कुछ मर्दवादी करवाचौथ का महिमामंडन यह कह कर करते हैं कि स्त्रियां स्वेच्छा से पुरुषों के लिए भूखी रहती हैं, ये सांस्कृतिक वर्चस्व के अप्रत्यक्ष बलप्रयोग से अनभिज्ञ हैं। मर्दवाद जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है बल्कि एक विचारधारा है तथा विचारधारा उत्पीड़क एवं पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है। कुछ लड़कियां भी बेटा की साबाशी को साबाशी ही मानती हैं। अतः मर्दवादी होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं है और न स्त्रीवादी होने के लिए स्त्री होना।
आप समय के आगे नहीं देख सकते इसलिए आपको लगता है कि समय के साथ यह (करवा चौथ जैसी मर्दवादी परंपरा) और प्रगाढ़ हो जाएगी। यह टूटेगी या प्रगाढ़ होगी यह तो समय ही बताएगा। मर्दवाद एक विचारधारा के रूप में सांस्कृतिक वर्चस्व का अभिन्न अंग है। सांस्कृतिक मूल्यों को हम अपने सामाजिककरण के दौरान अंतिम सत्य के रूप में इस कदर आत्मसात कर लेते हैं कि वे हमारे व्यक्तित्व के अभिन्न अंग बन जाते हैं और उन्हें unlearn करने में समय लगता है। मर्दवादी सांस्कृतिक वर्चस्व समाप्त होने के साथ साथ उसके रीति-रिवाज भी समाप्त हो जाएंगे। और स्त्रीवादी प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान की गति देखते हुए मर्दवादी वर्चस्व की समाप्ति अवश्यंभावी है। आज लड़कियां किसी भी क्षेत्र में लड़कों से पीछे नहीं हैं, बल्कि हर क्षेत्र में आगे ही हैं। 1982 में आठवीं के बाद बाहर जाकर अपनी बहन की आगे की पढ़ाई के लिए पूरे खानदान से भीषण संघर्ष करना पड़ा था। जिद करके उसका दाखिला राजस्थान में वनस्थली विद्यापीठ में कराया, जहां से उसने कक्षा 9 से एमए और बीएृड कीपढ़ाई की। हमारे छात्र जीवन से अब तक स्त्रीवादी प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान का रथ इतना आगे निकल चुका है कि आज कोई भी बाप सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकता कि वह बेटा-बेटी में भेद करता है, एक बेटा पैदा करने के लिए 4 बेटियां भले ही पैदा कर ले। उसी तरह जैसे बड़ा-से-बड़ा जातिवादी भी जाति के आधार पर भेदभाव की बात नहीं कह सकता। यह स्त्रीवाद की सैद्धांतिक विजय है जिसका व्यवहार रूप लेना समय की बात है, लेकिन सांस्कृतिक परिवर्तन का टाइमटेबल नहीं तय किया जा सकता।
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