मैं आप से बिल्कुल सहमत हूं. जेएनयू आंदोलन के बाद के आंदोलनों में , खासकर सीएए विरोधी राष्ट्रव्यापी आंदोलनों में युवाओं की पीढ़ी बहुत रचनात्मक एवं उत्साहपूर्ण रही। जेएनयू में 1983 में एक लंबा आंदोलन हुआ था, विवि अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया गया था। 1983-84 ज़ीरो सत्र हो गया ता। 1983 में प्रवेश नहीं हुए। जैसे ही दमन शुरू हुआ सभी बड़े संगठनों और ज्यादातर लोगों ने समर्पण कर दिया था। 17-18 लोगों को निष्कासित कर दिया गया था जिसका सांकेतिक प्रतिरोध भी नहीं हुआ। 2016 से जारी आंदोलन में युवा साीथी लड़ते रहे हैं। युवा साथियों को जयभीम लाल सलाम। दिवि में पिजड़ातोड़ की लड़कियां कई सालों से राजनैतिक रूप से अन्यथा प्रतिक्रियावादी कैंपस को जीवंत बनाए हुए हैं -- नए नारों और नए गीतों के साथ।
Sunday, July 26, 2020
शिक्षा और ज्ञान 295 ( रामायण)
रामकथा कितनी पुरानी और किन रूपों में है यह बहस का विषय है। बौद्ध राम कथा वाल्मीकि की रामकथा से भिन्न है तथा वाल्मीकि की तुलसी की राम कथा से भिन्न है। जिन्होंने ऋगवेद पढ़ा है वे जानते हैं कि ऋगवेद में रामायण के 2 चरित्रों का जिक्र मिलता है -- विश्वामित्र और वशिष्ठ। सातवें मंडल में 10 राजाओं के युद्ध का वर्णन है। सिंधु और सरस्वती के बीच, सप्तसैंधव क्षेत्र (पंजाब की 5 नदियां मिलाकर) में बसे हमारे ऋगवैदिक पूर्वज कुटुंबोंमें बंटे थे तथा कुटुंब का मुखिया राजा कहलाता था। भरत कुटुंब काफी प्रभावशाली कुटुंब था। इसके राजा दिबोदास के समय कुटुंब के पुरोहित विश्वामित्र थे। दिबोदास के बेटे सुदास ने वशिष्ठ को कुटुंब का पुरोहित नियुक्त कर लिया। क्रोधित होकर विश्वामित्र ने दस कुटुंबों को लामबंद कर भरत कुटुंब पर हमला कर दिया। सुदास के नेतृत्व में भरत कुटुंब ने दस कुटुंबोंके गठबंधन को परास्त कर दिया। युद्धोपरांत समझौते में विश्वामित्र को भी वशिष्ठ के साथ पुरोहित रख लिया गया। इन दोनों के अलावा रामायण के किसी चरित्र का जिक्र नहीं मिलता। कहने का मतलब रामायण वेद से पुराना नहीं हो सकता।
कौटिल्य अर्थशास्त्र में शासनशिल्प पर अपने पूर्ववर्ती विचारकों के विचारों की विवेचना के बादव अपने विचार देते हैं। यदि वाल्मीकि रामायण उनसे पहले की कृति होती तो निश्चित ही उत्तकांड और अयोध्याकांड का जिक्र करते। वाल्मीकि रामायण निश्चित ही बुद्ध के बाद का है क्योंकि अयोध्याी कांड में बुद्ध का जिक्र मिलता है।
यथा हि चोर: स तथा हि बुद्धःस्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि।
तस्माद्धि य: शक्यतम: प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुध: स्यात ।।
अर्थात- जैसे चोर दंडनीय होता है, उसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्धतावलम्बी) भी दंडनीय है। तथागत (नास्तिकविशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इसलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के समान दंड दिलाया ही जाए, परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान ब्राह्मण कभी उन्मु्ख न हो- उससे वार्तालाप तक ना करे।
(अयोध्याकांड, श्लोक 34,109वां सर्ग, पेज 528, वाल्मीकि रामायण, गीताप्रेस, गोरखपुर)
हर समुदाय अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब से अपने मुहावरे, देवी-देवता तथा प्रतीक गढ़ता है। वाल्मीकि के समय के वर्णाश्रमी समाज की जरूरत एक महानायक के प्रतीक की रही होगी और उन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में चित्रित किया। तब तक अवतारों की प्रथा शायद शुरू न हुई हो। तुलसी के समय की जरूरत अवतार पुरुष की रही होगी, इसलिए उन्होंने वाल्मीकि के मर्यादा पुरुषोत्तम को अवतार बना दिया।
बौद्ध संस्कृति एवं जनतांत्रिक शिक्षा पद्धति के विरुद्ध हिंसक ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की शुरुआत पुष्यमित्र शुंग के साथ हुई जिसका उपसंहार शंकराचार्य के समय हुआ।
ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि के लिए 100 प्रतिशत द्विज-पुरुष आरक्षण वाली अधिनायकवादी गुरुकुल प्रणाली की शिक्षा पद्धति शुरू की गयी तथा पुराण लिखे गए।
Friday, July 24, 2020
शिक्षा और ज्ञान 294 (पुराण)
पुराण इतिहास का मिथकीकरण होता है, इतिहास नहीं। पुराण से इतिहास समझने के लिए उसका अमिथकीकरण करना पड़ेगा। रामायण से इतिहास समझने के लिए मनुष्यों की तरह बोलने वाले भालू-बंदरों का मनुष्यीकरण करना पड़ेगा। बौद्ध क्रांति के विरुद्ध ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति के बैद्धिक औचित्य के लिए वाल्मीकि को एक महानायक की जरूरत थी तो मर्यादा पुरुषोत्तम का चरित्र गढ़ा। 17वीं शताब्दी में ब्राह्मणवाद (वर्णाश्रमवाद) के पुनरुत्थान के लिए भगवान की जरूरत थी इसलिए तुलसीदास ने मर्यादा पुरुषोत्तम को भगवान का अवतार बना दिया।
मैं बना रहना चाहता हूं मनुष्य
मैं बना रहना चाहता हूं मनुष्य
कह सकूं जिससे अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा
लड़ सकूं बुराई तथा अन्याय के विरुद्ध
लगा सकूं नारे शोषण-दमन के खिलाफ
नहीं चाहता बनना देवता
अच्छे-बुरे से विरक्त गोबर गणेश की तरह
(ईमि:24.07.20120)
मार्क्सवाद 224 (कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन)
Jitendra Bhushan तेलंगाना पर पार्टी में लंबी बहस चली थी, फौजी दमन के बाद दस्ता बहुत कमजोर हो गया था। 1949 में असली-नकली आजादी के विवाद में जोशी को निकाला गया। 1951 में फिर शामिल किया गया लेकिन वे रणदिवे के खिलाफ अभियान के पक्ष में नहीं थे। जोशी 1928 से मजदूरों-छात्रों-किसानों में सक्रिय थे। सास्कृतिक-बुद्धिजीवी समूहों में भी उनका अच्छी पकड़ थी। जोशा के निष्कासन के बाद बुद्धिजीवियों तथा संस्कृतिकर्मी सदस्यों तथा सिंपेथाइजर भी अलग होने लगे। पार्टी की सदस्यता 90-95 हजार से घटकर 18-20 हजार तक आ गयी। कभी समय मिलेगा तो विस्तार से लिखूंगाष 1955 की कांग्रेस के आबादी अधिवेशन में सोसलिस्टिक पैटर्न ऑफ सोसायटी प्रस्ताव के बाद 1956 के पार्टी कांग्रेस में जोशी ग्रुप हावी हुआ तथा देश में स्वतंत्र पूंजीवाद के विकास और साम्राज्यवाद विरोध के चलते सरकार से सहयोग की नीति अपनाई गयी तथा गुटनरपेक्ष आंदोलन के गठन एवं ख्रुस्चेव युग में सोवियत संघ के समर्थन के चलते 1958 के कांग्रेस में सशस्त्र क्रांति के बदले शांतिपूर्ण क्रांति का प्रस्ताव पारित हुआ। दो लाइनों का संघर्ष जारी रहा जो चीन युद्ध के बाद सतह पर आ गया और "संशोधनवाद" के विरुद्ध विद्रोह की परिणति 1964 में पार्टी के बंटवारे में हुई। 3 साल में ही संशोधनवाद के विरुद्ध बनी सीपीएम भी संशोधनवाद के दलदल में धंस गयी तथा लोहिया की प्रतिक्रियावादी कांग्रेस विरोधी अभियान के तहत दोनों के गुट दक्षिणपंथियों के साथ अलग अलग सूबों में संविद सरकारों में शरीक हुए। जनसंघ को उसी प्रयोग से सामाजिक स्वीकार्यता मिलनी शुरू हुई। सुदीप्त कविराज की पीएचडी थेसिस (जेएनयू लाइब्रेरी में निलेगी) -- Split in India's Communist Movement -- में इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। जेएनयू में कम्युनिस्ट पार्टी के दस्तावेजों का पीसी जोशी आर्काइव हुआ करता था, अपने रिसर्च के दौरान मैंने इसका काफी इस्तेमाल किया था। अभी दिमागी एकाग्रता नहीं बन पा रही है, कभी इस पर विस्तार से लिखने की कोशिस करूंगा। 1928 तक कॉमिंटर्न में लेनिन थेसिस के तहत (रॉय के थेसिस के विपरीत) भारत के कम्युनिस्ट डब्लूपीपी (वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी) के रूप में कांग्रेस के साथ राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सेदारी कर रहे थे। 1928 के कॉमिंटर्न के 6ठें कांग्रेस द्वारा संयुक्त मोर्चा के खिलाफ प्रतिक्रांतिकारी प्रस्ताव के चलते पार्टी आंदोलन से अलग-थलग पड़ गयी तब जोसी ने स्थानीय स्तर से शुरू कर राष्ट्रीय स्तर तक डब्लूपीपी के पुनर्गठन शुरू किया। 10935 में कॉमिंटर्न ने जब दुबारा संयुक्त मोर्चा का प्रस्ताव पारित किया तब से 1947-48 तक जोशी ही पार्टी सचिव रहे। 1949-51 के निष्कासन काल के बाद उनका पुनर्वास हुआ।
Thursday, July 23, 2020
अररिया में सामूहिक बलात्कार
अररिया में सामूहिक बलात्कार
वह लड़की थी
मान मर्यादा को धता बता कर
मोटर साइकिल सीख रही थी
सीता-सावित्री की परंपरा को
कलंकित कर रही थी
गौरवशाली सनातनी परंपराएं
तोड़ रही थी
सिखाया न जाता यदि उसको सबक
बन जाती वह एक मिसाल
आने वाली पीढ़ियों के लिए
तोड़ रही हैं लड़किया
अब अबला होने का विचार
सहना बंद कर करने लगी हैं प्रतिकार
इसलिए करना पड़ता है
अब सामूहिक बलात्कार
कुत्तों की ही तरह होते हैं गुंडे भी कायर
पत्थर उठाने के अभिनय से
अकेले में भागते हैं दुम दबाकर
झुंड में बन शेर करते हैं शिकार
मिलकर कइयों ने किया सामूहिक बलात्कार
जज भी एक मर्द था
संस्कार टूटने का उसे भी दर्द था
सुन लड़की की चीत्कार पूछा उससे
क्यों हुआ उसके साथ बलात्कार
नहीं हुआ उसके जवाब से वह संतुष्ट
भेज दिया उसे जेल होकर रुष्ट
(ईमिः 23.07.2020)
Janhastakshep (Prashant Bhushan)
Janhastakshep: A campaign against
fascist designs
Delhi
Press Release
Contempt
case against Prashant Bhushan is violation of the basic democratic spirit
Janhastakshep takes serious
note of the news of the contempt of the court case initiated by the Supreme
Court against the well-known lawyer and human rights activist Prashant Bhushan
for his comments on tweeter. This unfortunate news is a matter of serious
concern to any democratic minded person. This is to bbe noted that the Supreme
Court has taken Suo Motu cognizance of the matter and showing extra-ordinary
concern has constituted a bench of three judges to look into it. The bench has
arrived at the prime-facie conclusion that the said tweeter comments contain
the contempt against judicial process and undermine the dignity and the
authority of the Supreme Court, particularly of the CJI in the eyes of the
people.
The three judge’s bench
referred to Bhushan’s 2 comments. The
first is regarding the CJI riding the BJP leader’s bike of Rs. 50 lakh cost in
the Rajbhavan premises at Nagpur without the mask and the helmet at a time when
the Supreme Court is locked down depriving the citizens of availing justice.
The charge leveled by the
bench is based on Times of India news quoting a tweet by Bhushan on 27th
June, 2020 that says that when the historians would focus on the history of
past 6 years, they would ponder about the destruction of democracy without imposition
of emergency and would underline the role of Supreme court in it, particularly
of the last four CJIs.
There is enough scope of
disagreement with or critique of Bhushan’s comments within the democratic
domain but it is difficult to comprehend the obstruction caused by bthese
comments in the process of justice. In the development of democracy it has been
well established that the scope of initiating na case of the contempt of court
emanates from physically or violently obstructing the judicial process in the
court. The freedom of expression is a fundamental principle of democracy, which
can be limited only on reasonable grounds. The logic of obstruction of justice
or judicial process by comments on platforms of public domain like tweeter is
beyond comprehension. This view that such comments undermine the dignity or the
authority of the judiciary or the judge, defies the logic.
Prashant Bhushan’s comments
on the CJI is in no way related to the judicial process or the judicial
conduct. The role of Supreme Court and some former CJIs in the deterioration of
democracy in India is of general nature and such views have been expressed by
many in the public discourse, including former SC judges.
The
public debates and critiques of the controversial judgments by courts should
not be curved or banned in a healthy democracy. The SC should keep in mind the
proverb – ‘the sunlight is the best disinfectant. Quoting here a comment by the
former Justice Krishna Iyer of Supreme Court shall not be out of place. “The best answer to abuse of judges is not frequent or
ferocious contempt-sentencing but fine performance”.
(https://www.thehindu.com/opinion/op-ed/Against-abuse-of-the-contempt-power/article16207436.ece)
Janhastakshep
sincerely appeals that according due respect to the right to dissent and
freedom of expression the Supreme Court should withdraw the Suo Motu contempt
proceedings against Prashant Bhushan. We believe that the right to freedom of
expression and speech as enshrined in Article 19 (1) of the constitution id
inalienable right of every Indian attained by the protracted freedom struggles.
Right to dissent is integral part of democracy. We are of the considered
opinion that the contempt of court proceedings should be initiated in the extra
ordinary cases of the physical obstruction of justice.
Every democratic
system and institution continuously evolves. The instances of contempt cases in
developed democracies are rare. India too needs appropriate amendments in
Contempt of Court Act, 1971.
Sd
Ish Mishra
(Convener)
Vikas Bajpai
(Co-Convener)
जनहस्तक्षेप:(प्रशांत भूषण)
जनहस्तक्षेप: फासीवादी मंसूबों के
विरुद्ध अभियान
प्रेस विज्ञप्ति
प्रशांत भूषण पर अवमानना की कार्यवाही
लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ
मशहूर वकील और मानव अधिकार कार्यकर्ता प्रशांत
भूषण पर ट्विटर की गई टिप्पणियों के लिए अवमानना की कार्यवाही शुरू करने का फैसला
अफसोसनाक है. लोकतांत्रिक चेतना से लैस किसी भी व्यक्ति के लिए ये खबर परेशान करने
वाली और चिंताजनक है. यह उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपनी तरफ
से पहल करते हुए (Suo Motu) कार्रवाई शुरू की है. इसमें न्यायालय
ने असामान्य तत्परता दिखाई. इसके लिए तीन जजों की बेंच गठित की गई. बेंच पहली नजर
में (prima facie) इस निष्कर्ष पर पहुंची कि ट्विटर पर
की गई उल्लिखित टिप्पणियों से न्याय प्रक्रिया का अपमान हुआ है. ये टिप्पणियां आम
लोगों की निगाह में सुप्रीम कोर्ट, और खासकर प्रधान न्यायाधीश के पद की गरिमा एवं
प्राधिकार (Authority)
को कमजोर (undermine) करने में सक्षम हैं.
तीन जजों की बेंच ने प्रशांत भूषण की दो
टिप्पणियों का जिक्र किया. इसमें एक यह हैः प्रधान न्यायाधीश नागपुर स्थित राजभवन
में बीजेपी नेता की 50 लाख रुपये की मोटर साइकिल पर बिना मास्क या हेल्मेट पहने
बैठे- एक वैसे समय में जब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन में रखा है, जिससे
नागरिक न्याय पाने के अपने मौलिक अधिकार से वंचित हो रहे हैं.
बेंच ने कहाः इसके अलावा आज टाइम्स ऑफ इंडिया
अखबार में छपा है कि प्रशांत भूषण ने 27 जून को एक दूसरे ट्विट में कहा था-
इतिहासकार जब पिछले छह वर्षों पर गौर करेंगे, तो देखेंगे कि कैसे बिना औपचारिक
आपातकाल का एलान किए भी भारत में लोकतंत्र को नष्ट किया गया है. वे विशेष रूप में
इस विनाश में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका रेखांकित करेंगे और उसमें भी खासकर पिछले
चार प्रधान न्यायधीशों की भूमिका को.
लोकतांत्रिक दायरे में प्रशांत भूषण की इन टिप्पणियों
से असहमत होने या उनकी आलोचना करने की पर्याप्त गुंजाइश है. मगर इन टिप्पणियों से
न्याय करने की प्रक्रिया में कैसे रुकावट आई, इसे समझना कठिन है. लोकतंत्र के
विकास-क्रम में यह राय पुख्ता हुई है कि जब तक कोर्ट रूम में भौतिक और हिंसक रूप
से न्याय करने की प्रक्रिया में बाधा ना डाली जाए, कोर्ट की अवमानना की कार्यवाही
का आधार नहीं बनता. अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है. अतः इसे
सिर्फ उन स्थितियों के अलावा सीमित नहीं किया जा सकता, जिन्हें सार्वजनिक बहस के
बाद तार्किक समझा गया हो. जबकि ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर या सार्वजनिक दायरे में
की गई टिप्पणियों को न्याय करने की प्रक्रिया में रुकावट मानने का तर्क समझ पाना
कठिन है. इसे समझ पाना भी मुश्किल है कि ऐसी टिप्पणियों से न्यायपालिका या
न्यायाधीश की गरिमा या ऑथरिटी कैसे कमजोर हो सकती है?
प्रशांत भूषण ने प्रधान न्यायाधीश पर जो
टिप्पणी की, वह किसी न्यायिक निर्णय लेने और उसे सुनाने की प्रक्रिया (यानी उनके judicial conduct) से संबंधित नहीं थी. भारत में
लोकतंत्र के कथित विनाश में सुप्रीम कोर्ट और पूर्व प्रधान न्यायाधीशों के बारे
में उनकी टिप्पणी भी सामान्य प्रकृति है. इस तरह की राय सार्वजनिक चर्चाओं में
अनेक लोग- जिनमें कई पूर्व जज और न्यायविद् भी शामिल हैं- जताते रहे हैं.
कोर्ट के विवादास्पद फैसलों और न्यायाधीशों के
आचरण पर सार्वजनिक चर्चाओं को प्रतिबंधित नहीं किया जाना चाहिए. इस मामले में
सर्वोच्च न्यायालय को इस कथन को अवश्य में ध्यान में रखना चाहिए कि धूप ही
सर्वोत्तम किटाणुनाशक होता है (sunlight is the best disinfectant). इस संबंध में हम सुप्रीम कोर्ट के
पूर्व न्यायाधीश जस्टिस कृष्ण अय्यर की इस टिप्पणी को भी उद्धृत करना चाहेंगे कि
जज अपमान से बचें, इसका सर्वोत्तम तरीका अवमानना कार्यवाही के जरिए सज़ा देना
नहीं, बल्कि अपने काम मे बेहतरीन प्रदर्शन करना है.
अतः जन हस्तक्षेप यह अपील करता है कि सुप्रीम
कोर्ट असहमति और अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करते हुए प्रशांत भूषण पर शुरू की
गई Suo Motu अवमानना कार्यवाही को तुरंत वापस ले
ले. हमारी दृढ़ राय है कि संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत सुनिश्चित भाषण
एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारतवासियों का वह अधिकार है, जिसे स्वतंत्रता
संग्राम के दौरान असीमित कुर्बानी देने के बाद हासिल किया गया. असहमति का अधिकार
लोकतंत्र का अभिन्न अंग है. हमारी दृढ़ राय है कि न्यायालय के अवमानना की
कार्यवाही सिर्फ physical obstruction of justice की स्पष्ट मिसाल वाले अत्यंत असामान्य मामलों
में ही शुरू की जानी चाहिए.
हर लोकतांत्रिक व्यवस्था अपने विकास क्रम से
गुजरती है. दुनिया के विकसित लोकतांत्रिक देशों में अवमानना कार्यवाहियों की मिसाल
दुर्लभ होती गई है. अतः भारत में भी आवश्यकता इस बात की है कि न्यायालय अवमानना
अधिनियम-1971 (Contempt
of Courts Act, 1971)
में अब उचित और उपयुक्त संशोधन किया जाए. सरकार और संसद को इस दिशा में पहल करनी
चाहिए.
ह.
ईश मिश्र
( संयोजक)
विकास
बाजपेई (सह संयोजक)
Tuesday, July 21, 2020
#वरवर राव
#वरवर राव
वरवर राव का कलम तोड़ने की
कई कोशिसें की जुल्मत के तख्तनशीनों ने
हर बार और ही निखरती गई उसकी आवाज
बंद करते हो उन्हें बार बार
कलम की जगह बंदूक उठाने के आरोप में
क्योंकि तुम डरते हो उनके कलम से गढ़ी कविता की धार से
क्योंकि लिखता है उनका कलम सदा ही सदाकत
होने से कमजोर दिमाग की आंखें
तुम्हें सदाकत में दिखती हैजुल्म के मातों की बगावत
कलम जब्त कर उसे बंदूक बना देते हो
सशस्त्र तख्ता पलट का मुकदा लाद देते हो
मार भी डालोगे यदि वरवर राव को
आवाम पर आजमाईअपनी बर्बरता से
कलम लिखता रहेगा सदाकत के तराने
आवाम की जंगे आजादी के गाने
हरावल दस्ता बन जाएगी कविता
निकल पड़ेगा जो ले मशालें शब्दों का
चकनाचूर कर देगा
धनपशुओं की खिदमत में
मुल्क को गुलाम बनाए रखने का तुम्हारा मंसूबा
तोड़ देगा समाज को टुकड़े-टुकड़े करने का तुम्हारा इरादा
जाति-धर्म के नाम पर
बनी रहेगी शब्दों के मशालों की निरंतरता
जुल्मतों के तुम्हारे निजाम के खात्मे तक
चप्पे चप्पे में इंकलाब के नारे गूंजने तक
इंकलाब जिंदाबाद
जिंदाबाद जिंदाबाद।
(ईमि:21.07.2020)
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