दुर्गा भाभी का इंटरविव
सारंगा स्वर, 23 जुलाई 1988
ईश मिश्र
31 साल पहले छपा दुर्गा भाभी का इंटरविव
‘गाँधी ने हमेशा सौदेबाजी की’
कभी उनके नाम से देश के अंग्रेज हुक्मरान खौफ खाते थे, आज गाजियाबाद की रामनगर कॉलोनी में भी अधिकांश उन्हें नहीं जानते. उन्हें नही मालुम की पिछले पाँच साल से अपने अवकाशप्राप्त बेटे के साथ रहने वाली 81 वर्षीया यह वृद्धा अंग्रेजी हुकूमत के लिए कभी इतना बड़ा खतरा समझी जाती थी कि पूरे देश की पुलिस और खुफिया उन्हैं ‘जिंदा या मुर्दा’ पकड़ने के लिए परेशान थी. इससे भी बड़ी विडंबना यह है कि बहुत कम लोग ही जानते हैं कि आजादी की लड़ाई के दौरान ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ के नारे की शुरूआत करने वाले, दुर्गा भाभी या शिव वर्मा जैसे कई क्रांतिकारी अभी जीवित हैं.
उम्र और बीमारी की दोहरी मार से दुर्गा देवी वोहरा बहुत कमजोर हो गयी हैं, आँखें अब उतना साथ नहीं देती. खाँसी लगातार बोलने नहीं देती,
1940 में उन्होंने ‘लखनऊ मांटेसरी स्कूल की स्थापना की और 1983 तक स्कूल चलाया. उम्र और बीमारी के साथ जब आँखें भी धोखा देने लगीं तो लखनऊ का अपना घर-बार सब ‘शहीद स्मारक’ को सुपुर्द करके बेटे शचींद्र के साथ रहने गाजियाबाद चली आयी’. एक लंबी और सार्थक जिंदगी की संध्याबेला में दुर्गाभाभी को सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात की है कि ‘शोषण मुक्त समाज’ के निर्माण के लिए जिस जेहाद की शुरूआत उनके क्रांतिकारी साथियों ने की थी वह आगे नहीं बढ़ पायी. लेकिन वे निराश नहीं हैं, भावी पीढियों की क्रांतिकारी संभावनाओं में उनकी गहरी आस्था है. उनसे ईश मिश्र की अविस्मणीय बातचीत के अंश.
आजादी की लड़ाई में हथियारबंद रास्ते की हिमायत करने वाले चंद जीवित लोगों में आपका नाम सबसे ऊपर आता है. अपने क्रांतिकारियों दिनों के कुछ संस्मरण सुनाइए.
आपका सवाल सधा हुआ नहीं है, इसमें कई चीजों का घालमेल हो गया है. पहली बात तो हमारी पार्टी को ‘हथियारबंद रास्ते की हिमायती’ भर कह देना भ्रामक है. दमनकारी, विदेशी शासकों के खिलाफ हथियारबंद लड़ाई की हिमायत के पीछे एक ठोस दर्शन था, ‘बम का दर्शन’ क्रांतिकारी भी आम आदमी होता है, सारी मानवीय संवेदनाओं के साथ.
दूसरी बात यह कि हमारी पार्टी में किसी का नाम ऊपर, नीचे नहीं होता था. गुप्त संगठन की सीमाओं के बावजूद हम लोगों का काम करने का तरीका काफी लोकतांत्रिक था. आजाद पार्टी के ‘सेनापति’ थे, लेकिन पार्टी के फैसले अक्सर सामूहिक होते थे. हम लोग आपस में परिवार की तरह रहते थे, एक दूसरे का सुख-दुख बांटते हुए. हम सारे लोग अपनी अस्मिता की बाजी लगाकर आजादी की लड़ाई में शरीक हुए थे. सबका बराबर का योगदान था, उनका, इतिहास ने जिन्हें याद रखा और उनका भी जिन्हें भुला दिया.
जहाँ तक उन दिनों के मेरे संस्मरणों की बात है, उनका क्या कीजिएगा. उससे कुछ बनेगा नहीं, वैसे भी उन दिनों के बारे में काफी कुछ छप चुका है -- कुछ सच कुछ झूठ.
उस वक्त आप लोगों ने काफी कुछ सोचा होगा देश के भविष्य को लेकर, कई सपने बुने होंगे ?
सपने बहुत दिनों तक नहीं याद रहते. (झुंझलाहट मैं) उस वक्त बहुत कुछ सोचा था, आज कुछ नहीं सोचती. (शांत होकर) उस वक्त क्या सोचते थे, वह आज तो नहीं सोच सकते या बता सकते, बातों बातों में उसका ‘रिफ्लेक्शन’ आ सकता है.
उस वक्त सोचा था कि देश आजाद होगा. समाज में भेदभाव मिटेंगे. कोई भूखा-नंगा नहीं रहेगा, गैरबराबरी खत्म करके समाजवादी ढांचे पर समाज का गठन होगा. चारों तरफ खुशहाली होगी. सभी बच्चों को शिक्षा मिलेगी, हम भी दुनिया में अपना सिर ऊँचा करके चल सकेंगे.
आज आप क्या सोचती हैं ? आज की राजनीति के बारे में ?
कुछ नहीं सोचती. मेरी तो सेहत ही अच्छी नहीं है. गला रुंधा है, खाँसी आती रहती है. हाथ टूट गया था, 2 महीने उसे लेकर पड़ी रही, दिखाई भी कम पड़ता है.
राजीव गाँधी की सरकार के बारे में आपकी क्या राय है ?
राजीव की भी वही राजनीति है जो उसकी माँ की थी. नेहरू के बाद तो बौध्दिक तत्व राजनैतिक नेतृत्व से गायब ही हो गया. राजनीति का लंपटीकरण भी तभी शुरू हो गया था.
आजदी के बाद नेहरू सरकार से आपकी आशाएं .....
नेहरू सरकार कहिए या कांग्रेस सरकार, आशाएं पूरी नहीं हुई राजनीतिक आजादी तो मिली लेकिन लोगों की तकलीफें कम नहीं हुई.
आजादी के बाद नेहरू से आपके अच्छे संबंध थे, आपके स्कूल में उनका आना जाना बना रहता था. आपने उन्हैं कभी सुझाव नहीं दिये ?
सुनता कौन है ? नेहरू जी का आना जाना जरूर रहा. और उनकी पीढ़ी के कांग्रेसी नेताओं में एक खास बात यह थी कि वे मतभेदों के बावजूद पूर्व क्रांतिकारियों के प्रति सम्मान की भावना रखते थे, उनकी उपेक्षा नहीं करते थे.
आप राजनीतिक गतिविधियों के संपर्क में कब और कैसे आयी ?
यह बताना बहुत मुश्किल है. 60 या 70 साल पुरानी बातें ठीक-ठाक याद भी तो नहीं रहती वैसे राजनीतिक गतिविधियों में मैंने शादी के बाद ही रुचि लेना शुरू किया.
उस समय में 11 साल की थी और भगवती जी 15 के. वे उस समय भी बहुत पढ़ते थे. मेरे ससुर अंग्रेजी हुकूमत के हिमायती थे. 1919 में हुकूमत ने उन्हैं ‘रायसाहब’ का खिताब दिया, इनके विचार बचपन से ही पिता के विचारों से मेल नहीं खाते थे.
मैं उस समय उनकी बातें समझ नहीं पाती थी. वे खुद भी बहुत स्पष्ट नहीं थे. इतना स्पष्ट था कि वे अंग्रेजों को देश से भगा देना चाहते थे. उनके जो दोस्त भी आते, वे सब भी इसी तरह की बातें करते. मुझे इनकी बातें अच्छी लगती थी. मेरी आगे की पढ़ाई का प्रबंध भी उन्होंने कर दिया. 1926 में मैंने प्रभाकर की परीक्षा पास की.
1920-21 में जब गाँधी ने एक साल में स्वराज दिलाने के वायदे के साथ असहयोग आंदोलन छेड़ा, स्कूलों, कालेजों के बहिष्कार का आहवान किया तो तमाम अन्य युवक-युवतियों की तरह हम लोग भी पढ़ाई छोडकर आंदोलन में शामिल हो गये. 1922 में चोरीचौरा की घटना के बहाने गाँधी के आंदोलन वापस लेने के फैसले से युवा पीढ़ी के लोगों को बहुत निराशा हुई. आंदोलन उस समय वापस लिया गया जब उसकी लपटें गाँव-गाँव पहुँचने लगी थीं. गाँधी और लड़ाई के गाँधीवादी तरीकों से मोहभंग होने के बाद हम लोगों ने सशस्त्र संघर्ष का रास्ता अपनाया और उसी रास्ते पर बढ़ते गये. हमारा एक ही सपना था कि देश आजाद हो, गरीब मजदूर का राज हो और समाजवाद आये.
गाँधी से मोहभंग के बाद क्या किया ?
भगवती जी का पंजाब के कई क्रांतिकारियों से परिचय था. लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित नेशनल कॉलेज की लाइब्रेरी क्रांतिकारियों का जमघट हुआ करती थी. पंजाब में युवकों और छात्रों के बीच क्रांतिकारी विचारों के प्रचार के लिए ‘भारत नवजवान सभा’ और ‘छात्र संघ’ का गठन किया गया भगवती जी और भगत सिंह इन संगठनों के मुख्य सूत्रधार थे.
उसके बाद हम दूसरे प्रांतों के क्रांतिकारियों के संपर्क में आये पंजाब में एच. आर. ए. (हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी) के पर्चे बाँटने की जिम्मेदारी मुख्य रूप से भगवती जी पर थी. कोकोरी षड़यंत्र के अभियुक्तों को छुड़ाने की योजना में पंजाब की पार्टी के ऊपर धन और हथियार जुटाने की जिम्मेदारी थी.
1928 में जब एच.आर.ए. का विलय करके एच. एस. आर. ए. (हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी) बनी तो भगवती जी. यशपाल, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू आदि के कारण लाहौर क्रांतिकारी गतिविधियों का मुख्य केंद्र बन गया.
सांडर्स हत्या की योजना किसने बनायी थी ?
जब साइमन कमीशन लाहौर आया तो पार्टी (एच. एस. आर. ए.) की केंद्रीय समिति के लगभग सभी सदस्य लाहौर में मौजूद थे, भगवती जी उस समय लाहौर में नहीं थे. ‘मेरठ षडयंत्र’ मुकदमे में गिरफ्तारी के खतरे के कारण वे फरार थे. यह योजना पार्टी की केंद्रीय समिति की योजना थी.
सांडर्स वध के बाद भगत सिंह और राजगुरू आप की मदद से लाहौर से फरार होकर कलकत्ता पहुँच गये. उसके बाद आप कलकत्ता कांग्रेस में भी शरीक हुई. उस रोमांचकारी अनुभव के बारे में कुछ बताइए.
कुछ अनुभव सिर्फ अनुभव किए जा सकते हैं, उनके बारे में बताना, वह भी 60 साल बाद मुश्किल है. भगत सिंह दाढ़ी, मूंछ मुंड़वा कर सूटबूट और हैट में थे लेकिन वह मेरी आंखों को धोखा नहीं दे सके. (अपने बेटे शचींद्र की तरफ इशारा करके) तब यह बहुत छोटा था. शचींद्र भगत सिंह की गोद में था. में उनकी पत्नी बनी हुई थी और राजगुरू नौकर. किसी को भी संदेह नहीं हुआ, लखनऊ में भगवती जी मिले. मेरी तारीफ करने लगे, कहा ‘हमारी असली शादी तो आज हुई है’. उसके बाद मैं कलकत्ते की कांग्रेस में भी शरीक हुई. भगवती जी भी वहाँ पहुँचे थे, ‘सांडर्स वध’ वहाँ आम कांग्रेस जनों में बहस का विषय बना हुाथा .
क्रांतिकारियों में आपके पति शहीद भगवती
चरण वोहरा का व्यक्तित्व काफी विवादास्पद था. सरकार की खुफिया एजेंसियाँ उन्हें पंजाब में क्रांतिकारी गतिविधियों का सूत्रधार मानती थी तो पार्टी के कुछ लोग उन पर खुफिया पुलिस का आदमी होने का संदेह करते थे, आप क्या सोचती हैं ?
इन सब बातों का अब कोई मतलब नहीं रह गया है. इस पर बहुत कुछ लिखा, कहा जा चुका.
‘सांडर्स वध’ के बाद पुलिस को सबसे अधिक तलाश भगत सिंह की थी. वह भगवती चरण और भगत सिंह को क्रांतिकारी आंदोलन के मुख्य सुत्रधार मानती थी. अब तक भगत सिंह को अपार लोकप्रियता मिल चुकी थी. भगत सिहं क्रांति का प्रतीक बन चुका था.
संयोग से काफी हद तक यह सही है, भगत सिंह, राजगुरु और बटुकेश्वर दत्त असेम्बली में बम फेंककर गिरफ्तारी दे चुके थे. ‘सांडर्स वध’ के बाद पुलिस को सबसे अधिक तलाश भगत सिंह की थी. वह भगवती चरण और भगत सिंह को क्रांतिकारी आंदोलन के मुख्य सूत्रधार मानती थी. अब तक भगत सिंह को अपार लोकप्रियता मिल चुकी थी. भगत सिंह क्रांति का प्रतीक बन चुका था. अंग्रेजों की अदालतों से इंसाफ की उम्मीद हमें कभी नहीं थी. इन लोगों को जेल से निकालने की योजना बनायी गयी. इस योजना में बमों का इस्तेमाल होना था. बम बनाने की सामग्रती दूसरे शहरों से आनी थी. दूसरे शहरों से बम सामग्री लाने का काम मैं भी करती थी. में एक संभ्रात मारवाड़ी महिला के रूप में यात्रा करती थी. कभी किसी को संदेह नहीं हआ.
बम बनाने का काम उन्हीं (भगवती चरण वोहरा) की देख रेख में हो रहा था जब कुछ बम बन गये तो दो साथियों को लेकर रावी के किनारे जंगल में परीक्षण के लिए वे स्वयं गये. दुर्भाग्य से एक बम उनके हाथ में फूट गया हम सभी के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था इस सदमे से उबरे भी नहीं थे कि गर्मी के कारण बहावलपुर कोठी में रखे बमों के फटने का हादसा हो गया. इसके बाद हम लोगों का लाहौर में रहना निरापद नहीं था.
लाहौर से हम दिल्ली आ गये. आजाद ने एक घर किराये पर लिया और हम लोग फिर से क्रांतिकारी सूत्रों को जोड़ने में लग गये. जब वहाँ रहना भी असुरक्षित समझा जाने लगा तो हम लोग दिल्ली छोड़कर इलाहाबाद आ गये. वहाँ कुछ दिनों तक में और सुशीला दीदी एक छात्रावास में रहे आजाद हमारे अभिभावक बने हुए थे फिर कुछ दिन पुरूषोत्तम दास टंडन के घर रहे टंडन जी मुझे बेटी की तरह मानते थे फरारी की यह जिंदगी ‘फ्री प्रेस’ को लाहौर में वक्तव्य देकर गिरफ्तारी होने तक चली.
फरारी के दौरान कोई राजनैतिक गतिविधियाँ ?
हम लोगों को पकड़ने के लिए सरकार ने इनाम रखा था और हमें शरण देने वालों को 7 साल की सजा. फरारी के दौरान मैंने और सुशीला दीदी ने दिल्ली आकर गाँधी जी से मुलाकात की हम लोगों ने इरविन के साथ समझौते में भगत सिंह, राजगुरु और दत्त की फाँसी रुकवाने की शर्त रखने का अनुरोध किया गाँधी जी ने हिंसा, अहिंसा का अड़ंगा लगा दिया। उस समय तक भगत सिहं की लोकप्रियता गाँधी से कम नहीं थी.
भगत सिंह, राजगुरू और दत्त की फाँसी का बदला लेने के लिए पृथ्वी सिंह आजाद के नेतृत्व में बंबई के कमिश्नर की हत्या का योजना भी उन्हीं दिनों बनी थी इस योजना में कमिश्नर की हत्या मुझे करनी थी कड़ी पुलिस व्यवस्था के कारण यह योजना सफल ने हो सकी.
गाँधी इरविन समझौते के बारे में आप क्या सोचती हैं? क्या आप समझती हैं कि यदि गाँधी जी चाहते तो भगत सिंह की फाँसी रुक सकती थी ?
यह समझौता ही गलत था हमें सीधे अपनी माँग रखनी चाहिए थी मानते हो तो मानो नही तो हम लड़कर मनवायेंगे। गाँधी क्रांतिकारियों के मसले को उठाना ही नहीं चाहते थे, कहते थे “वे ते हिंसा में विश्वास करते हैं” जब ‘बम के दर्शन का थप्पड पड़ा और भगत सिहं का नाम देश के युवक, युवतियों की धडकनों में बस गया था तो ‘यंग इंड़िया’ में एक लेख लिखकर गाँधी ने लीपापोती की कोशिश की.
अंग्रेजों की कारगुजारियों को वे हिंसा, अहिंसा के संदर्भ में नहीं देखते थे शासक को हिंसा का अधिकार था, हम गुलाम थे हमें नहीं था.
बाद के दिनों में आपकी पार्टी के कई महत्तपूर्ण लोग कम्युनिस्ट पार्टी में चले गये.
हाँ शिव वर्मा, यशपाल सहित कुछ लोग कम्युनिस्ट पार्टी में चले गये, कुछ लोग कांग्रेस में चले गये कुछ लोगों ने अपनी पार्टी बना ली ‘एच. एस. आर. ए. तो आजाद के साथ ही खत्म हो गयी उसके बाद कुछ और दिनों तक खींचने की कोशिश की कुछ लोगों ने.
आप ने क्या किया ?
मैं सितंबर 1931 में गिरफ्तार हुई और दिसम्बर 1932 तक जेल में रही उसके बाद लाहौर में ही 3 साल नजरबंद रही 1936 में नजरबंदी खत्म हुई तो दिल्ली
गाँधी क्रांतिकारियों के मसले को उठाना ही नहीं चाहते थे. कहते थे, “वे तो हिंसा में विश्वास करते हैं” जब ‘बम के दर्शन’ का थप्पड़ पड़ा और भगत सिहं का नास देश के युवक, युवतियों की धड़कनों में बस गया था तब ‘यंग इंडिया’ में एक लेख लिखकर गाँधी ने लीपापोती की कोशिश की.
आ गयी वहाँ कुछ दिनों रहने के बाद एक साल का शहर निकाला का हुक्म मिल गया और में गाजियाबाद आ गयी। प्यारे लाल गर्ल्स स्कूल में नौकरी की एक साल बाद फिर दिल्ली वापस आकर दिल्ली में मिल कर्मचारियों की हड़ताल में हिस्सा लिया कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सत्यवती और आचार्य नरेंद्र देव से मेरे काफी अंतरंग संबंध थे। 1938 में मैं दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्ष बनी और कांग्रेस के त्रिपुरा और हरीपुरा अधिवेशनों में प्रतिनिधि की हैसियत से हिस्सा लिया मैंने ‘पंत प्रस्ताव’ का विरोध किया था इस प्रस्ताव के कारण निर्वाचित अध्यक्ष सुभाष बोस को पद और पार्टी दोनों छोड़नी पड़ गयी थी। उसके बाद मुझे लगा यह सब बेकार है कुछ ठोस करना चाहिए और 1940 में मैंने ‘लखनऊ मांटेसरी’ की स्थापना की.
आजादी के बाद आप सक्रिय नहीं रही ?
क्यों नहीं स्कूल चलाया अच्छी शिक्षा दी कुछ बच्चों को एक पूरी फौज तैयार की नई पीढ़ी के लिए प्री प्राइमरी से शुरू किया था आज इंटर कॉलेज बन गया है 3000 से अधिक विधार्थी हैं.
देश के बंटवारे के बारे में गाँधी की क्या भूमिका थी ?
गाँधी न चाहते तो बंटवारा कैसे होता ? 1944 में वे स्वयं जिन्ना के पास गये थे, पाकिस्तान का प्रस्तावित नक्शा लेकर सौदेबाजी करने, बनिया था ---- हमेशा सौदेबाजी की उसने यदि गाँधी और नेहरू चाहते तो बंटवारा टल सकता था देश का आम मुसलमान जिन्ना के साथ नहीं था.
जान की बाजी लगाकर आजादी की लड़ाई में शरीक होने की प्ररेणा कहाँ से मिलती थी ?
इतिहास से। आजादी लड़ाई में सब लोग स्वेच्छा से आये पढ़ाई लिखाई छोड़कर दो रास्ते थे एक चरखा और पदयात्रा का था और दूसरा सशस्त्र क्रांति का। कांग्रेस के बहुत से लोग हमारे मददगार भी थे जैसे गणेश शंकर विधार्थी, सत्यवती, आचार्य नरेंद्र देव और पुरूषोत्तम दास टंडन आदि.
गाँधी न चाहते तो बंटवारा कैसे होता ? 1944 में वे स्वयं जिन्ना के पास गये थे, पाकिस्तान का प्रस्तावित नक्शा लेकर सौदेबाजी करने बनिया था - हमेशा सौदेबाजी की उसने यदि गाँधी और नेहरू चाहते तो बंटवारा टल सकता था
गाँधी के प्रभाव के कारण हम लोग प्रभावशाली जनाधार नहीं बना पाये गाँधी ने युवकों और ग्रामीणों में आजादी के लिए जो जागृति पैदा की उसे नकारा नहीं जा सकता, स्वतंत्रता संग्राम की दोनों धाराएं सिर्फ विरोधी ही नहीं एक दूसरे की पूरक भी थी.
शिव वर्मा जैसे पुराने साथियों से कभी मुलाकाल होती है ?
लखनऊ में मेरे घर में ‘शहीद संग्रहालय’ और अनुसांधान केंद्र खुल गया है शिव वर्मा ही उसके कर्ता-धर्ता हैं कभी-कभी मुलाकाल होती रहती है.
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