Thursday, October 26, 2017

समाजवाद 9

रूसी क्रांति की शताब्दी वर्ष के अवसर पर
समाजवाद पर लेखमाला: भाग 9
बोल्सेविक क्रांति
सर्वहारा की तानाशाही के सपने का सच
ईश मिश्र
रूस की नवंबर 1917 में बोल्सेविक क्रांति एक युगकारी क्रांति थी, जिसने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की धारा ही बदल दी। सदियों पुरानी ज़ारशाही और उसके सामंती लाव-लश्कर का नामोनिशान मिट गया और रूसी साम्राज्य की जगह सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीयसयू) के नेतृत्व में यूनियन ऑफ सोवियत सोसलिस्ट रिपब्लिक (सोवियत समाजवादी गणराज्यों का संघ) या सोवियत संघ की स्थापना हुई। बोल्सेविक शब्द दुनिया के सभी साम्राज्यवादी, प्रतिक्रियावादी खेमों में पूंजीवाद के विनाश के खतरे के रूप में प्रतिध्वनित होने लगा। उसके विरुद्ध साम्राज्यवादी लामबंदी और साजिशों का सिलसिला इतिहास बन चुका है।
1917 में रूस में ताबड़तोड़ दो क्रांतियां हुईं – मार्च में पूंजीवादी जनतांत्रिक क्रांति जिसमें समाज के लगभग सभी तपकों का प्रतिनिधित्व था और नवंबर में बोसलेविक पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा क्रांति। पहली क्रांति के बाद सदियों पुरानी जारशाही को मटियामेट कर नई संविधान सभा का चुनाव कराने के मकसद से अंतरिम सरकार का गठन किया गया। बोलसेविकों के अलावा मार्च क्रांति के सारे दावेदार उसे अब विश्रामावस्था में रखकर, पश्चिमी देशों के नक्शेकदम पर संसदीय जनतंत्र के निर्माण के पक्षधर थे। मेनसेविक और नोरोडनिक लोकवाद के वैचारिक उत्तराधिकारी समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी भी अंतरिम सरकार में शामिल थी। लेनिन क्रांतिकारी परिस्थितियों के महत्व को लगातार रेखांकित करते रहे हैं, लेकिन उन्होंने 1905-07 की क्रांति-प्रतिक्रांति के बाद लिखा था कि क्रांतिकारी परिस्थिति अपने आप में क्रांति की गारंटी नहीं हैं। मार्क्स ने थेसेस ऑन फॉयरवाक में लिखा है कि चेतना भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली चेतना बदली परिस्थियों की। लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बदलतीं, उन्हें मनुष्य का सचेतन प्रयास बदलता है।लेनिन के नेतृत्व में बोलसेविक पार्टी क्रांतिकारी परिस्थितियों का सदुपयोग करते हुए मार्च क्रांति को सर्वहारा क्रांति में तब्दील करने की पक्षधर थी। इस तरह रूस में बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रांति अल्पजीवी रही, नवंबर क्रांति तक। सर्वहारा क्रांति और सर्वहारा-स्वशासन (सर्वहारा की तनाशाही) के सिद्धान्तकी संभावनाओं को हकीकत में बदलने का पहले प्रयास, पेरिस कम्यून को ‘राष्ट्रीय शत्रुता’ भूलकर यूरोप की सभी प्रतिक्रियावादी ताकतों ने मिलकर बर्बरता से कुचल दिया था। लेकिन सर्वहारा विद्रोह की ज्वाला की चिंगारियां सारे भूमंडल की बयार में घुल-मिल गयीं। पूरे यूरोप में जहां-तहां गिरती और धधकती रही। लगभग सभी देशों में समाजवादी संगठनों का गठन हो रहा था। दूसरे इंटरनेसनल के उदय और पतन तथा 1905 की रूसी क्रांति की चर्चा पिछले दो लेखों में की गयी है। कम्यून से निकली चिंगारी 1917 में रूसी धरती पर अजेय दावानल बन भड़क उठी। पेरिस का विद्रोह एक शहर के सर्वहरा का विद्रोह था और सही मायनों में, सैद्धांतिक और रणनीतिक स्पष्टता के अर्थों में यह समाजवादी क्रांति नहीं थी। नवंबर 1917 की बॉलसेविक क्रांति सैद्धांतिक और रणनीतिक स्पष्टता के साथ पहली सामाजवादी सर्वहारा क्रांति थी। 1871 की पेरिस क्रांति, एक शहर के सर्वहारा का क्रांतिकारी उद्गार था, बोलसेविक क्रांति रूसी साम्राज्य के सर्वहारा और किसानों का क्रांतिकारी उद्गार था। पेरिस कम्यून यूरोप की प्रतिक्रियावादियों ताकतों की आंखों की किरकिरी बन गया था जिसे उन्होंने ‘राष्ट्रीय शत्रुता’ भूल, मिलजुल कर अमानवीय बर्बरता से निकाल दिया, लेकिन जॉन रीड के शब्दों में, 10 दिनों में दुनिया को हिला देने वाली बोलसेविक क्रांति, अजेय साबित हुई और उससे उपजा सोवियत संघ वीसवीं सदी की संध्या तक दुनिया की सभी तरह के प्रतिक्रियावादियों और साम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती देते हुए उनकी आंखों की किरकिरी बना रहा। साम्राज्यवादी हमले के खतरों और अंतर्राष्ट्रीय वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा एवं अपने अंतर्विरोधों के भार से सोवियत संघ के विघटन और पूंजावाद की पुनर्स्थापना के पहले अमेरिका साहस नहीं कर सकता था कि जिस-किसी बहाने जहां चाहे जितने बम गिरा दे। जब भी ऐसा किया मुंहकी खायी, चाहे क्यूबा रहा हो या उत्तरी कोरिया या वियतनाम। गौरतलब है कि 1971 के बांग्लादेश युद्ध के समय अमेरिकी सरकार ने पाकिस्तान की मदद में जब परमाणु शस्त्रों से लैस सातवां बेड़ा रवाना किया था तो सोवियत संघ ने महज घोषणा की कि उनका सत्ताइसवां बेड़ा प्रतिकार के लिए तैयार है। थूक कर चाटते हुए अमेरिकी सरकार को अपने युद्धपोत को बीच रास्ते रोक देना पड़ा। बोलसेविक क्रांति पर जॉन रीड की आंखो-देखे विवरण, वो दस दिन जब दुनिया हिल उठी से शुरू करके अनगिनत ग्रंथ लिखे जा चुके हैं इसलिए क्रांति की परिघटनाओं और गृहयुद्ध (1917-23) की जटिलताओं के विस्तार में जाने की थोड़ी जरूरत तो है, लेकिन ज्यादा गुंजाइश नहीं है। क्रांति की प्रमुख घटनाओं और प्रतिक्रियाओं की संक्षिप्त चर्चा; सामंती अवशेषों पर समाजवादी निर्माण की प्रक्रिया और बाधाओं तथा सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत और व्यवहार के अंतरविरोध; तीसरे अंतरराष्टीय के गठन और अंतर्राष्टीय समाजवादी तथा राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों पर इसके प्रभाव की संक्षिप्त समीक्षा का प्रयास किया जाएगा।
      मार्च क्रांति
      मार्क्स का मानना था कि एक तरफ पूंजीवाद के विकास के साथ इसके अंतरविरोध गहराते जाएंगे और दूसरी तरफ तकनीकी विकास से श्रम की उत्पादकता में वृद्धि से उत्पादन के प्रतिष्ठानों का विस्तार होगा और समानुपातिक तो नहीं फिर भी श्रमशक्ति में सापेक्ष वृद्धि होगी तथा श्रम-सामाजिकरण यानि आपसी मेलजोल तथा संवाद के परिणामस्वरूप वर्गचेतना का विकास होगा और वर्गहित के आधार पर सर्वहारा संगठन। इन स्थापनाओं के आधार पर उनका आकलन था कि सर्वहारा क्रांति की शुरुआत विकसित पूंजीवादी देशों में होगी। मार्क्स कोई ज्योतिषी तो थे नहीं। नवउदारवादी पूंजावाद में उत्पादन के अनौपचारीकरण तथा आउटसोर्सिंग  ने दानों ही मान्यताओं को अंशतः अमान्य कर दिया है। उन्होने सोचा था कि पूंजीवाद के विकास के चरम पर उत्पादन की प्रचुरता होगी और मुद्दा होगा प्रचुरता के बंटवारे का। लेकिन ऐतिहासिक कारणों से क्रांतिकारी परिस्थितियां बनीं औद्योगिक रूप से पिछड़े एक कृषि प्रधान देश में जहां प्रचुरता के बंटवारे की जगह अभावों में साझेदारी का मुद्दा था।  एटींथ ब्रुमेयर ऑफ लुई बोर्नापार्ट में मार्क्स ने लिखा कि मनुष्य अपना इतिहास खुद बनाता है लेकिन अपनी इच्छानुसार नहीं, न ही अपनी पसंद की परिस्थितियों में नहीं, बल्कि विरासत में मिली परिस्थितियों में। क्रांतियां कभी बेकार नहीं जातीं, वे भविष्य की क्रांतियों के संदर्भविंदु और प्रेरणा श्रोत प्रदान करती हैं।     डूमा (संसद) की स्थापना 1905 की क्रांति की उल्लेखनीय उपलब्धि थी। इस और अन्य रियायतों के चलते, जैसा कि पिछले लेख में जिक्र है, 1905-07 की क्रांति में भागीदार ज्यादातर दलों के समझौतावाद और डुमाओं (विधायिकाओं) में भागीदारी से ज़ारशाही से सहयोग के संदर्भ में लेनिन ने कहा था कि रूस प्रतिक्रियावाद के ऐसे दौर में पहुंच गया है जो य़दि युद्ध न हुआ तो कम से कम 20 साल चलेगा। लेकिन जार ने देश को साम्राज्यवादी युद्ध (विश्वयुद्ध-1) में झोंक दिया, जिसके उपपरिणामस्वरूप क्रांतिकारी परिस्थितियां पैदा हो गयीं। औद्योगिक रूप से पिछड़े देश में युद्ध ने तबाही पैदा कर दी। 1917 मार्च तक जन-असंतोष का बांध टूट गया और सड़कों पर जनसैलाब उमड़ पड़ा, जो ज़ार निकोलस द्वितीय के सिंहासन को बहा ले गया।
      1905 की ही तरह 1917 की क्रांति भी स्वस्फूर्त थी, लेकिन क्रांतियां एकाएक किसी आसमान से नहीं टपकती, बल्कि क्रांतिकारी परिस्थिथियों और शक्तियों की लंबी ऐतहासिक प्रक्रिया का परिणाम होती हैं। जैसाकि पिछले लेख में दर्शाया गया है कि जारशाही के कुशासन और भ्रष्टाचार तथा आर्थिक तंगी के चलते, जन-असंतोष 1890 के दशक से ही जोर पकड़ रहा था तथा मजदूर, किसान और बुद्धिजीवी अलग अलग संगठनों में लामबंद हो रहे थे, जिसका पहला विस्फोट 1905 में हुआ। 1907 में डूमा की बहाली के बावजूद ज़ार ने सुधार के या आर्थिक विकास का कोई सार्थक काम नहीं किया। अमीरी-गरीबी की खाई गहराती गयी। युद्ध में शिरकत के ज़ार के आत्मघाती कदम ने आग में घी का काम किया। शिकस्त-दर-शिकस्त से जार की शासन क्षमता और पात्रता की विश्वसनीयता हर तपके में घटती गयी। 8 मार्च 1917 को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के दिन लोगों के दुख की दरिया के तटबंध टूट गए पेट्रोग्राड (सेंट पीटर्सबर्ग) की सड़कों पर जनसैलाब उमड़ पड़ा, जिसकी शुरुआत 4 मार्च को ही हो गयी थी। मार्क्स ने इंटरनेसनल के पहले संबोधन में मजदूर अंतर्राष्ट्रीयता की प्रक्रिया में धन-जन की अपूरणीय क्षति की कीमत पर युद्धोंमादी राष्ट्रवाद को प्रमुख रुकावट के रूप में रेखांकित किया था। जैसा कि ऊपर जिक्र है कि युद्धोपरांत क्रांतिकारी परिस्थितियों की संभावना बढ़ जाती है, खासकर पराजित देशों में। युद्ध में लाखों लोग मारे गए। जो मोर्चे पर नहीं थे उनकी हालत बहुत बुरी थी। सैनिकों की पत्नियां 12-13 घंटे काम करके भी परिवार का पेट नहीं पाल पा रहीं थी। मजदूर भी अपनी मजदूरी से भोजन का इंतजाम नहीं कर पा रहे थे। लंबी लड़ाई की थकान, रसद की कमी, मोर्चे की कठिन परस्थियां और कड़ाके की ठंड और ईंधन का अभाव आदि कारणों से सेना में विद्रोह शुरू हो गया था। आंदोलन के विस्तार में जाने की आवश्यकता और गुंजाइश नहीं है, लेकिन प्रमुख घटनाक्रमों का संक्षिप्त विवरण जरूरी है।
4 मार्च को शहर की सबसे बड़ी फैक्ट्री (पुटिलोव इंजीनियरिंग फैक्ट्री) के मजदूरों ने मालिकों से मजदूरी में 50% वृद्धि की मांग की जिससे वे भरपेट भोजन कर सकें। मालिकों ने उनकी मांग खारिज कर दी। मजदूरों ने हड़ताल कर दी।
8 मार्च को तालाबंदी करके 30, 000 मजदूरों की बिना भुगतान के छंटनी कर दी गयी और उनके पास भोजन के पैसे नहीं थे। हड़ताली मजदूरों ने और मजदूरों को भी समझा-बुझाकर हड़ताल में शामिल किया। जार निकोलस-2, उस समय पेट्रोग्राड में ही था लेकिन इसे छोटा-मोटा उपद्रव समझ तवज्जो नहीं दिया और सरहद पर सैन्य टुकड़ियों की निगरानी करने चला गया।
अगले दिन (9 मार्च) हालात बद से बदतर हो गए, पेट्रोग्राड और कई अन्य शहरों में सारा आवाम ही सड़कों पर निकल आया। राशन की दुकानें लूटी जाने लगीं। डूमा ने आपातकालीन खाद्यभंडार वितरण के लिए खोल देने का आग्रह के साथ जार को इस बारे में सूचित किया। जार ने उसका आग्रह ठुकराकर 24 घंटे में विद्रोह को कुलने का हुक्म दिया।
अगले दिन (10 मार्च) पुलिस की गोलीबारी में कई प्रदर्शनकारियों की मौत हो गयी और प्रदर्शन उग्र हो उठा। प्रदर्शनकारियों ने जेल के दरवाजे तोड़कर कैदियों को रिहा कर दिया। डूमा ने निकोलस को धराशाई हो चुकी कानूम व्यवस्था की सूचना दी और जारशाही के अंत की मांगें उठने लगीं। जिन सैनिकों को प्रदर्शन कुचलने के लिए भेजा गया था, वे प्रदर्शनकारियों से जा मिले। इसके जवाब में जार ने एक और मूर्खता की, डूमा की बैठकों पर पाबंदी लगा दी। डूमा के सदस्यों ने निकोलस के आदेश की अवहेलना करते हुए, अगले दिन (11 मार्च) डूमा की बैठक कर क्रांति की उद्घोषणा कर दी। डूमा के सदस्य केरेंस्की ने कार्यवाही की सुरक्षा के लिए 25000 विद्रोही सैनिक बैठकस्थल की तरफ कूच कर चुके हैं। डूमा ने एक अंतरिम सरकार के गठन का प्रस्ताव पारित किया।
अगले दिन (12 मार्च) को कानून व्यवस्था की बागडोर संभालने निकोलस पेट्रोगार्ड पहुंचा लेकिन उसकी गाड़ी को राजधानी के बाहर ही रोक दिया गया। डूमा उनकी सशर्त वापसी की वार्ता करना चाहती थी। उसने उसके बेटे की ताजपोशी का प्रस्ताव दिया जिसे निकोलस ने यह कहकर ठुकरा दिया कि वह अभी बहुत बच्चा था और उसके भाई ने भी क्रांति के हालात देखते हुए जारशाही का ताज पहनने से इंकार कर दिया। इस तरह रूस में सदियों पुरानी जारशाही के अंत की घोषणा हुई। शाही परिवार को नज़रबंद कर दिया गया। लेनिन 1907 से ही रूस में नहीं थे लेकिन बोलसेविक पार्टी का मजदूरों में बड़ा जनाधार था तथा इसने 1912 से 1917 के बीच कई बड़ी हड़तालों का नेतृत्व किया और मजदूरों के पेट्रोग्राड सोवियत में बोलसेविकों का वर्चस्व था तो किसानों के सोवियतों पर समाजवादी क्रांतिकारियों का प्रभाव था जो जमीन के सामूहिकीकरण की बजाय किसानों में उसके पुनर्वितरण के पक्षधर थे। बोसलेविकों की धर-पकड़ और उत्पीड़न लगातार चलता रहा जो अंतरिम सरकार के बनने के बाद थोड़ा थमकर फिर जारी रहा। लेनिन इस क्रांति के दौरान देश में नहीं थे और इतनी जल्दी क्रांतिकारी परिस्थिति बनने की उन्हें अपेक्षा नहीं थी। लेकिन इतिहास लीक पर नहीं चलता, अपने गतिविज्ञान के नियम गढ़ते हुए आगे बढ़ता है। अप्रैल में लेनिन पेट्रोग्राड वापस आकर बोलसेविक दल की कमान संभाला।  
जारशाही खेमें भी पराजयों और आर्थिक दुर्गति के कारण जार से मोहभंग हो रहा था। युद्ध से पहले हड़तालों और प्रदर्शनों का सिलसिला 1905 की क्रांति की याद दिलाने वाला था। युद्ध से जारशाही को थोड़ी राहत मिली, लेकिन बकरे की मां कब तक खैर मनाती? बोल्सेविक कार्यकर्त्ता युद्धविरोधी अभियान के तहत कहीं खुलकर कहीं छिपकर क्रांतिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार जन-असंतोष को विप्लवी दिशा देने में लगे रहे। वामपंथी खेमे में बोल्सेविक सबसे सशक्त थे। क्रांतिकारी नेतृत्व में हड़तालों की अभूतपूर्व लहर चल पड़ी थी। 1912 में लेना गोल्डफील्ड नरसंहार में 276 मजदूर शहीद हो गए थे। इसनरसंहार के बाद हड़तालों का सिलसिला तेज और सघन होता गया और पांच सालों में 30 बड़ी-बड़ी हड़तालें हुईं। जार के पुलिसतंत्र के कहर और गुप्तचरों के सर्वव्यापी खौफ क्रांतिकारियों के हौसले पस्त करने में नाकाम रहे। 1915-16 में पेट्रोगार्ड में गिरफ्तार वामपंथियों में सबसे अधिक  बोलसेविक थे। कमोबेश लगभग सभी क्षेत्र के उद्योगों में पार्टी का जनाधार था। 1905 की क्रांति में बने फैक्ट्री गार्डों के दस्ते पार्टी के सशस्त्र दस्ते से थे। 22 जनवरी (तब रूस में प्रचलित जूलियन कैलेंडर के अनुसाल 9 जनवरी), 1917 को खूनी इतवार की 12वीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजिक हड़ताल में 142, 000 मजदूरों नें शिरकत की। शक्ति प्रदर्शन में 27 फरवरी को डूमा के सत्र की शुआत पर युद्ध समर्थक मेनसेविकों के आह्वान पर 84000 मजदूरों ने हड़ताल की। मार्च क्रांति की खास बात थी महिलाओं की अभूतपूर्व भागीदारी। खुफिया तंत्र रोटी की कतारों में लगी महिलाओं और पुलिस के बीच झड़प की खबरें दे रहे थे। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, क्रांति के उद्घाटन से एक दिन पहले,  बोल्सेविक 7 मार्च 1917 को हड़ताल न करने के पार्टी निर्देश को नजरअंदाज कर दिया। और अगले ददिन 5 टेक्सटाइल मिलों के मजदूर हड़ताल पर गए। युवा मजदूर और महिलाएं क्रांतिकारी गाने गाते हुए रोटी की मांग कर रहे थे। 78000 प्रदर्शनकारियों में से लगभग 60,000, बोल्सेविक गढ़ समझे जाने वाले वीबोर्ग जिले के थे। जाशाही के अधिकारी इसे रोटी के लिए एक साधारण उपद्रव समझ रहे थे लेकिन जब पुलिस और फौज की टुकड़ियों ने प्रदर्शनकारियों पर हमले के हुक्म को नजरअंदाज करते नजर आए तो उनके कान खड़े हो गए। उसी रात वीबोर्ग के बोल्सेविकों बैटक कर 3 दिन की आम हड़ताल और सरकार के मुख्यालय तक मार्च का फैसला किया। अगले दिन का हड़ताल आंदोलन दोगुना था, 158000 हजार लोगों ने शिरकत की। इन घटनाक्रमों की चर्चा का मकसद यह बताना है कि नवंबर की सशस्त्र क्रांति के पहले क्रांतिकारी ताकतें जन आंदोलनों के जरिए जनाधार बनाकर क्रांतिकारी जनमत तैयार कररही थीं क्योंकि कोई सशस्त्र क्रांति तभी सफल और दीर्घजीवी हो सकती है जब वैचारिक निष्ठा और स्पष्टता के साथ उसका व्यापक जनसमर्थन और जनाधार हो।
अंतरिम सरकार के पहले मुखिया एक उदारवादी, कुलीन येवगेनीविच ल्वोव थे जिनकी असफलता के बाद समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी के अलेक्जेंडर केरेंस्की ने सत्ता की बागडोर संभाली। उस वक्त पेट्रोगार्ड में सत्ता के दो समानांतर केंद्र थे अंतरिम सरकार और मजदूरों और सैनिकों की सोवियत (सोवियत ऑफ वर्कर्स एंड सोल्जरर्स), के प्रतिनिधियों ने 14 मार्च को अंतरिम सरकार के गठन के दिन अपने आदेश संख्या–1 में सैनिको को सोवियत की आज्ञा माने, अंतरिम सरकार के वही आदेश माने जो सोवियत के आदेश से बेमेल न हो। सरकार निर्वाचित नहीं थी इसलिए इसकी प्राथमिकता संविधान सभा का चुनाव था। और एक तरफ दक्षिणपंथियों और युद्ध के सहयोगी राष्टों का दबाव जर्मनी के साथ युद्ध जारी रखने का था, दूसरी तरफ वामपंथियों, खासकर बोल्सेविकों का दबाव युद्ध समाप्ति का था। मार्च और नवंबर के बीच अंतरिम सरकार का 4 बार पुनर्गठन हुआ। पहली सरकार में केरेंस्की को छोड़कर ज्यादातर, धनिकों के हितों के पक्षधर, उदारवादी थे। बाद की सरकारें गठबंधन सरकारें थीं। कोई भी सरकार प्रमुख समस्याओं – भूख, किसानों में जमीन वितरण, गैर रूसी इलाकों में राष्ट्रीयता के सवाल आदि – के समुचित समाधान में कामयाब नहीं रही।

सरकारी नीतियों और कार्रवाइयों की तुलना में पेट्रोग्राड सोवियत की गतिविधियां और प्रस्ताव लोगों की भावनाओं के ज्यादा करीब थे। जुलाई में केरेंस्की फिर से सरकार के मुखिया बने लेकिन राजनैतिक उथल-पुथल; आर्थिक समस्या; सेना में अफरातफरी आदि समस्याएं घटने की बजाय बढ़ती गईं। केरेंस्की सरकार की विश्वसनीयता घटती गयी  तथा सोवियत की लोकप्रियता बढ़ती गयी। इसी बीच करेंस्की की सोसलिसेट रिवल्यूसनरी पार्टी से वामपंथी धड़ा अलग होकर सोवियत में शामिल हो गया। पेट्रोग्राड सोवियत के नक्शेकदम पर सभी बड़े-छोटे शहरों में सोवियतों का गठन हो रहा था। मॉस्को सोवियत काफी सशक्त था। फैक्ट्री गार्ड्स रेड गार्ड बन गए जिसकी बुनियाद पर रेड आर्मी का गठन हुआ। किसान अपने परंपरागत सामूहिकता वाले सोवियत की बुनियाद पर ग्रामीण सोवियत को क्रांतिकारी इकाई में तब्दील कर रहे थे। मजदूरों और सैनिकों के ज्यादातर सोवियतों पर बोलसेविकों का वर्चस्व था और ग्रामीण सोवियतों में सोसलिस्ट रिवल्यसनरी दल का भी पर्याप्त प्रभाव था। नवंबर क्रांति के पहले की सबसे प्रमुख घटना है जुलाई के जुझारू प्रदर्शन। सर्व्यापी जन-असंतोष ने अंतरिम सरकार को अपदस्थ करने की मांग के साथ एक जुझारू विरोध प्रदर्शन ने ले लिया। बोल्सेविक नेतृत्व को लगता था कि अभी सरकार से सीधे टकराव का वक्त नहीं था लेकिन मजदूरों की भावनाओं को देखते हुए इसका नेतृत्व किया, वैसे भी बोलसेविक कार्यकर्ता पहले से ही तैयारी में लगे थे। प्रदर्शन को हिंसक होने से भी बचाना था। केरेंस्की सरकार ने दमन में जारशाही को भी पीछे छोड़ दिया। बोलसेविक नेताओं की धरपकड़ शुरू हो गय़ी। लेनिन और कई अन्य नेता देश से बाहर निकलने में कामयाब रहे। लेनिन ने समाजवादी सरकार की रूपरेखा के तौर पर प्रवास में ही राज्य और क्रांति का कालजयी रचना की। शांति, जमीन और रोटी – आवाम को शांति; किसान को जमीन और मजदूर को रोटी—तथा सोवियत को सारी सत्ता; जमीनें किसानों की; कारखाने मजदूरों के बोलसेविकों के ये प्रुख नारे, बच्चे बच्चे की जबान पर थे।
सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी के बोल्सेविक धड़े के नेतृत्व में जुलाई आंदोलन तो बिना अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचे समाप्त हो गया लेकिन बोल्सेविकों की लोकप्रियता और सदस्यता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। लेनिन फिनलैंड में रहते हुए पार्टी के अखबारों में लेखों और पर्चों से बोलसेविक धड़े को नेतृत्व प्रदान करते रहे। पहले पेट्रोग्राड और मॉस्को दोनों प्रमुख शहरों की सोवियतों में बोल्सेविक अल्पमत में थे, मेनसेविक और सेसलिस्ट रिवल्यूसनरी उनसे आगे थे। सितंबर तक दोनों ही जगह बोल्सेविकों का बहुमत हो गया। बोल्सेविक नियंत्रित पार्टी के मॉस्को क्षेत्रीय ब्यूरो का मॉस्को के इर्द-गिर्द के 13 प्रांतों की पार्टियों पर भी नियंत्रण था। जनरल कोर्लिनोव द्वारा सैनिक तख्ता पलट के प्रयास को विफल करने में बोल्सेविकों की भूमिका से भी उनका समर्थन आधार बढ़ रहा था। सितंबर में पेट्रोग्राड सोवियत ने ट्रोट्स्की समेत सभी बोल्सेविक कैदियों को रिहा कर दिया। ट्रोट्स्की पेट्रोग्राड सेवियत के अध्यक्ष बन गए। किसानों, मजदूरों और निम्न मध्यवर्ग ने अंतरिम सरकार से किसी सहायता की उम्मीद छोड़ दी। बोलसेविक एकमात्र सुगठित विपक्ष थे जिन्हें लोगों की मेनसेविकों और सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी पार्टी से निराशा का लाभ भी मिला जो कि राष्ट्रीय एकता के नाम पर वर्ग-शत्रुता के बदले वर्ग-मित्रता के पक्षधर थे। अजीबो-गरीब हालात थे, विधायिका और अंतरिम सरकार में क्रेंस्की के नेतृत्व में मेनसेविकों और सोसलुस्ट रिवल्यूसलरी पार्टी के गठजोड़ का वर्चस्व था और मजदूरों तथा सैनिकों के सोवियतों में बोल्सेविकों का। जून में सोवियतों का पहला अखिल रूसी सम्मेलन पेट्रोग्राड में हुआ। पूर्ण मताधिकार के 784 प्रतिनिधियों में बोल्सेविकों की संख्या 105 थी। अल्पमत के बावजूद उनके विचार स्पष्ट और आवाज बुलंद थी। क्रांतिकारी परिस्थितियां और बोलसेविकों की बढ़ती शक्ति देख लेनिन कानूनी खतरों से निश्चिंत अक्टूबर में पेट्रोगार्ड वापस आ गए। लेनिन के आकलन में दूसरी क्रांति का समय परिपक्व था, उन्हें शीघ्र-से-शीघ्र सशस्त्र विद्रोह से राज्य प्रतिष्ठानों पर अधिकार कर लेना चाहिए।
नवंबर (अक्टूबर) क्रांति
अंतरिम सरकार लोगों की हर समस्या के जवाब में दिसंबर में संविधान सभा तक इंतजार करने की सलाह देती। लेकिन जैसा कि जॉन रीड ने उपरोक्त पुस्तक की भूमिका मे लिखा है, “मजदूरों, सैनिकों और किसानों में प्रबल भावना व्याप्त थी क्रांति अभी अधूरी थी। सरहदपर सैनिक कमेटियों में अपने अधिकारियों के विरुद्ध रोष बढ़ रहा था क्योंकि उन्हें उनको इंसान मानने की आदत नहीं थी। जमीन से जुड़े सरकार के अध्यादेश लागू करने वाले गांवों में निर्वाचित भूमि कमेटियों के सदस्यों की गिफ्तारा हो रही थी; कारखानों में मजदूर काली सूची और लॉकऑउट से जूझ रहे थे। इतना ही नहीं वापस लौटे राजनैतिक प्रवासियों पर 1905 की क्रांति में भागीदारी के आरोपों में मुदमे चलाए जा रहे थे”। लोग शांति, जमीन और कारखानों पर मजदूरों के अधिकार की मांग पर अड़े रहे। जॉन रीड लिखते हैं कि शांति का मुद्दा सैनिकों ने सेना छोड़कर हल करना शुरू कर दिया था और किसानों ने कुलकों की हवेलिया जलाकर जमीन पर कब्जा करना। मजदूरों ने हड़ताल शुरू कर दिया। जमींदार और सेना के अधिकारी इस नई बयार को रोकने के लिए जी-जान सो कोशिस कर रहे थे। लेकिन इंकलाब के जो दरिया झूम के उट्ठा था इन तिनकों से रुकने वाला नहीं था।    बढ़ती राजनैतिक कार्वायियों के मद्देनजर, 23 अक्टूबर को बोलसेविक पार्टी की केंद्रीय कमेटी ने फौरी दिशा-निर्देश के लिए लेनिन, स्टालिन और ट्रॉट्स्की समेत 7 सदस्यों की एक छोटी कमेटी, पोलिटिकल ब्यूरो (पॉलिटब्यूरो) का गठन किया जिसे क्रांति के बाद विघटित कर दिया। बोलसेविक पार्टी ने जब सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीयसयू) नाम से अपना पुनर्गठन किया तो सांगठनिक संरचना में पोलिटब्यूरो शीर्ष निर्णय़कारी कमेटी बन गया और जैसा हम आगे देखेंगे, तीसरे इंटरनेसनल, कम्युनस्ट इंटरनेसनल (कॉमिंटर्न) के गठन के बाद, उसके तत्वाधान में बनी सभी देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की शीर्ष कमेटी का नाम पॉलिटब्यूरो ही है। ज़िनोवीव और कमेनेव नामक दो सदस्यों को छोड़कर सारी केंद्रीय कमेटी ने सशस्त्र विद्रोह के लेनिन के प्रस्ताव का अनुमोदन किया। पेरिस कम्यून के अनुभव के आधार पर लेनिन ने राज्य और क्रांति में राज्य मशीनरी को नष्ट करने की हिमायत की है।
2 नवंबर (जूलियन कैलेंडर से 20 अक्टूबर) को मिलिटरी रिवल्यूसनरी कमेटी की पहली बैठक हुई। सर्वहारा क्रांति की परिस्थितियां और बोलसेविक दल के रूप में क्रांतिकारी शक्तियां मार्च क्रांति के बाद से शक्ति अर्जित कर रही थीं। सर्वहारा की तानाशाही की स्थापना के घोषित लक्ष्य के साथ 2 नवंबर को बोलसेविक दल ने सर्वहारा की जंग-ए-आजादी का ऐलान कर दिया। क्रांति के 10 दिनों के घटनाक्रम के विस्तार में जाने की जरूरत और गुंजाइश नहीं है, जॉन रीड की उपरोक्त पुस्तक इसका सजीव चित्रण करती है। लेनिन के आदेश से रेड गार्ड्स, (रेड आर्मी) ने सारे सरकारी संस्थानों और केंद्रीय बैंक पर घेरा डाल दिया। केरेंस्की चुपके से पेत्रोग्राद से भाग गये। बोल्सेविक पार्टी और वामपंथी रिवल्यूसलरी पार्टी ने  6-7 नवंबर के दौरान विंटर पैलेस समेत सारी सरकारी इमारतों, बैंक और टेलीग्राफ ऑफिस पर आसानी से कब्जा कर लिया। 6 नवंबर की शाम तक विंटर पैलेस पर कब्जा चल ही रहा था कि को सोवियतों का दूसरा सम्मेलन हुआ। समाजवाद की स्थापना के लिए समय की उपयुक्तता और भविष्य के शासन की संरचना को लेकर सहमति-असहमतियों के साथ वाद-विवाद रात भर चला। 7 नवंबर को केरेंस्की की अपदस्थ अंतरिम सरकार की जगह सब सत्ता सोवियतों के नारे को चरितार्थ करते हुए, दूसरे नारे, शांति, जमीन और रोटी को चरितार्थ करने के मकसद से सोवियत ऑफ पीपुल्स कॉमीसार्स की अंतरिम सरकार गठन हुआ, जिसके मुखिया लेनिन थे। सोवियत ऑफ पीपुल्स कॉमीसार्स सभी सदस्य बोल्सेविक थे। यह मार्क्सवादी सिद्धांतों की पहली सर्वहारा क्रांति थी और सर्वहारा की तानाशाही के मार्क्सवादी सिद्धांत को चरितार्थ करने के पहले प्रयोग की शुरुआत। मार्क्स ने लगातार रेखांकित किया है कि वर्गविहीन साम्यवाद का रास्ता सर्वहारा के वर्गशासन से होकर गुजरता है। लेनिन ने कहा, पार्टी सर्वहारा की तानाशाही की हरावल दस्ता (वेगॉर्ड) है।
क्रांति के बाद की अव्यवस्था और उहापोह के बीच विशाल रूसी साम्राज्य को व्यवस्थित करना लेनिन के नेतृत्व में सोवियतों के दूसरे सम्मेलन (यसपीसी) के लिए एक जटिल काम था पूर्वी यूरोप के कई देशों ने साम्राज्य से स्वतंत्रता घोषित कर दी। लेनिन ने संविधान सभा का चुनाव कराया, जिसमें बोल्सेवित अल्पमत में थे। सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी और मेनसेविक बहुमत में थे और सोवियत के अंदर से ही नई सरकार के लिए बेहद मुश्किल काम था। मेनसेविक और सेसलिस्ट रिवल्यूसनरी सरकार के लिए सोवियत के अंदर बोलसेविक किस्म की सरकार पर सवाल खड़े कर रहे थे। संविधान सभा की पहली और आखिरी बैठक 5 जनवरी 1918 को हुई जिसके अगले दिन इसे भंग कर दिया गया। सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी और मेनसेविक मौखिक विरोध के अलावा कोई हंगामा नहीं खड़ी कर सके क्योंकि जनता शांति, जमीन, रोटी के नारे को सच होते देखने को लालायित थी। 1918 में बोल्सेविक पार्टी का नया नामकरण हुआ, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ सोवियत यूनियन (सीपीयसयू)। इस नए किस्म के शासन के स्वरूप, जटिलताओं और अंतर्विरोधों की संक्षिप्त चर्चा आगे की जाएगी, क्रांति के बाद ही प्रतिक्रांति शुरू हो गयी और नव गठित सोवियत संघ लंबे गृहयुद्ध में फंस गया, जिसमें जान-माल की विशाल क्षति हुई। इस बारे में दो शब्द अप्रासंगिक नहीं होंगे।

गृहयुद्ध
मैक्यावली ने नवजागरण कालीन संदर्भ में लिखा है कि विजय, राजनैतिक अभियान का अंत नहीं, बल्कि शुरुआत है। सबसे पहला काम होता है विजय की उपलब्धियों को सुरक्षित और समेकित करना, जिसपर लिए सबसे बड़ा खतरा प्रतिक्रांति का होता है। 1789; 1848 और 1871 की क्रांतियां प्रतिक्रांतियों की बलि चढ़ गयीं थी। लेनिन तथा अन्य बोलसेविक नेता इस इतिहास से परिचित और सजग थे, जिसका जिक्र लेनिन ने राज्य और क्रांति में की है। अपदस्थ और वंचित शक्तियां चुप नहीं बैठतीं। वे विशेषाधिकारों को अधिकार समझने लगते हैं और वापस पाने के सारे प्रयास करते हैं। इस युद्ध में एक तरफ बोलसेविक थे दूसरी तरफ सारी प्रतिक्रियावादी और अतिक्रांतिकारी ताकतें। बोलसेविक ‘खतरे’ से दोनों अलग अलग लड़ रहे थे। प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पक्ष थे, रेड आर्मी (लाल सेना) और ह्वाइट आर्मी (सफेद सेना)। 1917 के मध्य तक रूसी सेना बिखरना शुरू हो गई। सेना छोड़कर आए कई लोग बोल्सेविकों से मिल गए। स्वैच्छिक रेड गार्ड तथा बोल्सेविक राज्य सुरक्षा बल मिलकर बोलसेविक सशस्त्र बल थे। ट्रॉट्सी के नेतृत्व में ग्रामीण क्षेत्रों से भरती कर मजदूरों और किसानों की लाल सेना का गठन किया। सफेद सेना में राजशाही के समर्थक, धनिक और जमींदार वर्ग थे तथा सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी एवं संवैधानिक जनतंत्रवादी थे। सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी बोल्सेविकों द्वारा की जा रही व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के विरुद्ध थे। बोल्सेविक खतरे से आतंकित पश्चिमी देश, अमेरिका और जापान सफेद सेना के समर्थन में थे लेकिन लाल सेना के साथ किसान-मजदूरों का आवाम था, इसी लिए वह ज्यादा कारगर हो रही थी। यह गृहयुद्ध 1920 तक चला वैसे तो सदूर पूर्व में सफेद सेना के प्रतिक्रांतिकारी अवशेषों को 1923 में समाप्त किया जा सका। सोवियत संघ में सीपीयसयू के नेतृत्व में एक अनजाने नए निजाम का आगाज हुआ और पूंजीवादी विकास और पूंजीवादी (संसदीय) जनतंत्र के वैकल्पिक ढांचे का ईज़ाद। यही साम्रज्यवादी पूंजीवाद की आंख की किरकिरी बन गया और 1991 में विघटन के पहले तक बना रहा। गृहयुद्ध की विभिन्न परिघटनाओं के विस्तार में न जाकर इतना कहना काफी है कि पिछली क्रांतियों में अंततः प्रतिक्रांतिकारी ताकतें विजयी रही थीं, इस बार वे पराजित हुईं तथा लेनिन और उनके साथियों के सर्वहारा की तानाशाही के प्रयोग का निर्विरोध और निर्बाध अवसर प्राप्त हुआ। समाजवाद के प्रयोगों के बीच 1924 में लेनिन का निधन हो गया और स्टालिन सीपीयसयू और सोवियत संघ के मुखिया बने। वर्ग और पार्टी पर इस लेखमाला के भाग 7 में संक्षिप्त चर्चा की गयी है। कालांतर में, आंतरिक और वाह्य कारणों के दबाव में सर्वहारा की तानाशाही वस्तुतः पार्टी की तानाशाही में तब्दील हो गयी, जो एक अलग विमर्श का मुद्दा है।
नवनिर्माण
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के संस्थापक, शहीद शंकर गुहा नियोगी का एक नारा और सिद्धांत है, संघर्ष और निर्माण । संघर्ष से सत्ता हासिल करने के बाद अब निर्माण की बारी थी। सत्ता पर कब्जा करने के बाद, नवनिर्मित सोवियत संघ 3 साल भीषण और अगले 3 साल छिट-पुट गृहयुद्ध में फंसा रहा। पुरानी राज्य प्रशासन मशीनरी ध्वस्त की जा चुकी थी, नई के निर्माण की कोई नई मिशाल नहीं थी। मार्क्स और एंगेल्स पेरिस कम्यून को सर्वहारा की तानाशाही बताया था। लेकिन अल्पजीवी कम्यून अपेक्षाकृत उच्चतर सामाजिक चेतना के एक शहर के मजदूरों या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधियों के स्वशासन का प्रयोग प्रयोग था। यहां मामला केंद्रीय नियंत्रण में विशाल भूखंड में फैले, कृषिप्रधानता के ग्रामीण, पिछड़ी पारंपरिक सामाजिक चेतना वाले 15 गणराज्यों में सर्वहारा की तानाशाही की स्थापना का मामला था। क्रांति की उस लहर और धुन में ज्यादातर बोल्सेविक आश्वस्त थे की पेट्रोग्राड से निकली विप्लवी धारा जल्द ही जर्मनी, इंगलैंड और अंततः अमेरिका तक पहुंच जाएगी, इसलिए उन्हें समाजवादी ढ़ाचा के निर्माण की जल्दी थी। उन्होंने, लगता है, इसीलिए अंर्राष्ट्रीय मामलों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया क्योंकि उन्हें लगा कि पूंजीवाद तो अब चंद दिनों का मेहमान है। 1920 तक सभी ऐसे उद्यमों और उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर लिया गया जिसमें 20 या अधिक कर्मचारी काम करते हों। 1921 में नई आर्थिक नीति (यनईपी) लागू की गयी जिसके तहत राज्य नियंत्रित औद्योगीकरण को त्वरित हुआ और जमीन पर सामंती उत्पादन संबंधों के खातमें से कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। राज्य नियंत्रित औद्योगीकरण का नतीजा यह हुआ कि 10 सालों में सोवियत संघ एक पिछड़े अर्ध सामंती पूंजीवादी स्थिति से एक आर्थिक शक्ति बन गया। 1924 से पश्चिमी देशों के हमले के संकेत मिलने लगे और काफी ऊर्जा औक संसाधन सैन्य सशक्तीकरण में लग गया, नतीजतन दूसरे विश्वयुद्ध तक सोवियत संघ एक आर्थिक शक्ति बन गया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में भूमिका, शीतयुद्ध और सेवियत संघ का विघटन इतिहास बन चुका तथा अलग लेखन का विषय है। यहां मकसद यह रेखांकित करना है कि लाभोंमुख निजी स्वामित्व की उद्पादन प्रणली की तुलना में राज्य नियोजित जनोन्मुख उत्पादन और वितरण प्रणाली में उत्पादकता काफी बढ़ जाती है। इस आर्थिक नीति के तहत काम का अधिकार मौलिक अधिकार था यानि मार्क्स के शब्दों में मजदूरों की आरक्षित बल (बेरोजगारी) का विलाप हो गया जो कि पूंजीवाद में असंभव है। सर्हारा की तानाशाही और इसके उपकरणों, जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद तथा पार्टी लाइन पर चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, इस लेख का समापन तीसरे इंटरनेसनल की स्थापना और अंतर राष्ट्रीय समाजवादी तथा राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलनों पर प्रभाव से करना अप्रासंगिक नहीं होगा।

तीसरा इंटरनेसनल – कम्युनिस्ट इंटरनेसनल (कॉमिंटर्न)
दूसरा (सोसलिस्ट) इंटरनेसनल युद्ध की शुरुआत के साथ 1914 में बिखर गया था। मार्क्स का मानना था कि पूंजीवाद चूंति अंतरराष्ट्रीय है इसलिए उसका विकल्प भी अंतर्राष्टीय होगा। पश्चिमी पूंजीवादी देशों तथा अमेरिका की सैन्य सहायता से प्रतिक्रांतिकारी सफेद सेना के सेथ गृहयुद्ध के मध्य लेनिन ने इंटरनेसनल के पुनर्गठन की योजना बनाई और मार्च 2019 में कम्युनिस्ट इंटरनेसनल उद्घाटन सम्मेलन आयोजित किया गया। लेनिन का मानना था की समाजवाद को तभी सफल और दूरगामी बनाया जा सकता है यदि दुनिया में हर जगह समाजवादी क्रांतियां हों; समाजवादी प्रणाली की आर्थिक मागों और विकास को विश्व स्तर ही संरक्षित और प्रसारित किया जा सकता है। लेनिन मानते थे कि पूंजीवादी उत्पीड़न से दुनिया भर के सर्वहारा की मुक्ति अत्यंत आवश्यक है जिससे भविष्य को युद्धों के रक्तपात से बचाया जा सके; विकराल पूंजीवादी तंत्र से उनकी मानवता और आजादी बचाई जा सके। उद्घाटन सम्मेलन में रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा कई अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका के कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट पार्टियों के प्रनिधियों ने सिरकत की। सम्मेलन में संगठन का संविधान और लक्ष्य और कार्यप्रणाली की आचार संहिता तथा घोषणा पत्र जारी किया। मौजूदा हालात और संभावनाओं पर लेनिन की रिपोर्ट सम्मेलन की केंद्रीय विषयवस्तु थी। ग्रेगरी ज़िनोवीव कॉमिंटर्न के पहले सचिव थे लेकिन इसके मुख्य सिद्धांतकार लेनिन ही रहे। कॉमिंटर्न का केंद्रीय सरोकार अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति के लिए दुनिया भर के देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन। सम्मेलन में भागीदार पार्टियों ने लेनिन के जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद , “मुक्त विमर्श और एकीकृत कार्रवाई” के सिद्धांत का अनुमोदन किया। कॉमिंटर्न को विश्वक्रांति की कार्यकारिणी के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। कॉमिंटर्न के प्रयासों से 1920 में दूसरे सम्मेलन तक यूरोप, अमेरिका, लैटिन अमेरिका तथा एशिया के कई देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन हो चुका था। भारत के मानवेंद्रनाथ रॉय दूसरे सम्मेलन में मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में दूसरे सम्मेलन में शिरकत की थी और 1921 में ताशकंद में प्रवासी भारतीयों को लेकर 1921 में ताशकंद में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की जिसका पहला सम्मेलन 1925 में कानपुर में हुआ।
दुनिया में समाजवादी आंदोलनों का संदर्भविंदु पेरिस कम्यून से हटकर रूसी क्रांति बन गयी। इसने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों और समाजवादी आंदोलनों में एक नई ऊर्जा और आत्मविश्वास का संचार कर दिया। लेनिन ने दूसरे सम्मेलन के निमंत्रण के साथ पार्टियों को एक 21 सूत्री दस्तावेज भेजा था, जिनसे सहमति कॉमिंटर्न की सदस्यता की अनिवार्य शर्त थी। 21 सूत्रों में पार्टी की अन्य समाजवादी समूहों से अलग पहचान तथा पूंजीवादी राज्य की वैधानिकता पर अविश्वास। पार्टी संगठन का कार्य प्रणाली जनतांत्रित केंद्रीयता के ढर्रे पर होगी। दूसरे सम्मेलन में औपनिवेशिक सवाल भी एक प्रमुख मुद्दा था
भारत के संदर्भ में औपनिवेशिक सवाल
बंगाल की भूमिगत क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन के युवा सदस्य मानवेंद्रनाथ रॉय जर्मनी से  आने वाले जहाज से हथियार प्राप्त करने के लिए निकले थे लेकिन हथियार तो उन्हें मिले नहीं और वे जावा, सुमात्रा, जापान होते हुए अमेरिका के सैनफ्रांसिस्को पहुंच गये। वहां उनकी मुलाकात एवलिन से हुई जिनके जरिए वे मार्क्सवाद से परिचित हुए और बाद में उनके साथ बैवाहिक संबंध बने। एवलिन रॉय के साथ रॉय मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कॉंग्रेस में भाग लेने गए और जैसा उपर कहा गया है, मेक्सिकन कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में कॉमिंटर्न की दूसरी कांग्रेस में शिरकत की। लेनिन के नेतृत्व में गठित औपनिवेशिक मुद्दों की समिति में, उन्हे भारतीय प्रतिनिधि कें रूप में शामिल किया गया।
औपनिवेशिक देशों में मुख्य अंतर्विरोध उपनिवेशवाद का था और कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन के के बारे  में रॉय ने लेनिन की थेसिस की वैकल्पिक थेसिस पेश की जिसे अनुपूरक थेसिस के रूप में स्वीकृत किया गया। यहां लेनिन-रॉय बहस पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। लेनिन की औपनिवेशिक समस्या की समझ ज्यादा तथ्य परक थी। उनका मानना था कि उपनिवेशों के राष्ट्रीय आंदोलन प्रगतिशील हैं और कम्युनिस्टों को अपनी अलग अस्मिता के बनाए रखते हुए उनमें शिरकत करके उसके जनवादीकरण की कोशिस करनी चाहिए। रॉय का मानना था कि जिस तरह यूरोप के जिन देशों में पूंजीवादी विकास देर से हुआ वहां के पूंजीपति वर्ग ने सामंतवाद को खत्म करने के बजाय उससे समझौता कर लिया था उसी तरह राष्ट्रीय आंदोलन के नेता भी अंततः साम्राज्यवाद से समझौता कर लेंगे। और यह कि भारत का सर्वहारा अपने दम पर उपनिवेशवाद और सामंतवाद से लड़ने में सक्षम है। गौरतलब है कि सर्वहारा की राजनैतिक और आर्थिक मौजूदगी नगण्य थी। 1928 में कॉमिंटर्न की छठी कांग्रेस में राष्ट्रीय आंदोलन से दूरी बनाने की रॉय की थेसिस को अपनाया लेकिन रॉय को कॉमिंटर्न से निकाल दिया गया। लेनिन की थेसिस के अनुरूप भारत में कम्युनिस्ट पार्टी ने वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी (डब्लूपीपी) बनाकर राष्ट्रीय आंदोलन में जी-जान से शिरकत की। साइमन कमीसन के विरुद्ध प्रदर्शन में पार्टी ने प्रशंसनीय भूमिका निभाई और औद्योगिक शहरों में ट्रेड यूनियनों और गांवों में किसान संगठनों का गठन शुरू किया। रॉय के कॉमिंटर्न से निष्कासन के साथ ही ट्रेड यूनियन आंदोलन भी दो फाड़ हो गया। 1921 में रॉय ने प्रवासी भारतीयों के साथ ताशकंद में भारत की कम्युनस्ट पार्टी का गठन किया था जिसका पहला अधिवेशन कानपुर में  1925 में हुआ जिससे औपनिवेशिक सरकार के कान खड़े हो गए और देश भर में कम्युनिस्टों की धर-पकड़ शुरू हो गयी। इस मुकदमें को कानपुर षड्यंत्र मामले के नाम से जाना जाता है। 1928 में कॉमिंटर्न का फैसला मानकर कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय आंदोलन से अलग-थलग हो गई और डब्लूपीपी भंग। कांग्रेस के वामपंथी सदस्यों को सामाजिक फासीवादी करार दिया। 1929  में औपनिवेशिक सरकार को लगा कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी(सीपीआई) कॉमिंटर्न के विचारों का प्रसार करके हड़ताल और सशस्त्र विद्रोह के जरिए सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिस कर रही है। सरकार ने सीपीआई को अवैध घोशित करके ट्रेडयूनियन नेताओं की धरपकड़ शुरू कर दिया। 1929 से 1933 तक चले मुकदमें को मेरठ षड्यंत्र केस के नाम से जाता था। गिरफ्तार लोगों में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन(सीपीजीबी) के तीन अंग्रेज सदस्य भी थे। इन केसों की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है लेकिन मार्क्स की इस बात को दरकिनार कर कि हर देश के मजदूर अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार संगठन बनाएंगे, कॉमिंटर्न के निर्देश में राष्ट्रीय आंदोलन से अलग होकर लोगों में विश्वनीयता खोया और सरकार ने इसे अवैध घोषित कर दिया।
     कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में मार्क्स ने लिखा कि पूंजीवाद ने समाज को दो विरोधी खेमों—पूंजीपति और सर्वहारा खेमों में बांट दिया क्यों कि यूरोप में नवजागरण और प्रबोधन काल(एज ऑफ एन्लाइटेनमेंट) ने जन्मजात योग्यता को खत्म कर दिया था लेकिन भारत में जाति आधारित सामाजिक विभाजन आज भी नहीं खत्म हुआ है। सीपीआई ने मार्क्सवाद को समाज को समझने और बलदने के उपादान के रूप में न अपनाकर मॉडल के रूपमें अपनाया। भारत के कम्युनिस्टों ने जातिवाद को एजेंडे पर नहीं रखा जो अंबेडकर ने किया। इस मुद्दे पर बहस की गुंजाइश यहां नहीं है वह एक अलग चर्चा का विषय है। 1934 में “मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित आचार्य नरेंद्रदेव और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी की स्थापना की जिसमें अवैध कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी शामिल थे। ईयमयस नंबूदरीपाद इसके सह सचिव थे। किसान-मजदूरों की दृष्टिकोण से 1934-42 का दौर एक तरह से स्वर्णिम दौर था जिसमें सीयसपी के नेतृत्व में अखिल भारतीय किसान सभा और ट्रेड यूनियन एक सशक्त ताकत बन गए। सीयसपी के युद्धविरोधी प्लेटफॉर्म को झटका देते हुए सोवियतसंघ पर नाजी हमले से सीयसपी के कम्युनिस्ट सदस्य युद्ध के समर्थक हो गए।
     आजादी के बाद सीपीआई और सोसलिस्ट पार्टियां नेहरू सरकार के साथ सहयोग और विरोध पर बहस करते रहे। कई कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट कांग्रेस में चले गए। विचारों के प्रसार के लिए चुनाव में शिरकत करने की नीति ने सीपीआई को चुनावी पार्टी में तब्दील कर दिया। 1960 के दशक से शुरू कम्युनिस्ट आंदोलन में फूट और धीरे-धीरे हासिए पर चले जाने की कहानी इतिहास बन चुकी है। लगभग डेढ़ सौ साल पहले मार्क्स ने हेगेल को उल्टा खड़ा कर दिया था, भारत क् कम्युनिस्टों ने मार्क्सवाद को उलट दिया।
     मार्क्सवादी सिद्धांतो पर हुई चीन, क्यूबा, वियतनाम आदि क्रांतियों पर भी चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है। यह लेख इस उम्मीद के साथ खत्म करता हूं कि रूसी क्रांति के शताब्दी वर्ष में ऐसे हालात बनें कि कि चिर प्रतीक्षित एक नए इंटरनेसनल के हालात बनें और दुनिया के हर देश में ऐसे विप्लवी दस दिन आएं जिससे दुनिया एक बार फिर हिल उठे। आज भारत तथा कई अन्य देशों में 1917 में रूस जैसी परिस्थितियां बन रही हैं, लेकिन बोल्सेविक पार्टी सी किसी सुसंगठित क्रांतिकारी मंच की जरूरत है, जो लोगों के असंतोष को क्रांतिकारी जज्बात में बदल सके।

27.10.2017


  
   









Monday, October 23, 2017

मार्क्सवाद 92 (वर्गचेतना)

अभी से तैयारी शुरू कीजिए, 2019 में अभी काफी वक़्त है। मनुष्य अपना इतिहास अपनी चुनी हुई परिस्थितियों में नहीं विरासत में मिली परिस्थितियों में बनाता है। आज सबसे बड़ा खतरा फासीवाद है और गुजरात में तीसरी ताकत नहीं है। हमें फौरी और दूरगामी उद्देश्यों में एक समन्वय और संतुलन बनाना होगा। दूरगामी उद्देश्य है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण, जिसके लिए परिवर्तन की ताकतों -- सामाजिक और आर्थिक न्याय के खंडित-मंडित शक्तियों को नए सिरे से नए नारेों और नए कार्यक्रम के साथ संगठित करने की जरूरत है। अस्मिता राजनीति अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा चुकी अब वर्गीय लामबंदी की जरूरत है।

Sunday, October 22, 2017

ईश्वर विमर्श 45

एक बार (करीब 25 साल पहले)मेरी पत्नी ने कहा कि मैं भगवान के बारे में अच्छी बातें नहीं करता इसीलिए मेरे साथ गड़बड़ होता है। मैंने कहा कि भगवान इतना टुच्चा और छोटा है कि मेरे जैसे अदना इंसान से बदला लेने आ जाता है, उसकी और ऐसी-तैसी करूंगा जो बिगाड़ना हो बिगाड़ ले। जो अमूर्त से डरते हैं वे मूर्त से तो डरेंगे ही। संघियों की ही तरह मुसंघियों के ऊपर भी मार्क्स का भूत सवार हो जाता है बात कोई भी हो।

वह क्यों डरता है किताब से

वह क्यों डरता है किताब से
फिल्म के किसी डायलॉग से
वह हर बात से डरता है
वह बेनकाब होने से डरता है
वैसे भी
भीड़ हिंसा के शूरमा कायर होते हैं
झुंड में शेर बनने वाले कुत्ते की तरह
जो अकेले में पत्थर उठाने के नाटक से ही
दुम दबाकर भाग जाते हैं
(ईमिः 22.10.2017)



अदम के साथ तस्वीर पर

इसके बाद अदम जी से दो ही और मुलाकातें हुईं, अगली मुलाकात लंबी होनी थी, एम्स में इलाज कराना था, लेकिन वह मुलाकात कभी हुई नहीं। अदमजी ने 2011 में छात्रों और मजदूरों के लिए ऐतिहासिक भौतिकवाद पर पद्य में पुस्तिका लिखने का आदेश दिया. कविता लिखना मैं 31 वर्ष पहले बंद कर चुका था। मेरे पद्य में लिखने में बौद्धिक असमर्थता जाहिर करने पर कामचोरी का इल्जाम लगाया। थोड़ी ही देर पहले मैंने यही आरोप आत्मकथा लिखने के आग्रह पर गद्य न लिखने की असमर्थता जाहिर करने पर उन पर लगाया था। वे रिकॉर्ड कराने और एक साथी केपी मौर्य रिकॉर्ड करने और ट्रांस्क्राइब करने को राजी हो गए थे, वह दिन आया नहीं। मैंने शुरू किया, 2 खंड के पहले ड्राफ्ट हुए और कॉलेज में घरों के एलॉटमेंट के मुद्दे पर स्टाफ असोसिएसन ने रिले हंगर स्ट्राइक शुरू कर दिया, मैं अध्यक्ष था, बाकी 4 खंड टले तो चलते गए। लेकिन पूरा करूंगा, न करना अदमजी का असम्मान होगा। लाल सलाम साथी।

नवब्राह्मणवाद 31 (पिछड़ा-अतिपिछड़ा)

रंजन मैं तुमसे बिल्कुल  सहमत हूं। पहली बात जहां तक नाऊ के घर में बिना खटखटाए किसी के घर में घुसने की बात है तो शहर और गांव में फर्क है। गांव में दरवाजा खटखटाने का रिवाज नहीं था, आवाज लगाने का। मेरे बचपन में सुर्ती ही एक चीज थी जिसमें छुआ-छूत नहीं था। जजमानी व्यवस्था में कहा जाता था कि नाई को सबके घर की हाल मालुम होती है क्योंकि वह सबकी टहल बजाता था। नितीश के पिछले शासनकाल में सासाराम जिले के एक कुर्मी धनी किसान ने दो मजदूरों को इतनी अमानवीय प्रताड़ना दी कि वीडियो देखकर दिल दहल गया था। हमारी रिपोर्ट पर कुछ पटेल क्रांतिकारियों ने कहा था कानून अपना काम कर रहा है। इस तरह की भीड़ हिंसा के मामले में कानून काम करता रहता है। अब वर्गीय ध्रुवीकरण ही क्रांति का रास्ता है।

Saturday, October 21, 2017

नवब्राह्मणवाद 30 (अहिर से इंसान)

कारण कुछ भी हो किसी से थूक कर चटवाना एक कुत्सित, घृणित और विकृत दिमाग की उपज है। पूर्वी उत्तर प्रदेश का दबंग यादव (खास कर मुलायम-अखिलेश के शासन काल में) दलितों के साथ वैसा ही सामंती-दमनकारी व्यवहार करते था जैसे पहले राजपूत दबंग। मैं कही-सुनी या आंखों देखी नहीं भोगी बात बता रहा हूं। 1991 में भाजपा उ.प्र. में मंदिर अभियान से नहीं मुलायमी कुशासन और यादवी गुंडागर्दी के विरुद्ध जनाक्रोश से जीती थी। जब भूमंडलीकरण पर स्टैंड लेने की बारी आई तो मुलायम-माया पैसे खाकर बैठ गए। बाभन से इंसान बनना तो जरूरी है ही, अहिर से इंसान बनना भी उतना ही जरूरी है।

ईश्वर विमर्श 44

Mohd Kamil मार्क्स भी पढ़ा है,  मैक्स वेबर भी। और निष्कर्ष यही है सारे धर्म फरेब हैं और कमजोरों की लाठी। संघियों-मुसंघियों में इस बात में कोई फर्क नहीं है। धर्म के नाम पर रक्तपात से इतिहास पटा है। सारे रक्तपात राजनैतिक होते हैं., धर्म महज औजार है, चतुर-चालाक लोग धर्म के नशे में चूर धर्मांधियों तो उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। सुकरात, गैलेलीयो, ब्रूनो सारी हत्यायें धर्म के नाम पर धर्म के कमीन ठेकेदारों ने की। मोहम्मजद साहब जिहाद में फूलवर्षा करते थे? लूट में मिले माल और औरतों का क्या करते थे? कर्बला में पैगंबर की विरासत के दावेदार एक दूसरे को फूल-माला चढ़ा रहे थे? 1923, 1933 में गाजे-बाजे और गाय-सूअर के नाम पर देगों में कितने इंसान कत्ल हुए? 1947 में धर्म के नाम पर कितना खून बहा? 1947में  अभूतपूर्व जनसंहार के साथ इतिहास का अमानवीय खंडन नास्तिकों ने किया कि कि धर्म की जहालत के ठेकेदारों ने? बाबरी विध्वंस और उसके बाद के दंगों में धर्म का कोई योगदान था? 2002 का गुजरात नरसंहार का तो आपके हिसाब से धर्म से कुछ लेना-देना  नहीं? मुजफ्फर-नगर शामली में धार्मिक उंमाद का कोई योगदान नहीं था?  राम-रहीम का धर्म-भगवान से कुछ लेना-देना नहीं है क्या? भारत-पाकिस्तान-बांगलादेश में जारी तर्कवादियों की हत्या में धर्म ती कोई भूमिका नहीं है क्या? धर्म के नाम पर उत्पात करने वालों और हैवानियत में क्या फर्क है? आईयस और तालिबानों का धर्म से कुछ लेना-देना है क्या? संघियों-मुसंघियों पर समय खर्च करना समय की बर्बादी है, क्योंकि उनके दिमाग मजहबी जहालत से ओत-प्रोत होते हैं। विदा लीजिए।

Friday, October 20, 2017

बेतरतीब 18 (शाखा प्रसंग 1)

शाखा संस्मरण 1
बेतरतीब 18 (शाखा प्रसंग 1)

1968-69 जौनपुर के टीडी कॉलेज में 10वीं का छात्र था और गोमती किनारे बलुआ घाट पर कामता लॉज (प्राइवेट हॉस्टल में रहता था।उसी छात्रावास में रहने वाले, बीए के छात्र और साप्ताहिक रेल सहयात्री के साथ एक दिन कबड्डी और खो खेलने के लिए बलुआ घाट पर मंदिर के पताके की तरह झंडा गाड़े मेरे क्लास का बेनी साव के खानदान का लड़का शुभाष गुप्ता चौड़ा सा खाकी पैंट पहने, बाएं कंधे के बीच से लाठी थामे गंभीर मुद्रा में सामने खड़े 10-12 लड़कों को पीटी करा रहा था। पीटी का क्लास मुझे वैसे भी नहीं पसंद था। हमारे उपरोक्त सीनियर ने पहुंचते ही झंडे के सामने खड़े खड़े होकर सावधान की मुद्रा में खड़े होकर सीने पर हाथ रख कर सर झुकाया और पीटी स्टाइल में हाथ नीचे कर पीटीआई के निर्देश 'पीछे मुड़' पर प्रतिक्रिया की तर्ज पर पीछे मुड़कर सहज हो गए। मुझे भी वैसा ही करने को कहा, इसका कोई तर्क नहीं समझ आया लेकिन एक सम्मानित सीनियर की बात मैंने बेमन अनका अनशरण किया। खो और कबड्डी की खेलों के बाद पताके सामने सब सावधान मुद्रा में खड़े हो गए, सुभषवा ने पीटाआई की तर्ज पर 'ध्वज प्रणाम 1,2,3'  का आदेश दिया और सबके साथ मैंने भी उपरेक्त कसरत दोराया। उसके बाद चलते हुए सबको जी जी कह कर नमस्ते करने लगे। मुझे अजीब लगा मिलने पर सब एक दूसरे के अस्तित्व का संज्ञान न लेते हुए झंडे के साने खड़े होकर कसरत करते हैं और अलग होकर छोटे बच्चों के भी जी कहकर नमस्ते नमस्ते करने लगते हैं। अजूबे तो होते ही हैं, लेकिन इससे मेरे कर्मकांडी, सनातनी परिवार में मिले संस्कारों को झटका लगा जिसमें सम्मान और अभिवादन हाथ जोड़कर, चरणसपर्श या माथा टेककर अभिव्यक्त किया जाता है।

क्रमश: ...

Thursday, October 19, 2017

काजी-ए-अहमदाबाद

काजी-ए-अहमदाबाद ने फैसला दिया
नहीं छाप सकता द वायर काली करतूतों का कच्चा चिट्ठा
जुड़ा हो यह अगर किसी शाह-जादे से
हो जिस पर बरदहस्त रामजादों का
नहीं कर सकता वह
राज्य की गोपनीयता भंग
भ्रष्टाचार है हुकूमत का अभिन्न अंग
काजी-ए-अहमदाबाद ने फैसला दे दिया
लाश को किया जाएगा कारावास में बंद
बहस चलेगी कत्ल में हुई की कातिल की जहमत
और खंजर पर आए ख़म के हरजाने पर
(ईमि: 19.10.2017)

फुटनोट 139 (दीवाली)

Naveen Joshi साथी, जैसे-जैसे समाज में बाजार की पैठ बढ़ती गयी, उपभोक्ता संस्कृति का प्रसार होता गया उत्सवों का बाजारीकरण होता रहा। यदि मैं अपने बचपन के दीवाली के उत्सव के अनुभव सुनाऊं (सुनाऊंगा नहीं) तो भूमंडलीकरण की पीढ़ी को लगेगा कि दादी-नानी से सुनी कोई कहानी सुना रहा हूं। गांव में यह पर्व सद्कर्म की तरह मनाया जाता था। माना जाता था कि इस दिन जो काम कोई करेगा, वह साल भर करता रहेगा। इसलिए लोग दिन भर गाली-गलौच या कोई अहितकारी काम करने से बचते थे। 'मंत्र (जिसे मालुम हो) जगाया जाता था'। मुझे 'बिच्छू का मंत्र' मालुम था। मंत्र की हकीकत की चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, हां मैं इतना मशहूर हो गया था अगल-बगल के गांवों के लोग सोते हुए गोद मे उठाकर ले जाते थे। यह इसलिए कि हमउम्र लड़के मेरी जासूसी करते थे कि मंत्र मैं कब जगाता हूं? कोई मंत्र होता तब तो जगाता? बिच्छू के मंत्र ने काफी जगह खा लिया। पटाखे और छुरछुरी को बारे में कोई जानता नहीं था। दियों और पकवानों का त्योहार था। शाम को गांव की अपनी-अपनी बस्ती में और दूसरी बस्ती के नजदीकी परिवारों में लावा-बताशा का आदान-प्रदान होता था। हम, बच्चे दिन भर दियलियां जुटाने, धोने-सुखाने, रूई से बत्तियां बनाने में लगाते थे और शाम को वन से ढाक के पत्ते तोड़ने जाते थे, ज्यादा दूर नहीं था, लेकिन बाल-सुलभ चर्चाओं के चलते हम घंटों में घर लौटते, डांट इसलिए नहीं खाते थे कि सालभर खाना पड़ेगा। पटाखे-फुलझड़ियां तो छोड़िए मोम बत्ती का भी प्रचलन नहीं था। 1967-68 में मैं जब शहर (जौनपुर) हाईस्कूल में पढ़ने गया तब पता चला कि शहर में दीवाली में आतिशबाजी भी होती है। स्कूल में बच्चे दीवाली के पहले ही पटाखे फोड़ते थे। मुझे अच्छा लगा। दीवाली की छुट्टी में घर जाते समय मोम बत्ती के कुछ डब्बे, पटाखे और फुलझड़ियां ले गया। खेत-खलिहान-घूर-बाग-बगीचे-देवी-देवताओं के निवास वाले पेड़ों, डीहों और उन पेड़ों के नीचे भी जिनमें किसी पूर्वज की आत्मा वास करती थी। उसके बाद सरस्वती (किताब का बस्ता) के पास दिया जलाकर कुछ देर किताब कॉपी लेकर बैठते थे जिससे साल भर पढ़ते-लिखते रहें।उस साल आस-पड़ोड के सारे बच्चे मेरे घर आ गए और पटाखे-फुलझड़ियों के चमत्कार का मजा लेने लगे। धीरे धीरे बाजार गांव में घुसती गयी और दीवाली का शहरीकरण होता गया. खरीफ की फसल खलिहान में पहुंचने के उत्सव के किसानों के त्योहार का शहरीकरण(बाजारीकरण) होता गया।ज्ञान पर धर्मशास्त्रीय वर्चस्व की लंबी प्रक्रिया के परिणास्वरूप किसानों के उत्सव में धार्मिकता के तत्व प्रवेश कर गए। दियों के इस पर्व पर धरती के सभी बासिंदों को हार्दिक बधाई