिया होगी। इस महामारी के संदर्भ में विकास के मौजूदा चरण में उत्पादक शक्तियों के विनाशक चरित्र को बेहतर समझा जा सकता है। इसका दुष्प्रभाव, उच्त जीडीपी के बावजूद,  सुदूर पूर्व से लेकर पश्चिमी यूरोप तथा अमेरिका के विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में सर्वाधिक है। पूंजावाद की अंधाधुंध संचय की प्रवृत्ति के चलते जंगलों का अंधाधुंध सफाया हुआ तथा खेती में पारंपरिक फसलों की बजाय रबर कोका, तेल के ताड़ आदि औद्योगिक फसलों की खेती और बागवानी को बढ़ावा देनेसे जैवविविधता में उल्लेखनीय कमी आई जिससे पर्यावरणीय व्यवस्था के प्रदूषित होने के चलते मानव-समुदायों में विषाणुओं (वायरस) के प्रसार की संभावनाएं बढ़ गयीं। शहरीकरण से भी जंगलों का सफाया हुआ एवं बहुतेरी जीव प्रजातियां विलुप्त होनेके कगार पर पहुंच गयीं। भूमंडलीय अर्थव्यवस्था की आवाजाही एवं अंतर्राष्ट्रीय विनिमय की व्यापकता क्षेत्रीय महामारी को भूमंडलीय महामारी में तब्दील कर दिया। अमेरिका की जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओंद्वारा तैयार कोविड-19 की सघनता के नक्शे को माने तो महामारी की सघनता पूंजीवादीअर्थव्यवस्था के तीन क्षेत्रोंमें केंद्रित है – पूर्व एशिया, पश्चिमी यूरोप और उत्तरी अमेरिका। भारत में सर्वाधिक प्रभावित तपका कामगरों की सामूहूकिकता के सबसे निचली पायदान वाले मजदूर हैं, खासकर अपना गांव-घर छोड़कर दूसरे प्रदेशों या दूसरे शहरों में रोजी-रोटी कमाने जाने वाले मजदूर। मीडिया तथा सरकारें उन्हें प्रवासी मजदूर कह कर उन्हें परिहास उड़ा रही हैं। आजमगढ़ या खगड़िया या अन्य किसी जगह से दिल्ली आकर पत्रकारिता, व्यापार, प्रोफेसरी या वकालत करने वाला प्रवासी नहीं कहा जाता लेकिन कारखाने में ठेका मजदूरी करने वाला, रिक्शा चलाने वाला. रेड़ी-पटरी वाला, या निर्माण मजदूर प्रवासी हो गया? रोजगार ठप होने से लाखों तथाकथित प्रवासी मजदूर पैदल, साइकिल से, ट्रक-टेंपो से अपने गांव गए। रास्ते में कितने मर-खप गए।
 

 
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