Friday, October 29, 2021

मार्क्सवाद 257 (पेंसन)

 पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम पर एक पोस्ट पर एक भक्त पत्रकार ने पूछा मेरी पेंसन कितनी है, उसका मैंने यह जवाब दिया --


मेरी पेंसन का पेट्रोल के दाम से क्या ताल्लुक? नतमस्तक समाज में सर उठाकर चलने के जुर्म में अभी मेरी पूरी पेंसन जारी नहीं हुई है, रिटायर होने के ढाई साल बाद जिस ग्रेड में रिटायर हुआ उसके शुरुआती स्केल के आधार पर प्रोविजनल पेंसन बनी है, जो पूरी पेंसन से काफी कम है, लेकिन वह भी आयकर कटकर भी फिलहाल काफी है, शायद आम पत्रकारों के वेतन से अधिक। लेकिन रिटायर जीवन में आवाजाही कम होने के चलते पेट्रोल कम ही खरीदना पड़ता है। लेकिन पेट्रोल/डीजल मैं ही नहीं खरीदता वे भी खरीदते हैं जिनकी आमदनी हमारी पेंसन जितनी नहीं है। डीजल किसान के खेत जोतने में भी खर्च होता है, वस्तुओं के ट्रांसपोर्ट में लगता है जिससे उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ते हैं जिसका असर जनजीवन पर पड़ता है। सरकार के अंधभक्त उसकी हर नीति के औचित्य का कुतर्क गढ़ लेते हैं और आमजन धीरे धीरे कष्ट सहने की आदत डाल लेता है और विरोध की बात या साहस उसके मानस पटल से गायब हो जाता है लेकिन संचित कष्टों का असंतोष जब फूटता है तो क्रांति की ज्वाला बन जाता है। अधीनता स्वीकार करने की आमजन की आदत उस हाथी की तरह होती है जो बचपन में महावत के बंधन को तुड़ा नहीं पाता फिर अधीनता की आज़दत पड़ जाती है और उसे अच्छी लगने लगती है।

उस पर उन्होंने कहा कि मुझे सरकार बिना काम के इतना या ज्यादा पैसादेती है जितना एक पत्रकार दिन-रात मेहनत करके पाता है, तो मुझे सरकार से अपनी पेंसन बंद करने के लिए कहना चाहिए। उस पर --

स्व से ऊपर न देख पाने वाला स्वार्थी जीव किसी के सरोकार को स्वार्थ से ऊपर नहीं देख समझ पाता। छुटभैये पत्रकाकारों की तनखाह से अधिक तो पूरी पेंसन से बहुत कम प्रॉविजनल पेंसन ही है, पूरी तो बहुत अधिक होगी।मेरी चिंता अपने लिए नहीं, मजदूर के रूप में अपने अधिकारों से अनभिज्ञ स्वेच्छा से अपने मालिक धनपशुओं के लिए दयनीय मजदूरी पर खटने वाले आप जैसे छुटभैये पत्रकारों के लिए है। वैसे तो आजकल के ज्यादातर पत्रकार पत्रकारिता कम दलाली ज्यादा करते हैं। मेरी पेंसन से परेशान पेट्रोल और शिक्षा की धंधेबाजी करने वाले एक फेसबुक ग्रुप के एक छुटभैये धनपशु के ऐसे ही जहालती कमेंट पर इस पर मैं एक लंबा लेख पोस्ट कर चुका हूं। ब्लॉग से खोजकर लिंक शेयर करूंगा। सरकारी मजदूरों की पेंसन से जलने वाले मिथ्या चेतना के शिकार आप जैसे बहुत से मजदूर प्रकारांतर से अनजाने में धनपशुओं के एजेंट का काम करते हैं। मार्क्स ने पूंजीपतियों के इन मुफ्त के कारिंदों को लंपट सर्वहारा कहा है। लंपट सर्वहारा वह होता है जो श्रम बेचकर आजीविका कमाने के चलते हकीकत में मजदूर होता है लेकिन खुद को मालिक के साथ जोड़कर देखता है और उसके हितों की रक्षा में मजदूर वर्ग के साथ गद्दारी करता है। मालिक या सरकार की दलाली करने वाला लंपट सर्वहारा अज्ञान के चलते मजदूर की पेंसन सरकार की खैरात समझता है, राजनैतिक राजनैतिक अर्थशास्त्र का इतिहास पढ़ा होता तो उसे मालुम होता कि पेंसन खैरात नहीं होती बल्कि पेंसन फंड मजदूर की अपनी संचित कमाई होती है, जिससे वह अपने सक्रिय जीवन की कमाई से जीवन की सांध्य बेला बिना किसी के आगे हाथ पैलाए आराम से, बिना आर्थिक दबाव के सार्थक सर्जक काम करते हुए जी सके। मजदूरों ने काम के घंटे और पेंसन के अधिकार लंबे संघर्षों से हासिल किए हैं जिन्हें मौजूदा सरकारें छीनती जा रही हैं और मजदूरों में आप जैसे लंपट सर्वहारा की बहुतायत के कारण उसके प्रभावी विरोध नहीं हो पा रहा है। लेकिन भावी इतिहास हमारा (मजदूरों का) है, जब हमारा संघर्ष जोर पकड़ेगा तो लंपट सर्वहारा भी पाला बदलकर हमारे साथ खड़ा होगा। प्रोफेसर की तनखॉह और रिटायर होने के बाद की पेंसन उसके लंबे संघर्ष और श्रम का परिणाम है, सरकार या किसी धनपशु की खैरात नहीं। वैसे तो आपने भी पेंसन वाली केंद्र या सरकारी नौकरी पाने की पूरी कोशिस की होगी, लेकिन हर जगह से रिजेक्ट होने के बाद जुगाड़ से पत्रकार बन गए होंगे। मैं भी पत्रकार रहा हूं, और उस समय पत्रकारों के संगठनों की प्रतिष्ठा होती थी, पत्रकार मालिक या सरकार की कारिंदगी नहीं करता था। पत्रकारों समेत सभी मजदूरों के सम्मानजनक वेतन और काम की शर्तों की शुभकामनाएं।

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