Saturday, August 8, 2020

नई शिक्षा नीति और नई चुनौतियां

 ज्ञान, शिक्षा और वर्चस्व (भाग 1)

नई शिक्षा नीति और नई चुनौतियां
ईश मिश्र
“हर ऐतिहासिक युग में शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं, यानि समाज की भौतिक शक्तियों पर जिस वर्ग का शासन होता है बौद्धिक शक्तियों पर भी वही बौद्धिक शक्ति पर भी शासन करता है। भौतिक उत्पादन के साधन जिस वर्ग नियंत्रण में होते हैं, बौद्धिक उत्पादन के साधनों पर भी उसी का नियंत्रण रहता है, जिसके चलते सामान्यतः बौद्धिक उत्पादन के साधन से वंचितों के विचार इन्हीं विचारों के आधीन रहते है। शासक विचार, विचारों के रूप में गठित प्रभुता के भौतिक संबंधों की आदर्श अभिव्यक्ति ही है; यानि उन संबंधों की अभिव्यक्ति जो एक वर्घ को शासक वर्ग बनाते हैं – प्रभुता के विचार। ...... शासक वर्ग के लोग ....... अन्य चीजों के अलावा विचारों के उत्पादक के रूप में शासन करते हैं और इसलिए अपने युग के विचारों के उत्पादन और वितरण का नियंत्रण करते हैं; इस प्रकार उनके विचार युग के विचार होते हैं।” (कार्ल मार्क्स, जर्मन विचारधारा)

कार्ल मार्क्स का यह कथन आज नवउदारवादी संदर्भ में कम-से-कम उतना ही प्रासंगिक है जितना 1945 में इसके लिखे जाने के वक्त. शासक वर्ग का विचार ही युग का विचार या युग चेतना होता है. युगचेतना मिथ्या चेतना होती है क्योंकि यह एक खास संरचना को सार्वभौमिक तथा अंतिम सत्य के रूप में प्रतिस्थापित करने का प्रयास करती है। पूंजीवाद औद्योगिक उद्पादन प्रक्रिया में एक तरफ उपभोक्ता सामग्री का उत्पादन करता है दूसरी तरफ बौद्धिक उत्पादन प्रक्रिया में उत्पादन के वैचारिक साधनों से विचारों का उत्पादन करता है। शिक्षा बौद्धिक उत्पादन का सबसे महत्वपूर्ण साधन है तथा शिक्षा संस्थान इसके सबसे महत्वपूर्ण कारखाने।
1995 में विश्वबैंक ने शिक्षा को एक व्यापारिक सेवा के रूप में गैट्स (जनरल ऐग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड सर्विसेज़) में शामिल कर लिया है। वैसे मनमोहन सरकार भी इस दस्तावेज पर दस्तखत करने को सिद्धाततः सहमत थी लेकिन किया मोदी सरकार ने। साम्राज्यवाद का नवउदारवादी दौर उदारवादी औपनिवेशिक दौर से इस मामले में भिन्न है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीर जाफर बन गए हैं। कांग्रेस तथा भाजपा सरकारें, विश्व बैंक की मातहदी में एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी हैं। शासक वर्ग समाज के मुख्य अंतरविरोध की धार को कुंद करने के लिए राज्य के वैचारिक उपकरणों से अपने आंतरिक अंतरविरोधों को समाज के मुख्य अंतरविरोध के रूप में प्रचारित करता है। उच्च शिक्षा संस्थानों पर हमला गैट्स को लागू कर, शिक्षा को पूरी तरह कॉरपोरेटी भूमंडलीय पूंजी के हवाले करने की भूमिका है। गैट्स के विभिन्न प्रावधानों या शासक वर्गों के विभिन्न प्रतिस्पर्धी प्रतिनिधि समूहों की विश्लेषणात्मक चर्चा की गुंजाइश (स्कोप) यहां नहीं है लेकिन खेल के सम मैदान (लेबेल प्लेइंग फील्ड) प्रावधान की संक्षिप्त चर्चा यहां अप्रासंगिक नहीं होगी। यानि अगर सरकार दिल्ली विश्वविद्यालय को अनुदान देती है तो लब्ली विश्वविद्यालय को भी दे नहीं तो दिल्ली विश्वविद्यालय का भी अनुदान बंद करे। जब तक सार्वजनिक वित्त पोषित संस्थान रहेंगे तो निजी खिलाड़ियों के ‘खुले’ खेल में दिक्कत होगी. दिल्ली विश्वविद्यालय तथा अन्य विश्वविद्यालयों के शिक्षक और छात्र शिक्षा को बचाने के लिए सालों से आंदोलित हैं। विस्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) को समाप्त करके उसकी जगह उच्च शिक्षा वित्तीय अधिकरण (हायर एजूकेसन फाइनेंसिंग एजेंसी – हेफा) का गठन किया गया है। सरकार अब विश्वविद्यालयों तथा उच्च शिक्षण संस्थानों को अनुदान नहीं देगी बल्कि हेफा के माध्यम कर्ज देगी, जिसे संस्थानों को किश्तों में लौटाना पड़ेगा। जाहिर है विश्विद्यालय तता अन्य शिक्षा संस्थान इस भुगतान के लिए छात्रों से भारी फीस वसूलेंगे। यह पिछले दरवाजे से विश्वविद्यालयों के निजीकरण का रास्ता है। अब खेल के मैदान समान (लेवेल प्लेयिंग फील्ड) होंगे। पैसा फेंको, तमाशा देखो। औपचारिक रूप से समाप्ति के बिना आरक्षण वैसे ही अप्रासंगिक हो जाएगा। पैसा हो तो पढ़ो या भविष्य गिरवी रखकर कर्ज लेतकर पढ़ो। हम लोगों ने स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा लगभग मुफ्त में प्राप्त किया वरना हमारे जैसे साधारण किसान परिवारों के बच्चे शायद अशिक्षित ही रह जाते, अत्यंत गरीब, दलित आदिवासियों की बात ही छोड़िए।
कोरोना संक्रमण के चलते फैली महामारी के प्रकोप से दुनिया की बहुत सी सरकारों को अपने संकीर्ण राजनैतिक एजेंडों के लिए आपदा को असर में बदलने का बहाना मिल गया है। हमारी सरकार और शासक पार्टी ने आपदा को कई तरह से राजनैतिक अवसर में बदलना शुरू कर दिया है, आर्थिक संकट से निपटने की अयोग्यता का बहाना तो मिल ही गया है। महामारी की आपदा को मजदूर विरोधी कानूनों के अध्यादेश, महामारी के सांप्रदायिककरण या संविधान में सांप्रदायिक संशोधन अधिनियम (सीएए) विरोधी राष्ट्रव्यापी आंदोलन के कार्यकर्ताओं के दमन के अवसर में बदलने के प्रयासों पर चर्चा की यहां गुंजाइश नहीं है। यहां मकसद महज यह बताना है कि किस तरह महामारी की आड़ में सरकार शिक्षा के साथ खिलवाड़ कर रही है। स्कूली बच्चों पर “पढ़ाई का बोझ” हल्का करने के नाम पर उनके पाठ्यक्रम से समाज और राजनीति से संबंद्धित नागरिकता, राष्ट्रीयता, संघवाद, मानवाधिकार, विधिक सहायता एवं स्थानीय स्वशासन जैसी कई मूल अवधारणाएं तथा दिमाग को गतिशीलता प्रदान करने वाले गणितीय तार्किकता जैसे अध्याय हटा दिये गये हैं। सामाजिक वर्चस्व की स्थापना एवं उसे बनाए रखने में “ज्ञान” की अहम भूमिका होती है तथा शासक वर्ग के वर्चस्व के “ज्ञान” या विचारों का उत्पादन शिक्षा से किया जाता है। इसीलिए सभी सर्वाधिकारवादी सत्ताएं सत्ता पर काबिज होते ही सबसे पहले शिक्षा पर ध्यान केंद्रिकत करती हैं। भारतीय समाज में ब्राह्मणवादी वर्चस्व शिक्षा पर एकाधिकार के जरिए अनुकूल “ज्ञान” (विचारों) का उत्पादन रहा है। बौद्ध बौद्धिक क्रांति का प्रमुख आधार उसकी सामासिक, जनतांत्रिक शिक्षा प्रणाली थी। ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति का मुख्य निशाना इसकी शिक्षा व्यवस्था ही थी जिसने संघों की सामूहिकतावादी जनतांत्रिक शिक्षा प्रणाली को नष्ट कर उसकी जगह ‘गुरुर्देवो भव’ के सिद्धांत पर आधारित एकाधिकारवादी, अधिनायकवादी गुरुकुल प्रणाली की स्थापना की।
धर्मशास्त्रीय शिक्षा पर आधारित सामंतवादी वर्स्व के विरुद्ध पूंजीवादी जनतांत्रिक क्रांति के बाद नए शासक वर्ग, नवोदित पूंजीवादी वर्ग के वर्चस्व के लिए आस्था एवं परंपरा की बजाय तर्क एवं विवेक पर आधारित वैज्ञानिक शिक्षा की आवश्यकता थी। स्वतंत्रता के बाद स्थापित भारतीय गणतंत्र के कल्याणकारी राज्य के अंतर्गत राष्ट्र निर्माण के लिए भी, गुरुकुल या मदरसा प्रणाली की शिक्षा की बजाय आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा प्रणाली अपनाई गयी। 1950 में संविधान सभा द्वारा निर्मित-पारित संविधान के स्थान पर मनुस्मृति की हिमायती हिंदुत्ववादी ताकतें सदा से ही इस शिक्षा प्रणाली को ‘भारतीयता’ के विरुद्ध मैकाले और वामपंथियों की साजिश बताकर इस पर हमलावर रही हैं। जब जब ये ताकतें सत्ता में आयीं शिक्षा को ‘भारतीयता’ प्रदान करने की दिशा में ठोस कदम उठाती रहीं। 1998 में केंद्र में अटल विहारी बाजपेयी के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी तो मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने शिक्षा प्रणाली को दुरुस्त करने का वीड़ा उठाया और शुरुआत स्कूली पाठ्यक्रम मेंसामाजिक विज्ञान के विषयों – खासकर इतिहास के पाठ्यक्रम से छेड़-छाड़ से किया। इतिहास की जगह तीर्थाटन, कर्मकांड, पौरोहत्य और जातिवाद एवं वर्णाश्रम को औचित्य का सामग्री पाठ्यक्रम में प्रविष्ट किया गया। विश्विद्यालयों में ज्योतिष को बीए और एमए के पाठ्यक्रम में डालने का प्रयास किया गया। 2014 में पूर्ण बहुमत से सत्ता पर काबिज होने के बाद शिक्षा प्रणाली के तथाकथित भारतीयकरण की मुहिम तेज हो गयी। निजीकरण और व्यापारीकरण के रास्ते शिक्षा के अनुकूलीकरण के लिए नई शिक्षा नीति का दस्तावेज तैयार किया गया जिसकी प्रस्तावना गुरकुकुल के संदर्भ से शुरू होती है। प्रचीन भारत के गौरव और महानताओं के अन्वेषण के लिए इतिहास पुनर्लेखन समिति गठित की गयी, जिसका मूल उद्देश्य, रामायण और महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों को ऐतिहासिक साबित करके इतिहास का पुनर्मिथकीकरण है ।
ज्ञान का इतिहास शिक्षा के इतिहास से पुराना है. आदिम कुनबों तथा कबीलों में ज्ञानी माने जाने वाले ही कबीले का मुखिया, पुजारी या सेनापति होते थे। मानव जाति ने भाषा; आग; धातुविज्ञान; पशुपालन; विनिमय/विपणन तथा आत्मघाती युद्ध का ज्ञान किसी भी शिक्षा व्यवस्था के पहले ही हासिल कर लिया था। प्रकृति से अनवरत संवाद से अर्जित अनुभवों तथा प्रकृति के साथ प्रयोगों और उनपर चिंतन-मनन से मनुष्य अनवरत रूप से ज्ञानाजर्न करता रहा है तथा इसके माध्यम से श्रम के साधनों का विकास। इसीलिए कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता बल्कि ज्ञान एक अनवरत प्रक्रिया है। हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को समेकित कर उसे आगे बढ़ाती है। निजी संपत्ति के आगाज के चलते कबीलाई ज़िंदगी के विखराव के दौर में, सामूहिक संपत्ति के बंटवारे में ज्ञानियों की चतुराई से सामाजिक वर्ग-विभाजन के बाद वर्चस्वशाली वर्गों ने वर्चस्व की वैधता के लिए ज्ञान को अपने वर्गहित में परिभाषित किया। ज्ञान की इस सीमित परिभाषा को ही अंतिम ज्ञान के रूप में समाज पर थोपने के मकसद से ज्ञान को शिक्षाजन्य बना देशकाल के अनुकूल शिक्षा प्रणालियों की शुरुआत की। मार्क्स के उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि पूंजीवाद महज उपभोक्ता माल का ही नहीं, विचारों भी उत्पादन करता है। शासक वर्ग के विचारक, शासक विचारों को राज्य के वैचारिक उपकरणों से अंतिम सत्य बता, युग के विचार के रूप में प्रतिष्ठित कर युग चेतना का निर्माण करते है। ये विचार प्रकारांतर से यथास्थिति को यथासंभव सर्वोचित तथा सर्वाधिक न्यायपूर्ण व्यवस्था के रूप में स्थापित करते हैं।
इस तरह की मिथ्या चेतना का निर्माण जरूरी नहीं कि छल-कपट के भाव से किया जाता हो। प्रायः ये बुद्धिजीवी खुद को धोखा देते हैं, क्योंकि वे खुद मिथ्या को सच मानने लगते हैं। ये तमाम तर्क-कुतर्कों से बताते हैं कि पूंजीवाद ही सर्वोत्तम व्यवस्था है जिसमें हर किसी को योग्यतानुसार पुरस्कृत या दंडित किया जाता है। समाजवाद वगैरह के विकल्प अव्यावहारिक हैं और असफल साबित हो चुके हैं। जाने-माने मार्क्सवादी विचारक ऐंतोनियो ग्राम्सी ने अपने वर्चस्व के सिद्धांत में खूबसूरती से दर्शाया है कि किस तरह युगचेतना के प्रभाव में, शोषित सहमति से शोषित होता है। शासक वर्गों के हाथ में संस्थागत शिक्षा युगचेतना के निर्माण का एक प्रमुख उपकरण है। यह ज्ञान को परिभाषित और सीमित करती है। प्राचीन कालीन यूनानी चिंतक अरस्तू, शिक्षा की भूमिका नागरिकों में खास ढंग से, सोचने की आदत डालना तय करता है। इसीलिए सभी सरकारें शिक्षा के अनुकूलन का प्रयास करती हैं। आधुनिक शिक्षा में शैक्षणिक डिग्रियों को आम तौर पर किसी के ज्ञान का मानदंड मान लिया जाता है। उच्च शिक्षा प्राप्त भक्तों की भीड़ देख, लगता है कि पढ़े-लिखे अज्ञानियों का प्रतिशत काफी है.
कृषि तथा शिल्प के विकास के साथ हमारे अर्धखानाबदोष ऋगवैदिक पूर्वजों की पशुपालन की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित हो गयी और वे स्थाई गांवों में रहने लगे। कुछ चतुर-चालाक लोगों ने श्रम विभाजन के नाम पर समाज को वर्गों(वर्णों) में बांटकर पवित्रतता-अपवित्रता के सिद्धांत गढ़कर जन्मजात बना दिया। वर्णाश्रम व्यवस्था के औचित्य तथा वैधता के लिए ग्रंथ लिखे गये जिन्हें ज्ञान का श्रोत मान लिया गया और शिक्षा के द्वारा उनमें समाहित विचारों को प्रचारित किया गया। अमानवीय वर्गविभाजन को दैविक रूप देकर शासक वर्गों (वर्णों) के हित में युगचेतना के निर्माण के लिए शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली शुरू हुई। समूचे प्राचीन तथा मध्ययुगीन इतिहास में, समतामूलक बौद्ध समुदायों को छोड़ दें तो शिक्षा तथा ज्ञान की दावेदारी शासित वर्गों के लिए वर्जना ही रही है। मुग़लकाल के पहले शिक्षा का माध्यम संस्कृत थी। शिक्षा तथा उससे प्राप्त ज्ञान पर, ब्रह्मा की इच्छानुसार, ब्राह्मण पुरुषों का एकाधिकार था। जैसा कि मनुस्मृति में स्पष्ट लिखा है, शूद्रों तथा महिलाओं द्वारा शिक्षा का प्रयास घोर दंडनीय उपराध था। आम जन की भाषा पाली में लिखे बौद्ध ग्रंथों तथा बौद्ध संघों की जनतांत्रिक शिक्षा प्रणाली की मिसाल छोड़ दिया जाय, तो प्राचीन तथा मध्यकालीन इतिहास में शायद ही कहीं आमजन की भाषा ज्ञान की भाषा या शिक्षा का माध्यम रही हो। इंगलैंड में कैंब्रिज तथा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालयों में क्रमशः 1892 और 1894 में विषय तथा शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को शामिल किया गया। गौरतलब है कि इंग्लैंड के निम्न वर्गों ने लंबे संघर्ष के बाद 1860 के दशक में मताधिकार हासिल किया था। भारत में अंग्रेजी शासक भाषा थी, इंग्लैंड में आमजन की। मुगलकाल में शासकीय भाषा फारसी होने से ज्ञान की भाषा बन गयी. ‘पढ़े फारसी बेचे तेल, ये देखो कुदरत का खेल’ एक मशहूर कहावत है। चूंकि मध्य युग में सत्ता की वैधता का श्रोत ईश्वर था तथा धर्म वैधता की विचारधारा, धर्म-ग्रंथो में वर्णित ज्ञान ही ज्ञान था एवं धर्म ग्रंथों का अध्ययन ही शिक्षा का विषय। इसलिए पाठशालाओं तथा मदरसों पर क्रमशः ब्राह्मण पुजारियों तथा मौलवियों का नियंत्रण होता था। औपनिवेशिक शासन में अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम और ज्ञान की भाषा बन गयी। शिक्षा के सार्वभौमिक संवैधानिक प्रावधान से शिक्षा की ब्राह्मणवादी वर्जनाएं खत्म हुईं। राजकीय तथा केंद्रीय विश्वविद्यलयों तथा अन्य उच्च शिक्षा के संस्थानों में वंचित तपकों के लड़के-लड़कियां पहुंचने लगे। शिक्षा के जरिए ज्ञान पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती मिलने लगी। विश्व बैंक की इच्छा के अनुकूल, शिक्षा को प्रकांतर से पूर्णरुपेण व्यावसायिक सामग्री बनाकर, सरकार की नई शिक्षा नीति नये तरह की वंचना तथा वर्जना की साज़िश है। सिर्फ अमीर ही शिक्षा प्राप्त कर सकेगा। गरीबों को भी शिक्षा चाहिए तो कर्ज़ लेकर पढ़े जिसे चुकाने के लिए भविष्य गिरवी रखना पड़ेगा।

प्राचीन यूनान में प्लेटो की एकॆडमी की स्थापना के पहले अमीर नागरिक अपने बच्चों की शिक्षा की निजी व्यवस्था करते थे। प्लेटो की एकेडमी पहला सार्वजनिक शिक्षा संस्थान था। प्लेटो के ग्रंथ रिपब्लिक में शिक्षा को इतना अधिक स्थान दिया गया है कि जन-संप्रभुता के सिद्धांत के प्रवर्तक 18वीं शताब्दी के दार्शनिक रूसो ने उसे शिक्षा पर लिखा गया सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ बताया है। करनी-कथनी के अंतर्विरोध का दोगलापन पूंजीवाद की ही नहीं, सभी वर्ग समाजों के इतिहास का अभिन्न हिस्सा रहा है। यह दोगलापन सर्वाधिक उसकी शिक्षा व्यवस्था में परिलक्षित होता है। एक तरफ प्लेटो कहता है कि शिक्षा का काम विद्यार्थी को बाहर से ज्ञान देना नहीं है। मष्तिष्क गतिशील है तथा उसके पास अपनी आंखें हैं। शिक्षा काम सिर्फ प्रकाश दिखाना है, यानि मष्तिष्क की गतिशीलता के लिए परिवेश (एक्सपोजर) प्रदान करना है। वह खुद-ब-खुद ज्ञान के विचारों की तरफ चुंबकीय प्रभाव से आकर्षित होगा। दूसरी तरफ जन्म से ही शुरू होने वाली शिक्षा व्यवस्था के लिए सख्त पाठ्यक्रम की योजना पेश करता है, सख्त सेंसरशिप से चुनी गयी विषय वस्तु के साथ। वर्णाश्रम की तर्ज पर उसके आदर्श राज्य में ज्ञानी राजा होगा। शिक्षा के माध्यम से श्रम(वर्ग) विभाजन होता है। ज्ञानी (दार्शनिक) राज तकरता है; साहसी सैनिक होता है तथा बाकी भिन्न-भिन्न आर्थिक उत्पादन का काम करते हैं। जैसे ब्रह्मा ने विभिन्न लोगों को अपने शरीर के विभिन्न अंगों से पैदा करके सामाजिक असमानता का निर्माण किया वैसे ही प्लेटो दार्शनिक राजा यह मिथ फैलाता है कि ईश्वर ने लोगों को सोना, चांदी और पीतल-तांबे जैसे तुच्छ धातुओं के गुणों के साथ पैदा किया है जो कि अपरिवर्तनीय है। सोने के गुण वाला दार्शनिक राजा होता है, चांदी वाला सैनिक और तांबे पीतल वाले आर्थिक उत्पादक। अंधकार युग कहे जाने वाले मध्ययुग में और जगहों की तरह यूरोप में भी सत्ता की वैधता का श्रोत ईश्वर था तथा धर्म उसकी विचारधारा। धार्मिक ज्ञान ही ज्ञान था तथा पादरी ही शिक्षक भी था और ज्ञान की परिभाषा का ठेकेदार भी। धार्मिक शिक्षा के ज्ञान के अतिक्रमण के ‘अपराध’ में वैज्ञानिक ब्रूनो को सन् 1600 में रोम में जिंदा जला दिया गया था। उनपर कैथलिक आस्था की कई बुनियादी मान्यताओं के खंडन के आरोप में 7 साल मुकदमा चला था। ज्ञान की स्थापित परिभाषा के उल्लंघन के आरोप में गैलेलियो का हश्र सर्वविदित है। रूसो को अपने उपन्यास एमिली में चर्च नियंत्रित शिक्षा की आलोचना के लिए फ्रांस छोड़कर भागना पड़ा। कहने का मतलब जो भी शासकवर्ग की ज्ञान की परिभाषा का अतिक्रमण करता है उसे दंडित किया जाता है, चाहे वह ब्रूनो, गैलेलिओ, रूसो हों या हैदराबाद विश्वविद्यालय या जेयनयू के शिक्षक-छात्र हों।
नागपुर से संचालित मौजूदा सरकार ने 2014 में पहली बार सत्ता की बागडोर संभालते ही शिक्षा में तब्दीली शुरू कर दिया। प्रस्तावित शिक्षा नीति को संसद में पेश किए बिना ही, आज्ञाकारी, “स्वायत्त” विश्वविद्यालय आयोग (यूजीसी) तथा मानव संसाधन मंत्रालय के फरमानों के जरिए, उसके प्रावधानों को उच्च शिक्षा संस्थानों में लागू करना शुरू कर दिया। इसके विरोध में शिक्षक तथा छात्र लगातार आंदोलित हैं।
1833 में, ब्रिटिश संसद में भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली लागू करने के पक्ष में बोलते हुए मैकाले ने कहा था कि इससे (शिक्षा पद्धति लागू करने से) बिना अपनी भौतिक उपस्थिति के अंग्रेज 1,000 साल तक भारत पर बेटोक राज कर सकेंगे। कितनी सही निकली मैकाले की भविष्यवाणी। औपनिवेशिक साम्राज्यवाद तथा विश्वबैंक-अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोश संचालित नवउदारवादी साम्राज्यवाद में यह फर्क है कि अब किसी लॉर्ड क्लाइव की जरूरत नहीं है, सारे सिराजुद्दौला भी मीर जाफर बन गये हैं। यानि ऐतिहासिक रूप से, शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान को शासक वर्ग हित के सीमित दायरे में परिभाषित कर उस पर एकाधिकार स्थापना से वर्चस्वशाली के वर्चस्व को बरकरार रखना और मज़बूत करना है। ऐंतोनियो ग्राम्सी के शब्दों में, शिक्षा शासक वर्ग के वर्चस्व के लिए जैविक एवं परंपरागत बुद्धिजीवी पैदा करती है। मुख्यधारा से ही विद्रोही धाराएं भी निकलती है, जिसके प्रसार को रोकने का शासक वर्ग हर संभव उपाय करता है। विश्वबैंक के दबाव में भूमंडलीय पूंजी की हितपूर्ति में जो नीतिगत तथा संस्थागत परिवर्तन मनमोहन सरकार, शायद लोकलज्जा की वजह से, मंद गति से कर रही थी, मोदी सरकार ने बागडोर संभालते ही आक्रामक ढिठाई से आगे बढाना शुरू कर दिया।
जहां पिछली शताब्दी के उदारवादी पूंजीवाद के संकट की जड़ में आमजन की क्रयशक्ति की कमी से, अतिरिक्त उत्पादित माल का संकट था, नवउदारवादी भूमंडलीय पूंजीवाद का संकट फायदेमंद, सुरक्षित निवेश के नीड़ की तलाश में अतिरिक्त पूंजी का है। रीयल यॅस्टेट के बाद शिक्षा को निवेश का सर्वाधिक सुरक्षित क्षेत्र माना जा रहा है. कहने का मतलब कि वर्चस्व की हिफाज़त के लिए जैविक तथा पारंपरिक बुद्धिजीवी पैदा करने की शिक्षा की भूमिका में एक अतिरिक्त आयाम और जुड़ गया, व्यावसायिक आयाम। विश्वबैंक द्वारा इसे खरीद-फरोख्त की व्यापारिक सेवा के रूप में गैट्स में शामिल करने के पहले से ही शिक्षा अत्यंत लाभकारी व्यवसाय बन चुका है। धीरे धीरे अन्य उपक्रमों की ही तरह शिक्षा का भी पूर्ण कॉरपोरेटीकरण हो रहा है। उसकी अंतःवस्तु की बात छोड़िए, उच्च शिक्षा गरीब तथा दलित-आदिवासियों की पहुंच से ही बाहर हो जायेगी और शैक्षणिक कर्ज अतिरिक्त आवारा पूंजी का एक और ठिकाना बन जायेगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, राज्य के वैचारिक औजारों द्वारा साम्यवाद विरोधी अभियान के बावजूद अमेरिका के विश्वविद्यालय परिसर क्रांतिकारी विमर्श तथा गतिविधियों के केंद्र के रूप में उभर रहे थे। शीत युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ आपस में नहीं युद्ध कर रहे थे बल्कि अपने-अपने आंतरिक “शत्रुओं” से निपट रहे थे। शीतयुद्ध के आवरण में सोवियत संघ के साथ साम्यवादी विचारधारा को ही राष्ट्रीय दुश्मन घोषित कर शिक्षा संस्थानों पर हमला बोल दिया था। 1950 के दशक में, मैकार्थीवाद के तहत देशद्रोह का हव्वा खड़ा कर कम्युनिस्टों तथा उनके समर्थकों की धर-पकड़ शुरू हो गयी थी। भारत के मौजूदा यूएपीए की ही तरह खतरनाक पैट्रियाट तथा अन्य काले कानूनों के तहत तमाम बुद्धधिजीवियों, फिल्मकारों, शिक्षाविदों को निशाने पर लिया गया। आइंस्टाइन की निगरानी के लिए एफबीआई में एक अलग सेल थी लेकिन सेलिब्रिटी स्टेटस ने उन्हें बचा लिया। मैनहट्टन प्रयोजना से जुड़े रहे रोजेनबर्ग पति-पत्नी को परमाणु बंम से संबंधित फार्मूला लीक करने के आरोप में मौत की सजा दे दी गयी। हजारों शिक्षकों तथा छात्रों को प्रताड़ित किया जा रहा था। ऩई शिक्षा नीति में प्रणाली तथा पाठ्यक्रम ऐसे बनाए गये जिससे चिंतनशीलता को कुंद कर राज्य पर बौद्धिक निर्भरता सिखाया जा सके। अमेरिकी अपनी शिक्षा पद्धति का मजाक उड़ाते हुए उसे “बहरा बनाने की प्रक्रिया(डंबिंग प्रॉसेस)” कहते हैं।
2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार ने सत्ता की बागडोर संभालते ही शिक्षा नीति में बदलाव शुरू कर दिया तथा परिसरों पर हमला। जिस तरह कोई अंतिम सत्य नहीं होता, उसी तरह कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता। ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है। वैचारिक द्वंद्व इस प्रक्रिया को गति देता है। मैं अपनी पहली क्लास में, हर साल, कोर्सेतर अन्य बातों के साथ दो बाते जरूर बताता था। पहली कि किसी भी ज्ञान कि कुंजी है, सवाल-दर-जवाब-दर-सवाल, अपने वैचारिक संस्कारों से शुरू कर अनपवाद हर बात पर सवाल। दूसरी बात कि उच्च शिक्षा की ये संस्थाएं ज्ञान देने के लिए नहीं बनी हैं। इनका वास्तविक मकसद विद्यार्थियों को ऐसी सूचनाओं एवं दक्षताओं से लैस करना है जिससे व्यवस्था को बरकरार रखा जा सके, यद्यपि घोषित उद्देश्य चिंतनशील नागरिक तैयार करना है। ज्ञान के लिए अलग से प्रयास करना पड़ता है। इन विश्वविद्यालयों से ही चिंतनशील इंसान भी निकलते हैं तथा विद्रोह की आवाज बुलंद करते हैं, शिक्षा के चलते नहीं शिक्षा के बावजूद।
वैसे तो विश्व बैंक के आदेशानुसार, शिक्षा के पूर्ण उपभोक्तातरण तथा व्यावसायीकरण का सिलसिला कहीं लुके-छिपे, कहीं खुले-आम, उसी समय शुरू हो गया था जब नरसिंह राव सरकार ने 1991 में डव्लूटीओ प्रस्तावित भूमंडलीकरण के प्रस्तावों पर दस्तखत किया था। अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में यनडीए सरकार के शासनकाल में, जब शिक्षा मंत्रालय, मानव संसाधन मंत्रालय बन गया तब से यह सिससिला धड़ल्ले से खुलेआम हो गया। पिछले तीन दशकों में इंजीनियरिंग तथा मैनेजमेंट के तमाम निजी क़ालेज तथा विश्वविद्यालय कुकुरमुत्तों की तरह देश के कोने कोने में उग आए। दिल्ली में इन शिक्षण दुकानों को संबद्धता दिलाने के लिए, 1998 में भाजपा शासन काल में, राज्य विश्वविद्यालय के रूप में इंदप्रस्थ विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी। 1995 में विश्व बैंक ने शिक्षा को सेवाओं के व्यापार पर समस्त समझौता (गैट्स) में व्यापारिक सेवा के रूप में शामिल कर लिया। यूपीए सरकार इस दस्तावेज पर दस्तखत को सिद्धांततः राजी थी लेकिन शायद शैक्षणिक जगत में व्यापक विद्रोह के भय से इस पर दस्तखत नहीं कर पाई। 2015 में नैरोबी में यनडीए सरकार इस पर दस्तखत कर आई। इसके लिए पथ प्रश्स्त करने के लिए सरकार ने शिक्षानीति में व्यापक फेर-बदल शुरू कर दिया तथा उच्च शिक्षा संस्थानों पर तीन तरफा हमला। शिक्षा नीति में परिवर्तन; उच्च शिक्षा संस्थानों के मुखिया के पद पर संदिग्ध शैक्षणिक योग्यता वाले आरयसयस पृष्ठभूमि के व्यक्तियों की नियुक्ति तथा शिक्षक-छात्रों के प्रतिरोध का दमन। शिक्षा को छिन्न-भिन्न करने की कवायद यूपीए सरकार के समय ही शुरू हो गयी थी, मौजूदा सरकार उस एजेंडे को और आक्रामक तरीके से लागू कर रही है.
यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में दिल्ली विश्वविद्यालय आनन-फानन में, कोर्स परिवर्न के सारे स्थापित मानदंडों को धता बताते हुए, हड़बड़ी में चार-साला स्नातक कार्यक्रम (यफवाईपी) शुरू कर दिया था जिसका विश्वविद्यालय समुदाय ने व्यापक विरोध किया था। यूपीए शासनकाल के इस विरोध में भाजपा समर्थक संगठन यनडीटीयफ भी था। 2014 में मोदी सरकार के आते ही इसे रामबाण बताने वाले, विश्वविद्यालय आयोग के अध्यक्ष को यह कार्यक्रम नियमों का उल्लंघन लगा। चारसाला कार्यक्रम रद्द कर उसे तीनसाला में बदल दिया गया तथा कुछ ही साल पहले शिक्षकों तथा छात्रों के विरोध के बावजूद वार्षिक प्रणाली की जगह थोपी गई सेमेस्टर प्रणाली की वापसी हो गई। साल भीतर ही सरकार ने शिक्षानीति में आमूल परिवर्तन शुरू कर दिया। केंद्रीय विश्वविद्यालय अधिनियम समेत प्रस्तावित उच्च शिक्षाल नीतियों का मकसद विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता नष्ट करना है। अब विश्वविद्यालय चिंतन-मनन एवं शोध-अन्वेषण के केंद्र से कुशल कारीगर पैदा करने के कारखाने बन जाएंगे।
यह लेख इस बात से खत्म करना चाहूंगा कि इंसान अनुभव, अध्ययन, प्रयोग तथा दिमाग के प्रयोग से ज्ञान अर्जित करता है। शिक्षा शासक वर्ग के विचारों को युग का विचार बताकर शासक वर्ग के हित में युगचेतना का निर्माण करने तथा बरकरार रखने के मकसद से के ज्ञान को एक खास दिशा में परिभाषित करती है, शासक विचारों के प्रसार से युग चेतना का निर्माण करती है। महामारी के बावजूद देश भर में जारी शिक्षक-छात्र आंदोलन युगचेतना के विरुद्ध सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की दिशा में निर्णायक पहल हैं।

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