मेरे द्वारा फेसबुक पर सरोज जी के साथ शेयर की गयी किसी न किसी तस्वीर पर कल तक हमारी शादी का 50वीं वर्षगांठ (29 मई) की बधाइयां मिलती रहीं, और मैं इतना कृतघ्न हूं कि अभी तक आभार व्यक्त नहीीं किया। सभी मित्रो का बहुत बहुत आभार।
सोचा था कि मित्रों और परिजनों के साथ छोटा सा उत्सव आयोजित करूंगा लेकिन अमेरिका में रह रही मेरी बड़ी बेटी ने कहा कि यह उसके आने तक टाल दूं और फिर माटी (नतिनी) के बिना तीसरी पीढ़ी की उपस्थिति नहीं दर्ज होती। यह उत्सव इसलिए भी जरूरी है कि हमारी शादी का कोई प्रमाण ही नहीं है, न तो शादी पंजीकृत है और न ही उसका कोई फोटोग्राफ ही है। जब भी बेटियों ने उत्सव का आयोजन किया, मित्रों को सूचित/आमंत्रित करूंगा। उस आयोजन के वीडियो 50 वर्ष पहले के विवाह के प्रमाण होंगे। फिलहाल वर्षगांठ की बधाई देने वाले मित्रों का पुनः बहुत बहुत आभार।
हमारी शादी 1972 में हुई, जिसी आज की पीढ़ी के बचेचों को परीकथाओं सी लगने वाली कई कहानियां है, जिन्हें कभी लिखूंगा। उसके तीसरे साल में गवन की रात हमारी पहली मुलाकात 1975 में हुई और उसके 12 साल बाद बड़ी बेटी जब चौथे साल में थी तब हम साथ रहना शुरू किए, अभी तक ताने देती है कि 4 साल उसे गांव में छोड़ग हुआ था। जब भी दोनों बहनों के बारेमें कोई तुलनात्मक बात होती तो वह कहती, पहले इसे 4 साल गांव में छोड़ो।
कुछ मित्रों ने वाजिब सवाल किया है कि गवन के बाद भी 12 साल हम साथ क्यों नहीं रहे? पहली बात तो सैद्धांतिक कारणों से मैं उस उम्र में विवाह के विरुद्ध था लेकिन असफल विरोद के बाद जब विवाह होना सुनिश्चित ही हो गया तो विवाह निभाने का फैसला स्वैच्छिक था क्योंकि किसी सामादिक कुरीति (इस मामले में बालविवाह) के सहपीड़ितों (co-victims) को परिणामों की सहभागिता करनी चाहिए।
वैसे तो शादी के एक साल बाद ही पिताजी के साथ आर्थिक संबंध-विच्छेद कर लिया था यानि पैसा लेना बंद कर दिया था। जंगल तो हमें जाना ही था लेकिन वह हमें चुना इससे बेहतर उसका हमसे चुना जाना था। तो अपनी पढ़ाई-लिखाई की आर्थिक जिम्मेदारी खुद उठानी थी, और उठाया। 6 साल बाद भाई को भी अपने बूते जेएनयू में एडमिसन करा दिया और उसके 4 साल बाद घर वालों से लड़-झगड़ कर बहन का एडमिसन वनस्थली (राजस्थान) में करा दिया। एक बार एक मित्र ने मेरे बारे में मजाक में सही कमेंट किया कि ईश का जीवन संसाधनों से नहीं, साहस से चलता है। तो छात्र जीवन में जिम्मेदारियां तो संभाला लेकिन परिवार चलाना बहुत बड़ी बात लगती थी, जिसके लिए अपने पर भरोसे की कमी लगती थी। हर काम शुरू करते समय सोचता था, जो होगा देखा जाएगा, इस मामले में ऐसा सोचने में थोड़ा हिचक हुई, हमारी मुलाकातें छुट्टी में घर जाने पर होती थीं।
1975 में गवन आने के बाद कुछ दिन साथ रहकर इलाहाबाद चला गया फिर होली की छुट्टी के बाद भी कुछ दिन ज्यादा रुक गया, मेरे पिताजी ने तंज किया कि शादी में मैं इतने नखड़े कर रहा था और अब छुट्टी ही नहीं खत्म हो रही है! वैसे भी, उस उम्र में सामाजिक मान्यता प्राप्त संभोग की असीमित सुलभता बहुत बड़ी बात होती है।
आपातकाल में गिरफ्तारी से बचने के लिए, रोजी-रोटी की सस्या के चलते इलाहाबाद में भूमिगत रहना मुश्किल हो रहा था। न ट्यूसन पढ़ा सकता था, न देशदूत (अखबार)ल में प्रूफरीडिंग कर सकता था और ढाबों तथा चाय-सिगरेट की दुकानों की उधारी सीमा पार कर चुकी थी। रोजी-रोटी की जुगाड़ के साथ भूमिगत रहने की संभावनाओं की संभावनाओं की तलाश में दिल्ली आने का फैसला किया। तब पता नहीं था कि आपातकाल कितना लंबा खिंचेगा और सबसे मिलने घर गया। सरोज जी अपने घर थीं मैंने सोचा फिर कब मिलना होगा, उनसे भी मिलते चलें। बाद में पता चला कि इन्हें बहुत बदनामी और शर्मिंदगी झेलना पड़ा क्योंकि बिना बुलाए ससुराल जाना मान्य सामाजिक नैतिकता के विरुद्ध माना जाता था।
खैर, विस्तृत वर्णन फिर कभी, संक्षेप में यह कि इलाहाबाद आकर फीजिक्स और केमिस्ट्री की सभी और मैथ्स की कुछ किताबें बेचकर, दिल्ली जाने के लिए कुछ पैसों का इंतजाम किया। गणित की कुछ अच्छी किताबें नहीं बेचा कि भविष्य में कभी पढ़ूंगा, जो भविष्य कभी आया नहीं और रिटायर होते समय दिवि की गणित की लाइब्रेरी में दे दिया। इलाहाबाद में यूनिवर्सिटी रोड पर सेकंड हैंड किताबों की बहुत ईमानदार मार्केट होती थी, अब भी होगी। दुकानदार 50 प्रतिशत दाम पर पुरानी किताबें खरीदकर उनकी मरम्मत करके 75 प्रतिशत पर बेचते थे। इलाहाबाद से दिल्ली प्रस्थान के समय की कुछ रोचक कहानियां फिर कभी।
दिल्ली आकर इलाहाबाद के सीनियर और जेएनयूछात्रसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष डीपी त्रिपाठी (वियोगी जी) को खोजते जेएनयू पहुंच गया। त्रिपाठी जी तो तिहाड़ में थे लेकिन इलाहाबाद के एक अन्य सीनियर, रमाशंकर सिंह से मुलाकात हो गयी और उनके कमरे में रहने का इंतजाम हो गया तथा मैं बिना एडमिसन लिए ही जेएनयूआइट हो गया। वे कुछ दिनों के लिए घर गए और लौटे कई महीनों मेें तो मेरे पास स्वतंत्र रूप से सिंगिल सीटेड रूम हो गया। गणित के कुछ ट्यूसन मिल गए और रोजी-रोटी तथा रहने का इंतजाम हो गया। पहला ट्यूसन खोजने की कहानी भी रोचक है जो फिर कभी।
1977 मे आपातकाल खत्म होने के बाद, नियत समय (अक्टूबर) के पहले ही जेएनयू में छात्रसंघ चुनाव के लिे जनमत संग्रह हुआ। प्रत्यक्षजनतंत्र और लेनिन के जनतांत्रिककेंद्रीयता केसिद्धांत के क्रियान्वयन के साक्षी होने का अनुभव सुखद आश्चर्यजनक था। अप्रैल, 1977 में छात्रों के साथ सुनीत चोपड़ा के नेतृत्व में बंसीलाल के विरुद्ध चुनाव प्रचार करने भिवानी गए। उसके रोचक अनुभव फिर कभी। 1977 में एडमिसन शुरू होने पर जेएनयू में एडमिसन लेकर औपचारिक रूप से भी जेएनयूआइट हो गया। इलाहाबाद से आकर जेएनयू की कैंपस संकृति का अनभव सुखद आश्चर्य का अनुभव था।
एमए कर रहा ता तो छोटे भाई ने गांव से इंटर पास किया उसे भी जेएनयू बुलाकर फ्रेंच लभआषा में पांच साला एमए कार्यक्रम में एडमिसन करा दिया, यदि सोचता कि अपना तो ठिकाना ही नहीं है इसकी पढ़ाई का इंतजाम कैसे होगा तो फंस जाता। लेकिन मैं तो इस सिद्धांत पर जीता रहा हूं कि जो होगा देखा जाएगा और कुछ-न-कुछ होगा ही। खैर वह आजकल छोटा-मोटा उद्योगपति है।
राजनीति शास्त्र में एमफिल.फिल/पीएचडी करते हुए फेलोशिप की पूरक आय के लिए डीपीएस में गणित शिक्षक की नौकरी कर ली। इस नौकरी के मिलने-करने-छूटने की कई रोचक कहानियां हैं जो फिर कभी।
1982 में गर्मी की छुट्टी में घर गया तो पाया कि मेरी 8वीं पास बहन की शादी खोजी जा रही है।12 साल छोटी बहन के पैदा होने के 6-7 महीने बाद ही मैं पढ़ने शहर चला गया , छुट्टियों में ही मुलाकात होती थी तो ज्यादा प्रिय है। उसके पढ़ने के अधिकार के लिए पूरे कुटुंब से महाभारत करना पड़ा और अंततः उसे राजस्थान में लड़कियों के स्कूल-विवि वनस्थली विद्यापीठ में दाखिला करा दिया।
1982-83 में मैंने जेएनयू में मैरिड हॉस्टल के लिे अप्लाई कर दिया और लगा था कि 1983 अगस्त सितंबर में बेटी (या बेटा) के जन्म के एकाध महीने में नंबर आ जाएगा। तबी पुरानी जनतांत्रिक एडमिसन पटलिसी को बदलने के विरुद्ध जेएनयू में आंदोलन छिड़ गया। पुलिस आई लोग जेल गए और उसके बाद कैंपस के सभी बड़े संगठनों -- एसएफआई, एआईएसएफ, फ्रीथिंकर्स -- ने अधिकारियों के समक्ष नतमस्तक हो समझौता कर लिया। बहुत से लोगों को कारण बताओ नोटिस जारी हुए और जिन लोगों ने माफी मांगने से इंकार किया वे रस्टीकेट कर दिए गए। ज्यादातर लोग 2 साल के लिए और कुछ लोग 3 साल के लिए, मैं 3 साल वालों में था। कल अभिजीत पाठक और अमित सेनगुप्त से प्रेस क्लब में मुलाकात हुई। हम दोहरी छुट्टी, रविवार, 2 अक्टूबर 1983 को हटस्टल से मेरे eviction (निष्कासन) को याद कर रहे थे। 2017 में 2अक्टूबर रविवार को पड़ा तो मुझे 2013 का 2 अक्टूबर याद आया। उस दिन मुझे 1848 में इंगलैंड में चार्टिस्ट आंदोलन की याद आई थी। सरकार ने प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए पूरे लंदन को सेना और पुलिस की छावनी बना दिया था लेकिन आए 20-30 लोग, जो पुलिस-सेना देखकर शांति से वापस चले गए। मुझे हॉस्टल से निकालने के लिए जेएनयू के सुरक्षातंत्र के अलावा 2 ट्रक पुलिस बुलाई गयी थी। मेरा तो सीना चौड़ा हो गया था कि एक 46-50 किलो के लड़के का इतना आतंक! प्रतिरोध के लिए हम 15-20 लोग थे। किसी ने चीफ प्रॉतक्टर रामेश्वर सिंह से कहा, "Mr. Rameshwar Singh you look like a joker", तब अभिजात पाठक ( जेएनयू के समाजशास्त्र के रिटायर्ड प्रोफेसर) ने कहा था,"No, no, he looks like a villain of a third rate Hindi film". खैर 3 सितंबर को मेरी बेटी पैदा हुई और 2 अक्टीबर को मैं विवि से 3 साल के लिए निकाल दिया गया। और पत्नी-बेटी के साथ रहना टल गया।
जेएनयू से 3 साल के लिए, निकाले जाने के बाद भी मैं जेएनयू में ही रहता रहा पहले अजय मिश्रा (अब रिटायर्ड आईएएस) और फिर अकील (सेक्रेटरी गालिब एकेडमी) के कमरे में तथा डीपीएस में पढ़ाता रहा। 1985 में साकेत में एक फ्लैट लिया कि बेटी डेढ़ साल की होने वाली है और अब बाप के भी साथ रहनी चाहिए। बहन को वनस्थली से लेकर आया था। 1 मई से स्कूल का ग्रीष्मावकाश शुरू हुआ और 1 मई की सुबह ही स्कूल का चपरासी नौकरी से निष्कासन की चिट्ठी लेकर आ गया। इसकी कहानी फिर कभी। मैं डीपीएस प्रशासन से लड़ाई में उलझ गया और पत्नी-बेटी के साथ रहने की शुरुआत फिर टल गई। जब पानी सिर के ऊपर आ गया बेटी चौथे साल में स्कूल जाने की उम्र की हो गयी तब हम साथ रहना शुरू किए। जिस दिन ये दिल्ली आए उसी दिन एक बहुत बड़ी पारिवारिक त्रासदी की खबर मिली, जिसकी कहानी फिर कभी। तबसे हम साथ रह रहे हैं। 2013 में बड़ी बेटी की शादी हो गयी और 2019 में छोटी की। फिलहाल हम दोनों ही साथ हैं। छोटी बेटी ने मां-बाप का ध्यान रखने के लिए नजदीक में ही घर ले लिया है।
विवाह के वर्षगांठ की बधाइयों के लिए एक बार फिर सभी का आभार।