Sunday, April 28, 2019

दुर्गा भाभी 1

31 साल पहले लिखा दुर्गा भाभी के इंटरविव पर आधारित लेख। इंटरविव अलग से पोस्ट करूंगा।

सारंगा स्वर
23 जुलाई 1988

दुर्गाभाभी: स्वतंत्रता की दुर्गा
ईश मिश्र

इतिहास सिर्फ अतीत की मृतकथा भर नहीं है, यह भविष्य की दिशा निर्धारित करने वाला मार्गदर्शक भी होता है, शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए 1920 के दशक में अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जो सशस्त्र आंदोलन भगत सिंह और उनके साथियों ने शुरू किया यह आज भी जारी है, पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ 81 वर्षीया दुर्गा भाभी की आँखों में आज भी गहरी नफरत है, लेकिन विडंबना यह है कि देश के ‘अंग्रेज’ हुक्मरान जिसके नाम से थर्राते थे, आज के ‘देसी’ शासक उसके अस्तित्व से भी अनभिज्ञ हैं.

एक लंबी और सार्थक जीवन यात्रा की संध्याबेला, दुर्गा देवी वोहरा गुमनामी में बिता रही हैं, आजादी की लड़ाई के दौरान प्रचलित गीत, ‘शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले’ आज के संदर्भ में सार्थकता खो चुका है, लेकिन न तो भविष्य के प्रति निराशा है उनके अंदर, न ही उन्हें सरकार और प्रचारतंत्र की उपेक्षा की परवाह है. उन्हें यकीन है, “कभी न कभी इतिहास वैसा बनेगा जैसा हम चाहते थे और तब हम भी याद किए जाएंगो”, वे इतिहास लेखन के इस तर्क से असहमत है कि अतीत के संघर्ष के विश्लेषण में उसके उद्देश्य और इरादे को भी तरजीह देना चाहिए. “दासता से मुक्ति के लिए रोम साम्राज्य के खिलाफ ‘स्पार्टकस’ का विद्रोह असफल रहा तो क्या इतिहास उसे भूल जाएगा ?” इतिहास अतीत की कहानी मात्र नहीं होता, वह ‘भविष्य की दिशा भी निर्धारित करता है, भावी पीढ़ियों की क्रांन्तिकारी संभावनाओं में उनकी अटूट आस्था है, उनका मानना है, “शोषणमुक्त समाज की स्थापना के लिए जो लड़ाई हम लोगों ने 1920 दशक में शुरू की थी, वह 1930 के दशक में पार्टी (हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी) के बिखराव के साथ खत्म नहीं हो गयी. हम रहें न रहें लड़ाई चलती रहेगी, अंतिम विजय तक,”

दुर्गा भाभी 1983 में लखनऊ छोड़ने के बाद से, नौकरी से अवकाश प्राप्त बेटे शचींद्र के साथ गाजियाबाद में रह रही हैं, दुर्गा भाभी उन चंद जीवित लोगों में से हैं जो आजादी की लड़ाई में हथियारबंद रास्ते की हिमायत करते थे. 81 वर्ष की उम्र में अब वे अपने संस्मरण लिखना चाहती है, लेकिन आँखों से लाचार हैं. दिखायी बहुत कम देता है, अक्सर बीमार रहती हैं, यह विडंबना ही है कि देश के अंग्रेज हुक्कमरान जिसके नास कभी दशहत खाते थे, आज के देसी हुक्मरान उसके अस्तित्व से भी अनभिज्ञ हैं.
क्रांतिकारी साथियों में दुर्गा भाभी के नाम से जानी जाने वाली दुर्गा देवी का जन्म 1907 में इलाहाबाद में हुआ था. उनके पिता पंड़ित बाँके बिहारी लाल भट्ट अवकाश प्राप्त जिला जज थे. 1918 में 11 वर्ष की ही उम्र में 15 वर्ष के भगवतीचरण वोहरा सो हो गयी. उनके पिता शिवचरण अंग्रेजी हुकूमत के हिमायतियों में थे. 1919 में उन्हैं सरकार से ‘राय साहब’ का खिताब मिल चुका था. भगवतीचरण के विचार बचपन से ही पिता के विचारों से मेल नहीं खाते थे. वे अंग्रेजी हुकुमत को देश के इतिहास पर कलंक मानते थे और इस कलंक को धो डालने के लिए बेताब थे. उनके क्रांतिकारी विचारों का प्रभाव दुर्गा देवी पर भी पड़ा ‘घरेलू’ महिला की सारी मर्यादाओं को तोड़कर आजादी की लड़ाई में पति भगवतीचरण के साथ वे भी शरीक हो गयीं।
1921 में जब गाँधी ने एक साल में ‘स्वराज’ दिलाने के वायदे के साथ असहयोग आंदोलन छेड़ा तो पति-पत्नी दोनों उसमें शामिल हो गये. भगवतीचरण ने सरकारी शिक्षा संस्थानों के बहिष्कार की नीति के तहत 1921 में इंटर करने के बाद एम. सी. कालेज छोड़ दिया. बाद में 1923 में लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित ‘नेशनल कालेज’ से बी. ए. पास किया. दुर्गा भाभी ने ‘प्रभाकर’ की परीक्षा 1926 में पास की.

आंदोलन शुरू करते समय गाँधी ने 1921 तक ‘स्वराज’ ले लेने का पूर्ण आश्वासन दिया था. 1922 की जनवरी-फरवरी में आंदोलन अपने उत्कर्ष पर था. आंदोलन का लपटें गाँवों तक पहुँच रही थीं. आंदोलन सब और से उग्र होने की प्रवृत्ति दिखा रहा था, दमन की सरकारी नीति बेअसर होती जी रही थी. तभी ‘चौरी चोरा’ की घटना के बाद गाँधी ने आंदोलन स्थगित कर देने की आज्ञा दी. गाँधी के इस फैसले से आम कांग्रेसन, खासकर युवा वर्ग बहुत क्षुब्ध था.

गाँधीवाद और लड़ाई के गाँधीवादी तरीकों से मोह भंग के बाद कुछ ने हथियारबंद लड़ाई का विकल्प चुना. इनमें भगवतीचरण और दुर्गा भाभी भी थे. 1925 में प्रकाशित काकोरी अभियुक्त शचींद्र सान्याल की किताब ‘बंदी जीवन’ क्रांतिकारियों में बहुत चर्चित हुई. लगभग उसी समय पैदा हुए अपने बेटे का नाम इन लोगों ने शचींद्र रखा. जोगेश चटर्जी, अश्फाकुल्ला, रामप्रसाद बिस्मिल और शचींद्र नाथ सान्याल के नेतृत्व में ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (एच. आर. ए.) का गठन हुआ, ‘काकोरी कांड’ के बाद पंजाब में एच. आर. ए. के पर्चे बाटने की जिम्मेदारी जयचंद्र और भगवतीचरण के ऊपर थी.

पंजाब में सशस्त्र क्रांति के लिए गुप्त संगठन का क्षेत्र तैयार करने और जनता में उग्र राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए एक सार्वजनिक मंच की जरूरत महसूस हुई. ‘नवजवान भारत सभा’ और ‘स्टूडेंट्स यनियन’ की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी. इन संगठनों की पीछे जो दिमाग काम कर रहे थे, वे थे, धन्वंतरि. भगवतीचरण, सुखदेव और भगत सिंह के, ‘नवजवान भारत सभा’ का मैनिफेस्टो और साप्रंदायिकता के खिलाफ पर्चे वगैरह लिखने का काम मुख्य रूप से भगत सिहं और भगवती चरण वोहरा करते थे. सभा का काम गुप्त नहीं था, इसलिए उसमें सार्वजनिक जीवन से संपर्क रखने वाले विश्वस्त कार्यकर्ताओं को आसानी से समेटा जा सकता था. दुर्गा भाभी भी ‘सभा’ और ‘स्टूडेंट्स युनियन’ की गतिविधियों में सक्रिय हिस्सा लेती थी. सभा ने 1914 में प्रथम लाहौर षड़यंत्र मुकदमे में फाँसी पर लटक जाने वाले 18 वर्षीय करतार सिंह का सार्वजनिक रूप से शहीदी दिवस मनाया. भगत सिंह कहीं से करतार सिहं का छोटा सा चित्र ले आये थे, भगवतीचरण ने उसके आधार पर बड़ा चित्र बनवाया. दुर्गा भाभी ने अपनी उंगलियों से रक्त निकालकर चित्र पर लटके खद्दर के सफेद पर्दे को छींटों से रंग दिया.
क्रांतिकारियों में भगवतीचरण वोहरा का व्यक्तित्व सबसे अधिक विवादास्पद था, पुलिस और खुफिया एजेंसियां उन्हें पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधीयों का मुख्य सूत्रधार मानती थी. लेकिन पार्टी के ही कुछ लोग उन्हैं खुफिया पुलिस का आदमी समझते थे.

भगवतीचरण का संपर्क पंजाब के पुराने क्रांतिकारियों से भी था. पंजाब के कुछ उत्साही युवक रूसी क्रांति के बाद अफगानिस्तान के रास्ते रूस चले गये थे और लौट कर गुप्त रूप से ‘कम्युनिस्ट पार्टी’की स्थापना की. इन लोगों के संपर्क से भगवतीचरण ने रूसी क्रांति के बारे में काफी जानकारिया एंव साहित्य इकट्ठा किया. भगवतीचरण के बढते राजनीतिक प्रभाव से जयचंद्र को अपने नेतृत्व पर खतरे की आशंका होने लगी और उन्होंने प्रचारित कर दिया की भगवतीचरण खुफिया पुलिस के आदमी थे. भगवती इस तरह के आरोपों की उपेक्षा करते हुए पुही निष्ठा के साथ सशस्त्र क्रांति की तैयारी में लगे रहे.

1928 की सितंबर में ‘शोषण मुक्त’ समाज की स्थापना के उद्देश्य से ‘हिदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ का गठन साम्राज्य विरोधी सशस्त्र संघर्ष को अखिल भारतीय विचारधारात्मक स्वरूप देने का पहला प्रयास था. सबसे अधिक अनुभवी होने के नाते चंद्रशेखर आजाद इसके सेनापति चुने गये. भगवतीचरण वोहरा और दुर्गा भाभी संगठन के प्रमुख सदस्यों में से थे. घोषणापत्र और नीतियों संबंधी दस्तावेज तैयार करने में भगवती चरण वोहरा और भगत सिंह की प्रमुख भूमिका थी. 30 अक्तूबर 1928 को, लाला लाजपतरा के नेतृत्व में ‘साइमन कमीशन’ के खिलाफ प्रदर्शन की तैयारी में ‘नवजवान भारत सभा’ और ‘स्टूडेंट्स युनियन’ ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. उन दिनों नवगठित ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ की केंद्रीय समिति के लगभग सभी लोग लाहौर में थे. भगवतीचरण वोहरा ‘मेरठ षड़यंत्र’ में गिरफ्तारी की आशंका से फरार थे, प्रदर्शनकारीयों पर पुलिस द्वारा लाठी चार्ज में लाला लाजपत राय जख्मी हो गये और 17 नवंबर को उनकी मृत्यु हो गयी. एच. एस. आर. ए., की केंद्रीय समिति ने इस राष्ट्रीय अपमान का बदला लेने का फैसला किया. 17 दिसंबर, 1930 को लाला जी पर लाठी चलाने वाले पुलिस अधिकारी सांड़र्स की ड़ी. ए. वी. कालेज के सामने हत्या कर दी गयी

इस घटना के बाद पुलिस और मुखबिरों की चौकसी बढ़ गयी. ऐसे में इन लोगों का लाहौर में रहना निरापद नहीं था. आजाद तो ‘जय रघुनंदन जय घनश्याम’ गाते हुए एक कीर्तन मंडली के साथ हो लिए. सबसे बड़ी समस्या थी सिख जाट की वेशभूषा वाले भगत सिहं दाढी, बाल मुंडवाकर सूट-बूट वाले ‘जेंटिलमैन’ बन गये, चुस्त साड़ी पहने दुर्गा भाभी इनकी पत्नी के वेश में थीं और राजगुरू नौकर थे. भगत सिंह की गोद में इनका 3 साल का बेटा शचींद्र चेहरे को छिपाने में मदद कर रहा था. इस तरह ये लोग लाहौर से कलकत्ता पहुँच गये. दुर्गा भाभी ने भगत सिंह को सुशीला दीदी के पास छोड़कर कांग्रेस अधिवेशन में हिस्सा लिया. भगवती चरण भी वहाँ पहुँचे हुए थे.

भगवती चरण के संपर्क कलकत्ता, बंबई, कानपुर, लखनऊ, दिल्ली, मेरठ आदि सभी प्रमुख नगरों में थे. जयपुर और ग्वालियर से हथियार और बमों के खोल मंगाए जाते थे. इन कामों में दुर्गा भाभी सभ्रांत पर्दानशीं मारवाड़ी महिला की भाँति बड़े घेरेवाली लहंगा-ओढ़नी और लंबी चादरों का प्रयोग करती थीं. पुलिस की आंखों में धूल झोंककर दूसरे शहरों से हथियार बनाने की सामग्री लाने का काम करती रहीं.

भगत सिंह, राजगुरू और बटुकेशर दत्त असेम्बली में बम और पर्चा फेंककर गिरफ्तारी दे चुके थे. इनको फाँसी की सजा मिलना तय था. आजाद के नेतृत्व में इन्हें जेल से छुड़ाने की योजना बनाई गयी. इस योजना में बमों का इस्तेमाल होना था. इसके तहत भगवतीचरण वोहरा की देखरेख में बहावलपुर कोठी में बम बनाने का काम शुरू किया गया. बने हुए बमों के परीक्षण की जिम्मेदारी स्वंय भगवती भाई ने ली.28 मई 1930 को रावी के किनारे बम परीक्षण करते समय दुर्भाग्य से एक बम उनके हाथ में ही फट गया. खबर पाकर जब तक यशपाल और अन्य साथी वहाँ पहुँचे तब तक उनकी स्थिति खराब हो चुकी थी. बिना उपचार के ही क्रांतिकारी आंदोलन का यह सिपाही रावी तट पर शहीद हो गया.

दुर्गा भाभी ने आजाद से पेशकश की कि भगत सिंह को छुड़ाने की योजना में पति के स्थान पर उन्हैं शामिल किया चाये. लेकिन तभी दूसरा हादसा हो गया. बहावलपुर कोठी में रखे बम गर्मी से फट गये. ‘बम फैक्टरी’ का पता लग जाने से सभी क्रांतिकारियों को भूमिगत हो जाना पड़ा. दुर्गा भाभी एक इंजीनियर के घर के सामने के कमरे में 15 दिंन बंद रही. उसी के बाद फरारी की जिंदगी शुरू हुई.
भगत सिंह का अधिकांश समय दिल्ली, कानपुर और अन्य जगहों के क्रांतिकारियों से संपर्क बनाने में जा रहा था. पंजाब में दल के सूत्र जयचंद्र के हाथ में थे. गोपनीयता के तहत वह दल का गतिविधीयों के बारे में किसी से कुछ बताते भी नहीं थे.

लाहौर छोड़कर ये लोग दिल्ली चले आये. आजाद ने पार्टी के लिए कुछ धन का प्रबंध किया और किराये पर एक घर लेकर क्रांतिकारी सूत्रों को फिर से जोड़ने की कोशिश में लग गये. लेकिन यह जगह भी असुरक्षित समझी जाने लगी और ये लोग इलाहाबाद आ गये. आजाद दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी के अभिभावक बने हुए थे. ये दोनों वहाँ कुछ दिनों कत क्रासवेथ कालेच के हॉस्टल में छदमनाम से रहीं. कुछ दिनों तक सुरेंद्रनाथ नामक एक पत्रकार के यहाँ और कुछ दिनों पुरुषोत्तम दास टंड़न के यहाँ.

आजाद की शहादत के बाद क्रांतिकारी आंदोलन के सूत्र बिखरने लगे, दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी फरारी की हालत में इधर-उधर घूमतीं रहीं. सरकार ने इन्हैं पकड़ने के लिए इनास घोषित किया और शरण देने वालों को सजा. भगत सिहं, राजगुरु और बटुकेश्वर दत्त की फाँसी की सजा की खबर से दुर्गा भाभी के अंदर प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी. उन दिनों वे बेटे शचींद्र के साथ बंबई में थीं. पृथ्वी सिंह के नेतृत्व में क्रांतिकारियों को फाँसी देने के फैसले की प्रतिक्रिया में बंबई के गवर्नर को गोली चलाने की जिम्मेदारी दुर्गा भाभी पर थी. गवर्नर के घर के चारों तरफ से निकलते एक अंग्रेज अफसर को गवर्नर समझकर दुर्गा भाभी ने उस पर गोली चलाकर जख्मी कर दिया, लेकिन वह एक सेना अधिकारी टेलर था. यह घटना ‘लेमिंग्टन रोड गोली काँड’ के नाम से जानी जाती है, इसके बाद वे गुप्त रूप से भागकर कानपुर आ गयी. शचींद्र को सावरकर ने एक सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दिया था. जहाँ से उसे अपनी माँ के पास पहुँचने की सुविधा थी.

सितम्बर, 1931 में दुर्गा भाभी लाहौर आ गयीं और ‘फ्री प्रेस’ के संवाददाता को बयान देने के बाद गिरफ्तार कर ली गयीं और 1936 तक नजरबंद रही. नजरबंदी खत्म होने पर दिल्ली आ गयीं. वहाँ से भी उन्हैं शहर निकाला का आदेश मिल गया, एक साल गाजियाबाद में ‘प्यारेलाल गर्ल्स स्कूल’ में नौकरी करने के बाद फिर दिल्ली आ गयीं और 1938 में प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष रहीं. कांग्रेस में इनकी मित्रता अधिकतर वामपंथियों से रही, कांग्रेस के त्रिपुरा और हरिपुरा अधिवेशनों में हिस्सेदारी के बाद कांग्रेस से मोहभंग हो गया और उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में जाने का फैसला किया. मद्रास से प्रशिक्षण लेकर 1940 में उन्होंने ‘लखनऊ मांटेसरी’ की स्थापना की और 1983 तक उससे जुड़ी रहीं 1946 में उन्होंने लाहौर और इलाहाबाद के घरों को बेच कर शचींद्र को इंजीनियरी पढ़ने अमरीका भेजा वे अब यूनियन कार्बाइट की नौकरी से अवकाश प्राप्त कर चुके हैं.
इस तरह अतीत की ‘नास्टेल्जिया’ में जीती दुर्गा भाभी बहुत दुखी रहती हैं. उनका दुख अपनी व्यक्तिगत उपेक्षा की नहीं हैं बल्कि जीते जी ‘शोषण मुक्त’ समाज की स्थापना के उस सपने के पूरा न होने का है जा उन्होंने अपने पति और अन्य क्रांतिकारी साथियों के साथ मिलकर 60 साल पहले देखा था. वे निराश नहीं हैं, आश्वस्त हैं कि उनका सपना पूरा जरूर होगा. भले ही उसकी हकीकत वे अपनी आंखों से न देख पायें.



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