Thursday, November 15, 2012

लल्ला पुराण ५५

इलाहाबाद के एक मित्र के इवि के फेस बुकी ग्रुप्स पर विमर्श के स्तर को लेकर व्यक्त सरोकारों  पर मेरे ३ कमेंट्स:

धीरेन्द्र भाई, मैंने कुटुंब पर वाक्कई छोड़ने के पहले जब छोड़ने जा रहा था तो एक लंबी पोस्ट लगाई थी, जिसमें महज २ ग्रुप्स के सन्दर्भ और विमर्श की वगुणवत्ता पर वही सवाल उठाये थे जिस पर आपकी इस पोस्ट पर चिंता व्यक्त की गई है.मेरे ब्लॉग में वह पोस्ट है. इस पर लंबे कमेन्ट की जरूरत है, फुर्सत में लिखूंगा. मेरे पास तो तुलना के लिये जे.एन.यू. के भी ग्रुप्स और अनुभव हैं. इन ग्रुप्स में मेरे ३ पूर्व परिचित हैं. नृपेन्द्र, वीपी सिंह और विनोद शंकर सिंह.


जसा आपने कहा कि तेज तर्रार सक्रिय हैं तथा समझ्दाए शरीफ चुप. तो धीरेन्द्र भाई, मैं समझदार और शरीफ बहुमत की खामोशी को आपराधिक उदासीनता मानता हूँ, सद्गुण नहीं. बहुमान हमेशा सज्जनों का होता है लेकिन इनकी कायरतापूर्ण खामोशी मुट्ठी भर वाचाल दुर्जनों का वर्चस्व स्थापित होने में साधन का काम करता है.मैंने लिखा था कुटुंब पर कि ज्यादातर लोग यहाँ ऐसे हैं जो जिस सामाजिक सोच समझ से आये थे उसे अक्षुण और  अमिट बनाए रहते  हुए डिग्रियां लेकर कोचिंग के नोट रत कर पीसीयस या ब्लाक्प्रमुख टाइप के बन गए. इन्होने शिक्षा को नौकरी पाने का हुनर भर माना.



धीरेन्द्र भाई, लाइक बटन २ कारणों से दबाया. पहला सज्जन बहुमत की खामोशी के बारे में कायरतापूर्ण उदासीनता की मेरी राय से असहमति की अभिव्यक्ति के लिये. कोई अंतिम सत्य नहीं होता. इसलिए कोई उसका  वाहक नहीं होता. असहमतियों के द्वंद्व से ही सापेक्ष सत्य के ज्ञान का बोध होता है. दूसरा इन ग्रुप्स को सार्थक विमर्श का मंच बनाने का साझा सरोकार.मैंने ऊपर लिखा है कि मैं इस पर एक , वास्तविक और आभासी इलाहाबादी समूहों के बारे में जे.एन.यू. के समूहों के साथ एक तुलनात्मक विश्लेषण लिखूंगा, लेकिन कई खूंटों में पैर फंसाए रहने के चलते समय नहीं मिला. निकालूँगा.
अभी मैं अपनी ऊपर वाले कमेन्ट की ही बात को आगे बढ़ाऊंगा. तटस्थता की निजी हरकतें कायरतापूर्ण नहीं भी हो सकतीं, लेकिन उनका सामूहिक प्रभाव माहौल को विषाक्त बनाने में, अप्रतक्ष्य किन्तु निर्णायक भूमिका निभाता है. मैंने कुटुंब-निर्माण के पहले लल्ला चौराहे पर (अब तो चुंगी भी बन गए है, सुना है और मैं कोई चुंगी देना नहीं चाहता) हास्टल की वार्डन के रूप में अपने अनुभव पर एक पोस्ट डाला था. जब मैंने यह दायित्व सम्भाला तो कालेज और हास्टल में २ "शत्रुतापूर्ण" और एक "तटस्थ"(उत्तर-पूर्व के राज्यों के विद्यार्थी) समूह थे.  हास्टल मार-पीट का अड्डा था. हर दूसरे-तीसरे दिन पुलिस आती रहती थी. भाई ९०-९२% लेकर आने वाले हमर३ए स्टुडेंट्स अपराधी तो नहीं हैं. यह उम्र अस्मिता संकट और निर्माण की निर्णायक उमे होती है. कुछ को लगता है कि 'दादागीरी' से अस्मिता बना सकते हैं. मैंने वार्डन के आफिस में घुसते ही हास्टल के "अनुशासन" के मुताल्लिक ३ निर्णय लिये: १. इनकी अमूर्त, कृतिम शत्रुता की विभाजक रेखा को मिटा दूंगा. २. जिस दिन पुलिस बुलाना होगा उसके पहले मैं त्यागपत्र दे दूंगा. यदि आपको अपने स्टुडेंट्स से पुलिस की मदद से निपटना पड़े तो आपमें शिक्षक की पात्रता नहीं नही. अपने लंबे  छात्र और छोटे शिक्षक जीवन के अनुभवों के आधार पर दावे से कह सकता हूँ कि कोई भी स्टूडेंट टीचर के साथ कभी बद्दमीजी नहीं कर सकता जब तक शिक्षक की कुल जमा बद्दतमीज़ी असह्य न हो जाए. ३. किसी भी विद्यार्थी को निष्कासन या किसी अन्य दंडात्मक सम्मान से विभूषित नहीं करूँगा.डंडे से पढाने वाले शिक्षक मुझी कभी अच्छे नहीं लगे. १ साल में तीनों काम संपन्न. संक्षेप में लोगों को असंभव दिखता काम इसलिए संभव हुआ कि मैंने सज्जनता मौन बहुमत को वाचाल बनने के लिये प्रोत्साहित किया. इन ऊर्जापूर्ण युवाओं में self-regulating mechanism के सुप्त तत्वों को झकझोरा.और "gainfully unemployed हो गया. सज्जनता का बहुमत आत्म्केंद्रीयता और अज्ञात, अदृश्य भय के कारण खामोश रहता है. "अदृश्यता" का मिथ टूटते ही मौन बहुमत वाचाल हो गया. इस छोटी सी बड़ी बात से अलग-थलग पड़ गए "भैया" और "बाबा" किस्म के लड़कों को भी साधारण विद्यार्थी की तरह सामूहिक हित में ही अपना हित भी ढूढना पड़ा. उन्हें भी समता का सुख ज्यादा आनददाई लगा. सभी मेरे प्रिय मित्र हैं और  कृतग्य महसूस करते हैं. इन ऊर्जावान युवाओं को समझ में आ गया कि काम की अस्मिता दादागीरी की स्मिता से बेहतर और टिकाऊ होती है. इसीलिये मैं सज्जनता के मौन बहुमत की खामोशी को कायरतापूर्ण उदासीनता और व्यापक अर्थों में, अप्रतक्ष्य सामाजिक अपराध मानता हूँ.

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