Monday, March 4, 2013

लल्ला पुराण ७५

मुझे नहीं लगता मैंने ऐसा क्या कह दिया कि इतनी बौखलाहट मच गयी तमीज के एक ठेकेदार ने मुझे औघड़ के ओहदे से नवाजा है जिसके बारे में मुझे ज्यादा मालुम नहीं तो यह प्रशंसा है कि निंदा नहीं कह सका, जिनकी मैं चिंता नहीं करता. अमिताभ  जी आप यहाँ ज्योतिष का गूगल क्लास लेने लगे. ग्रहों की गणनाओं से ही सब तय होता तो क्या कहना था. अब आपको गणनाओं के आधार पर भूत-भविष्य-वर्तमान के प्रामाणिक विज्ञान के ज्ञानी ज्योतिषी के राय पर पुखराज पहनने की बावजूद आई.ए.एस. नहीं बन सके और यह सिक्षा जगत  का सौभाग्य है कि लोक सेवा आयोग/संघ लोक सेवा आयोग आदि के दुर्भाग्य से ये लोग प्रोफ़ेसर बन जाते हैं और भविष्य की पीढ़ियों के लिये मिसाल बनते हैं. मेरे दादा जी इलाके में पंचांग के बहुत बड़े ज्ञाता माने जाते थे. और नक्षत्रों की गणना के इतने कट्टर मानाने वाले थे कि परीक्षा छूट जाय लेकिन प्रस्थान गणना के मुहूर्त पर ही होगा. इस अंध-विश्वास (ताब मैं एस्सा नहीं सोचता था) की पराकाष्टा का अनुभव मैं इलाहाबाद के किसी मंच पर शेयर कर चुका हूँ. यह कमेन्ट लंबा हो जा रहा है, पुष्पा की आपत्ति के पहले ही समेत दूं, अपना अनुभव अगले कमेन्ट में. और मैं सिर तथ्यों तर्कों के आधार पर बात कारता हूँ लफ्फाजी नहीं करता, कभी विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ. मेरे पास अपनी बात कहने के आभासी और वास्तविक दुनिया में कमी नहीं है, अगर मेरी बातें बहुमत को कष्टदायक  लग रही हों तो कुटुंब की तरह इस ग्रुप को भी छोड़कर मुझे खास तकलीफ नहीं होगी. हाँ अंतिम वाक्य, धर्म और ईश्वर पर ज़रा सी बातों से लोग इतने अआहत क्यों हो जाते हैं? क्या सर्वशक्तिमान इतना कमजोर है कि मेरे जैसे साधारण इंसान की आलोचना से उसके अस्तित्व को खतर पैदा हो जाता है? मैं एक नास्तिक हूँ जो धर्मों को जनता के खिलाफ कह्तार्नाक साज़िश मानता है; जो हर ज्योतिषी को मेरे जीवन की निकट अतीत (पुष्पा जी के गुरू को चुनौती में तारीख भी लिखा हूँ) की एक आजीवन महत्व की घटना के बारे में बता दे तो ज्योतिष जैसे फरेब को मैं विज्ञान मान लूंगा.

ProfAmitabh Pandey  मैं किसी को सर्वशक्तिमान मानता ही नहीं तो एक-दो झटके में निपटाने का सावाल ही नहीं उठता. मनुष्य अपनी आवश्यकतानुसार अपने शब्द; मुहावरे, देवी-देवता और धर्म निर्मित करता रहा है इसीलिये देश-काल के अनुसार इनके स्वरूप बदलते रहे हैं. वैदिक काल में प्राकृतिक शक्तियों के अलावा और कोई देवी-देवता नहीं थे. पहले ईश्वर गरीब और असहाय की मदद करता था. सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट के जमाने में जो खुद अपनी सहायता कर सकते हैं उन्ही का मददगार हो गया. ब्रहमो समाज आर्यसमाज जैसे वैद्क पुनुरुद्धार के आन्दोलन मूर्तिपूजा के घोर विरोधी थे. बाकी यदि कोई सर्वशक्तिमान है/हैं तो उसे/उन्हें भी चुनौती देता हूँ कि वे यदि वाकई सर्वशक्तिमान हैं तो ओबामा को जनसंहार से रोक दे/दें.

पाण्डेय जी, आपने मेरी बातों को अन्यथा ले लिया, जो लोग कोचिंग के बल पर आईएएस/पीसीएस  बन जाने वालों को कोई बहुत प्रज्ञावान नहीं मानता और आप जिस क्षेत्र में हैं उसे मैं भाग्यशाली मानता हूँ, यद्यपि ऐसे अभागे शिक्षकों की कमी नहीं जो शिक्षक होने के महत्व को नहीं समझते. मेरी धार्मिकता से कोई दुश्मनी नहीं है क्योंकि चेतना का विकास भौतिक परिस्थितियों (समाजीकरण जिसका महत्वपूर्ण अवयव है)का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थितयों का. लेकिन ये परिस्थियाँ मनुष्य के चेतन प्रयास से बदलती हैं. चेतना में बदलाव इतनी मंद और अदृश्य गति से होता है कि कई बार हम महसूस नहीं कर पाते. आप वैसे तो दावा कर रहे हैं कि आप भी वही करते हैं जो आप की पीढियां करती आयी हैं. मेरे और अपने बाप-दादाओं की तरह जाट-पांत/ खान-पान की शुद्धता का पालन करते हैं? कुछ बदलाव कभी चिंतन-मंथन में पकते पकते-पकते-पकते एक झटके से आते हैं, जो आत्मसात हो जाते हैं कि इंसान  इसकी खलूस से सघन नुभूति करता है, जैसे नवी क्लास में ऊबकर एक झटके में जनेऊ तोड़ दिया था और उसी झटके से पीढ़ियों के कर्मकांडी संस्कारों को पूर्वजों की लाशों के बोझ की तरह उतार फेंका था.संस्कारगत नैतिकताओं पर सावाल से शुरू प्रक्रिया ईश्वर पर सावाल तक पहुँची और जैसा कि सावाल-दर-सवाल में नास्तिकता का ख़तरा रहता है, उससे बच नहीं पाया. संस्कारगत आधारहीन नैतिकता को विवेकसम्मत नैतिकता से विस्थापित करने की आत्म-संघर्षों की यात्रा कठिन तो है लेकिन सुख-शक्ति दायक. किशोरावस्था समाप्त होते होते मैं पूर्णतः संस्कारहीन और प्रामाणिक नास्तिक बन गया और भूतो-भगवानों के भय से मुक्त हो गया. मैं न सिर्फ पूर्वजों के संस्कार से मुक्त हुआ बल्कि विरासत के संस्कारों का आलोचक भी हूँ. 

1 comment:

  1. सुन्दर और सार्थक आलेख | आभार


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