दुनिया बदलती रहती है लगातार
दुनिया बदलती रहती है लगातारशाश्वत तो महज बदलाव ही है
अतीत का पुनरावलोकन ही किया जा सकता है
पुनर्निर्माण नहीं।
ईमि: 01.11.2023
दुनिया बदलती रहती है लगातार
दुनिया बदलती रहती है लगातारबेतरतीब 156
दिनकर
जयंती के समारोह में शिरकत
ईश मिश्र
राष्ट्रकवि रामधारी
दिनकर की जयंती के उलक्ष्य में उनके गांव, सिमरिया में 10 दिन चले दिनकर समारोह के
आयोजन के अंतिम दिन, 24 सितंबर 2023 के कार्यक्रम, “दिनकर और हमारा समय” पर
संगोष्ठी का निमंत्रण मेरे लिए सुखद अवसर की बात थी। निमंत्रण में संगोष्ठी के
वक्ताओं में जाने-माने साहित्यकार, दूरदर्शन के पूर्व निदेशक लीलाधर मांडलोई; लेखक
तथा दूरदर्शन कलकत्ता जोन के पूर्व अवर निदेशक सुधांशु रंजन तथा बनारस हिंदू
विश्वविद्यालय के हिंदी विभागके प्रोफेसरों, प्रो. रामाज्ञा शशिधर तथा प्रो. प्रभाकर
सिंह के नाम थे। संगोष्ठी की अध्यक्षता छात्र जीवन से ही परिवर्तमकामी आंदोलनों
में सक्रिय रहे मार्क्सवादी चिंतक डॉ. भगवान प्रसाद सिन्हा ने की।
किसी
भी रचना के साथ न्याय उसे उसके ऐतिहासिक संदर्भ में रखकर ही किया जा सकता है,
क्योंकि सभी रचनाएं समकालिक होती हैं, महान रचनाएं सर्वकालिक बन जाती हैं। वे हर
युग में प्रसंगिक रहती हैं। मैं लंबी रेल यात्राओं में, रास्ते में पलटने के लिए,
कुछ पढ़े हुए अच्छे उपन्यास ले जाता था और पलटने की बजाय आदि से अंत तक ऐसे पढ़
जाता जैसे पहली बार पढ़ रहे हों। मुझे लगता है अच्छी रचनाएं जितनी बार पढ़ा जाए,
हर बार पहली बार लगता है। जानी हुई बातें फिर से जानने का मन होता है। दिकर की रश्मिरथी
और संस्कृति के चार अध्याय पढ़ते हुए ऐसा ही लगा। दिनकर एक जनतात्रिक
राष्ट्रवादी चिंतक/कवि/लेखक थे। उनका राष्ट्रवाद भारत के पहले प्रधानमंत्री,
जवाहरलाल नेहरू की ही तरह सामासिक संस्कृति का राष्ट्रवाद था, जिसे नेहरू जी ने संस्कृति
के चार अध्याय की भूमिका में रेखांकित भी किया है। उनकी पंक्तियां, “सिंहासन
खाली करो कि जनती आती है” 1974 के छात्र आंदोलन का मुख्य नारा बन गयी थीं। आज के
युद्धोंमादी समय में, कुरुक्षेत्र में युद्ध जनित रक्तपात और सर्वनाश का
मार्मिक विवरण, इसे एक युद्ध विरोधी ग्रंथ के रूप में प्रासंगिक बनाता है।
निमंत्रण मिलने के बाद कविताकोश से उनकी वे
कविताएं पढ़ने लगा जो बचपन में वीररस में पढ़ा करता था। सत्योत्तर युग के हताशा के
इस समय में, “जब मानव जोर लगाता है, पत्थर पानी हो जाता है” या “सिंहासन खाली करो,
जनता आती है” जैसी कविताएं प्रोत्साहन देती हैं और इतिहास के इस अंधे युग में
आशावाद की कुछ किरणें। संस्कृति के चार अध्याय लगभग चार दशक पहले पढ़ा था,
पलटने के लिए उठाया तो लगा पहली बार पढ़ रहा हूं, लेकिन समय की सीमाओं के चलते
पूरी किताब फिर से पढ़ने का मोह संवारना पड़ा, लेकिन विभिन्न संस्करणों की
प्रस्तावनाएं और नेहरू द्वारा लिखित भूमिका पढ़ने का मोह न संवार सका। नेहरू
भूमिका में भारत के सांस्कृतिक पुनर्मिर्माण मे सामासिक संस्कृति की भूमिका को
रेखांकित करते हुए इस ग्रंथ का महत्व समझाते हैं। इससे उनके उच्चकोटि के
साहित्यबोध और सांस्कृतिक संवेदना का परिचय मिलता है। इस भूमिका में उनकी कालजयी
रचना, भारत: एक खोज की भी झलक मिलती है। दिनकर जी देश में वैज्ञानिक,
सांस्कृतिक चेतना विकसित करने की नेहरू की परियोजना के प्रमुख कर्णधारों में थे।
बेगूसराय
जिले के उनके गांव सिमरिया में हर वर्ष उनकी जयंती के उपलक्ष्य में दिनकर समारोह
मनाया जाना उल्लेखनीय परिघटना है। बांग्ला, मराठी और शायद दक्षिण भारत के कई भाषाई
क्षेत्रों में अपने बड़े साहित्यकारों/महापुरुषों के नाम पर उत्सव मनाने का रिवाज
है। लेकिन हिंदी क्षेत्र में ऐसे नियमित उत्सवों का शायद कोई रिवाज नहीं है। उनके
पैतृक गांव में, दिनकर समारोह के नियमित वार्षिक आयोजन का रिवाज अपवाद है। सिमरिया
के दृष्टांत का अनुसरण और अनुकरण कर अन्य बड़े साहित्यकारों की जयंती पर उनके
पैतृक गांवों में समारोह का रिवाज शुरू करना चाहिए। इससे क्षेत्रीय लोगों में
साहित्यबोध की चेतना का प्रसार होगा और सामाजिक बदलाव की दिशा देने के औजार के रूप
में साहित्य और समाज में एक समन्वय
स्थापित होगा।
कभी
भारत के लेनिनग्राद की उपमा अर्जित कर चुके बेगूसराय की यात्रा की चाहत लंबे समय
से विलंबित थी और इस निमंत्रण ने चाहत पूरी होने का अवसर प्रदान कर दिया। लेकिन
यहां आना तब हुआ जब, बेगूसराय के साथी,
डॉ. भगवान प्रसाद सिन्हा के शब्दों में, “लेनिनग्राद सेंट पीटर्सबर्ग में तब्दील हो
गया”। बेगूसराय पर उनकी यह टिप्पणी, भारत के और कुछ हद तक दुनिया के सभी देशों के
कम्युनिस्ट आंदोलनों पर सटीक बैठती है।
23
सितंबर को शाम 4.20 पर नई दिल्ली से डिब्रूगढ़ राझधानी से नई दिल्ली से बरौनी का
टिकट था। 24 सितंबर, 2023 की भोर में
बरौनी स्टेसन पहुंचा, जहां दिनकर समारोह के आयोजन समिति के राजेश जी अपने
साथियों के साथ पहले से प्रतीक्षा कर रहे थे। बरौनी स्टेसन से लगभग 5 किमी दूर, 22
टोलों के विशालकाय गांव, बीहट में ज़ीरो माइल चौराहा है, जिसे ज़ीरो प्वाइंट भी
कहते हैं। चौराहे पर मंडप में दिनकर की आदमकद मूर्ति है। यहां से एक सड़क गौहाटी
जाती है, एक पटना और एक मुजफ्फरपुर। चौराहे से थोड़ी ही दूर देवी दरबार होटल में
हमारे रुकने की व्यवस्था थी। बगल के कमरे में ठहरे, हिंदी के साहित्यकारों, काशी
हिदू विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर रामाज्ञा शशिधर और प्रोफेसर
प्रभाकर सिंह से मिलना, सुखद, ज्ञानप्रद अनुभव था। प्रोफेसर शशिधर, दिनकर के गांव
सिमरिया के निवासी हैं और प्रोफेसर प्रभाकर इलाहाबाद के। शशिधर ने जेएनयू से पढ़ाई
की है तथा प्रभाकर ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। मैं 1972-76 के दौरान इलाहाबाद
विश्व विद्यालय में छात्र था और उसके बाद जेएनयू। दोनों के साथ क्रमशः जेएनयू और
इलाहाबाद विश्व विद्यालय के अनुभवों की साझेदारी तथा साहित्य और समाज की चर्चाएं
रोचक और सूचनाप्रद रहीं। दोनों ने ही इस बात पर मायूसी जाहिर की कि विश्वविद्यालयों
के मौजूदा दमघोटू माहौल के चलते विश्वविद्यालय परिसरों में किसी प्रासंगिक और
सार्थक साहित्यिक/सांस्कृतिक कार्क्रम का आयोजन नामुमकिन सा हो गया है। मैंने यह
कहकर शांत्वना दी कि यही चिंताजनक माहौल देश के सभी विश्वविद्यालयों का है। जनता
के वैचारिक संसाधन, शिक्षा को पंगु बना देना समाज को तबाह करने की घातक रणनीति है।
लेकिन हर निशा एक भोर का ऐलान है, लेकिन भोर के उजाले के पहले निशा के अंधकार की
अवधि की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती।
साथी
डॉ. भगवान प्रसाद सिन्हा की अनुशंसा पर जब दिनकर समारोह आयोजन समिति के श्री राजेश कुमार का समारोह में
भागीदारी के निमत्रण की स्वीकृति के लिए फोन आया तो बेगूसराय की बहुप्रतीक्षित
यात्रा के विचार से मैं गद्गद हो गया। डॉ. सिन्हा बेगूसराय की यात्रा की मेरी
इच्छा से वाकिफ थे। 2018 में मार्क्स की द्विशताब्दी पर आद्री (एसियन डेवेलपमेंट
रिसर्च इंस्टीट्यट) द्वारा आयोजित सेमिनार में भाग लेने पटना गया था तो संस्थान के
डायरेक्टर सैबाल गुप्ता (अब दिवंगत) और जेनयू के साथी पत्रकार प्रणव कुमार चौधरी
से भी मैं बेगूसराय जाने की इच्छा व्यक्त कर चुका था। सैबाल के पिताजी और प्रणव के
पिताजी की बेगू सराय के लेनिनग्राद बनने में महत्वपूर्ण भूमिका थी। दिनकर समारोह
में भागीदारी के लिए सिमरिया (बेगूसराय) क यात्रा का अवसर प्रदान करने के लिए डॉ.
सिन्हा और दिनकर समारोह के आयोजकों, खासकर राजेश कुमार का आभार न प्रकट करना
कृचघ्नता होगी।
लेनिनग्रादों
के सेंट पीटर्सबर्गों में तब्दीली को पलटने के लिए मौजूदा हालात में मार्क्सवाद के
पुनर्पाठ और मौजूदा संदर्भ में नई व्याख्या की जरूरत है। बीसवीं शताब्दी के
शुरुआती सालों में लेनिन ने लिखा था कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद का नवीनतम चरण है।
भूमंडलीकरण के बाद भी बदले स्वरूप में उदारवादी पूंजी का साम्राज्यवादी चरण जारी
है। अब वह नवउदारवादी रूप ले चुका है। साम्राज्यवादी पूंजी के नवउदारवादी चरण मे
पूंजी की समुचित मार्क्सवादी समीक्षा के साथ एक नए इंटरनेसनल की आवश्यकता है,
जिसकी दिशा-दशा दुनिया की जनवादी ताकतों और मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों के बीच
गंभीर विचार-विमर्श का विषय है। पहले इंटरनेसनल की प्रस्तावना लिखने की जिम्मेदारी
मार्क्स ने जरूर लिया, लेकिन संगठन में मार्क्सवादियों की संख्या कम ही थी। नए
इंटरनेसनल के लिए मार्क्सवाद के पुनर्पाठ
और राष्ट्रीय विशिष्टताओं में उसे अनूदित करने की जरूरत है। लेकिन इस लेनिनग्राद
के पीटर्सबर्ग बन जाने के बाद भी क्रांतिकारी इतिहास की विरासत की अनुगूंज खत्म
नहीं हुई। आज भी किसी-न-किसी रूप में सुनाई देती रहती है। क्रांतिकारी उफानो कि
विरासतें खत्म नहीं होती, दब जाती हैं अवसर आने पर फिर से अंकुरित होती हैं जिसकी
आवाज नारा बनेने के लिए अगले उफान का इंतजार करती है। सेंट पीटर्सबर्ग बन चुके,
भारत के लेनिनग्राद की आत्मा रहे बीहट गांव की माटी में क्रांतिकारी आंदोलन के बीज
दबे पड़े हैं, जिससे 2016 में जेएनयू के ऐतिहासिक आंदोलन के माध्यम से आज के समय
के भारत के छात्र आंदोलन को दिशा देने वाले, जेनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष डॉ. कन्हैया
कुमार जैसे पौधे उगते रहेंगे। बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन के एक प्रमुख कर्णधार
और बेगूसराय से सांसद रहे चंद्रशेखर सिंह भी बीहट के ही थे।
ऐतिहासिक
भोतिकवादी (मार्क्सवादी) समझ के अनुसार आमूल-चूल परिवर्तन या क्रांति के लिए दो
कारक होते हैं – व्यक्तिपरक या व्यक्तिनिष्ठ सब्जेक्टिव फैक्टर) और व्स्तुपरक या
वस्तुनिष्ठ (ऑब्जेक्टिव फैक्टर)। ऑब्जेक्टिव फैक्टर है, व्यवस्था (पूंजीवाद) के
अंतर्विरोधों का परिपक्व होना, जिसकी अभिव्यक्ति पूंजीवाद के आर्थिक संकट के रूप
में होती है। सब्जेक्टिव फैक्टर है, पूंजीवाद के संकट के समय में, वर्गचेतना से
लैश पूंजीवादी वर्ग से सत्ता अपने हाथ में लेने को तैयार, वर्गचेतना से लैश संगठित
कामगर वर्ग की मौजूदगी। जिसके लिए आंदोलनों और क्रांतिकारी विमर्शों के माध्यम से
सामाजिक चेतना के जनवादीकरण, यानि वर्गचेतना के प्रचार-प्रसार के अनवरत प्रयासों
की जरूरत है। भारत में सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की पूर्व शर्त है, मर्दवाद, जातिवाद,
सांप्रदायिकता और क्षेत्रवाद की मिथ्या चेतनाओं से मुक्ति। इन मिथ्या चेतनाओं से
मुक्ति अपने आप में एक अलग अनवरत बौद्धिक अभियान का मुद्दा है। बौद्धिक संघर्ष
लंबा चलेगा।
पूंजीवाद
के आर्थिक संकट कई बार दिखे। 1930 के दशक की महामंदी के रूप में आए आर्थिक संकट से
कई विद्वानों को पूंजीवाद धराशाई होने के कगार पर लगने लगा था। मार्क्सवादी चिंतक
क्रिस्टोफर कॉडवेल की कालजयी रचना मरणासन्न संस्कृति के अध्ययन और पुनर्अध्ययन
(स्टडीज एंड फर्दर स्टडीज इन अ डाइंग कल्चर) इसी सोच की परिचायक है। लेकिन
पूंजीवाद को गहन संकट से निकलने के संकटमोचक समाधान निकालने में महारत हासिल है।
उस संकट से निकलने के लिए एडम स्मिथ के उत्पादन साधनों पर निजी स्वामित्व की अर्थव्यवस्था
और अहस्तक्षेपीय राज्य की अवधारणा को तिलांजलि
देकर इसने केंस के राजनैतिक अर्थशास्त्र के सिद्धांतों पर राज्य नियंत्रित
अर्थव्यवस्था और हस्तक्षेपीय, कल्याणकारी राज्य की अवधारणा विकसित की। इसमें सब्जेक्टिव
फैक्टर यानि मजदूर आंदोलन की सापेक्ष मौजूदगी के दबाव की भूमिका को भी नहीं नकारा
जा सकता। पूंजीवाद के आवर्ती संकटों के विश्लेषण की यहां न तो गुंजाइश है न ही
जरूरत, नवउदारवादी पूंजी के जारी मौजूदा संकट का समाधान पूंजीवादी ढांचे में
दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है। कहने का मतलब की पूंजीवाद आर्थिक के साथ सिद्धांत के
संकट के दौर से भी गुजर रहा है। पूंजीवाद की वैकल्पिक व्यवस्था, समाजवाद भी
राजनैतिक के साथ सिद्धांत के संकट से भी गुजर रही है। ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव
फैक्टरों का कब संगम होगा यह तो भविष्य ही बताएगा। लेकिन होगा ही, द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद का नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है, उसका अंत अवश्यंभावी है, पूंजीवाद
अपवाद नहीं है। इसके बाद की वैकल्पिक व्यवस्था की संरचना भविष्य की पीढ़ियां तय
करेंगी।
समकालीन नवउदारवादी पूंजी का
चरित्र स्पष्टतः भूमंडलीय है। यह अब न तो
श्रोत के मामले में राष्ट्र/क्षेत्र केंद्रित (geocentric) है, न निवेश
के मामले में। वैसे तो औपनिवेशिक विस्तार के संदर्भ में पूंजी का चरित्र, तिजारती
पूंजीवाद के रूप में पूंजीवाद के उदय के समय से ही अंतर्राष्ट्रीय रहा है। लेकिन
तकनीकी प्रगति और विश्व राजनीति के गतिविज्ञान के बदलते नियमों के चलते इसका साम्राज्यवादी
चरित्र भिन्न आयाम ले चुका है। साम्रज्यवादी वर्चस्व के लिए अब किसी लॉर्ड क्लाइव
की जरूरत नहीं है, सिराज्जुदौला भी मीर जाफर बन गए हैं। इसने संकटों की आपदा में
अवसर की संभावना तलाशने में नई महारत हासिल कर ली है। सामंती राज्य के विकल्प के
रूप में पूंजीवादी राज्य की वैधता के लिए धार्मिक कट्टरपंथ से लड़ने की जरूरत थी,
क्योंकि सामंती राज्य की सत्ता का श्रोत भगवान था और विचारधारा धर्म। पूंजीवादी
राष्ट्र-राज्य में सत्ता की वैधता का स्रोत जनता है और इसकी विचारधारा के रूप में
राष्ट्रवाद का विकास हुआ। नव उदारवादी पूंजीवाद ने धार्मिक/नस्लवादी कट्टरपंथ से
लड़ने की बजाय उसे अपना हमराज और हमराही बना लिया है। चूंकि पूंजीवादी शोषण-दमन
भूमंडलीय है, इसलिए सभी देशों में अपनी-अपनी क्षेत्रीय/राष्ट्रीय विशिष्टताओं के
साथ प्रतिरोध भी भूमंडलीय ही होना चाहिए। और इसके लिए जनवादी प्रतिरोध के नए
इंटरनेसनल की स्थापना की जरूरत है।
बेगूसराय,
खासकर बीहट की सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय रहे, प्रो. शशिधर ने बताया कि 1950-80
के दशकों में बीहट, भारत के लेनिनग्राद के नाम से जाने जाने वाले बेगूसराय के
क्रांतिकारी सांस्कृतिक, राजनैतिक और ट्रेडयूनियन गतिविधियों का केंद्र होता था।
जैसा कि ऊपर बताया गया है, बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन के निर्माण में प्रमुख
भूमिका निभाने वाले चंद्रशेखर सिंह और जेएनयू आंदोलन के जरिए भारत में क्रांतिकारी
छात्र आंदोलन का पर्याय बने डॉ. कन्हैया कुमार इसी गांव के हैं। इस गांव ने बिहार
के कम्युनिस्ट राजनीति के और भी कई कद्दावर नेता तथा कार्यकर्ता दिए हैं। डॉ.
भगवान प्रसाद सिन्हा ने बताया कि कम उम्र में चंद्रशेखर का निधन हो गया था। 1960
के दशक में किसी आंदोलन में राज्य द्वारा आंदोलनकारियों के बर्बर दमन में कर्पूरी
ठाकुर, रामानंद तिवारी और चंद्रशेखर समेत आंदोलनकारी नेताओं की जमकर पिटाई हुई थी।
कॉ. चंद्रशेखर के सिर पर काफी चोट लगी थी जो कालांतर में प्राणघातक साबित हुई।
दिनकर
का गांव यहां से लगभग 5 किमी दूर है। पास में ही बरौनी रिफाइनरी का प्लांट है और
चौराहे के इर्द-गिर्द अन्य छोटे उद्योग। थोड़ी दूर पर घने पेड़ों के जंगल की
पृष्ठभूमि में एक विशाल कावर झील है, जिसे स्थानीय लोग कावर ताल कहते हैं। लोगों
ने बताया कि इस झील के परिष्कार में ट्राई के पूर्व निदेशक, इलाहाबाद विश्वविद्यालय
के हमारे सहपाठी रामसेवक शर्मा का उल्लेखनीय योगदान है। उन्हें यहां से गए चार दशक
से ज्यादा हो गये लेकिन स्थानीय लोग उन्हें अब भी प्यार और सम्मान से याद करते
हैं। वे 1980 के दशक के पूर्वार्ध में यहां के जिलाधीश थे, उन्होंने बेगूसराय में दिनकर भवन का
निर्माण करवाया और लोगों दिनकर समारोह की बुनियाद रखने में भी उनकी महत्वपूर्ण
भूमिका थी।
फोन
पर बातचीत में बेगू सराय की यात्रा की बात पर रामसेवक शर्मा ने यहां की अपनी सुखद
समृतियों में खोकर दिनकर भवन बनवाने में अपनी पहल की बात तो बताया था, लेकिन वहां
के लोग उन्हें वहां उनके सामाजिक सुधार के लिए अतिरिक्त सम्मान से याद करते हैं।
उस क्षेत्र में विधवा विवाह की प्रथा शुरू करवाने और उसे लगभग संस्थागत रूप देने
में उनकी निर्णायक भूमिका थी। लोगों में उनकी लोकप्रियता से कुछ क्षेत्रीय नेताओं
को, अपच होने लगी और जल्दी ही उनका स्थांतरण हो गया। किसी ने साफ तो नहीं कहा,
लेकिन लोगों की बातों से अनुमान हुई कि उनके असमय स्थांतरण में सीपीआई छोड़कर
कांग्रेस और फिर भाजपा की राजनीति करने वाले स्थानीय राजनेता भोला सिंह का हाथ था।
वे वहां से सांसद थे। वहां के लोगों की बातों से लगा कि रामसेवक और बेगूसराय के
लोगों ने ‘अभी तो दिल भरा नहीं’ के अंदाज में एक दूसरे को अलविदा कहा था। लोगों से
रामसेवक की प्रशंसा सुनकर और उनकी लोकप्रियता देखकर लगा कि संवैधानिक कर्तव्यबोध
से लैश, कर्तव्यनिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी यदि चाहें तो प्रशासनिक सुधार के साथ-साथ
सामाजिक सुधार में भी योगदान कर सकते हैं। संविधान निर्माताओं ने समाज में
वैज्ञानिक चेतना के संचार में भी राज्य की सकारात्मक भूमिका की परिकल्पना की थी।
जब वे पूर्णिया के जिलाधीश थे तो उन्होंने वहां फणीश्वरनाथ रेणु की याद में रेणु भवन
का निर्माण करवाया था और उनकी स्मृति में समारोह शुरू करवाया था। पता करना पड़ेगा
कि कि रेणु समारोह की निरंतरता बनी हुई है कि नहीं! क्षमा कीजिएगा कि दिनकर समारोह
में शिरकत के संस्मरण में एक नौकरशाह मित्र का महिमामंडन करने लगा लेकिन इस
महिमामंडन में मेरी भूमिका सूत्रधार की ही है, कथ्य लोगों का है। वैसे भी
महिमामंडन के नौकरशाह पात्र अपवाद स्वरूप ही मिलते हैं।
11
बजे के करीब बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन के पुरोधा और बेगूसराय के पूर्व सासद
शत्रुघ्न सिंह और डॉ. भगवान प्रसाद सिन्हा के नेतृत्व में एक बडा हुजूम जुलस के
रूप में होटल पहुंचा। डॉ. सिन्हा ने दूरदर्शन के पूर्व निदेशक सुधांशु रंजन से
मिलवाया, जिनसे कम समय में ही बौद्धिक घनिष्ठता हो गयी। नेसनल बुकट्रस्ट से छपी जय
प्रकाश नारायण पर उनकी किताब पर कुछ रचनात्मक चर्चा हुई। जय प्रकाश नारायण के
राजनैतिक जीवन के कुछ नए पहलुओं की जानकारी मिली। हाल ही में दिनकर पर भी उनकी
किताब आई है।
होटल
से जुलूस की शक्ल में चलकर हम ज़ीरो मील चौराहे तक गये। वहां दिनकर मंडप में उनकी मूर्ति पर माल्यार्पण कर, कार-मोटरसाइकिलों
के जुलूस में वहां से 5 किमी दूर,
“सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है”
की घोषणा करने वाले,
कालजयी कवि-विचारक, रामधारी सिंह दिनकर के पैतृक गांव, सिमरिया के लिए चल पड़े।
भूमंडलीय पूंजी के दौर की कांक्रीटीकरण प्रवृत्ति के बावजूद रास्ते में हरियाली और
प्राकृतिक सौंदर्य की काफी झलकें मिलीं। गांव में पहुंचने पर गांव के बाहर ही
सैकड़ों लोग स्वागत के लिए खड़े दिखे। यहां के लोगों में साहित्यिक उत्सवधर्मिता;
उत्साह और साहित्यिक चेतना देखकर, मन भाव विभोर हो गया। मेरे लिए दिनकर की कविताएं
और भारत की सामासिक संस्कृति को रेखांकित करती उनकी कालजयी रचना, संस्कृति
केचार अध्याय सामाजिक अवसाद की मनोदशा में प्रेरणा और नई ऊर्जा का श्रोत रही
है।
समारोह
में क्षेत्र के लोगों की भागीदारी और अतीत के अपने बौद्धिक नायक के सम्मान का
उत्साह उल्लेखनीय था। जैसे बाकी गांवों में घरों की दीवारों पर पेप्सी आदि उपभोक्ता
उत्पादों के विज्ञापन दिखते हैं वैसे ही सिमरिया के घरों की दीवारो पर दिनकर की
कविताओं की पंक्तियां लिखी हैं। गांव में दिनकर स्कूल, दिनकर पुस्तकालय और दिनकर
सभागार का जीवंत माहौल तथा सांस्कृतिक एवं साहित्यिक रूप से जागरूक उत्साही गांव के
लोगों को देखकर, गांव के उच्च कोटि के शैक्षणिक-सांस्कृतिक परिवेश का परिचय मिलता
है। इस परिसर के पास ही दिनकर विद्यालय भी है। विद्यालय-पुस्कालय-सभागार परिसर में
जगह-जगह दिनकर की जीवंत मूर्तियां हैं। गांव से लगता है पलायन बहुत कम हुआ है,
परिवारों की वृद्धि के साथ घरों के आहाते छोटे होते गए हैं, गलियां सकरी और बसावट
घनी।
दिनकर
सभागार परिसर के प्रवेश द्वार पर बनी दिनकर की जीवंत मूर्ति पर माल्यार्मण के बाद
हम दिनकर के पैतृक घर गए। वहां कमल वत्स एवं कुछ अन्य फेसबुक मित्रों से जीवंत,
सुखद मुलाकात हुई। गांव में अन्य घरों की तुलना में दिनकर के घर का आहाता (दुआर)
काफी खुला-खुला है। आहाते के एक किनारे सुसज्जित मंडप में दिनकर की इतनी जीवंत
मूर्ति है कि माल्यार्पण करते हुए मन-ही-मन मूर्तिकार को साधुवाद देने का लोभ न
संवार सका। मूर्ति पर माल्यार्पण के बाद उनके अध्ययन कक्ष का दर्शन किया गया। वहां
संग्रहित उनकी स्मृतियां उनकी जीवन शैली की सहज-सरलता का बोध कराती लगीं। साधारण
सज्जा वाली बैठक में जलपान करते हुए इस गांव के एक किसान परिवार से निकलकर
राष्ट्रकवि बनने तक की दिनकर की यात्रा और संघर्षों की कल्पना में खो गया था। वहां
एक रजिस्टर था जिस पर समारोह में शामिल होने आए आगंतुकों ने अपने अपने कमेंट लिखे।
पता चला कि हर सालाना समारोह में शिरकत करने आए विद्वानों और अतिथियों के कमेंट संरक्षित
रखे जाते हैं।
पहले
के आयोजनों में यहां बड़े-बड़े विद्वान और साहित्यकार आ चुके हैं। इस बार हिंदी के
जाने-माने कवि-लेखक और दूरदर्शन के पूर्व निदेशक, लीलाधर मंडलोई आने वाले थे,
लेकिन आकस्मिक स्वास्थ्य कारणों से नहीं आ सके। दूरदर्शन के कलकत्ता मंडल के पूर्व अपर
महानिदेशक सुधाशु रंजन की उपस्थिति ने काफी हद तक उनकी कमी की भरपाई की। हाल ही
में दिनकर पर उनकी किताब आई है। दिनकर के जीवन और कविताओं की पासंगिकता पर अपने
सारगर्भित उद्बोधन में उन्होंने सिमरिया को संदर्भविंदु बनाकर दिनकर पर अपनी अगली
किताब की योजना की घोषणा की।
प्रो.
रामाज्ञा शशिधर हमारे समय के एक उदीयमान साहित्यकार है। वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय
में हिंदी विभाग के एक लोकप्रिय शिक्षक हैं।
दिनकर की तरह शशिधर भी इस गांव के एक किसान परिवार से निकलकर अपनी लगन;
अध्ययन और चिंतन-मनन के परिणामस्वरूप साहित्य जगत की ऊंचाइयां नापने में लगे हैं।
निजी बातचीत में उन्होंने दिनकर की तर्ज पर नाम के साथ शशिधर जोड़ने की बात बतायी।
एक सधे हुए आलोचक की तरह दिनकर की कविताओं की सार्थकता पर अपने अभिभाषण से
उन्होंने मंच पर बैठे हम जैसों और स्कूली छात्रों समेत हजारों श्रोताओं को
मंत्रमुग्ध सा कर दिया था। उन्हीं के विभाग के प्रोफेसर प्रभाकर सिंह कहां पीछे
रहने वाले थे। दिनकर की कविताओं में सामाजिक बदलाव के तत्वों की पहचान के अलावा
उन्होंने दिनकर की कालजयी कृति, संस्कृति के चार अध्याय की आज के समय में प्रासंगिकता
पर भी जोर दिया। प्रभाकर जी हिदी साहिय के इतिहास के विद्वान है तथा होनहार आलोचक
हैं। ‘देखन में छोटन लगैं, घाव करत गंभीर’ उक्ति को चरितार्थ करते हुए मारक
छणिकाएं लिखते हैं। संगोष्ठी से लौटकर होटल में शशिधरजी ने अपनी कुछ भावभरी
कविताएं सुनाया और प्रभाकरजी ने कई अर्थपूर्ण क्षणिकाएं।
संगोष्ठी
की शुरुआत गांव की ही दो प्रतिभाशाली, सुर-ताल की धनी छात्राओं के गायन से हुई तथा
संगोष्ठी में आए गणमान्य व्यक्तियों द्वारा शाल और दिनकर की मूर्ति एवं मूमेंटो की
भेट से अतिथियों का स्वागत किया गया। मैं तो इस बात से कृतार्थ महसूस कर रहा था कि
मेरा स्वागत बिहार में कम्युनिस्ट आंदोलन के पुरोधा, पूर्व सांसद शत्रुघ्न सिंह ने
किया। संभव है वे 2024 के चुनाव में बेगूसराय से इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार बनें।
मेरी शुभकामनाएं।
1980 में मैंने संस्कृति के
चार अध्याय पढ़ा था, इस कार्यक्रम का निमंत्रण मिलने पर फिर से पलटा और लगा कि आज
के भारत में वह तब के भारत से अधिक प्रासंगिक है। आज जब अधोगामी ताकतों की आक्रामक
मुखरता राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से समाज और देश के ताने-बाने को
छिन्न-भिन्न कर रही हैं, तब 1950 के दशक में इसके लिखे जाने के समय की तुलना में
यदि ज्यादा नहीं तो भारत की ऐतिहासिक सामासिक संस्कृति को रेखांकित करने की उतनी
ही जरूरत है। तीसरे संस्करण की भूमिका में दिनकरजी अपनी इस कृति को भारतीय
सांस्कृतिक एकता के सैनिक की उपमा देते हैं, ऐसा सैनिक जो तमाम विरोधों के बावजूद
अपना काम करता रहेगा। वे लिखते हैं कि पंडित और विशेषज्ञ भले ही ऐसी बातों से बिदक
जाएं लेकिन जनसाधारण सांस्कृतिक एकता की बातें सुनना चाहता है। पता नहीं, आज के
धर्मोंमादी समय में दिनकर की उपरोक्त उक्ति कितनी सही है! दिनकर भारतीय संस्कृति के इतिहास को चार
क्रांतियों का इतिहास मानते हैं। पहली क्रांति आर्यों का आगमन और अनार्य
संस्कृतियों से मिलन से हुई जिसके आधे उपकरण आर्यों ने उपलब्ध कराए और आधे आर्येतर
जातियों ने। दूसरी क्रांति उपनिषदीय संस्कृति के विरुद्ध महावीर और बुद्ध की बौद्धिक
क्रांति थी, जिसने भारतीय समाज और संस्कृति की बहुत सेवा की लेकिन बाद में “इनके
सरोवर में शैवाल उगकर गंदगी फैलाए”। तीसरी क्रांति इस्लाम के साथ मेल-मिलाप से
हुई। चौथी सांस्कृतिक क्रांति औपनिवेशिक शासन के दौरान यूरोपीय मूल्यों के साथ मेल
मिलाप की है। हिंदू-मुसलमानों में भिन्नता के बावजूद वे सांस्कृतिक एकता के सूत्र
में बंधे हैं। सामासिकता समझाने का काम साहित्य संस्कृति का है, राजनीति का
नहीं।
संस्कृति के चार अध्याय की प्रस्तावना भारत के पहले
और अभी तक के एकमात्र युगद्रष्टा प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है, जो उनकी
साहित्यिक संवेदना का परिचायक है। भारतीय संस्कृति की ऐतिहासिक सामासिकता को
रेखांकित करती उनकी प्रस्तावना फ्रांसीसी दार्शनिक, ज्यां पॉल सार्त्र द्वारा
लिखी गयी अल्जीरियाई क्रांतिकारी बुद्धिजीवी, फ्रांज़ फेनन की पुस्तक “धरती के
अभिशप्त (Wretched of the Earth)” की
प्रस्तावना की याद दिलाती है। संस्कृति के चार अध्याय की मूलभूत प्रस्थापनाओं और
नेहरू की भारत एक खोज की प्रस्थापनों में काफी साझे सरोकार दिखते
हैं। दोनों ही रचनाएं भारतीय संस्कृति की ऐतिहासिक सामासिकता को रेखांकित करती
हैं. जिसमें आज सांप्रदायिक-फासीवादी उफान ने दरारें पैदा कर दी हैं, जिसे भरना
हमारी और भविष्य की पीढ़ियों का दायित्व है।
सभी रचनाएं समकालिक होती
हैं, महान रचनाएं सर्वकालिक हो जाती हैं, उन्हें जितनी बार पढ़ा जाए, हर बार पहली
बार लगता है। मैंने गोर्की का उपन्यास मदर पहली बार 1976 में पढ़ा था, 2016
में कोई किताब खोजते समय निगाह पड़ गयी, पलटने के लिए उठा लिया और आदि से अंत तक
पढ़ गया तथा उस समय चल रहे जेएनयू आंदोलन पर एक लेख की शुरुआत उसके ही एक उद्धरण
से की। गोर्की की ही तरह हिंदी साहित्य के गगन के दिनकर, रामधारी सिंह दिनकर की
समकालिक सरोकारों से लिखी रचनाएं भी सर्वकालिक हैं। मुझे जब भी कोई काम बहुत
मुश्किल लगता है तो भगत सिंह और दिनकर से मुश्किल को आसान करने की ऊर्जा, प्रोत्साहन और प्रेरणा
मिलती है। भगत सिंह ने कहा था, “क्रांतिकारी मजलूमों/उत्पीड़ितों के लिए लड़े
क्योंकि उन्हें लड़ना ही था” (Revolutionaries
fought for the oppressed, because they had to)।
दिनकर की कालजयी रचना रश्मिरथी की एक पंक्ति है, “जब मानव जोर लगाता है, पत्थर पानी हो जाता है”।
मैं कभी साहित्य का औपचारिक छात्र नहीं रहा और सहजबोध से दिनकर की कविताओं की
सर्वकालिक, खास कर आज के फासीवादी समय में प्रासंगिकता पर अपनी समझ साझा किया।
उनकी कविता सिंहासन खाली करो कि जनता आती है, मार्क्स की वर्ग और वर्गचेतना
की याद दिलाती है कि मजदूर तब तक एक भीड़ ही रहता है, जब तक वह वर्गचेतना से लैश
होकर अपने को वर्गीय हितों के आधार पर संगठित नहीं करता। जनता जब तक अपने अधिकारों
और सामर्थ्य के प्रति जागृत नहीं होती तभी तक हांकी जा सकती है, जागृत होने के बाद
अपने लिए सिंहासन खाली कराती है। एक आशावादी मानवाधिकार कार्यकर्ता होने के नाते
जनता के जल्द जागृत होने के प्रति आशावान हूं। मैंने अपना संबोधन, संगोष्ठी के
विषय, “दिनकर और आज का समय” पर ही केंद्रित रखा। तथा संस्कृति के चार
अध्याय की सांस्कृतिक सामासिकता को रेखांकित करते हुए उम्मीद की कि सांस्कृतिक
विखंडन का यह काला दौर जल्द खत्म होगा और लोग अपनी ऐतिहासिक सामासिक संस्कृति का
देशव्यापी उत्सव मानाएंगे।
प्रत्यक्ष विश्वयुद्ध तो
नहीं हो रहा है, लेकिन यूक्रेन पर रूसी हमले तथा इज्रायल पर हमस हमले के बाद फिलिस्तीन पर जारी
इज्रायली हमले के युद्धों में पूरी दुनिया के देशों की सरकारें किसी-न-किसी पक्ष
में खड़ी हैं। युद्ध की विभीषिका और रक्तपात का खामियाजा दुनिया भुगत रही है।
युद्धों में विजय तो किसी की नहीं होती, मानवता जरूर पराजित होती है। ऐसे में
युद्ध की विभीषिका का सजीव चित्रण करती दिनकर की रचना, कुरुक्षेत्र पथप्रदर्शक
सी है।
डॉ. भगवान प्रसाद सिन्हा के
ज्ञानप्रद अध्यक्षीय भाषण के बाद आयोजन समिति के राजेश जी द्वारा संगोष्ठी के
समापन की घोषणा के पहले शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल
करने वाले छात्र-छात्राओं को अतिथियों के हाथों पुरस्कार और प्रशस्तिपत्र दिए गए।
आयोजन के बाद राजेश जी के घर भोजन के बाद होटल में वापस आकर शशिधर और प्रभाकर से
शिक्षा तथा साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हुई।
अगले दिन यानि 24 अक्टूबर
की शाम डॉ. सिन्हा की मेजबानी में बेगूसराय बरौनी रिफाइनरी के टाउनशिप में स्थित
गेस्ट हाउस में रुकने की व्यवस्था थी। रिफाइनरी का निर्माण सोवयत संध सरकार की
सहायता से हुआ था। निर्माणाधीन टाउनशिप में सबसे पहले गेस्ट हाउस बना था। रिफाइनरी
की स्थापना सोवियत वैज्ञानिकों/इंजीनियरों की देख-रेख में हुई थी, वे इसी में रहते
थे। आवास निर्माणाधीन थे और वे इसी गेस्ट हाउस में रहते थे। इसलिए स्थानीय लोगों
में गेस्ट हाउस अभी भी रूसी हॉस्टल के नाम से जाना जाता है, यद्यपि अब उसका नाम
रामधाररी सिंह दिनकर गेस्ट हाउस है। गेस्ट हाउस के कमरे किसी बढ़िया होटल से बेहतर
सुविधाजनक हैं। कई वर्ग किमी में फैला सुनियोजित और सुव्यवस्थित टाउनशिप आधुनिक
स्थापत्य कला का बढ़िया नमूना है। इसमें स्कूल और अस्पताल भी हैं।
अगले दिन उसके अगले दिन
(25-26 सितंबर, 2023) रिफाइनरी परिसर में सुबह की शैर काफी आनंददायी थी। सैर के
दौरान वहां कार्यरत कुछ इंजीनियरों और अन्य कर्मचारियों से बातचीत में विघटित
सोवियत संघ की प्रशंसा सुनना अच्छा लगा। लोगों से बातचीत में पता चला कि परिसर में
रिफाइनरी के सभी नियमित कर्मचारियों के आवास की व्यवस्था है। डाइनिंग रूम में
नाश्ते की मेज पर रिफाइनरी के अस्पताल में नव नियुक्त दो नर्सों से बातचीत हुई।
नियमित आवास मिलने की प्रतीक्षा में गेस्ट हाउस में ही उनके रहने की व्यवस्था की
गयी थी। नर्सों से पता चला कि अस्पताल में
योग्य डॉक्टरों तथा चिकित्सा की सभी आधुनिक सुविधाओं का प्रबंध है।
बरौनी रिफाइनरी की टाउनशिप
में टहलते हुए भारत जैसे, उपनिवेशवाद से नए-नए मुक्त हुए तीसरी दुनिया के देशों के
औद्योगीकरण में सोवियत संघ की सकारात्मक भूमिका के प्रति प्रशंसा के भाव स्वाभाविक
थे।
दोपहर के भोजन के लिए डॉ.
सिन्हा के आवास पर जाने के दौरान लगा कि शहर की बसावट बहुत अनियोजित ढंग से हुई
है। संकरी सड़कों से चलकर अनियोजित शहर में उनका नियोजित आवास प्रशंसनीय लगा। बैठक
में उनकी पुस्तकों का संग्रह उनकी विद्वता का परिचय देता है।उनके साथ देश और
बेगूसराय में प्रगतिशील आंदोलनों की दशा-दिशा पर व्यापक चर्चा हुई। हम दोनों में
एक साझी बात यहहै कि दोनों ही भविष्य की पीढ़ियों की क्रांतिकारी संभावनाओं के
प्रति आश्वस्त हैं। हम दोनों ने अपनी उम्मीदें कि इतिहास अंधेरी सुरंग से निकल कर
सुर्ख उजाले में प्रवेश करेगा ही, आपस में साधाकर एक दूसरे को आश्वस्त । भोजन की
मेज पर उनके कर्मठ और जागरूक, पत्रकार सुपुत्र पराग से मिलना सुखद लगा। वे दैनिक
हिंदुस्तान के स्थानीय संवाददाता हैं। उन्होंने अंतरजातीय विवाह किया है तथा अपने
परिवार के साथ मकान की ऊपरी मंजिल पर रहते हैं।
रात के भोजन का प्रबंध चंदन वत्स समेत
सामाजिक बदलाव की राजनीति में सक्रिय के शहर के कई युवा कार्यकर्ताओं तथा सुधांशु
रंजन के साथ था। सुधांशु रंजन जी का भी पैत्रिक आवास बेगूसराय में ही है। 2019 में
बेगू सराय के संसदीय चुनाव में कन्हैया कुमार के चुनाव प्रचार में अग्रणी भूमिका
निभाने वाले एक युवक (नाम भूल रहा हूं) ने प्रचार के अपने रोचक अनुभव सुनाया। भोजन
चर्चा में सबने ऐक्टिविज्म के अपने अपने कुछ रोचक अनुभव सुनाया। भोजनोपरांत भगवान
भाई अपने अनुज के साथ मुझे गेस्ट हाउस तक छोड़ने आए।
अगली सुबह की सैर में
रास्ते में कर्मचारियों से बातचीत करते हुए दो बातें दिमाग में कौंधी। पहली बात कि
सोवियत संघ के विघटन से तीसरी दुनिया के देशों क् आर्थिक विकास में एक मददगार
आर्थिक महाशक्ति की नुपस्थिति से एक ध्रुवीय दुनिया में साम्राज्यवाद बेलगाम हो
गया और दूसरी दुनिया के पाठकों को लगभग मुफ्त में उच्च कोटि की किताबों के प्रसार
का एक महत्वपूर्ण स्रोत खत्म हो गया। प्रतिस्पर्धा में पूंजीवादी प्रकाशनों की
किताबें भी अपेक्षाकृत सस्ती मिलती थीं। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि यदि सोवियत
संघ के नेतृत्व ने पने देश के पूंजीवादीकरण (औद्योगीकरण) के साथ समाजवादी चेतना के
विकास पर भी ध्यान देता तो आज दुनिया की स्थति अलग होती, प्रतिक्रांति से विखरने
की बजाय सोवियत संघ और दुनिया में पिछली क्रांतियों से सीख लेकर अगली क्रांति के
उफानन में समाजवाद के वास्तविक निर्णाण की विश्वव्यापी प्रक्रिया शुरू होती।
इतिहास में ऐसा होता तो वैसा होता की बहस बेकार है, जो हुआ उसी पर विचार होना
चाहिए।
मार्क्स ने लिखा है कि क्रांति
सर्वाधिकविकसित पूंजीदी देश से शुरू होगी, लेकिन मार्क्स ज्योतिषी नहीं
एकक्रांतिकारी समाजवैज्ञानिक थे और विज्ञान के सिद्धांत, नए अन्वेषणों से
निर्धारित होते हैं। क्रांति सामंती जारशाही से जकड़े एक पिछड़े पूंजीवादी देस में
हुई। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सामने दो कार्य थे – पूंजाद (औद्योगीकरण) का विकास
और समाजवादी चेतना का निर्माण। पहला काम तो क्रांति के बाद के सोवियत संघ ने बखूबी
किया। दूसरे विश्वयुद्ध तक सोवियत संघ आर्थिक और सैनिक महाशक्ति बन गया। यानि जितना
आर्थिक विकास निजी स्वामित्व के पूंजीवाद(यूरोप और अमेरिका) में लगभग साढ़े तीन सौ
लालों में हुआ, उतना सोवियत संघ में राज्य नियंत्रित सुनियोजित अर्थ व्यवस्था में लगभग
20 सालों में हुआ। कहने का मतलब राज्य नियंत्रित, नियोजित अर्थव्यवस्था में औद्योगिक
विकास की गति निजी स्वामित्व की अर्थ व्यवस्था की तुलना में तीव्रतर होती है। दूसरी
जिम्मेदारी यानि समाजवादी चेतना के निर्माण में विकास की दिशा प्रतिगामी रही; इतनी
कि जब अगली क्रांति की प्रतीक्षा होनी चाहिए थी, तब प्रतिक्रांति हो गयी। सोवियसंघ
में क्रांति के बाद के समाज का विश्लेषण एक अलग विमर्श का विषय है।
दिनकर समारोह में शिरकत के संस्मरण
में काफी विषयांतर हो गया, इस संस्मरण का समापन दिनकर की एक कविता से करना अप्रासंगिक
नहीं होगा।
“सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है.”
इज्रायली नस्लवादी हैवानियत के शिकार हजारों फिलिस्तीनी बच्चों की श्रद्धांजलि की एक पोस्ट पर एक अंधभक्त को इज्रायल द्वारा फिलिस्तीनी नरसंहार के समर्थन में वामपंथ का दौरा पड़ गया। उस पर--
साम्यवाद भविष्य की मानवमुक्ति की व्यवस्था है, वह कब आएगी, और कब तक चलेगी, भविष्य ही बताएगा, उसके बाद की उच्चतर व्यवस्था की रूपरेखा भविष्य की पीढ़ियां तय करेंगी। आदिम साम्यवादी युग की अवधि बहुत लंबी थी और उसके बाद का दास युग भी बहुत लंबा चला, हजारोंसाल। दास युग के बाद आया सामंती युग लगभग 2,000 साल चला और मौजूदा पूंजीवादी युग लगभग 700 साल का है।।
5 साल पहले एक पोस्ट शेयर किया था कि मुद्रा के लिए रुपया शब्द का प्रचलन शेरशाह सूरी के शासनकाल में शुरू हुआ। एक सज्जन ने नाराजगी में तंज किया कि सल्तनत काल के पहले भारत का अस्तित्व ही नहीं था! उस पर --
इज्रायल एक आतंकवादी राज्य है जिसे अमेरिकी नेतृत्व वाले आतंकवादी साम्राज्यवाद का समर्थन प्राप्त है। पीएलओ के फतह संगठन के विरुद्ध सीआईए और मोसाद ने हमस बनवाया और उसे शह दिया, उसी तरहजैसे इंदिरा गांधी ने पंजाब में अकाली प्रभाव के विरुद्ध भिंडरवाले को शह दिया, जो उनके लिए भस्मासुर बन गया। अमेरिका पूरी दुनिया में जनतांत्रित ताकतों के विरुद्ध राजशाहियों और आतंकी संगठनों का मशीहा रहा है। अरब में सउदी राजशाही अमेरिका का सबसे विश्वस्त सहयोगी है। 1970 के दशक में इरान कीनिर्वाचित सरकार का तख्तापलट कर सीआईए ने शाह की राजशाही को पुनर्स्थापित किया था, जिसके विरुद्ध जनता के संघर्ष का फल कट्टरपंथी नरपिशाच खोमैनी ने कब्जा कर उन सभी जनपक्षीय लोगों का कत्लेआम किया जो शाह की राजशाही के विरुद्ध बहादुरी से लड़े थे। प्रकारांतर से इरान में खोमैनी के कट्टरपंथी शासन की स्थापना का जिम्मेदार अमेरिका ही है। अफगानिस्तान में रूसी मौजूदगी से निपटने के लिए अमेरिका ने अलकायदा जैसे आतंकवादी संगठनों को शह दिया, जो उसके लिए भस्मासुर बन गया। 2002 में अफगानिस्तान पर अमेरिकी हमले के विरुद्ध युद्ध विरोधी प्रदर्शन में हम लोगों ने एक नारा दिया था, 'अल कायदा अभिशाप है, अमरीका उसका बाप है'; 'बिन लादेन अभिशाप है, अमरीका उसका बाप है'। ताज्जुब नहीं होगा जब पता चलेगा कि हमस का हमला फिलिस्तीनियों के कत्लेआम और उनकी बची-खुची जमीन पर कब्जा करने के लिए इज्रायल प्रायोजित था, वरना उनके पास मिसाइलें कहां से आईं? आइए मानवता की रक्षा में हर तरह के आतंकवाद के विरुद्ध एकजुट हों चाहे वह हमस जैसे कट्टरपंथी संगठनों का आतंकवाद हो या साम्राज्यवादी प्रश्रय में पलने वाले नस्लवादी इज्रायली राज्य का।
लिखने और बोलने या लिखने या बोलने के जुर्म में सबका नंबर आएगा
उर्मिलेश,प्रवीर, भाषा के बाद अब अरुंधती का नंबर आया है
धीरे-धीरे सबका नंबर आएगा
हर लेखक-पत्रकार का नंबर आएगा
बचने के लिए जो मृदंग बन गया है उसका भी
उसका भी नंबर जो धर्मोंमाद की ताड़ी पीकर
मंदिर-मंदिर भजते नाच रहा है
उसका भी
जो पेट पर लात भी प्रसाद समझ खाकर
सम्राट के महिमामंडन का भजन गा रहा है।
(ईमि: 15.10.2023)
बाभन से इंसान बनना जन्म के जीववैज्ञानिक संयोग की अस्मिता की प्रवत्तियों से ऊपर उठकर एक विवेकसम्मत इंसान बनने का मुहावरा है। इस मुहावरे का ब्राह्मण व्यक्ति से कोई सीधा संबंध नहीं है। चूंकि वर्णाश्रमवाद या जातिवाद व्यवस्था का बौद्धिक औचित्य का दायित्व ब्राह्णण का रहा है या यों कहें कि ब्राह्मण इस व्यवस्था का बुद्धिजीवी रहा है इसलिए वर्णवाद या जातिवाद को ब्राह्मणवाद कहा जाता है। ब्राह्मण व्यक्ति बाहुबली तो अपवाद स्वरूप ही होता है। बाहुबली या दबंद तो पारंपरिक रूप से ठाकुर रहे हैं तथा यादव उनके लठैत। अब यादव ठाकुरों की लठैती करने की बजाय उनके प्रतिद्वंदी हैं। हाल के मामलों में तो गोंडा और राजस्थान में ब्राह्मण पुजारी ही भुक्तभोगी हैं। हाथरस और गोंडा में क्रमशः दलित और ब्राह्मण उत्पीड़न में ठाकुरों का नाम आया है।
पहले गांव के घरों में आंटा पीसने की छोटी चक्की होती थी जिसे अवधी इलाके में जाता कहा जाता है। आप लोगों में से कुछ ने शायद अपने घर में ऐंटीक के रूप में किसी कोने पड़ा जांता देखा होगा। हमारे बचपन में आंटे की चक्की का रिवाज तो शुरू हो गया था दो-ढाई किमी दूर पड़ोस के एक गांव में लगी थी और हमारे पट्टीदार के यहां बैल से चलने वाली चक्की भी थी लेकिन आमतौर पर रोजमर्रा के इस्तेमाल का आंटा स्त्रियां घर पर अपने जांते पर ही पीस लेती थीं। मेरे माथे पर एक स्थाई तिलक का निशान है। मैं 2-3 साल का रहा होऊंगा, यह घटना इसलिए याद है कि लोग बहुत दिनों तक इसकी बात करते थे। मां (माई) जांते पर आंटा पीस रही थी और मैं उसकी पीठ पर लदा झूल रहा था। जांते के हत्थे का सिरा बहुत नुकीला होता था। झूलते-झूलते मेरा माथा हत्थे के नुकीले सिरे से टकराया और नाक के ऊपर खून की सीधी रेखा में छोटी सी लकीर बन गयी। जिसका निशान अब भी है, लेकिन कालांतर में बहुत हल्का हो गया है।गलती मेरी थी, फिर भी दादी (अइया) ने माई को बहुत डांटा और माई बिना प्रतिवाद के गलती मानकर अइया की डांट सुन लेती थी। बचपन में दादा जी (बाबा) ठाकुर को भोग लगाकर मुझे चंदन लगाते समय परिहास करते थे कि मेरे माथे पर तो स्थाई तिलक है।
13.10.2020
हर समाज में बहुमत सज्जनता का ही होता है
इतिहास और मिथक पर चर्चा में एक सज्जन ने कहा कि इतिहास भी तो लिखा ही जाता है और लेखक शासक की जी हुजूरी करते हैं, उस पर:
भक्तिभाव प्रवृत्ति है मानवता को नकारने की
मैं डीपीएस में बहुत लोकप्रिय शिक्षक था। डीपीएस ज्वाइन किए अभी 1-2 महीना ही हुआ था कि स्टूडेंट्स की ट्रिप जा रही थी सूरजकुंड। मैंने न जाने का मन बनाया था और गंगा हॉस्टल (जेएनयू) अपने कमरे में सुस्त सुबह बिता रहा था। तभी बॉल्कनी से देखा कि काशीराम के ढाबे ( अब गेगा ढाबा) के पास डीपीएस की एक बस खड़ी थी। मैंने जब तक कुछ सोचता, दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। दरवाजा खोला तो 3 स्टूडेंट्स [ XI F (Commerce Section) के विक्रम भार्गव और सुजाता सरीन और एक और लड़का, जिसका नाम याद नहीं आ रहा है ] अंदर चले आए। ये तीनों मेरी क्लास के नहीं थे।( विक्रम पिछली साल दो बार मिला।) मैं XII A, XI C, XI D पढ़ाता था। तीनों तुरंत तैयार होकर साथ चलने की जिद पर अड़ गए, उनकी जिद का प्रतिरोध ज्यादा नहीं कर सका और साथ चल पड़ा। बस में अलग अलग क्सासों के कई लड़के-लड़कियों से गप्पें करते गए। बाकी कहानी बाद में।
सत्योत्तर युग के नए भारत में मृदंग मीडिया और सोसल मीडिया के भक्तसंघ ने धर्मोंमादी सांप्रदायिकता को राष्ट्रवाद और नरसंहार; हत्या-बलात्कार तथा बुलडोजरी न्याय वैध प्रचारित कर रखा है। भारत वैसे ही भक्तिभाव प्रधान देश है जिसमें धर्मोंमाद के नशे में भक्त पेट पर लात भी प्रसाद समझकर खाकर भजन खाता है। यूरोपीय नवजागरण के राजनैतिक दार्शनिक, मैक्यावली ने समझदार राजा को सलाह दी है कि धर्म और नैतिकता की नकाब ओढ़कर अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए उसका सारा अनैतिक अनाचार-दुराचार वाजिब है, लेकिन जनता के पेट पर लात न मारे नहीं तो लोग विद्रोह कर देंगे। लोग पिता की मौत आसानी से भूल जाते हैं, पैतृक संपत्ति का नुक्सान नहीं। लेकिन लगता है वह हमारे जैसे किसी देश के भक्तिभाव की वैचारिक ताकत से अपरिचित था। आज हमारे देश में अन्याय-उत्पीड़न मृदंग बनने से इंकार करने वाली मीडिया पर तरह तरह के अत्याचार; बुलडोजरी न्याय सब वाजिब बन गए हैं। मीडिया जब तक मृदंग की तरह शासकीय सुर-ताल पर बजती रहेगी, फासीवादी शासन की वैधता बनी रहेगी। अरे भाई कोई यदि सचमुच का भीअपराधी है तब भी उसे सजा देने के लिए अदालत बनी है, एन्काउंटरी सजा-ए-मौत या बुलडोजर का न्याय जंगल राज का न्याय है, किसी सभ्य समाज का नहीं। संवैधानिक न्यायिक व्यवस्था किसी अपराधी के परिजनों को अपराधी नहीं मानती, फिर उन्हें बेघर कर भयानक सजा क्यों? किसी प्रोफेसर जैसी नौकरी से रिटायर होने के बाद एक फ्लैट खरीदने-बनाने में पूरी जिंदगी की कमाई खप जाती है; एक मकान बनाने में पीढ़ियों की मेहनत होती है, संविधानेतर जंगल राज का कानून उसे 5 मिनट में ध्वस्त कर देता है। जब अत्याचार और अन्याय कानून बन जाए तो विद्रोह नागरिक कर्तव्य है। जब सच्चाई का अपराधीकरण कर दिया जाए, तो सच्चाई के रास्ते पर चलना नैतिक दायित्व है।
बॉस से अधिक खतरनाक हैं उसके कुत्ते
मैंने एक पोस्ट में लिखा कि मैं और मेरी पत्नी एक दूसरे की क्रमशः नास्तिकता और धार्मिकता के प्रति सहनशीलता दिखाते हुए सहअस्तित्व के सिद्धांत का पालन करते हैं। एक सज्जन ने इसे ब्राह्मण कम्युनिस्ट की अवसरवादी प्रवृत्ति कहा और एक अन्य मित्र ने कहा कि जब अपनी पत्नी को नहीं बदल सकता तो बदलाव के लिए औरों को कैसे प्रभावित करूंगा? एक और मित्र ने इसे उच्चजातीय प्रपंचबताया। उस पर --
मेरा विवाह उस उम्र में हो गया था जब मैं ठीक से विवाह का मतलब भी नहीं समझता था, हमारे गांव के सांस्कृतिक परिवेश में बाल विवाह आम प्रचलन था। आधुनिक शिक्षा की पहली पीढ़ी के रूप में हाई स्कूल इंटर की पढ़ाई (1967-71) शहर (जौनपुर जो सांस्कृतिक रूप से 1960-70 के दशक तक गांव का ही विस्तृत संस्करण था) में करते हुए चेतना का स्तर इतना हो चुका था कि इतनी कम उम्र में विवाह नहीं होना चाहिए तथा इंटर की परीक्षा के बाद घर पहुंचने पर अपनी शादी का कार्ड छपा देखकर विद्रोह का विगुल बजा दिया लेकिन भावनात्मक दबाव के आगे झुक गया और विद्रोह अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका। एक बार किसी ने पूछा कि सबके चुनाव की आजादी के अधिकार की बात करता हूं तो क्या शादी भी अपनी मर्जी से किया था? मैंने कहा, शादी तो अपनी मर्जी से नहीं किया था (शादी के समय और उसके 3 साल बाद गवना आनेतक मैंने पत्नी को देखा ही नहीं था), लेकिन शादी निभाने का फैसला अपनी मर्जी से किया था। यदि यह शादी मेरी मर्जी से नहीं हुई थी तो पत्नी की भी मर्जी से नहीं हुई थी, लड़कियों से तो मर्जी पूछने का सवाल ही नहीं होता था। उस समय हमारे गांवों में लड़कियों के पढ़ने का रिवाज नहीं था। उन्होंने गांव के स्कूल से प्राइमरी तक पढ़ लिया था। लड़कियों की छोड़िए, विश्वविद्यालय पढ़ने जाने वाला अपने गांव का मैं पहला लड़का था। 1982 में 8वीं के बाद अपनी बहन की पढ़ाई के लिए मुझे पूरे खानदान से महाभारत करना पड़ा था तथा अड़कर मैंने उसका राजस्थान में लड़कियों के स्कूल/विवि वनस्थली विद्यापीठ में एडमिसन कराया, वह अलग कहानी है। भूमिका लंबी हो गयी। बाकी बातें अगले कमेंट में। यह कमेंट दो घटनाओं से खत्म करता हूं। पहली घटना 1980-81 के आसपास की है एक संभ्रांत क्रांतिकारी जोएनयू की सहपाठी को मुझसे कुछ राजनैतिक डीलिंग करनी थी। हम दोनों अलग अलग वाम संगठनों में थे। राजनैतिक बातचीत की भावुक भूमिका के तौर पर उन्होंने कहा कि बाल विवाह के चलते मुझे, आसानी से तलाक मिल सकता था। मेरा माथा ठनका। मैंने पूछा कॉमरेड आपका क्या इंटरेस्ट है? कोई गांव का शादीशुदा लड़का अकेले हॉस्टल में रह रहा हो तो कई लोग शायद यह मानते हों कि वह शादी से छुटकारा चाहता होगा। मैंने कहा था, "If there are two victims of some regressive social custom, one co-victim should not further victimize the more co-victim and in patriarchy the woman is more co-victim." दूसरी घटना मेरे कॉलेज की है। एक सहकर्मी से वैज्ञानिकता और धार्मिकता पर बहस हो रही थी, तर्कहीन होने पर उन्होंने कहा कि वे मेरी कोई बात तब मानेंगे जब मैं अपनी पत्नी को नास्तिक बना दूं। मैंने कहा कि इतने दिनों में जब मैं आपको भूमिहार से इंसान न बना सका जबकि आपतो पीएचडी किए है और इतने सीनियर प्रोफेसर है, मेरी पत्नी तो प्राइमरी तक पढ़ी गांव की स्त्री हैं। बाकी फिऱ।समस्या आस्तिकता नहीं. सांप्रदायिकता है, जो धार्मिक नहीं, धर्मोंमादी लामबंदी की राजनैतिक विचारधारा है, जिसकी इमारत दूसरे धार्मिक समुदायों से नफरत की बुनियाद पर खड़ी है।
ऐसी दबंगई को सलाम। ऐसी ही एक स्त्री रिक्शाचलक दिल्ली यूनिवर्सिटी मेंं थी। लेकि वे पैसे सब (पुरुषों) जितना ही लेती थी। 40-45 साल के आस-पास की पढ़ी-लिखी दिखने वाली स्त्री। दिल्ली विवि होते हुए कमला नगर से विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेसन। रिटायर होने के बाद जब कभी गया, दिखीं नहीं।
नहीं है जिंदगी का कोई जीवनेतर उद्देश्य
सुखद तो है बाभन से इंसान बनना
सुखद तो है बाभन से इंसान बनना