लगभग 27 साल पुराना लेख
रविवारी, जनसत्ता, 7 जून 1992
गोरे न्याय और काले न्याय का समाज
ईश मिश्र
करीब 500 वर्ष पहले कोलंबस ने अमेरिका की ‘खोज’ की थी। इसीलिए यह वर्ष अमेरिका में उस ‘खोज’ की पंच शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। लॉस एंजलिस की अदालत ने एक ‘दास वंशजं’ अश्वेत ड्राइवर के नागरिक अधिकारों की अवहेलना के आरोप से, कोलंबस के वंशज गोरे पुलिस कर्मियों को मुक्त करके इस अनुष्ठान में अपनी शिरकत दर्ज की तो भारी हिंसा फैल गई। न्यायधीशों के फैसले के अंतर्निहित तर्क शायद यह है जिनके पूर्वजों को जानवरों की तरह जंजीरों में बांध कर कोड़ों से हाँका जाता था। उन्हें लात – घूसें लगाना अन्यापूर्ण कैसे हो गया। एक ‘दास वंशज’ के नागरिक अधिकारों के नाम पर कोलंबस की ‘खोज’ के पंच शताब्दी वर्ष में उसके वंशजों को दंडित करके न्यायलय शायद इस वर्ष की गरिसा को कम नहीं करना चाहता था। धन्य था कोलंबस और धन्य है उसकी ‘खोज’। धन्य है दुनिया को मानवाधिकारों की नसीहत देने वाला अमेरिका और धन्य है उसकी नस्लवादी न्यायिक पंरपरा। पाश्चत्य प्रचारतंत्र भी कम धन्य नहीं है जो कोलंबस से शुरू हुई औपनिवेशिक सभ्यता का श्रेष्ठता साबित करने में एंड़ी-चोटी का जोर लगा देती है। संभव है कि ल़ॉस एंजेल्स के न्यायधीशों के नस्लवादी फैसले का या उसके विरोध में अमेरिका में भड़के नस्ली दंगों का अमेरिका की ‘खोज’ के 500 वीं वर्षगांठ से कोई सीधा संबंध न हो। यह भी महज संयोग हो सकता है कि यूरोपीय समुदाय ने साझा-बाजार की शुरूआत के लिए इसी वर्ष को चुना। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि यूरोपीय-उपनिवेशवादी अतीत की गौरव-गाथा के रूप में मनाया जा रहा यह समारोह नस्लवादी पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों को मजबूत करने की भूमिका निभा रहा है। स्पेन के कार्डिज बंदरगाह से शुरू होकर कैरीबियन-तट से होते हुए अमेरिका और फिर लीवरपूल की ‘कोलंबस बेड़ा’ की यात्रा दास-व्यापार के जल मार्गों की याद दिलाती है। बर्सिलोना स्थित स्वतंत्रता की प्रतिमा के साथ ‘विवाह’ की घटना इतिहास के साथ भद्दा मजाक तो है ही, एशियाई, अफ्रीकी, लातिन अमेरिकी लोगों की स्वतंत्रता के लिए अपशुकन भी है। इस तरह के समारोह अमेरिका के औपनिवेशीकरण और शोषण का महिमा मंडन करते हैं।
यूरोप और अमेरिका में यूरोपीय श्रेष्ठता के इस समारोह के जवाब में ‘500 वर्षों का प्रतिरोध’ अभियान भी चलाया जा रहा है। यह अभियान किसी नाविक के ‘खोजी’ कारनामों के महिमामंडन की जगह, अमेरिका के औपनिवेशिक शोषण के विरूध्द वहाँ के अवाम के प्रतिरोध के इतिहास को रेखांकित करता है। यह ड़ॉमिनिकन गणराज्यों में 60 अरब डॉलर की लागत वाले ‘कोलंबस प्रकाश गृह के निर्माण से उल्लसित नहीं होता, बल्कि कोलंबस की प्रतिमा को समुद्र में फैंकने के हाइती सरकार के फैसले का स्वागत करता है। इस अभियान का उद्देश्य कोलंबस की ‘खोज’ के मिथ का पर्दाफाश करना है। शायद इसीलिए पंच शताब्दी मनाने में मशगूल पाश्चात्य बहुराष्ट्रीय मीडिया के लिए यह गौण विषय बना हुआ है।
पश्चिमी मीडिया एक ‘अश्वेत’ अमेरिकी नागरिक के मानवाधिकारों के हनन या न्यायालय द्वारा उसके उचित ठहराए जाने की घटनाओं को लेकर चिंतित नहीं हैं। उसकी चिंता अमेरिका में नस्ल-विरोधी अभियान की उग्रता को लेकर है। हाल के नस्ली दंगों को पूरी दशक की भयानकतम घटना के रूप में चित्रित करने के बाद डेली टेलीग्राफ के जाने-माने पत्रकार ए सुल्विन ‘सीमित साधनों और खतरनाक परिस्थितियों के बहाने दोषी गोरे पुलिस कर्मियों के अमानवीय कृत्यों को तो परोक्ष रूप से उचित ठहराते ही हैं, ‘अश्वेतों की स्वाभाविक’ अपराध वृत्ति पर जोर देकर ‘अमेरिकी न्याय प्रणाली में अंतर्निहित’ नस्लवादी अन्याय का भी औचित्य साबित करते हैं।
पिछले दिनों मुक्केबाजी के विश्व चैंपियन अमेरिकी नागरिक, माइक टाइसन अखबारों की सुर्खियों में छाए रहे। मुक्केबाजी के सिलसिले में नही, एक ‘अश्वेत सुंदरी’ के साथ बलात्कार के मुकदमे के सिलसिले में। ताकत को मुक्केबाजी की पर्तियोगिताओं तक ही तो सीमित रखा नही जा सकता। विडंबना यह है कि एक तरफ ‘विश्व सुंदरी’ प्रतियोगिता होती है तो दूसरी तरफ उसी रोम में ‘अश्वेत सुंदरी’ प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है। दरअसल ‘अश्वेत सुंदरी’ शब्द अंतराष्ट्रीय उपभोकता संस्कृति में उसी तरह की एक विड़बना है जैसे हमारी ‘गौरवशाली’ पंरपरा में ‘गोरा हरिजन’ है।
कुछ वर्ष पहले अमेरिकी दूरदर्शन नेटवर्क के एक खेल उदूघोषक जिम्मी ‘द ग्रीक’ को इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया था कि ‘नस्ली विशिष्टताओं’ की जो बातें श्वेतों की ‘निजी बैठकों’ में होती है, उनकी विस्तृत चर्चा वह दर्शकों से करने लगा था। बास्केट-बॉल टीम के खिलाड़ियों के ‘अश्वेत’ और प्रशिक्षको के ‘श्वेत’ होने के बारे में उसने कहा कि यदि प्रशिक्षक भी अश्वेत होने लगे तो टीम में श्वेतों के लिए कोई जगह ही नहीं बचेगी। अश्वेत खिलाड़ियों की दक्षता में उनकी ‘चौड़ी जांघों’ की भूमिका के महत्व को बताते हुए उसने दर्शकों के इतिहास का ज्ञान समृध्द करने उद्देश्य से कहा, ‘दास व्यापार के दौरान....मालिक अपने भारी-भरकम काले गुलाम को आनुपातिक कद-काठी की औरत के साथ रखता था जिससे तिजारत के लिए तगड़े गुलामों की पैदावार हो सके।
इतिहास की यह ‘जीव वैज्ञानिक समझ’ जिम्मी द ग्रीक जैसे खेल उद्घोषकों तक ही सीमित होती तो गनीमत थी। वाशिंगटन पोस्ट के जाने-माने उदारवादी पत्रकार रिचर्ड कोहेन ने ‘द ग्रीक’ की बर्खास्तगी की अनुचित ठहारोते हुए 1988 में शरीर संरचना के विव्दानों को घता बताते हुए ‘श्वेत जींस’ और ‘अश्वेत जींस’ का सिध्दांत प्रतिपादित कर डाला। कोहेन और सुलिवन सरीखे पत्रकार गोल-मटोल (सर्कुलर) तर्क के नियमों का पालन करते हैं। ये लोग पहले रंग-रूप कि विशिष्टता को नस्ल के रूप में परिभाषित करते हैं। और फिर उसी परिभाषा के माध्यम से नस्लीय भिन्नता प्रमाणित करते हैं।
इस तरह का कुतर्की जीव वैज्ञानिक दृष्टिकोण खेल उद्घोषकों और पत्रकारों तक ही नहीं सीमित है। अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय और इतिहाकार भी इससे अछूते नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने मई 1987 में कुछ अरब और यहूदी अमेरिकी लोगों की नागरिक अधिकार कानून के तहत भेदभाव से राहत पाने की अर्जी पर विचार करते समय नस्ली न्याय की अद्भुत मिसाल पेश की। जनतंत्र में किसी के भी विरुध्द भेदभाव की मनाही के सिध्दांत के आधार पर फैसला करने की बजाय न्यायालय ने यह जानना चाहा कि अरब और यूहदी ‘काकेशियंन’ लोगों से नस्ली तौर पर भिन्न हैं? फिर फैसला किया कि अरब और यहूदी नागरिक कानून के तहत संरक्षण प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों तक उन्हैं ‘नस्ली समूह’ के रूप में माना जाता था। उन्नीसवीं सदी के नस्ली अन्याय का समाधान, न्यायालय ने उन्हीं मान्यताओं को स्वीकृति देकर किया।
अमेरिकी इतिहास की एक प्रचलित पाठ्य पुस्तक में संविधान के एक अनुच्छेद की व्याख्या प्रतिनिधित्व और प्रत्यक्ष कर के मामलों में पाँच अश्वेतों को तीन श्वेत नागरिकों के बराबर बताया गया है। जबकि यह अनुच्छेद श्वेत और अश्वेत शब्दों की बजाय ‘स्वतंत्र व्यक्ति’ और ‘अन्य व्यक्ति’ (दास के लिए सम्मानजनक शब्द) की बात करता है। संविधान के अनुसार, मालिकों को अपने गुलामों की संख्या के 3/5 वें अनुपात में प्रतिनिधित्व का अधिकार और प्रत्यक्ष कर के उत्तरदायित्व प्राप्त थे। अमेरिका के संविधान निर्माताओं की विडंबना यह थी कि उनके एक हाथ में आजादी का परचम था और दूसरे में दास व्यापार के मुनाफे की थैली। 1776 में उत्तरी अमेरिका के उपनिवेश आजाद हुए थे, वहाँ के गुलाम नहीं।
ज्यादातर अमेरिकियों के दिमाग में यह बात घर कर गई है कि अश्वेतों के सभी कार्य विचार या बातें नस्ली होती हैं। इसीलिए वहाँ लेखक और ‘अश्वेत’ लेखक होते हैं। बुश और डुकाकिस राष्ट्रपति पद के उम्मीदार थे और जैक्सन अश्वेत उम्मादवार। सौंदर्य प्रतियोगिता के पीछे भी यही तर्क काम करता है। गृह युध्द के दौरान दास प्रथा समर्थक और विरोधी दोनों इसके लिए कोलंबस की विरासत को नहीं, बल्कि अफ्रीकी मूल के लोगों की नैसर्गिक कमियों को जिम्मेदार मानते थे। आज भी ज्यादातर इतिहासकार दास प्रथा की व्याख्या नस्ल संबंधों की व्याख्या के रूप में करते हैं, मानो इसका मुख्य उद्देश्य कपास, चावल, चीनी और तंबाकू का उत्पादन न होकर ‘श्वेत श्रेष्ठता का निर्माण था।
नस्लवाद दरअसल न तो जीव वैज्ञानिक गुण या प्रवृति है और ही कोई शाश्वत विचार जो इतिहास के साथ पीढ़ी दर-पीढ़ी चलता हुआ विरासत के रूप में मौजूद हो। नस्ल विचार नहीं, एक विचारधारा है, जो उपनिवेशवाद के एक खास ऐतिहासिक दौर में, दास श्रम के औचित्य के लिए गढ़ी गयी, दास प्रथा की समाप्ति के बावजूद विचारधारा के रूप नस्लवाद प्रकारांतर से अब तक कायम है। इस की उत्पत्ति ऐतिहासिक कारणों से हुई इसीलिए ऐतिहासिक कारणों से ही इसका अंत भी संभव है।
सत्रहवीं शताब्दी के दूसरे दशक में जब उत्तरी अमेरिका के अंग्रेज उपनिवेशवादियों को बर्जीनिया में तंबाकू उत्पादन की संभावनाओं का ज्ञान हुआ तो वहाँ अफ्रीकी दासों की संख्या नगण्य थी। वर्जीनिया तंबाकू का उत्पादन के अर्थतंत्र की रीढ़ थे अंग्रेज जाति के ही अनुबंधित मजदूर। इन नौकरों को गुलामों की ही तरह खरीदा-बेचा जा सकता था, चुराया या अपहृत किया जा सकता था, जुए में दाव पर लगाया जा सकता था या उपहार में दिया जा सकता था। उनके साथ गुलामों सा ही बर्बरता का व्यवहार होता था। उनकी स्थिति अफ्रीकी गुलामों से इस मायने में बेहतर थी कि उनकी संतानें इस अभिशाप से मुक्त थीं और कई भाग्यशाली अनुबंध की अवधि के बाद भी जिंदा बच जाते था। कौन नहीं जानता कि प्राचीन यूनान और रोम में दास-स्वामी संबंध का निर्धारण रंग के आधार पर नहीं होता था। अंग्रेजों जैसी गोरी चमड़ी के बावजूद आयरिश जनता पर अंग्रेज उपनिवेशवादियों के बर्बर दमन चक्र आज भी जारी हैं। अफ्रीकी और अमेरिकी मूल के (लोगों रेड इंडियन) के दमन में भी उपनिवेशवादियों ने ‘बर्बरता’ के उसी तर्क का इस्तेमाल किया, था। हिटलर के गैस चैंबरों में घुट-घुट कर मरने वाले यहूदियों और जिप्सियों के अलावा जर्मन जाति के ही कम्युनिस्ट एंव राजनैतिक विरोधी थे। दमन रंग-रूप की भाषा नहीं समझता, वह सिर्फ प्रतिरोध की भाषा समझता है।
1660 के पहले अफ्रीकी दासों की संख्या बहुत कम थी क्योंकि उस समय तक अंग्रेज अनुबंधित नौकर दास से सस्ते पड़ते थे। इसलिए तब तक एक प्रणाली के रूप में दास प्रथा का विकास नहीं हो सका था। औपनिवेशिक अर्थतंत्र के बदलते समीकरण के तहत अफ्रीकी मूल के दासों की संख्या के साथ दास प्रथा के संस्थागत ढ़ाचे की जरूरत महसूस हुई और उनका औचित्य स्थापित करने के लिए विचारधारा के रूप में नस्लवाद की। लॉस एंजलिस से शुरू हाल के उग्र नस्ल विरोधी अभियान को लंबे ऐतिहासिक संबधों की कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए इसीलिए संभव है कि कोलंबस की ‘खोज’ की पंचशताब्दी वर्ष में शुरू किया गया ‘500 वर्ष का पर्तिरोध’ अभियान रंगभेद-विरोधी चेतना का प्रतीक बन कर नस्लवाद विरोधी संर्धष को निर्णायक दौर तक पहूँचा दे।
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