मुगल (बाबर का) आक्रमण तो दिल्ली सल्तनत (इब्राहिम लोदी) पर हुआ था तब ज्ञान की संस्कृत और फारसी की दो परंपराएं थीं। विदेशी आक्रमण (मौर्य काल के बाद शक-हूंणों की बात छोड़कर) और शासन तो मुगलों के आने से लगभग 500 साल पहले से शुरू हो गए थे। तब से लेकर अंग्रेज शासकों तक चंद विदेशी विजय से विशाल जनसमुदाय पर सत्ता स्थापित करते रहे जिसके आंतरिक कारण ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। मेवाड़ को छोड़कर राजपुताने की सारी रियासतें अकबर की अधीनस्थ सहयोगी थीं। अकबर के बाद जहांगीर अयोग्य शासक था जिसने अकबर के दरबार के सभी विद्वानों एवं रणनीतिकारों को दरकिनार कर दिया और मुगल शासन का पतन शुरू हो गया जो 17वीं शताब्दी तक इतना कमजोर हो गया कि बनियों की एक कंपनी ने यहीं के लूट के संसाधनों से यहीं के लोगों की सेना बनाकर उसे अधीनस्थ बना लिया। यदि प्राचीनकाल से अब तक इतिहास पर नजर डालें तो देखते हैं कि किसी समाज के बौद्धिक, आर्थ्क एवं सामरिक विकास परस्पर समानुपाती होते हैं। 16वीं शताब्दी तक इंगलैंड यूरोप में हाशिए का नगण्य महत्व का देश था। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी तक हमारा समाज राजनैतिक रूप से बिखंडित तथा बौद्धिक विकास की दृष्टि से कमजोर समाज था जिसमें शिक्षा के जरिए इतिहास एवं ज्ञान के मिथकीकरण की अपनी भूमिका थी। मुगल काल के अंतिम चरण में सामाजिक-बौद्धिक क्षरण के परिणाम स्वरूप अंग्रेज उपनिवेशवादी हमें गुलाम बना सके। शिक्षा के प्रसार से स्वतंत्रता की चेतना का विकास हुआ और परिणाम स्वरूप उपनिवेशवाद का अंत। औपनिवेशिक शासक जाते जाते देश का बंटवारा करने और सांप्रदायिकता का विषवृक्ष रोपने में सफल रहे जिसमें नवउदारवादी गुलामी के फल लगना शुरू हो गए हैं। अशिक्षा और कुशिक्षा के मंसूबों वाला हाल ही में कैबिनेट से मंजूर राष्ट्रीय शिक्षा नीति का दस्तावेज उसी का ब्लूप्रिंट है। 2015 में भारत सरकार ने 1995 के विश्वबैंक के गैट्स के जिस मसौदे पर दस्तखत किया है, उसमें शिक्षा और कृषि को व्यापारिक सेवा (ट्रेडेबल सर्विसेज) के रूप में शामिल किया गया है। अब विवि अनुदान आयोग कि जगह उच्च शिक्षा वित्तीय एजेंसी की स्थापना का प्रावधान है। सरकार अब विश्वविद्यालयों को अनुदान नहीं, उधार देगी जिसे उन्हें किश्तों में लौटाना होगा और विश्वविद्यालय फीस बढ़ाकर ही ऐसा कर सकता है।
बाकी बाद में......
No comments:
Post a Comment