Arvind Rai किताबें "मारने " के बावजूद, वह पढ़ने-लिखने वाला प्रिय मित्र था, पिछली साल 65 से कम उम्र में उसकी अकाल मृत्यु हो गयी। रूसो की आत्मकथा 'द कन्फेन्स' खरीदने के तीसरे दिन एक सज्जन बहुत जिद करके 3 दिन के लिए मांग कर ले गए। उनका नाम उस किताब के साथ याद है। वह मैंने दुबारा नहीं खरीदा और लाइब्रेरी में पढ़ा। 10 साल बाद (1991-92 में कभी) मुलाकात हुई तो पूछे मैं उन्हें पहचाना क्या क्या? मैंने कहा था, धोखे से अपनी किताब चुराने वाले किसी को मैं नहीं भूलता। एक विरले संयोग में 1980 में खोई एक पुस्तक (द रेचेड ऑफ द अर्थ) दरियागंज संडे मार्केट में 1990 में मिल गयी। जीवन में असंभव से दिखने वाले विरले संयोग के कुछ और अनुभव कभी शेयर करूंगा।
Saturday, October 30, 2021
शिक्षा और ज्ञान 335 (अंधभक्ति)
किसी भी सरकार के अंधसमर्थक सरकार के आलोचकों को पिछली सरकार का समर्थक मानकर मौजूदा सरकार के कुकृत्यों का औचित्य पिछली सरकारों के कुकृत्यों के जिक्र से करने कीकोशिस करते हैं। एक सज्जन के ऐसे ही ककुतर्क का जवाब ---
शिक्षा और ज्ञान 334 (ज्ञान-विज्ञान)
हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है तभी हम पाषाणयुग से सइबर युग की यात्रा कर सके। ज्ञान-विज्ञान निरंतर प्रक्रिया है हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों के ज्ञान को समेकित कर उसे आगे बढ़ाती है। यह कहना कि चरवाही-पशुपालन युग के हमारे पूर्वज हमसे अधिक बुद्धिमान थे, निरा मूर्खता और पोंगापंथ है। न्यूटन के नियम के अनुसार वस्तु की गति का विरोध उसकी जड़ता का प्रतिरोध करता है। यूरोप में प्रबोधन काल के ज्यादातर चिंतक नास्तिक नहीं, deist थे जो ब्रह्मांड के रचइता के रूप में ईश्वर की सत्ता को तो मानते थे लेकिन दुनियादारी (पार्थिव गतिविधियों) में उसकी भूमिका नहीं। धर्मांधों द्वारा ब्रूनो को रोम के चौराहे पर जिंदा जला दिया गया था। थॉमस पेन जैसों के घर जलाए गए और उनकी रचनाएं छापने वाले प्रकाशकों के प्रेस। सभी महानताएं अतीत में ढूंढ़ने वाले वतर्मान के विकास को बाधित करते हैं और भविष्य के खिलाफ साजिश।
लल्ला पुराण 313(पेंसन)
कस्बे के पत्रकार आमतौर पर मालिक के जनसंपर्क का काम करते हैं तथा स्थानीय अधिकारियों और नेताओं की जी हुजूरी। प्रायः ये लोग प्रांतीय और केंद्रीय लौकरियों की प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं की असफलता की कुंठा में रहते हैं और रिटायर्ड कर्मचारियों की पेसन पर मुफ्तखोरी का तंज करते रहते हैं। मंहगाई पर मेरी एक पोस्ट पर ऐसे ही एक सरकारी मृदंग ( "पत्रकार") ने कहा की सरकार की खैरात पर मुफ्तखोरी करके भी सरकार की आलोचना करता हूं। उस पर --
Friday, October 29, 2021
मार्क्सवाद 257 (पेंसन)
पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दाम पर एक पोस्ट पर एक भक्त पत्रकार ने पूछा मेरी पेंसन कितनी है, उसका मैंने यह जवाब दिया --
Tuesday, October 26, 2021
क्रिकेटोंमाद
मामला पीढ़ी का नहीं है, मामला आधुनिक राष्ट्र-राज्य से उपजी राष्ट्रवाद की मिथ्या चेतना का है जिसमें हर ऐरा-गैरा राष्ट्र का प्रवक्ता बन जाता है। एक अदना सा अमरीकी अमरीका का प्रवक्ता बन न्यूयॉर्क के किसी रेस्त्रां में घुसकर अश्वेत या भारतीय मूल के नागरिकों को लक्ष्य कर यह कहते हुए गोलीबारी करने लगता है कि मेरे देश से निकल जाओ जैसे देश उसके बाप का हो। यहां कोई भी ऐरा-गैरा अंधभक्त सरकार की आलोचना करने पर किसी को भी पाकिस्तान-अफगानिस्तान भेजने लगता है, जैसे यह मुल्क उसके बाप का हो और पाकिस्तान-अफगानिस्तान में गेस्टहाउस खोल रखा हो। पेप्सी का विज्ञापन करने वाले 11 लड़के एक मैच हार गए तो लोग कहते हैं, वेस्टइंडीज ने भारत को लौंद डाला।
उजड्डई की बात इस पीढ़ी या उस पीढ़ी की नहीं है। खेल भावना के विपरीत हर स्तर पर हर खेल में दुर्भाग्य से युद्धोन्मादी टीम भावना होती है। हमारे बचपन में गांव में शुटुर्र, बदी (झाबर) या कबड्डी जैसे कई खेल थे जिनमें छू जाने या न छू जाने के सीमांत मामलों में झगड़ा हो जाता था और कई बार खेल बंद। यदि इस मामले में मेरे छूने या छू जाने की बात होती और खेल बंद होने की नौबत आती तो मैं विपक्षी टीम की बात यह सोचकर मान लेता कि कौन सी खेत-मेड़ की लड़ाई है। मुझे टीम पर भार (liability) माना जाने लगा और दोनों गोल (टीम) बन जान के बाद गींटी या पत्ते की लॉटरी से तय होता था कि मैं किस टीम में रहूंगा। 1978-79 की बात है, भारत पाकिस्तान का मैच चल रहा था। हम लोग जेएनयू में सतलज हॉस्टल के कॉमनरूम में टीवी पर मैच देख रहे थे। वह बेदी, प्रसन्ना, चंद्रशेखर, वेंकटराघवन की स्पिन चौकड़ी के दबदबे का आखिरी चरण था। जहीर अब्बास और जावेद मियांदाद ताबड़तोड़ छक्के-चौके मार रहे थे। जहीर अब्बास ने बेदी की गेग पर एक खूबसूरत छक्का जड़ा और मेरे मुंह से 'अरे वाह' निकल गया और लोगों ने ऐसे गुस्से में देखा जैसे किसी सांप्रदायिकता विरोधी तार्किक बात पर आज अंधभक्त देखते हैं। शुक्र था कि मेरा नाम ईश मिश्र है, ईश अहमद नहीं। जब क्रिकेट राष्ट्रोंमाद का यह आलम जेएनयू में था तो और जगह की बात ही छोड़िए।
Monday, October 25, 2021
नारी विमर्श 22 (करवा चौथ)
कुछ मर्दवादी करवाचौथ का महिमामंडन यह कह कर करते हैं कि स्त्रियां स्वेच्छा से पुरुषों के लिए भूखी रहती हैं, ये सांस्कृतिक वर्चस्व के अप्रत्यक्ष बलप्रयोग से अनभिज्ञ हैं। मर्दवाद जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है बल्कि एक विचारधारा है तथा विचारधारा उत्पीड़क एवं पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है। कुछ लड़कियां भी बेटा की साबाशी को साबाशी ही मानती हैं। अतः मर्दवादी होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं है और न स्त्रीवादी होने के लिए स्त्री होना।
आप समय के आगे नहीं देख सकते इसलिए आपको लगता है कि समय के साथ यह (करवा चौथ जैसी मर्दवादी परंपरा) और प्रगाढ़ हो जाएगी। यह टूटेगी या प्रगाढ़ होगी यह तो समय ही बताएगा। मर्दवाद एक विचारधारा के रूप में सांस्कृतिक वर्चस्व का अभिन्न अंग है। सांस्कृतिक मूल्यों को हम अपने सामाजिककरण के दौरान अंतिम सत्य के रूप में इस कदर आत्मसात कर लेते हैं कि वे हमारे व्यक्तित्व के अभिन्न अंग बन जाते हैं और उन्हें unlearn करने में समय लगता है। मर्दवादी सांस्कृतिक वर्चस्व समाप्त होने के साथ साथ उसके रीति-रिवाज भी समाप्त हो जाएंगे। और स्त्रीवादी प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान की गति देखते हुए मर्दवादी वर्चस्व की समाप्ति अवश्यंभावी है। आज लड़कियां किसी भी क्षेत्र में लड़कों से पीछे नहीं हैं, बल्कि हर क्षेत्र में आगे ही हैं। 1982 में आठवीं के बाद बाहर जाकर अपनी बहन की आगे की पढ़ाई के लिए पूरे खानदान से भीषण संघर्ष करना पड़ा था। जिद करके उसका दाखिला राजस्थान में वनस्थली विद्यापीठ में कराया, जहां से उसने कक्षा 9 से एमए और बीएृड कीपढ़ाई की। हमारे छात्र जीवन से अब तक स्त्रीवादी प्रज्ञा और दावेदारी के अभियान का रथ इतना आगे निकल चुका है कि आज कोई भी बाप सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकता कि वह बेटा-बेटी में भेद करता है, एक बेटा पैदा करने के लिए 4 बेटियां भले ही पैदा कर ले। उसी तरह जैसे बड़ा-से-बड़ा जातिवादी भी जाति के आधार पर भेदभाव की बात नहीं कह सकता। यह स्त्रीवाद की सैद्धांतिक विजय है जिसका व्यवहार रूप लेना समय की बात है, लेकिन सांस्कृतिक परिवर्तन का टाइमटेबल नहीं तय किया जा सकता।
Friday, October 22, 2021
बेतरतीब 113 (दैवीयता)
Pushpa Tiwari जी, कुछ और विलंबित-निलंबित काम पर बैठने वाला था कि आपने टैग करके फंसा दिया. हा हा. धर्म-वर्म पर बोलने से बचता हूं क्योंकि सभी धर्म असहिष्णु तथा इस अर्थ अधोगामी होते हैं कि वे अपुष्ट आस्था को विवेक पर तरजीह देते हैं तथा सबसे सहिष्णुता की मूर्ति होने तथा अपने धर्म की वैज्ञानिकता के दावे करते हैं. धार्मिक भावनाएं मोम सी नाज़ुक होती हैं, किस तर्क की आंच से पिघल जायें पता नहीं चलता. नास्तिक जब ईश्वर के ही अस्तित्व को चुनौती देता है त वह किसी पैगंबर या अवतार की अवधारणा कैसे स्वीकार कर सकता है. आपने सही कहा, मैं क्या कोई नास्तिक गाली-गलौच नहीं करता. वह इसीलिये नास्तिक होता है कि वह आस्था पर विवेक को तरजीह देता है.गाली-गलौच विवेकहीनता का परिचायक है. हम तो कहते हैं ईश्वर महज कल्पना है तथा पूर्व-पुनर्जन्म की बातें लोगों को ठगने के पाखंड हैं. वैसे कल्पना का तो पुनर्जन्म होता ही रहता है, खास कर दैवीय कल्पनाओं का. हम सब धार्मिक संस्कारों में पलते-बढ़ते हैं तथा इतिहास बोध को मजाक उड़ते हुए, विरासत में मिले देवी-देवताओं की अर्चना-याचना करते हुए लीक पर चलता रहता है. इस वैज्ञानिक तथ्य को धता बता कर कि हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है, पुरातन से चिपककर नवीनता के रास्ते की बाधा बनते हैं. मैं तो बहुत ही रूढ़िवादी कर्मकांडी सनातनी परिवार में पला-बढ़ा. 10 साल की उम्र में हर ब्राह्म-मुहूर्त दादा जी के साथ,भक्तिभाव से मानसपाठ में बिताते हुए, रामचरित मानस की सैकड़ों दोहे-चौपाइयां कंठस्थ थी. अब भी गद्य में पूरी कहानी सिसिलेवार सुना सकता हूं. मंत्र-तंत्र से मोहभंग के चलते 13 साल की उम्र में जनेऊ तोड़ने के बाद, विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते हर सामाजिक मूल्य तथा संस्कार की परिभाषा तथा प्रमाण खोजने लगा. अप्रमाणित को सत्य मानने से इंकार कर दिया.ईश्वर का अभी तक कोई प्रमाण नहीं मिला है इसलिये हर अप्रमाणित बात की तरह वह भी असत्य है. जिस दिन प्रमाण मिल जायेगा, उसे मेरे लिये गीता-कुरान-बाइबिल सब ऐतिहासिक कारणों से, ऐतिहासिक मंसूबों मनुष्य के लिखे ग्रंथ मानता हूं तथा उनमें वर्णित चरित्रों की समाजवैत्रानिक समीक्षा करता हूं. राम-रावण विवाद वर्णाश्रम व्यवस्था के आंतरिक अंतःकलह की कथा है. खलनायक-नायक -- रावण-राम दोनों वर्णाश्रमी, पितृसत्तातमकता के दो खेमों की लडाई है. नैतिक रूप से राम का चरित्र ज्यादा पतनशील मूल्यों का प्रतिधिनित्व करता है. शासकवर्ग हमेशा अपने आंतरिक अंतरविरोधों को इतना अतिरंजित करता है कि समाज के प्रमुख अंतरविरोधों की धार कुंद हो जाये.
23.10.215
Tuesday, October 19, 2021
लल्ला पुराण 312 (अंधभक्ति और मर्दवाद)
जब भी किसी सामाजिक कुरीति पर बात होती है तो तुरंत कुछ लोग इस्लामी या अन्य धर्मों की कुरीतियों पर लिखने की हिम्मत की बात करने लगते हैं और साथ में उन्हें वामपंथ का दौरा पड़ना आम बात है। वामपंथ होता क्या है, पूछने पर गाली-गलौच करने लगते हैं। ऐसे ही वामपंथ को दौरे से पीड़ित एक सज्जन ने कहा वामपंथ जेहादियों की रखैल है और पैगंबर मुहम्मद द्वारा 9 साल की लड़की से शादी करने की बात जोड़ा। उस पर --
फुटनोट 262 (कांग्रेस)
कांग्रेस नेतृत्व के एक हिस्से की कमनिगाही के चलते कांग्रेस ने भाजपा के साथ सांप्रदायिक प्रतिस्पर्धा की राजनीति शुरू की। दुश्मन के मैदान में उसी के हथियार से लड़ाई में हार निश्चित थी। इस प्रकार भाजपा के आक्रामक सांप्रदायिक अभियान और परिणाम स्वरूप मुल्क की बर्बादी का श्रेय प्रकारांतरसे कांग्रेस को ही जाता है।
Monday, October 18, 2021
लल्ला पुराण 311 (निहंगों क बर्बरता)
सिंघु बॉर्डर पर निहंगों द्वारा एक दलित मजदूर की नृशंस हत्या पर मेरे द्वारा पोस्ट न शेयर करने पर एक पोस्ट डाला। वैसे तो मैं बहुत दिनों से किसी पोस्ट पर कमेंट के अलावा कोई पोस्ट नहीं शेयर कर पाया। उस पोस्ट पर कई लोगों ने (ज्यादातर मेरी ब्लॉक लिस्ट के) मेरे बारे अपमानजनक निजी कमेंट किए और उन बेहूदगियों को लाइक करने वालों का आचरण भी उनके मौन समर्थक का है। उस पर:
Sunday, October 17, 2021
लल्ला पुराण 310 (वामपंथ)
जब भी किसी सामाजिक कुरीति पर बात होती है तो तुरंत कुछ लोग इस्लामी या अन्य धर्मों की कुरीतियों पर लिखने की हिम्मत की बात करने लगते हैं और साथ में उन्हें वामपंथ का दौरा पड़ना आम बात है। वामपंथ होता क्या है, पूछने पर गाली-गलौच करने लगते हैं। ऐसे ही वामपंथ को दौरे से पीड़ित एक सज्जन ने कहा वामपंथ जेहादियों की रखैल है और पैगंबर मुहम्मद द्वारा 9 साल की लड़की से शादी करने की बात जोड़ा। उस पर --
Friday, October 15, 2021
लल्ला पुराण 309 (वामपंथ)
वास्तविकता तो यही है कि पुराणकाल में स्त्री पुरस्कार की वस्तु होती थी और यदि एक मर्द द्वारा बदले की भावना से एक स्त्री का अपहरण करता है तो दूसरा मर्द उसे अपवित्र मानकर उसकी अग्निपरीक्षा लेता है, इसके बावजूद गर्भवती कर कोई बहाना बनाकर उसे घर से निकाल देता है। ऐसा तो एक आदर्श समाज में ही होता है, है न? वह मर्द बदले की भावना से जिस स्त्री का अपहरण करता है उसका दोष यह था कि वह उस मर्द की प्रतियोगिता में जीती पत्नी थी जिसने उसकी बहन का अंग-भंग कर दिया था क्योंकि उसने उससे प्रेमनिवेदन का प्रस्ताव करने की जुर्रत की थी। बाकी जब तक स्त्रियां अपना इतिहास खुद नहीं लिखतीं तब तक इतिहास स्त्री उत्पीड़न का महिमामंडन ही होगा। ऊपर के कमेंट की भाषा देखिए, लगता है कि किसी सड़क छाप लंपट की भाषा है, क्या इवि का स्तर इतना गिर गया है?
स्त्रीद्वेषी मर्दवादी कुंठा ऐसी ही अभिव्यक्ति पाती है। वामपंथ इसमे कहां से आ गया बजरंगी फिरकापरस्तों को जब तर्क नहीं मिलता तो उनपर वामपंथ का बेबात दौरा पड़ जाता है। गुंडे-मवालियों की शैली भभाना, पपराना जैसी सड़क छाप भाषा भी उसी मर्दवादी कुंठा का द्योतक है। एक अफ्रीकी कहावत है कि जब तक शेरों के अपने इतिहासकार नहीं होंगे, इतिहास शिकारियों का ही महिमामंडन करेगा। जब तक स्त्रियां इतिहास लिखना नहीं शुरू करेंगी इतिहास मर्दवाद का महिमामंडन ही बना रहेगा। स्व के स्वार्थबोध से मुक्त होकर स्व के परमार्थबोध को तरजीह दें तो मर्द होकर भी स्त्री की पीड़ा समझ सकेंगे।
बात व्यक्तिगत की नहीं है, आपने एक फतवानुमा वक्तव्य दिया है कि वामपंथी मानसिक बीमार होता है तो आपको बताना चाहिए कि वामपंथ क्या होता है और उसे क्या मानसिक बीमारी है? या यह भजन गाने की ड्यूटी लगी है। शिक्षक होने के नाते हमने तो अंधभक्तों को विवेकशील इंसान बनाने की अपनी ड्यूटी लगा रखी है। सरनेम और जन्म से मैं ब्राह्मण हूं, सनातनी के बारे में कुछ नहीं कह सकता क्योंकि जानता नहीं कि सनातन क्या होता है? आपको मालुम हो को प्रकाश डालिए। लंबे आत्मसंघर्ष से बाभन से इंसान बन चुका हूं। सद्बुद्धि की शुभकामनाएं।
Thursday, October 14, 2021
लल्लापुराण 308 (अंग्रेजी)
इस पर उन्होंने आरोप लगाया कि जवाब नहीं है तो अंग्रेजी में आंए-बांए कर रहा हूं (बाद में लगता है, उन्होंने वह मिटा दिया), उस पर --
शिक्षा और ज्ञान 333 (शिक्षक की नौकरी)
मैंने इलाहाबाद विवि समेत विभिन्न शिक्षण संस्थानों में 14 साल इंटरविव दिया। मेरी समस्या नास्तिकता की थी, जब गॉडै नहीं है तो गॉडफादर कहां से होता? नौकरी की मेरी दूसरी कोई प्रथमिकता थी नहीं स्टॉपगैप व्यवस्था के रूप में कुछ दिन पत्रकारिता और बाकी कलम की मजदूरी से काम चलाता रहा लेकिन सौभाग्य से संयोगों की टकराहट से देर से ही सही नौकरी मिल ही गयी। पढ़ाने का सुख जितना भी मिला, सौभाग्य मानता हूं।
Monday, October 11, 2021
फुटनोट 261 (1857)
क्रांति के नियोजित समय के पहले ही कार्टिज की भावुक घटना ने क्रांति की योजना में थोड़ी गड़बड़ी कर दी। महीनों से गांव-गांव रोटी और कमल के प्रतीक के संप्रेषण से क्रांति के संदेश भेते जा रहे थे। 1857 की क्रांति जनअसंतोष के अभिव्यक्ति की किसान क्रांति थी जो सफलता की दहलीज पर पहुंच कर भारतीय रजवाड़ों की गद्दारी से रुक गयी तथा क्रांतिकारियों के दमन में सभ्यता के बोझ से दबे औपनिवेशिक शासकों ने बर्बरता के नए कीर्तिमान स्थापित किए। मालीपुर से फैजाबाद तक पकड़े गए क्रांतिकारियों को सड़क के किनारे पेड़ों पर फांसी पर लटकाया गया।
रोटी मिलजुल कर खाने और सामूहिकता के संदेश का प्रतीक थी और कमल देश को खिला हुआ देखने का। सिंधियाओं और निजामों ने गद्दारी न की होती तो देश 1857 में आजाद होता और 100 साल की लूट से बचकर अलग इतिहास रचा गया होता। 1857-58 के मार्क्स के न्यूयॉर्क ट्रब्यून के लेखों का संग्रहभारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्रम (India's First war of Independence) शीर्षक से छपा।
Saturday, October 2, 2021
लल्ला पुराण 307 (गांधी)
किसी पर कुछ थोपा नहीं जा रहा है सिर्फ यही कहा जा रहा है कि किसी ऐरे-गैरे फिरकापरस्त द्वारा गांधी जैसे ऐतिहासिक महामानव का निराधार चरित्र हनन सूरज पर थूकने जैसा है जो नवापस थूकने वालेके मुंह पर ही गिरता है। आपसेयही पूछा गया है कि गांधी नेकिस भाषण-लेखन मेंहिंदू नरसंहार का समर्थन किया है? शाखा के बैद्धिक का विषवमन अफवादजन्य है। थोड़ा तथ्यपरक इतिहास पढ़तेतो पता होता कि वैसे गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि नरवींद्रनाथ टैगोर ने दीथी और अपनेसमय के महानतम व्यक्तित्व की उपाधि आइंस्टॉाइन ने। यह भी पता होता खिलाफत तुर्की का आंदोलन था हिंदुओं पर हमला नहींऔर खिलाफत का समर्थन कांग्रेस ने नेता केरूप में गांधी केउदय के पहले किया था।