केपी (कृष्ण प्रताप) सिंह इवि के हमारे सीनियर थे, एक प्रगतिशील सांस्कृतिक-राजनैतिक ग्रुप 'युवामंच' के सक्रिय सदस्य थे तथा एक अनियतकालीन पत्रिका 'परिवेश' के संपादक मंडल में थे। डीजे हॉस्टल में रहते थे। मुझ पर उनका काफी स्नेह था। सर कहने से रोकते थे, मैं उन्हें केपी भाई कहता था। 1972-73 (या 1973-74) में सुनी (या पढ़ी) उनकी एक कविता अब तक याद है। जब उनका यूपीपीपीएस में चुनाव हुआ तो उनके पिता ने मना करने के बावजूद फिएट कार का अग्रिम दहेज लेकर उनकी शादी तय कर दी थी। शादी की नियत तिथि से कुछ दिन पहले उन्होंने अपनी एक मित्र से अंतर्जातीय विवाह करके सिंद्धांत और व्यवहार की एका साबित किया। बाद में उस दहेज के साथ उस लड़की से उनके छोटे भाई की शादी हुई।केपी भाई सिनिकली ईमानदार थे तथा वरिष्ठों एवं कनिष्ठों दोनों के लिए असुविधाजनक। गोंडा में डीएसपी के रूप में उनकी पोस्टिंग शायद नौकरी की दूसरी पोस्टिंग थी। 'एन्काउंटर' में पुलिस सहकर्मियों द्वारा ही उनकी हत्या की हृदयविदारक खबर से हम सब बहुत आहत हुए थे। डीजे के ही शशिभूषण उपाध्याय (मौजूदा समय में इतिहास के प्रफेसर) ने 1983 में हंस में एक कहानी लिखी थी, 'बीसवां सिपाही'। एक थाने में एक नया (2दवां) सिपाही आया और एक गांव में एक निर्दोष शिक्षक के एन्काउंटर में शामिल किया गया और एन्काउंटर के बाद उसकी वैधता पर सवाल करने लगा जिस पर नाराज होकर बाकी पुलिस वालों ने उसकी भी हत्या करके शहीद घोषित कर दिया। गुलेरी जी की 'उसने कहा था' की ही तरह शशि की भी वह इकलौती कहानी है। केपी भाई को विनम्र नमन। घटना के 30 साल बाद (2012 में) दोषी पुलिसकर्मियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी तब तक उनमें से मर चुके थे।
नोट: इसका विकास दूबे के एनकाउंटर के प्रयास में एनकाउंटर हुए पुलिस कर्मियों से कोई संबंध नहीं है।
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