Thursday, June 30, 2022

Kautilya

 Philosophers do not create justices or injustices, they already exist in the society. Philosophers only respond and react to them. By 4th century BC, patriarchy; gender -- its ideology; gendered notions of sexuality along with taboos and inhibitions meant to control female sexuality and thereby personality, was an established fact. Plato was revolutionary in this regard to allow women equal right to education, public offices and even to become philosopher queen. He is rebuked by his student for giving away the enslavement of women, one of the historic achievements of man. In ancient India too, patriarchy and prostitution were established facts. Prostitution was a recognized, prevalent institution. Nevertheless prostitutes, widows and single women enjoyed much better rights and state protection in Kautilya's Arthshastra. Care and livelihood of widows and single women was state responsibility. Many prostitutes and single women were secret agents and enjoyed good salary and many other privileges including legal immunity in many fields. Kautilya was not interested in social change but to maintain the existing system well. His interest was creation and expansion of state -- monarchy -- attaining/retaining/expanding power. Using existing superstitions and prejudices in the interest of the state as part of Apaddharma. Ensuring observance of Vedic Dharma, i.e. Varnaashram Dharma was also part of Rajdharma.


Thanks Debu! for your enlightening, scholarly intervention. True it was not for general consumption but for specialists. NARENDRAARTHE. Not only it does not trace the divine origin of state and statecraft but also does not give any space to religion or priest in his definition of state in terms of 7 constituent elements. I also agree with you that it was written drawing inferences from the previous schools of thought. We find many references in Arthashastra itself of many previous traditions, schools and teachers of the statecraft. Kautilya sounds a contemporary scholar. He begins building his theory with the literature review. He would conclude the citations of other teachers by "nesti Kautilya" (Not Kautilya's views) and wouild conclude his vies with "iti Kautliya". (Kautilya's views)

शिक्षा और ज्ञान 314 (शिक्षक)

 शिक्षक तो नौकरी में भी आजाद ही रहता है, शिक्षक की आजादी सकारात्मक आजादी होती है, छात्रों को आजादी का मतलब समझाता है। पूंजीवाद में आजीविका के लिए हमसब alienated labour करने को अभिशप्त हैंं, शिक्षक की नौकरी ऐसी नौकरी है जिसमें alienation को न्यूनतम किया जा सकता है तथा नौकरी को काम में तब्दील किया जा सकता है, छात्रों की बेहतर इंसान बनने में मदद की जा सकती है। सेवा निवृत्ति के बाद संचित अनुभवों को कलमबद्ध करने (आत्मकथा या आत्मकथात्मक उपन्यास लिखने) की शुभ कामनाए। मुझे भी यह करना चाहिए लेकिन बौद्धिक जड़ता में ऐसा फंसा हूं कि अकर्मण्यता के अपराधबोध का घड़ा फूट ही नहीं रहा है। औपचारिक सेवा निवृत्ति की शुभकामनाएं।

Wednesday, June 29, 2022

बेतरतीब 134 (67 साल के ईश)

 आज मेरा अनाधिकारिक किंतु वास्तविक (जन्मकुंडली में अंकित) जन्मदिन (67वां) है।

अधिकारिक (प्रमाणपत्र में अंकित) जन्मदिन के हिसाब से तो मैं 3 फरवरी को ही 68 साल का हो गया।
मैं लंबे समय (21 साल की उम्र तक) अपना सही-सही जन्मदिन नहीं जानता था, कुंडली में आषाढ़ कृष्ण पक्ष की तिथि है तो इतना जानता था कि जून-जुलाई में होगा। गांव में जन्मदिन मनाने जैसे व्यक्तिगत उत्सवों की संस्कृति नहीं थी, इसलिए जानने की जरूरत नहीं हुई। प्राइमरी में कक्षाओं की दो उछालों (गदहिया गोल [प्रीप्राइमरी] से कक्षा 1 और कक्षा 4 से 5 में प्रोमोसन) के चलते 1964 में 9 साल की उम्र में प्राइमरी पास कर लिया। उन दिनों हाई स्कूल की परीक्षा की न्यूनतम उम्र 15 वर्ष थी। 1 मार्च 1969 को 15 वर्ष का होना चाहिए था तो बाबू साहब (बासुदेव सिंह, हेड मास्टर) को 1954 की फरवरी की जो भी तारीख (3) दिमाग में आई लिख दिया। मेरे पिता जी फैल गए, बोले कि लोग तो 3-4 साल कम लिखाते हैं और वे मेरी डेढ़ साल ज्यादा क्यों लिख रहे थे? बाबू साहब के समझाने पर पिताजी मान गए।

जेएनयू में एमफिल ज्वाइन करने के बाद समाजवादी आंदोलन में विघटन पर एक टर्मपेपर लिखने के चक्कर में तीनमूर्ति लाइब्रेरी के माइक्रोफिल्म सेक्लन में 1950 और 60 के दशक के हिंदी केअखबार देख रहा था। उन दिनों हिंदी अखबारों में रोमन कैलेंडर की तारीख के साथ विक्रम और/या शक कैलेंडर की भी तारीखें होंगी। आषाढ़ कृष्णपक्ष दशमी संवत 2012 26 जून 1955 को थी। उस साल से मैं भी दोस्तों के साथ मयनवोशी करके जन्मदिन मनाने लगा।

इसके बावजूद कि मेरी फोटोग्राफी बहुत बुरी है,आज पुरानी तस्वीर शेयर करने की बजाय ताजा सेल्फी ले लिया । वैसे अब तक इनबॉक्स और व्हाट्सअप पर कई बधाइयां मिल चुकी होंगी। सभी का आभार और अब बधाई देने वालों का अग्रिम आभार।

Wednesday, June 22, 2022

Marxism 51 (Violence in Protest Movements)

 Violence in protest movements like the ones against the Agnipath project is always counterproductive There is difference between revolutionary movements for total transformation of system and protest movements against grievances within the system. For revolutionary movements two factors are required -- objective, the ripening of the internal contradictions of the system. i.e. the crisis of capitalism and the subjective factor, readiness of revolutionary organized working class equipped with the class consciousness, both the factors are missing at the movement. The underground armed struggle, as being carried out by CPI (Maoist) in the tribal belt of the central India is also not tenable at the moment as the success of ant underground movements depends on its overwhelming over round support. Anyway in the existing post modern states, in the wake of the armed strength of the coercive apparatuses of the states armed revolution is a difficult proposition. The era of Bolshevik type Revolution is over. In the neo-liberal capitalism new international on the principles of Marxism translated in the context of neo-liberal capitalism, is needed. In India the additional theoretical need is comprehension of class-caste relationship. The ruling castes have been the ruling classes also. The need of the hour is theorization of the slogan Jai Bhim - Lal Salam, symbolizing the dialectical unity of the struggles of social & economic justice.


Anyway the brunt of the destruction of public property has always to be born by the public.

Marxism 49 (Revolution)

 For revolutionary changes two factors are required -- Objective factor, that is the the stage of development reflecting the ripening of the contractions of the system and the Subjective factor, i.e. the readiness of the organized revolutionary force equipped with revolutionary consciousness. At the moment, none of the two is present. The task before us is to contribute our bit towards radicalization of social consciousness for which people's emancipation from the false consciousness of communalism and casteism is necessary.

Tuesday, June 21, 2022

शिक्षा और ज्ञान 374 (आंदोलन)

 विरोध प्रदर्शन में हिंसा और तोड़-फोड़ आंदोलन की समझ की कमी और राजनैतिक अपरिपक्वता की परिचायक तो है ही, आत्मघाती भी होती है। किसी भी आंदोलन की सार्थकता के लिए आक्रोश को राजनैतिक रूप से अनुशासित करना आवश्यक है। जेएनयू आंदोलन में मंडी हाउस से संसद मार्च में लगभग 15 हजार लोगों ने शिरकत की थी, लेकिन किसी भी प्रकार की तोड़-फोड़ नहीं हुई। आंदोलन के अनुशासन का मेरा पहला अनुभव लगभग 45 साल पुराना है। मैं इलाबाद विवि के आंदोलनों का अनुभव लेकर जेएनयू आया था। इलाहाबाद में छात्रों के किसी भी जुलूस में थोड़ी-बहुत तोड़-फोड़ तो होती ही थी। 1974 में एक जुलूस में रास्ते में मिलने वाले वाहनों को जलाते, तोड़-फोड़ और लूट-पाट करते सिविल लाइन्स पहुंच कर लकी स्वीट मार्ट नामक मिठाई की बड़ी दुकान में बुरी तरह तोड़-फोड़ और लूट-पाट हुई, इन सबसे मन इतना खिन्न हुआ कि वहीं से वापस लौट आया था। 1977-78 में जनता पार्टी की सरकार के समय जेएनयू के छात्रों ने डीटीसी के किराए में बढ़ोत्तरी के विरुद्ध आंदोलन किया। छात्रों का तो साढ़े बारह रुपए में मासिक आलरूट पास बनता था, लेकिन जेएनयू स्व के स्वार्थबोध पर स्व के न्यायबोध (परमार्थबोध) को तरजीह देना सिखाता है। आंदोलन लंबा चला था छात्र-छात्राओं ने पुलिस की लाठियां खाई और हिरासत में भी रहे। उस समय जेएनयू बहुत छोटा(6 हॉस्टलों में सिमटा) था लेकिन अंततः सरकार को किराया वृद्धि वापस लेना पड़ा था। जिस बात के लिए यह लिखना शुरू किया वह यह है कि आंदोलन के दौरान कुछ बसों का अपहरण किया गया जिनकी रखवाली के लिए कुछ जिम्मेदार छात्र तैनात थे कि कहीं कुछ असामाजिक तत्व आंदोलन को बदनाम करने के लिए बस को छति न पहुंचाएं और ड्राइवर-कंडक्टरों को ससम्मान कैंटीन में चाय पिलाया गया। उन मजदूरों से हमारी लड़ाई नहीं थी और स्ार्वजनिक संपत्ति का नुक्सान अपना ही नुक्सान था, आंदोलन के चरित्र में यह फर्क सुखद आश्चर्यजनक था।

Wednesday, June 15, 2022

शिक्षा और ज्ञान 373 (सांप्रदायिकता)

 पूरा समाज विषाक्त हो चुका है, अपनी सांप्रदायिक विद्रूपताएं हम अपने बच्चों के दिमागों में भरते जा रहे हैं। हमारी सोसाइटी भारत सरकार के अधिकारी/कर्मचारियों की सोसाइटी है। ज्यादातर निवासी सेवा निवृत्त सरकारी कर्मचारी हैं, सोसाइटी के अंदर शॉपिंग कांप्लेक्स के पीछे एक विशाल मंदिर परिसर है, पता नहीं पहले से है या सोसाइटी बनने के बाद बना। मुख्य गेट के पास सोसाइटी के ऑफिस के साथ लगा पानी की भूमिगत टंकी के ऊपर बड़ा सा सीमेंटेड पार्क है, केंद्र सरकार के एक सेवारत अधिकारी 5-15 वर्ष के बच्चों को जुटाकर शाखा लगाते हैं। प्लेटो अपने शिक्षा सिद्धांत में कहता है कि बच्चों की शिक्षा पैदा होते ही शुरू हो जानी चाहिए क्योंकि उस उम्र के बच्चे मोम की तरह होते हैं उन्हें मनचाहा आकार दिया जा सकता है। और तीन चरणों में विभक्त प्रारंभिक शिक्षा में उन्हें मुख्यतः व्यायाम और संगीत सिखाया जाना चाहिए यानि फौजी मानसिकता तैयार की जानी चाहिए। शिशु स्वयंसेवक से बाल स्वयंसेवक, किशोर और तरुण स्वयंसेवक के प्रशिक्षण की मंजिलें पार कर 'संघ के संस्कार' से सुसज्जित व्यक्ति सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को भारतीयता मानने लगता है। अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में चुटिया रखने का रिवाज बढ़ता जा रहा है। सोसाइटी के कुछ दलित सेवा निवृत्त अधिकारी हैं वे अपने व्यक्त आचरण में सवर्णों से भी अधिक हिंदुत्ववादी हैं।


हमें इसी समाज में रहना और इसे बदलने में अपना संभव योगदान देना है, हमारी (प्रगतिशील, जनतात्रिक ताकतों) की लापरवाही और प्रतिक्रियावादी ताकतों की चतुराई से समाज विषाक्त हो गया है, सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की दिशा में अपना हर संभव योगदान देकर हमें इसकी मुक्ति का प्रयास करना है। सांप्रदायिकता और जातिवाद की मिथ्या चेतनाओं से मुक्ति इसकीआवश्यक शर्त है।

मार्क्सवाद 268 (हिंदू-मुस्लिम)

 एक मित्र ने लोगों को धरे जाने से बचने के लिए हिंदू-मुस्लिम नरेटिव का नफरती एजेंडा चलाने से परहेज करने की सलाह दी है।


उस पर:

धरे जाने के अलावा बौद्धिक (पढ़े-लिखे) 'समुदाय' का सदस्य होने के नाते भी हमारा कर्तव्य है कि समाज को जोड़ें, तोड़ें नहीं, सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और मिथ्या चेतना से मुक्त होकर, हिंदू-मुस्लिम के नफरती नरेटिव के एजेंडे से ऊपर उठकर समाज में इंसानियत और सौहार्द बढ़ाएं; कठमुल्लेपन की अधोगामी सोच की जगह वैज्ञानिक सोच बढ़ाएं। हर देश-काल में शासक वर्ग लोगों को बनावटी और गौड़ अंतर्विरोधों में उलझाकर मुख्य (आर्थिक) अंतर्विरोध की धार कुंद को कुंद करता है, हमें शासक वर्गों की इस चाल का मुहरा होने से बचना चाहिए। गौरतलब है कि आधुनिकता के ध्वजवाहक के रूप में यूरोप के विकास की बुनियाद वहां की नवजागरण (Renaissance) और प्रबोधन (Enlightenment) बौद्धिक क्रांतियां रही हैं, जिनकी धार कुंद करने के लिए अस्त होते शासक वर्गों (सामंतवादी) ने लोगों को धार्मिक अंतर्विरोधों में उलझाए रखने का प्रयत्नकिया तथा धर्म के नाम पर भीषण रक्तपात की दरिया में धकेल दिया। वह दो अलग अलग धर्मोे के अलग अलग भगवानों के भक्तों की लड़ाई नहीं थी, बल्कि एक ही धर्म (ईशाइयत) के एक ही ईश्वर के दो तरह भक्तों (कैथलिक और प्रोटेस्टेंट) की लड़ाई थी। शासक वर्गों की पूरी कोशिस के बावजूद अंततः इतिहास आगे ही बढ़ा और आधुनिकता की मध्ययुगीनता पर जीत हुई। ऐतिहासिक परिघटनाओं की व्याख्या के स्रोत के रूप में धर्मशास्त्रीयता को वैज्ञानिकता ने प्रतिस्थापित किया , जिसने परंपर की जगह विवेक को स्थापित किया। इतिहास आसमान से रिरकर खजूर पर अटक गया। सामंती गुलामी की जगह पूंजी की गुलामी ने ले लिया। श्रम-शक्ति युक्त उत्पादक श्रम के साधनों से मुक्त होकर श्रम-शक्ति बेचने को 'स्वतंत्र' हो गया; वह 'बाजार भाव' पर श्रम शक्ति बेचने को ही नहीं, न बेचना चाहे तो मरने को भी स्वतंत्र है। पूर्ववर्ती वर्ग समाजों की ही तरह पूंजीवाद भी कथनी-करनी में विरोधाभास वाली एक दोगली व्यवस्था है, यह जो कहती है, करती नहीं और जो करती है, कहती नहीं। पूंजीवाद में आजीविका के लिए हम श्रमशक्ति बेचने (alienated labor करने) को अभिशप्त हैं और यह अभिशाप को स्वतंत्रता बताती है। नवोदित शासक (पूंजीवादी) वर्ग ने नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियों से उपजी वैज्ञानिकता का औजार के रूप में इस्तेमाल कर ुदारवादी से नवउदारवादी चरण तक पहुंची तथा वैज्ञानिकता इसे बेड़ियां लगने लगी और इसने वापस धार्मिक कठमुल्लेपन पर आधारित प्रतिक्रियावाद को औजार बना लिया। अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के समय युद्ध विरोधी प्रदर्शन में हम लोग नारे लगा रहे थे, 'बिन लादेन अभिशाप है, अमरीका उसका बाप है';..... ।

लेकिन इतिहास गवाह है कि इतिहास अंततः आगे ही बढ़ता है, इसकी गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता। वह कभी कभी आज के अंधे दौर की तरह यू टर्न ले लेता है, लेकिन अंततः जीत कठमुल्लेपन पर वैज्ञानिकता की ही होगी, हमारे जीवनकाल में, हमारे हाथों नहीं तो हमारी नतिनियों के जीवनकाल में उनके हाथों होगी। आइए, विघटनकारी नफरती एजेंडा छोड़कर, हम मानवता की सेवा में सहयात्री बनने का एजेंडा सेट करें।

सादर।

मार्क्सवाद 267 (समाजवाद)

 जिस का भी अस्तित्व है, उसका अंत निश्चित है और पूंजीवाद अपवाद नहीं है। युगकारी परिवर्तनों का टाइमटोवल नहीं तय किया जा सकता। रूस में फरवरी, 1917 में पूंजीवादी जनतांत्रिक क्रांति के समय किसी ने कल्पना भी न की थी कि आने वाले अक्टूबर के 10 दिन दुनिया हिला देंगे। 1920 में अंग्रेजों को जरा भी एहसास होता कि अगले 20-25 सालों में उन्हें हिंदुस्तान छोड़ना होगा तो रायसीना हिल पर आलीशान महल की लुटियन्स की दिल्ली परियोजना शायद ही शुरू करते। 50 साल पहले हमारे पूर्वजों को पता था क्या कि दलित प्रज्ञा और दावेदारी का आलम ऐसा हो जाएगा कि उनके वंशजों को अपनी असफलता आरक्षण की रुदाली के पीछे छिपानी पड़ेगी। पूंजीवाद लगभग 500 साल पहले शुरू हुआ और अभी भी दुनिया पर वर्चस्व नहीं स्थापित कर सका है। सामंतवाद से पूंजीवाद का संक्रमण एक वर्ग समाज से दूसरे वर्ग समाज में संक्रमण है, पूंजीवाद से समाजवाद में संक्रमण गुणात्मक रूप से भिन्न एक वर्ग समाज से एक वर्गहीन समाज का संक्रमण होगा।

Monday, June 13, 2022

शिक्षा और ज्ञान 372 (वैज्ञानिकता)

एक मित्र ने लोगों को धरे जाने से बचने के लिए हिंदू-मुस्लिम नरेटिव का नफरती एजेंडा चलाने से परहेज करने की सलाह दी है।

उस पर:

धरे जाने के अलावा बौद्धिक (पढ़े-लिखे) 'समुदाय' का सदस्य होने के नाते भी हमारा कर्तव्य है कि समाज को जोड़ें, तोड़ें नहीं, सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और मिथ्या चेतना से मुक्त होकर, हिंदू-मुस्लिम के नफरती नरेटिव के एजेंडे से ऊपर उठकर समाज में इंसानियत और सौहार्द बढ़ाएं; कठमुल्लेपन की अधोगामी सोच की जगह वैज्ञानिक सोच बढ़ाएं। हर देश-काल में शासक वर्ग लोगों को बनावटी और गौड़ अंतर्विरोधों में उलझाकर मुख्य (आर्थिक) अंतर्विरोध की धार कुंद को कुंद करता है, हमें शासक वर्गों की इस चाल का मुहरा होने से बचना चाहिए। गौरतलब है कि आधुनिकता के ध्वजवाहक के रूप में यूरोप के विकास की बुनियाद वहां की नवजागरण (Renaissance) और प्रबोधन (Enlightenment) बौद्धिक क्रांतियां रही हैं, जिनकी धार कुंद करने के लिए अस्त होते शासक वर्गों (सामंतवादी) ने लोगों को धार्मिक अंतर्विरोधों में उलझाए रखने का प्रयत्नकिया तथा धर्म के नाम पर भीषण रक्तपात की दरिया में धकेल दिया। वह दो अलग अलग धर्मोे के अलग अलग भगवानों के भक्तों की लड़ाई नहीं थी, बल्कि एक ही धर्म (ईशाइयत) के एक ही ईश्वर के दो तरह भक्तों (कैथलिक और प्रोटेस्टेंट) की लड़ाई थी। शासक वर्गों की पूरी कोशिस के बावजूद अंततः इतिहास आगे ही बढ़ा और आधुनिकता की मध्ययुगीनता पर जीत हुई। ऐतिहासिक परिघटनाओं की व्याख्या के स्रोत के रूप में धर्मशास्त्रीयता को वैज्ञानिकता ने प्रतिस्थापित किया , जिसने परंपर की जगह विवेक को स्थापित किया। इतिहास आसमान से रिरकर खजूर पर अटक गया। सामंती गुलामी की जगह पूंजी की गुलामी ने ले लिया। श्रम-शक्ति युक्त उत्पादक श्रम के साधनों से मुक्त होकर श्रम-शक्ति बेचने को 'स्वतंत्र' हो गया; वह 'बाजार भाव' पर श्रम शक्ति बेचने को ही नहीं, न बेचना चाहे तो मरने को भी स्वतंत्र है। पूर्ववर्ती वर्ग समाजों की ही तरह पूंजीवाद भी कथनी-करनी में विरोधाभास वाली एक दोगली व्यवस्था है, यह जो कहती है, करती नहीं और जो करती है, कहती नहीं। पूंजीवाद में आजीविका के लिए हम श्रमशक्ति बेचने (alienated labor करने) को अभिशप्त हैं और यह अभिशाप को स्वतंत्रता बताती है। नवोदित शासक (पूंजीवादी) वर्ग ने नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियों से उपजी वैज्ञानिकता का औजार के रूप में इस्तेमाल कर ुदारवादी से नवउदारवादी चरण तक पहुंची तथा वैज्ञानिकता इसे बेड़ियां लगने लगी और इसने वापस धार्मिक कठमुल्लेपन पर आधारित प्रतिक्रियावाद को औजार बना लिया। अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के समय युद्ध विरोधी प्रदर्शन में हम लोग नारे लगा रहे थे, 'बिन लादेन अभिशाप है, अमरीका उसका बाप है';..... ।

लेकिन इतिहास गवाह है कि इतिहास अंततः आगे ही बढ़ता है, इसकी गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता। वह कभी कभी आज के अंधे दौर की तरह यू टर्न ले लेता है, लेकिन अंततः जीत कठमुल्लेपन पर वैज्ञानिकता की ही होगी, हमारे जीवनकाल में, हमारे हाथों नहीं तो हमारी नतिनियों के जीवनकाल में उनके हाथों होगी। आइए, विघटनकारी नफरती एजेंडा छोड़कर, हम मानवता की सेवा में सहयात्री बनने का एजेंडा सेट करें।

सादर।

बेतरतीीब 134 (जन्मतिथि)

 हमारे बाबा (दादा जी) क्षेत्र में पंचांग के जाने- माने ज्ञाता माने जाते थे हम सब भाई-बहनों की जन्मकुंडलियां उन्होंने ही बनाया है। मैंने अपनी जन्मकुंडली उनकी लिखावट के नमूने के तौर पर संरक्षित रखा है, जिसके अनुसार मेरा जन्म 26 जून 1955 को हुआ था। प्राइमरी में दो दर्जा फांदने (pre-primary [गदहिया गोल] से कक्षा 1 में और कक्षा 4 से 5 में) की वजह से 9 साल में 1964 में प्राइमरी पास कर लिया। उस समय हाई स्कूल परीक्षा देने की न्यूनतम आयु 15 वर्ष थी। 1 मार्च 1969 को 15 वर्ष का होना चाहिए था तो हमारे हेडमास्टर साहब के दिमाग में फरवरी 1954 की जो भी तारीख आई लिख दिया और इस तरह मेरी अधिकारिक जन्मतिथि 3 फरवरी 1954 है।

शिक्षा और ज्ञान 371 ( मुगल और हिंदुस्तान)

 2 साल पुरानी पोस्ट


जब मुगलों ने पूरे भारत को एक किया तो इस देश का नाम कोई इस्लामिक नहीं बल्कि 'हिन्दुस्तान' रखा, हाँलाकि इस्लामिक नाम भी रख सकते थे, कौन विरोध करता ?

जिनको इलाहाबाद और फैजाबाद चुभता है वह समझ लें कि मुगलों के ही दौर में 'रामपुर' बना रहा तो 'सीतापुर' भी बना रहा। जायसी का पद्मावत और तुलसी का 'राम चरित मानस' भी मुगल काल में ही लिखा गया।

आज के वातावरण में मुगलों की सोचता हूँ, मुस्लिम शासकों की सोचता हूँ तो लगता है कि उन्होंने मुर्खता की। होशियार तो ग्वालियर का सिंधिया घराना था, होशियार मैसूर का वाडियार घराना भी था और जयपुर का राजशाही घराना भी था तो जोधपुर का भी राजघराना था।

टीपू सुल्तान हों या बहादुरशाह ज़फर,,, बेवकूफी कर गये और कोई चिथड़े चिथड़ा हो गया तो किसी को देश की मिट्टी भी नसीब नहीं हुई और सबके वंशज आज भीख माँग रहे हैं। अँग्रेजों से मिल जाते तो वह भी अपने महल बचा लेते और अपनी रियासतें बचा लेते, वाडियार, जोधपुर, सिंधिया और जयपुर राजघराने की तरह उनके भी वंशज आज ऐश करते। उनके भी बच्चे आज मंत्री विधायक बनते। और सिद्धांततः ताज महल या लालकिले की तरह राष्ट्रीय धरोहर न बनाकर, खानदानी महलों को 5-7 सितारा होटल बनाकर लाभ कमाते।

यह आज का दौर है, यहाँ 'भारत माता की जय' और 'वंदेमातरम' कहने से ही इंसान देशभक्त हो जाता है, चाहें उसका इतिहास देश से गद्दारी का ही क्युँ ना हो।

बहादुर शाह ज़फर ने जब 1857 के सशस्त्र किसान क्रांति में अँग्रैजों के खिलाफ़ पूरे देश का नेतृत्व किया और उनको पूरे देश के राजा रजवाड़ों तथा बादशाहों ने अपना नेता माना। भीषण लड़ाई के बाद अंग्रेजों की छल कपट नीति तथा सिंधियाओं और अन्य राजघरानों द्वारा अंग्रेजों की सेवा में भारतीय क्रांति के विरुद्ध गद्दारी से क्रांति कुचल दी गयी और उसके पराजित नेता बहादुरशाह ज़फर गिरफ्तार कर लिए गये।

ब्रिटिश कैद में जब बहादुर शाह जफर को भूख लगी तो अंग्रेज उनके सामने थाली में परोसकर उनके बेटों के सिर ले आए। उन्होंने अंग्रेजों को जवाब दिया कि - "हिंदुस्तान के बेटे देश के लिए सिर कुर्बान कर अपने बाप के पास इसी अंदाज में आया करते हैं।"

बेवकूफ थे बहादुरशाह ज़फर। आज उनकी पुश्तें भीख माँग रहीं हैं।

अपने इस हिन्दुस्तान की ज़मीन में दफन होने की उनकी चाह भी पूरी ना हो सकी और कैद में ही वह "रंगून" और अब वर्मा की मिट्टी में दफन हो गये। अंग्रेजों ने उनकी कब्र की निशानी भी ना छोड़ी और मिट्टी बराबर करके फसल उगा दी, बाद में एक खुदाई में उनका वहीं से कंकाल मिला और फिर शिनाख्त के बाद उनकी कब्र बनाई गयी ! सोचिए कि आज "बहादुरशाह ज़फर" को कौन याद करता है ? क्या मिला उनको देश के लिए दी अपने खानदान की कुर्बानी से ?

ऐसा इतिहास और देश के लिए बलिदान किसी संघी का होता तो अब तक सैकड़ों शहरों और रेलवे स्टेशनों का नाम उनके नाम पर हो गया होता।

क्या इनके नाम पर हुआ ?

नहीं ना ? इसीलिए कहा कि अंग्रेजों से मिल जाना था, ऐसा करते तो ना कैद मिलती ना कैद में मौत, ना यह ग़म लिखते जो रंगून की ही कैद में लिखा :

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में,
किस की बनी है आलम-ए-नापायदार में।
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,
दो आरज़ू में कट गये, दो इन्तेज़ार में।
कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में॥
आज ये संघी बदमाश देश के मालिक बने फिरते हैं जिन्होंने सिवाय गद्दारी के कुछ नहीं किया।
40 सैनिक पुलवामा में बलि जानबूझकर चढ़वा कर शहीदों के नाम पर वोट मांगते नज़र आये।

आसिफ़ा बलात्कार में भगवा गुंडे बलात्कारियों के पक्ष में जलूस निकालते थे।
टपल में आतंकवादी भगवा ब्रिगेड सांप्रदायिक दंगा फैलाने की नियत से दिल्ली, गुरुग्राम और नोयडा से जमा हुये हैं जहाँ इन बदमाशों को किसी का खौफ नहीं।
दरवेश यादव उत्तर प्रदेश की प्रथम महिला बार कांउसिल अध्यक्ष की हत्या मनीष शर्मा नाम का ब्राह्मण कर देता है तो संघी गुंडे चुप रहते हैं और यदि किसी यादव ने किसी ब्राह्मण महिला की हत्या की होती तो अभी तक अखिलेश यादव के घर में आग लगा दी होती। वो यादव भी ध्यान दें जो जय श्री राम का नारा लगाते हैं और संघी गैंग में शामिल हैं।

13.06.2019

Sunday, June 12, 2022

बेतरतीब 133 (विवाह की स्वर्णजयंती)

  मेरे द्वारा फेसबुक पर सरोज जी के साथ शेयर की गयी किसी न किसी तस्वीर पर कल तक हमारी शादी का 50वीं वर्षगांठ (29 मई) की बधाइयां मिलती रहीं, और मैं इतना कृतघ्न हूं कि अभी तक आभार व्यक्त नहीीं किया। सभी मित्रो का बहुत बहुत आभार।

सोचा था कि मित्रों और परिजनों के साथ छोटा सा उत्सव आयोजित करूंगा लेकिन अमेरिका में रह रही मेरी बड़ी बेटी ने कहा कि यह उसके आने तक टाल दूं और फिर माटी (नतिनी) के बिना तीसरी पीढ़ी की उपस्थिति नहीं दर्ज होती। यह उत्सव इसलिए भी जरूरी है कि हमारी शादी का कोई प्रमाण ही नहीं है, न तो शादी पंजीकृत है और न ही उसका कोई फोटोग्राफ ही है। जब भी बेटियों ने उत्सव का आयोजन किया, मित्रों को सूचित/आमंत्रित करूंगा। उस आयोजन के वीडियो 50 वर्ष पहले के विवाह के प्रमाण होंगे। फिलहाल वर्षगांठ की बधाई देने वाले मित्रों का पुनः बहुत बहुत आभार।

हमारी शादी 1972 में हुई, जिसी आज की पीढ़ी के बचेचों को परीकथाओं सी लगने वाली कई कहानियां है, जिन्हें कभी लिखूंगा। उसके तीसरे साल में गवन की रात हमारी पहली मुलाकात 1975 में हुई और उसके 12 साल बाद बड़ी बेटी जब चौथे साल में थी तब हम साथ रहना शुरू किए, अभी तक ताने देती है कि 4 साल उसे गांव में छोड़ग हुआ था। जब भी दोनों बहनों के बारेमें कोई तुलनात्मक बात होती तो वह कहती, पहले इसे 4 साल गांव में छोड़ो।

कुछ मित्रों ने वाजिब सवाल किया है कि गवन के बाद भी 12 साल हम साथ क्यों नहीं रहे? पहली बात तो सैद्धांतिक कारणों से मैं उस उम्र में विवाह के विरुद्ध था लेकिन असफल विरोद के बाद जब विवाह होना सुनिश्चित ही हो गया तो विवाह निभाने का फैसला स्वैच्छिक था क्योंकि किसी सामादिक कुरीति (इस मामले में बालविवाह) के सहपीड़ितों (co-victims) को परिणामों की सहभागिता करनी चाहिए।

वैसे तो शादी के एक साल बाद ही पिताजी के साथ आर्थिक संबंध-विच्छेद कर लिया था यानि पैसा लेना बंद कर दिया था। जंगल तो हमें जाना ही था लेकिन वह हमें चुना इससे बेहतर उसका हमसे चुना जाना था। तो अपनी पढ़ाई-लिखाई की आर्थिक जिम्मेदारी खुद उठानी थी, और उठाया। 6 साल बाद भाई को भी अपने बूते जेएनयू में एडमिसन करा दिया और उसके 4 साल बाद घर वालों से लड़-झगड़ कर बहन का एडमिसन वनस्थली (राजस्थान) में करा दिया। एक बार एक मित्र ने मेरे बारे में मजाक में सही कमेंट किया कि ईश का जीवन संसाधनों से नहीं, साहस से चलता है। तो छात्र जीवन में जिम्मेदारियां तो संभाला लेकिन परिवार चलाना बहुत बड़ी बात लगती थी, जिसके लिए अपने पर भरोसे की कमी लगती थी। हर काम शुरू करते समय सोचता था, जो होगा देखा जाएगा, इस मामले में ऐसा सोचने में थोड़ा हिचक हुई, हमारी मुलाकातें छुट्टी में घर जाने पर होती थीं।

1975 में गवन आने के बाद कुछ दिन साथ रहकर इलाहाबाद चला गया फिर होली की छुट्टी के बाद भी कुछ दिन ज्यादा रुक गया, मेरे पिताजी ने तंज किया कि शादी में मैं इतने नखड़े कर रहा था और अब छुट्टी ही नहीं खत्म हो रही है! वैसे भी, उस उम्र में सामाजिक मान्यता प्राप्त संभोग की असीमित सुलभता बहुत बड़ी बात होती है।

आपातकाल में गिरफ्तारी से बचने के लिए, रोजी-रोटी की सस्या के चलते इलाहाबाद में भूमिगत रहना मुश्किल हो रहा था। न ट्यूसन पढ़ा सकता था, न देशदूत (अखबार)ल में प्रूफरीडिंग कर सकता था और ढाबों तथा चाय-सिगरेट की दुकानों की उधारी सीमा पार कर चुकी थी। रोजी-रोटी की जुगाड़ के साथ भूमिगत रहने की संभावनाओं की संभावनाओं की तलाश में दिल्ली आने का फैसला किया। तब पता नहीं था कि आपातकाल कितना लंबा खिंचेगा और सबसे मिलने घर गया। सरोज जी अपने घर थीं मैंने सोचा फिर कब मिलना होगा, उनसे भी मिलते चलें। बाद में पता चला कि इन्हें बहुत बदनामी और शर्मिंदगी झेलना पड़ा क्योंकि बिना बुलाए ससुराल जाना मान्य सामाजिक नैतिकता के विरुद्ध माना जाता था।

खैर, विस्तृत वर्णन फिर कभी, संक्षेप में यह कि इलाहाबाद आकर फीजिक्स और केमिस्ट्री की सभी और मैथ्स की कुछ किताबें बेचकर, दिल्ली जाने के लिए कुछ पैसों का इंतजाम किया। गणित की कुछ अच्छी किताबें नहीं बेचा कि भविष्य में कभी पढ़ूंगा, जो भविष्य कभी आया नहीं और रिटायर होते समय दिवि की गणित की लाइब्रेरी में दे दिया। इलाहाबाद में यूनिवर्सिटी रोड पर सेकंड हैंड किताबों की बहुत ईमानदार मार्केट होती थी, अब भी होगी। दुकानदार 50 प्रतिशत दाम पर पुरानी किताबें खरीदकर उनकी मरम्मत करके 75 प्रतिशत पर बेचते थे। इलाहाबाद से दिल्ली प्रस्थान के समय की कुछ रोचक कहानियां फिर कभी।

दिल्ली आकर इलाहाबाद के सीनियर और जेएनयूछात्रसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष डीपी त्रिपाठी (वियोगी जी) को खोजते जेएनयू पहुंच गया। त्रिपाठी जी तो तिहाड़ में थे लेकिन इलाहाबाद के एक अन्य सीनियर, रमाशंकर सिंह से मुलाकात हो गयी और उनके कमरे में रहने का इंतजाम हो गया तथा मैं बिना एडमिसन लिए ही जेएनयूआइट हो गया। वे कुछ दिनों के लिए घर गए और लौटे कई महीनों मेें तो मेरे पास स्वतंत्र रूप से सिंगिल सीटेड रूम हो गया। गणित के कुछ ट्यूसन मिल गए और रोजी-रोटी तथा रहने का इंतजाम हो गया। पहला ट्यूसन खोजने की कहानी भी रोचक है जो फिर कभी।

1977 मे आपातकाल खत्म होने के बाद, नियत समय (अक्टूबर) के पहले ही जेएनयू में छात्रसंघ चुनाव के लिे जनमत संग्रह हुआ। प्रत्यक्षजनतंत्र और लेनिन के जनतांत्रिककेंद्रीयता केसिद्धांत के क्रियान्वयन के साक्षी होने का अनुभव सुखद आश्चर्यजनक था। अप्रैल, 1977 में छात्रों के साथ सुनीत चोपड़ा के नेतृत्व में बंसीलाल के विरुद्ध चुनाव प्रचार करने भिवानी गए। उसके रोचक अनुभव फिर कभी। 1977 में एडमिसन शुरू होने पर जेएनयू में एडमिसन लेकर औपचारिक रूप से भी जेएनयूआइट हो गया। इलाहाबाद से आकर जेएनयू की कैंपस संकृति का अनभव सुखद आश्चर्य का अनुभव था।

एमए कर रहा ता तो छोटे भाई ने गांव से इंटर पास किया उसे भी जेएनयू बुलाकर फ्रेंच लभआषा में पांच साला एमए कार्यक्रम में एडमिसन करा दिया, यदि सोचता कि अपना तो ठिकाना ही नहीं है इसकी पढ़ाई का इंतजाम कैसे होगा तो फंस जाता। लेकिन मैं तो इस सिद्धांत पर जीता रहा हूं कि जो होगा देखा जाएगा और कुछ-न-कुछ होगा ही। खैर वह आजकल छोटा-मोटा उद्योगपति है।

राजनीति शास्त्र में एमफिल.फिल/पीएचडी करते हुए फेलोशिप की पूरक आय के लिए डीपीएस में गणित शिक्षक की नौकरी कर ली। इस नौकरी के मिलने-करने-छूटने की कई रोचक कहानियां हैं जो फिर कभी।

1982 में गर्मी की छुट्टी में घर गया तो पाया कि मेरी 8वीं पास बहन की शादी खोजी जा रही है।12 साल छोटी बहन के पैदा होने के 6-7 महीने बाद ही मैं पढ़ने शहर चला गया , छुट्टियों में ही मुलाकात होती थी तो ज्यादा प्रिय है। उसके पढ़ने के अधिकार के लिए पूरे कुटुंब से महाभारत करना पड़ा और अंततः उसे राजस्थान में लड़कियों के स्कूल-विवि वनस्थली विद्यापीठ में दाखिला करा दिया।

1982-83 में मैंने जेएनयू में मैरिड हॉस्टल के लिे अप्लाई कर दिया और लगा था कि 1983 अगस्त सितंबर में बेटी (या बेटा) के जन्म के एकाध महीने में नंबर आ जाएगा। तबी पुरानी जनतांत्रिक एडमिसन पटलिसी को बदलने के विरुद्ध जेएनयू में आंदोलन छिड़ गया। पुलिस आई लोग जेल गए और उसके बाद कैंपस के सभी बड़े संगठनों -- एसएफआई, एआईएसएफ, फ्रीथिंकर्स -- ने अधिकारियों के समक्ष नतमस्तक हो समझौता कर लिया। बहुत से लोगों को कारण बताओ नोटिस जारी हुए और जिन लोगों ने माफी मांगने से इंकार किया वे रस्टीकेट कर दिए गए। ज्यादातर लोग 2 साल के लिए और कुछ लोग 3 साल के लिए, मैं 3 साल वालों में था। कल अभिजीत पाठक और अमित सेनगुप्त से प्रेस क्लब में मुलाकात हुई। हम दोहरी छुट्टी, रविवार, 2 अक्टूबर 1983 को हटस्टल से मेरे eviction (निष्कासन) को याद कर रहे थे। 2017 में 2अक्टूबर रविवार को पड़ा तो मुझे 2013 का 2 अक्टूबर याद आया। उस दिन मुझे 1848 में इंगलैंड में चार्टिस्ट आंदोलन की याद आई थी। सरकार ने प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए पूरे लंदन को सेना और पुलिस की छावनी बना दिया था लेकिन आए 20-30 लोग, जो पुलिस-सेना देखकर शांति से वापस चले गए। मुझे हॉस्टल से निकालने के लिए जेएनयू के सुरक्षातंत्र के अलावा 2 ट्रक पुलिस बुलाई गयी थी। मेरा तो सीना चौड़ा हो गया था कि एक 46-50 किलो के लड़के का इतना आतंक! प्रतिरोध के लिए हम 15-20 लोग थे। किसी ने चीफ प्रॉतक्टर रामेश्वर सिंह से कहा, "Mr. Rameshwar Singh you look like a joker", तब अभिजात पाठक ( जेएनयू के समाजशास्त्र के रिटायर्ड प्रोफेसर) ने कहा था,"No, no, he looks like a villain of a third rate Hindi film". खैर 3 सितंबर को मेरी बेटी पैदा हुई और 2 अक्टीबर को मैं विवि से 3 साल के लिए निकाल दिया गया। और पत्नी-बेटी के साथ रहना टल गया।

जेएनयू से 3 साल के लिए, निकाले जाने के बाद भी मैं जेएनयू में ही रहता रहा पहले अजय मिश्रा (अब रिटायर्ड आईएएस) और फिर अकील (सेक्रेटरी गालिब एकेडमी) के कमरे में तथा डीपीएस में पढ़ाता रहा। 1985 में साकेत में एक फ्लैट लिया कि बेटी डेढ़ साल की होने वाली है और अब बाप के भी साथ रहनी चाहिए। बहन को वनस्थली से लेकर आया था। 1 मई से स्कूल का ग्रीष्मावकाश शुरू हुआ और 1 मई की सुबह ही स्कूल का चपरासी नौकरी से निष्कासन की चिट्ठी लेकर आ गया। इसकी कहानी फिर कभी। मैं डीपीएस प्रशासन से लड़ाई में उलझ गया और पत्नी-बेटी के साथ रहने की शुरुआत फिर टल गई। जब पानी सिर के ऊपर आ गया बेटी चौथे साल में स्कूल जाने की उम्र की हो गयी तब हम साथ रहना शुरू किए। जिस दिन ये दिल्ली आए उसी दिन एक बहुत बड़ी पारिवारिक त्रासदी की खबर मिली, जिसकी कहानी फिर कभी। तबसे हम साथ रह रहे हैं। 2013 में बड़ी बेटी की शादी हो गयी और 2019 में छोटी की। फिलहाल हम दोनों ही साथ हैं। छोटी बेटी ने मां-बाप का ध्यान रखने के लिए नजदीक में ही घर ले लिया है।

विवाह के वर्षगांठ की बधाइयों के लिए एक बार फिर सभी का आभार।

13.06.2022/1.46 AM

Saturday, June 11, 2022

बेतरतीब 132 (उर्दू)

 उर्दू सीखना बहुत आसान है, उर्दू के किसी भी जानकार से लिपि सीख लीजिए जो कि बहुत आसान है और अक्षरों को जोड़ने और न जुड़ने के कुछ आसान नियम हैं। बाकी शब्दावली वही है जो हिंदी की। मैंने 1977 में जेएनयू के एक इलाहाबादी मित्र (दिवंगत प्रोफेसर अली जावेद) से सीखा था, लिखने और पढ़ने का कभी अभ्यास नहीं रहा, फिर भी आज भी लिख लेता हूं और दिमाग पर जोर देकर थोड़ा-बहुत पढ़ लेता हूं। मैंने उर्दू (1977) और बांगला (1970) लिपियां उनके सुलेखीय सौंदर्य (calligraphic aesthetics) के लिए सीखा था। बांगला भी लिखने पढ़ने का कभीअभ्यास नहीं रहा, फिर भी कुछ संयुक्ताक्षरों को छोड़कर लिख-पढ़ सकता हूं। भाषा (उर्दू) का सांप्रदायिककरण भी देश के बंटवारे की त्रासदियों में है।

पाली प्राचीन जन भाषा थी और ज्यादातर प्राचीन बौद्ध साहित्य पाली में ही है। उर्दू अरबी, फारसी और तुर्की के बहुत से शब्दों को समाहित कर दिल्ली के इर्द-गिर्द क्षेत्र में बोले जाने वाली भाषा की बुनियाद पर 12वीं शताब्दी में विकसित होना शुरू हुई। हिंदी (खड़ी बोली) और उर्दू बहनें कही जाती हैं क्योंकि दोनों का विकास एक ही व्याकरण और शब्द-संरचना (syntax) की बुनियाद पर साथ-साथ शुरू हुआ। उर्दू में साहित्य लेखन 14वी-15वीं शताब्दी में शुरू हुआ जिसमें बहुत से मशहूर सिख और हिंदू साहित्यकार हैं। समाज में सांप्रदायिकता के प्रसार के साथ भाषा का भी सांप्रदायिककरण हो गया और उर्दू को मुसलमानों की भाषा बना दिया गया।

Friday, June 10, 2022

बेतरतीब 131 (सत्यनारायण कथा)


बेतरतीब 131 (सत्यनारायण कथा)

1970 की बात है, 15 साल का था, गर्मियों की छुट्टी में घर आया था। बाग के किनारे कुँए की रहट के पास बाबा (दादा जी) की कुटी के ओसारे में लेटा इब्ने शफी बीए का कोई उपन्यास पढ़ रहा था, रहट चल रही थी। मीरपुर (गांव की एक दलित बस्ती) के कुबेर दादा पैलगी कर रहट के हौज के मुहाने से हाथ-मुंह धोकर, पानी पीकर चिंतित मुद्रा में बैठ गए। पता चला कि शहर में मजदूरी करने वाले बच्चों की मदद से नया कच्चा घर बनवाए हैं और उसमें रहना शुरू करने के पहले उसमें सत्यनारायण की कथा सुनना चाहते हैं लेकिन पंडित जी काली माई के थाने ही सुनने को कह रहे हैं। मैंने कहा चलिए मैं कह देता हूं। पुरोहिती करने वाले पंडितजी (छांगुर दादा) के पोते से कथा की एक पोथी और शंख लेकर उनके घर कथा कहने चला गया। तभी पता चला कि इसमें कथा तो सुनाई ही नहीं जाती, पोथी में तो कथा सुनने के फायदे और वायदा करके न सुनने के नुक्सान की ही बात है। खैर कुबेर दादा और उनके परिवार के आस्था की बात थी। जब हवन करने की बारी आयी तो जो भी मन में आया स्वाहा कर दिया। दक्षिणा बच्चों में बांटकर 4-5 किमी दूर मिल्कीपुर चौराहे पर अड्डेबाजी करने चला गया, गांव के सब लोग बहुत नाराज, मेरे बाबा गुस्से में ढूंढ़ रहे थे, देर शाम को वापस घर आया तो उनका गुस्सा शांत हो गया था। एक हमउम्र कुटुंबी ने बाबा को बताया कि मैं आ गया था तो उन्होंने कहा पागल है कुछ भी कर सकता है। 

गांव के दलित के घर जाकर कथा बांचने की यह घटना कई दिनतक मेरे और बगल के 2-3 गांवों में चर्चा और निंदा का विषय बना रहा। हमारे पुरवा में छांगुर दादा ही पुरोहिती करते थे, उन्हीं के अपने हमउम्र पोते से पोथी मांगकर ले गया था। क्रोध में बोले 'तुम्हें कथा बांचने का अधिकार नहीं हैं', मैंने कहा था कि अब तो बांच दिया। पोथी अपवित्र करने की बात करने लगे तो मैंने कहा कि उनके पास तो तो बहुत पोथियां हैं। मेरे बाबा ने बचपन में मेरा नाम पागल रख दिया था, कुछ भी असामान्य (अच्छी) बात होती तो कहते कि पगला ने किया होगा। 1975 में गवन बाद जब मेरी पत्नी आईं तो बाबा द्वारा मेरे लिए बार बार पगला का संबोधन सुनकर उन्हें लगा कि कहीं धोखे से उनकी शादी किसी पागल से तो नहीं हो गयी थी और अपनी शंका के समाधान के लिए उन्होंने अइया (दादी जी) से पूछ ही लिया। अइया के पहले पास बैठी माई ने मेरे 'सोझवापन' के हवाले से उनकी शंका का समाधान करने की कोशिस की थी। खैर तब तो उन्हें संदेह भर था जब साथ रहने लगे तो उन्हें विश्वास हो गया।

Thursday, June 9, 2022

मार्क्सवाद 266 (जातिवाद)

 DS Mani Tripathi & Yadav Shambhu आप लोग निजी आरोप-प्रत्यारोप से बचें, इस औपचारिक जनतंत्र को हम बुर्जुआ जनतंत्र कहते हैं जोकि मौजूदा स्थिति में संख्या तंत्र बन चुका है तथा सभी चुनावी दल चुनावक्षेत्र की जातीय संरचना के अनुसार फम्मीदवार खड़ा करते हैं। यूरोप में नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियों (बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रांति) ने जन्म आधारित समाज विभाजन समाप्त कर दिया था। इसीलिए मार्क्स-एंगेल्स ने 1848 में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टों में लिखा कि पूंजीवाद ने सामाजिक विभाजन को सरल कर दिया है और समाज को पूंजीपति वर्ग और सर्वहहारा के परस्पर विरोधी खेमों में बांट दिया है। भारत में सामाजिक-आध्यात्मिक समानता के संदेश लिए कबीर के साथ शुरू नवजागरण अपनी तार्किक परिणति तक पहुंच नहीं सका तथा औपनिवेशिक हस्तक्षेप के चलते संभावित प्रबोधन (बुर्जुआ डेमोक्रेटिक) क्रांति शुरू नहीं हो सकी। 1853 में मार्क्स जब भारत पर लिखना शुरू किए तो असमंजस में पड़ गए और यहां कि स्थिति उनके निर्धारित उत्पादन पद्धतियों (modes of production) के ढांचे में फिट न हो सकी तो यहां के लिए उन्होंने अलग उत्पादन पद्धति का प्रतिपादन किय -- एसियाटिक उत्पादन पद्धति (Asiatic mode of Production)। उस समय मार्क्स को लगा था कि जिस तरह औद्योगिक उदारवादी पूंजीवाद सामंतवाद को ध्वस्त कर उसके खंडहरों पर खड़ा हुआ उसी तरह औपनिवेशिक पूंजीवाद भारत में पूंजीवाद के विकास के लिए एसियाटिक मोड को ध्वस्त करेगा। लेकिन औपनिवेशिक पूंजीवाद की मंशा भारत में पूंजीवाद का विकास करने की बजाय यूरोप में पूंजीवाद के विकास के लिए यहां के संसाधनों की लूट था और उसने एसियाटिक (वर्णाश्रमी) मोड को तोड़ने की बजाय इसका इस्तेमाल लूट के लिए किया। आजादी के बाद की चुनावी संख्यातंत्र की परिघटनाओं ने जन्म आधारित विभाजन (जातिवाद) को तोड़ने की बजाय उसे और मजबूत किया। जन्म में के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद (जातिवाद) का मूलमंत्र है। जवाबी जातिवाद (नवब्राह्मणवाद) भी वही करता है। भारत में अपूर्ण बुर्जुआ डेमोक्रेटिक (सामाजिक न्याय की) क्रांति की जिम्मेदारी भी कम्युनिस्ट आंदोलन की थी जो इसे समझ न सका ओऔर लगा वर्ग संघर्ष से जातिवाद अपने आप खत्म हो जाएगा। लेकिन ब्राह्मणवाद और नवब्राह्मणवाद वर्ग संघर्ष के लिए आवश्यक वर्गचेतना के प्रसार (सामाजिक चेतना के जनवादीकरण) के रास्ते के सबसे बड़े गतिरोधक बने हुए हैं। इसीलिए आज जरूरत सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय के संघर्षों की एकता की है जिसका प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व जय भीम-लाल सलाम नारा करता है।

बेतरतीब 130 (50 वीं सालगिरह)

 सरोज जी के साथ विवाह की 50 वीं सालगिरह (29 मई) पर सुबह सुबह एक सेल्फी के साथ सूचना शेयर किया, साथ फोटो वाली एक फेसबुक मेमरी शेयर किया दोनों पर अनगिनत बधाइयां मिलीं, तैयार होकर बेटी-दामाद के साथ खाना खाने बाहर जाते समय फिर एक सेल्फी ले लिया था, आज सरोज जी ने शिकायत किया कि वह फोटो क्यों नहीं शेयर किया? तो उस पर भी ढेरों बधाइयां मिलने लगी हैं।

इतनी बधाइयों और शुभकामनाओं के लिए सभी मित्रों का कोटिशः आभार। मैंने लिखा था कि हमारे विवाह की कहानियां आज, नवउदारवादी युग की पीढ़ी के लिए दंतकथाओं की तरह हैं। कुछ मित्रों ने कहानियां सुनाने का आग्रह किया, नई लिखने के पहले की वर्षगांठों पर लिखी कुछ कहानियां एक एक कर शेयर करूंगा। हम शादी के 15 और गवन के 12 साल बाद साथ रहना शुरू किए उस पर भी कुछ मित्रों ने सवाल किया, उसकी भी कहानी लिखूंगा, अभी इतना बता दूं कि तब मैं 12वीं का छात्र था (परीक्षाफल निकलने के पहले ही विवाह हो गया था) और अन्यान्य कारणों से उसके बाद लंबा छात्र जीवन रहा।

सभी मित्रों की बधाई के लिए एक बार फिर से आभार।

मार्क्सवाद 265 (ब्राह्मणवाद)

 हर युग में वही शासक वर्ग होता है जिसका आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण होता है। नवउदारवादी भारत के शासक वर्ग धनपशु (पूंजीपति) ब्राह्मणवाद को औजार बनाकर मुल्क लूट रहे हैं। हिंदुत्व ब्राह्मणवाद की राजनैतिक अभिव्यक्ति है। क्लासिकल वर्णाश्रमवाद में भी सत्ता और आर्थिक संसाधनों पर कभी भी जातीय समूह के रूप में ब्राह्मणों का नियंत्रण नहीं रहा, लेकिन चूंकि वर्णाश्रम व्यवस्था को वैचारिक रूप देने वाले बुद्धिजीवी ब्राह्मण थे इसी लिए विचारधारा के रूप में ब्राह्मणवाद वर्णाश्रमवाद के पर्याय के रूप में इस्तेमाल होता है।

Tuesday, June 7, 2022

split personality

 In a split society and the world , the human beings have split personality -- split into the self's sense of self interest and self's sense of justice (or right). In order to get out of the inbuilt egocentric prejudices and enjoy happiness in the real sense of the term one must give priority to self's sense of justice over the self's sense of self interest. For example as a man my self's sense of self interest is defiance of the patriarchal values but if I wish to be just , I must shed away my male egocentric prejudices.

शिक्षा और ज्ञान 371 (धार्मिक असहिष्णुता)

अर्थ ही मूल है, हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से समाज में सांप्रदायिक विषवमन सांप्रदायिक राजनीति में चुनावी ध्रुवीकरण के लिए जरूरी है और अरब की राजशाहियों के समक्ष नतमस्तक होना पेट्रो-डॉलर की जी-हुजूरी की मजबूरी। नूपुर शर्मा का इस्तेमाल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से चुनावी फायदे के उद्देश्य से समाज को सांप्रदायिक नफरत से प्रदूषित करने के लिए किया गया और अरब आकाओं की जी हुजूरी में उनकी बलि दे दी गयी। जब तक लोग धर्मांधता की भावनाओं में बहते रहेंगे चतुर-चालाक मजहबी कारोबार के सियासतदां उन्हें उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे। 


प्रकारांतर से नूपुर शर्मा प्रसंग की एक पोस्ट पर कट्टरपंथियों के एकसमान होने के एक कमेंट के जवाब में एक मित्र ने कहा कि बंदर तथा पेड़ पौधों को पूजने वाला तथा नाग को दूध पिलाने वाला हिंदू कभी कट्टरपंथी हो ही नहीं सकता, उसका कट्टरपंथ प्रतिक्रियात्मक मजबूरी है, उस पर:


धार्मिक मिथ्या चेतना की अफीम की खुमार में हर धार्मिक को अपने धर्म के बारे में ऐसा ही लगता है, सभी अपने अपने धर्म के बारे में ऐसे ही तर्क-कुतर्क करते हैं तथा अपने घृणित कुकर्मों का औचित्य साबित करने के लिए क्रिया-प्रतिक्रिया का ऐसी ही शगूफेबाजी करते हैं, जैसा कि अटल बिहारी बाजपेयी ने 2002 में गुजराज के भीषण नरसंहार और सामूहिक बलात्कार के औचित्य के लिए किया था। ईमानदारी से इतिहास पढ़ने की जरूरत तो सांप्रदायिकता के जहरीले नशे में चूर सांप्रदायिकता के झंडबरदारों को है, जिसके लिए जरूरी है शाखा के बौद्धिक में सिखाए अफवाहजन्य इतिहासबोध से मुक्त होकर , आंखों से सांप्रदायिक मिथ्याचेतना की पट्टी हटाकर, जीववैज्ञानिक संयोग से मिली हिंदू-मुसलमान की अस्मिता से ऊपर उठकर सांप्रदायिक अंधभक्त से विवेकशील इंसान बनना। इसके लिए जरूरी है साहसिक आत्माववलोकन और आत्मालोचन। वर्षों की शाखा की फौजी ड्रिल से दिमाग की स्वतंत्र चिंतन के की जगह अनुशरण की आदत से पीछा छुड़ाना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन आसान काम तो सब कर लेते हैं। जब बाल-किशोर स्वयंसेवक था तब मैं भी आपकी ही तरह सोचता था तथा शाखा में पिलाई गयी नफरती संस्कारों की घुट्टी के नशे से मुक्त होने के लिए भीषण आत्मसंघर्ष करना पड़ा। प्लैटो अपनी शिक्षा सिद्धांत के पाठ्यक्रम में कहता है कि बच्चों की शिक्षा जन्म से ही शुरू कर देनी चाहिए क्योंकि शिशु-बाल्यावस्था में व्यक्ति मोम की तरह होता है, उसे जैसा आकार चाहें दिया जा सकता है। दिमाग को स्वच्छंद वितरण से रोकने कर अनुशरण के रास्ते पर डालने तथा फौजी ढर्रे पर आज्ञापालन-अनुशरण की आदत के संचार के लिए प्रारंभिक शिक्षा (0-18 वर्ष) के पाठ्यक्रम में केवल व्यायाम और संगीत रखता है। आरएसएस के संस्थापक विचारों ने जाने-अनजाने प्लैटो के शिक्षा सिद्धांत को अपनाते हुए शिशु स्वयंसेवक से ही सांप्रदायिक विषवमन की फौज तैयार करने की योजना बनाया। शैशव काल से शुरू कर वयस्क होने तक पिलाई गई घुट्टी का मन-मष्तिष्क पर असर इतना गहरा होता है कि वह अफवाहजन्य इतिहासबोध को ही सत्य के रूप में आत्मसात कर लेता है और कभी आत्मावलोकन और आत्मालोचना का साहस ही नहीं कर पाता। वह दूसरों को नहीं छलता बल्कि आत्मछलावे का शिकार होता है, वह जो कहता है, स्वयं भी उसी को सत्य मानता है। मेरे बाबा (दादा जी) दूसरों को ही ग्रह-नक्षत्रों के आधार पर किसी काम का शुभ मुहूर्त नहीं बताते थे बल्कि खुद भी उसे ही अंतिम सत्य मानते थे। मेरी आठवीं (जूनियर हाई स्कूल) की परीक्षा का केंद्र नदी के बीहड़े से होते हुए ऊबड़-खाबड़ रास्ते से 20-25 किमी दूर पड़ा था। सुबह 7 बजे की परीक्षा के लिए रात 12 बजे की साइत (मुहूर्त) थी। आधी रात को अपने 12 वर्षीय पोते को लेकर परीक्षा केंद्र पहुंचाने निकल पड़े। शाखा प्रशिक्षित स्वयंभू राष्ट्रभक्त (उसे राष्ट्रवाद की परिभाषा ही नहीं मालुम होती) सांप्रदायिकता को ही राष्ट्रवाद मानता है और साम्प्रदायिक विषवमन को राष्ट्र सेवा क्योंकि इसे ही वह वर्षों के प्रशिक्षण में अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेता है। सादर। कृपया इसे खास अपने ऊपर न लें। मैंने भी सार्वजनिक जीवन में शाखा के माध्यम से प्रवेश किया था तथा आत्मसात किए सांप्रदायिक अंतिम सत्य की मिथ्या चेतना की मुक्ति के लिए पढ़ाई-लिखाई के अलावा विकट आत्मसंघर्ष करना पड़ा, ऐसा न करता तो भौतिक सुख-सुविधाओं के अर्थ में आज बहुत बेहतर स्थिति में होता। लेकिन जैसा बोएंगे वैसा ही काटेंगे। मेरी बड़ी बेटी ने अपनी ऐसी ही किसी बात पर हास्यभाव में कहा था कि बबूल बोओगे तो आम कैसे तोड़ोगे? 2 साल की बच्चे को जंग है जंगे आजादी जैसे गीत सिखाते थे तो जानते नहीं थे कैसी होगी? इस प्रसंग की चर्चा फिर कभी।

शिक्षा और ज्ञान 370 (धार्मक असहिष्णुता)

 


फिलिस्तीन में जनसंहार से किसी इस्लामी राजशाही या गणतंत्र के शासकों की भावनाएं आहत नहीं होतीं, भारत में गोहत्या की अफवाह या संदेह से मुसलमानों की हत्याओं या दंगों में होने वाली हत्याओं पर उनकी भावनाएं आहत नहीं होतीं लेकिन किसी चैनल पर पैगंबर के बारे में शासकदल की एक प्रवक्ता की टिप्पणी से उनकी भावनाएं इस कदर आहत हुईं कि उनकी सम्मिलित प्रतिक्रिया से हिंदू-मुसलमान नरेटिव से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की संजीवनी पर आश्रित राजनैतिक जीवन वाली शासक पार्टी को अपनी प्रवक्ता को निलंबित करना पड़ा।

अर्थ ही मूल है, हिंदुस्तान में हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से समाज में सांप्रदायिक विषवमन चुनावी ध्रुवीकरण के लिए जरूरी है और अरब की राजशाहियों के समक्ष नतमस्तक होना पेट्रो-डॉलर की जी-हुजूरी की रणनीति। नूपुर शर्मा का इस्तेमाल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से चुनावी फायदे के उद्देश्य से समाज को सांप्रदायिक नफरत से प्रदूषित करने के लिए किया गया और अरब आकाओं की जी हुजूरी में उनकी बलि दे दी गयी। जब तक लोग धर्मांधता की भावनाओं में बहते रहेंगे चतुर-चालाक मजहबी कारोबार के सियासतदां उन्हें उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहेंगे।

Wednesday, June 1, 2022

ईश्वर विमर्श 105 (नास्तिकता)

 हर देश में ईश निंदा के विरुद्ध इतने कठोर कानून हैं और उससे भी अधिक धर्मोंमादी भीड़ के प्रकोप का इतना भय है कि नास्तिक बेचारा अंधभक्ति के एजेंडे पर खासकर ईश्वर के बारे में बहुत संभलकर प्रतिक्रिया देता है। किसी के विरुद्ध लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काना बहुत आसान होता है। प्राचीन यूनान में एथेंस की न्यायिक सभा में जब (वर्ष 399 ईशापूर्व) सुकरात पर नास्तिकता फैलाने का मनगढ़ंत मुकदमा चल रहा था तो बाहर धर्मोंमादी भीड़ सुकरात की मौत की मांग के नारे लगा रही थी। सुकरात को तो मार डाला गया लेकिन साथ ही शुरू हो गया गौरवशाली यूनानी दार्शनिक-शैक्षणिक परंपराओं का पतन। उसी तरह 1600 में रोमन चर्च में पादरियों द्वारा वैज्ञानिक, दार्शनिक, लेखक, ब्रूनो पर 7 साल मुकदमा चलाने के बाद जब उन्हें चौराहे पर जिंदा जलाने की सजा को अंजाम दिया जा रहा था तो धर्मोंमादी भीड़ उल्लास में जश्न मनाते हुए तमाशा देख रही थी। कलबुर्गी, गौरी लंकेश, पंसारे, दाभोलकर या पाकिस्तान में मशाल खां की हत्याओं पर भी धर्मोंमादी मानसिकता के लोगों ने जश्न मनाया। धर्मोंमादी मानसिकता बहुत ही अमानवीय, क्रूर और बर्बर होती है, इसलिए नास्तिकों को बहुत फूंक फूंक कर चलना पड़ता है।