अंकिता, हालात बदलने होंगे, सत्ता बदलने से नहीं काम चलेगा, व्यवस्था बदलनी पड़ेगी जिसकी पूर्व-शर्त है जनचेतना जिसमें हम सुविधासंपन्न मध्य-वर्ग की आपराधिक तटस्थता और निष्क्रियता सर्वाधिक बाधक है. क्रांतिकारी जनचेतना के अभियान की धार कुंद करने के लिये गौड़ और जाति-धर्म जैसे सतही अंतर्विरोधों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रसारित किया जाता है जिससे मुख्य अंतर्विरोध की धार कुंद की जा सके. तथाकथित जनतंत्र हमें नाग्नाथ-सांपनाथ के विकल्पों में चुनाव का अधिकार देता है. यह जनता का शासन नहीं, उसका भ्रम प्रदान करता है. वास्तविक जनतंत्र के लिये जनचेतना से लैस जन-क्रान्ति की आवश्यकता है. जनचेतना का निर्माण रात-ओ-रात नहीं होता और परम्परागत चिंतन सिर पर पूर्वजों की लाशों के भार सा होता है उसे फेंकने में मोह-माया वाधक होती है, लेकिन बोझ से जितनी जल्दी मुक्ति मिले उतना ही अच्छा. यदि हम चाहते हैं कि यह स्थिति खत्म हो कि हम हर ५ साल में यह चुनने को 'स्वतंत्र' रूप से वाध्य हों कि अगले ५ साल तक पूंजी के दलाल शासक वर्गों कौन धडा हमारा शोषण-दमन करेगा तो आइये हमलोग अपने हर शब्द और कर्म से जनचेतना के निर्माण-प्रसार में अपना योगदान देने का संकल्प लें. अविश्वसनीय लगता है कि दुनिया के सबसे बड़े जनतन्त्र में पुलिस दल के साथ ड्यूटी पर तैनात एक पुलिस अधिकारी की चंद सामंती गुंडे खुलेआम बर्बरतापूर्ण ह्त्या कर देते हैं और कोई जन-शैलाब नहीं उमडता प्रतिरोध में? पिछले २-३ दशकों में न सिर्फ राजनीति का खतरनाक साम्प्रदायीकर्ण हुआ है जिसकी चुनावी फसल काटने में दोनों प्रमुख शासक दलों मे होड लगी है बल्कि न्याय-व्यवस्था और सुरक्षाबलों का भी खतरनाक संप्रदायीकरण हुआ है. दंगों में पीएसी की भूमिका सर्वविदित है. आइये हालात बदलने में साथ हों. जिया को श्रद्धांजलि.
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