मामला पीढ़ी का नहीं है, मामला आधुनिक राष्ट्र-राज्य से उपजी राष्ट्रवाद की मिथ्या चेतना का है जिसमें हर ऐरा-गैरा राष्ट्र का प्रवक्ता बन जाता है। एक अदना सा अमरीकी अमरीका का प्रवक्ता बन न्यूयॉर्क के किसी रेस्त्रां में घुसकर अश्वेत या भारतीय मूल के नागरिकों को लक्ष्य कर यह कहते हुए गोलीबारी करने लगता है कि मेरे देश से निकल जाओ जैसे देश उसके बाप का हो। यहां कोई भी ऐरा-गैरा अंधभक्त सरकार की आलोचना करने पर किसी को भी पाकिस्तान-अफगानिस्तान भेजने लगता है, जैसे यह मुल्क उसके बाप का हो और पाकिस्तान-अफगानिस्तान में गेस्टहाउस खोल रखा हो। पेप्सी का विज्ञापन करने वाले 11 लड़के एक मैच हार गए तो लोग कहते हैं, वेस्टइंडीज ने भारत को लौंद डाला।
उजड्डई की बात इस पीढ़ी या उस पीढ़ी की नहीं है। खेल भावना के विपरीत हर स्तर पर हर खेल में दुर्भाग्य से युद्धोन्मादी टीम भावना होती है। हमारे बचपन में गांव में शुटुर्र, बदी (झाबर) या कबड्डी जैसे कई खेल थे जिनमें छू जाने या न छू जाने के सीमांत मामलों में झगड़ा हो जाता था और कई बार खेल बंद। यदि इस मामले में मेरे छूने या छू जाने की बात होती और खेल बंद होने की नौबत आती तो मैं विपक्षी टीम की बात यह सोचकर मान लेता कि कौन सी खेत-मेड़ की लड़ाई है। मुझे टीम पर भार (liability) माना जाने लगा और दोनों गोल (टीम) बन जान के बाद गींटी या पत्ते की लॉटरी से तय होता था कि मैं किस टीम में रहूंगा। 1978-79 की बात है, भारत पाकिस्तान का मैच चल रहा था। हम लोग जेएनयू में सतलज हॉस्टल के कॉमनरूम में टीवी पर मैच देख रहे थे। वह बेदी, प्रसन्ना, चंद्रशेखर, वेंकटराघवन की स्पिन चौकड़ी के दबदबे का आखिरी चरण था। जहीर अब्बास और जावेद मियांदाद ताबड़तोड़ छक्के-चौके मार रहे थे। जहीर अब्बास ने बेदी की गेग पर एक खूबसूरत छक्का जड़ा और मेरे मुंह से 'अरे वाह' निकल गया और लोगों ने ऐसे गुस्से में देखा जैसे किसी सांप्रदायिकता विरोधी तार्किक बात पर आज अंधभक्त देखते हैं। शुक्र था कि मेरा नाम ईश मिश्र है, ईश अहमद नहीं। जब क्रिकेट राष्ट्रोंमाद का यह आलम जेएनयू में था तो और जगह की बात ही छोड़िए।
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