बेतरतीब 78 (बचपन 16)
परिचय (भाग 2)
परिचय की पिछली किश्त में गांव में स्कूल की शिक्षा का जिक्र किया था। मेरा गांव तो आजमगढ़ जिले में पड़ता था, लेकिन आज़मगढ़ शहर से बहुत दूर, यातायात के सीधे संपर्क के बिना। मैं आजमगढ़ शहर पहली बार 1974 में गया था और दूसरी बार 2008 में, यात्राओं के कारणों के विस्तार में जाने की यहां गुंजाइश नहीं है। मेरा गांव एक छोटी सी नदी मझुई के किनारे है जो हमारे बचपन में बारमासी प्रवाहमय थी तथा नहाने के घाटों पर मई-जून में भी बहुत गहराई तक पानी रहता था। 5-6 साल तक पहुंचते-पहुंचते सारे लड़के-लड़कियां तैरना सीख जाते थे। खैर जिन गांवों में नदी नहीं थी वहां के बच्चे तालाब में तैरना सीख लेते थे। सितंबर-अक्टूबर तक नाव चलती थी, उसके बाद बांस के पायों पर चह (कच्चा पुल) बन जाती थी। हम बच्चे कई बार सूर्यास्त के बाद उल्टी धारा में नाव कुछ दूर ले जाते थे और वापस धारा के साथ बहने को छोड़कर गाते-गप्पियाते वापस आते थे। एकाधबार डांट भी खा लेते थे। मझुई 20-25 किमी दूर दुर्बासा नामक तीर्थस्थान पर टौंस नदी में मिल जाती है जो आजमगढ़ होते हुए बलिया (या गाजीपुर) जिले में गंगा में मिलती है। दुर्बासा के बारे में कहा जाता है कि वहीं नदीमें विष्णु के चक्र-सुदर्शन ने क्रोधी दुर्बासा ऋषि के सिर को फाड़ा था। वहां कार्तिक की एकादशी (या पूर्णिमा) को बहुत बड़ा मेला लगता है। मैं उस मेले में पहली और अंतिम बार बचपन में गया था और खो गया था, जो कहानी फिर कभी (मेरे ब्लॉग में है, कमेंट बॉक्स में शेयर करूंगा)। नदी इस पार मेरा गांव आजमगढ़ में पड़ता है और उस पार फैजाबाद (अब अंबेडकर नगर)। नदी पार घना जंगल था हम लोग समूह में शाम को दिशा-मैदान उस पार जाते थे। उस पार वालों से कहते थे कि हम रहते आजमगढ़ में हैं और टट्टी-पेशाब करने फैजाबाद में जाते हैं। गांव से नजदीक दो बाजारें थीं -- 2-3 किमी पश्चिम-दक्खिन मिल्कीपुर (आजमगढ़ जिले में) तथा 2-3 किमी उत्तर-पूर्व परकौली (फैजाबाद जिले में)। 6 मील दूर एक जगह है बिलवाई जो 4 जिलों की सीमा पर पड़ता है। बिलवाई गांव आजमगढ़ में पड़ता है, बाजार जौनपुर में, शिवमंदिर (जहां शिरात्रि को बहुत बड़ा मेला लगता है), फैजाबाद में तथा बिलवाई स्टेसन (बीबीगंज) सुल्तानपुर में। चुनाव के सीजन में मेला पड़ने पर वहां 4 प्रत्याशियों के तंबू लगते हैं। 1967 तक जब संसद-विधानसभा के चुनाव साथ होते थे तब 8 के। सोचा था बचपन के गांव के अर्थव्यवस्था, सांस्कृतिक समाजशास्त्र तथा इतिहास के बारे में बात करूंगा, लेकिन भूगोल पर ज्यादा समय खर्च हो गया, उनके बारे अगले भाग में। यह किश्त इस बात से खत्म करता हूं कि नवीं क्लास में पढ़ने शहर जाने के बाद हर रविवार को अपने गांव से 7 मील दूर बिलवाई स्टेसन पैदल ट्रेन पकड़ने आता था और हर शनिवार रात स्टेसन से घर। वेसे स्टेसन वास्तव में एक दूसरे गांव-बाजार बीबीगंज में पड़ता था लेकिन नाम बिलवाई था। छोटा नाम बड़े में समाहित हो जाता है। स्टेसन से घर तक की शनिवारी रात्रि यात्राओं नामी-गिरामी भूतों से मुठभेड़ और भूत-प्रेत के भय से मुक्ति की कहानी भी अगले भाग में। सादर।
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