Monday, August 14, 2023

मार्क्सवाद 291 (तमस)

 किसी उपन्यास पर बनी फिल्म में काफी कुछ निर्देशक की भी कल्पना है, लेकिन, मुझे लगता है कि भीष्म साहनी के उपन्यास तमस पर बनी फिल्म में कथानक को बंटवारे से जोड़ने के बावजूद उपन्यास की भावना को बरकरार रखा गया है। मैंने उपन्यास पहले (साहित्य एकेडमी पुरस्कार मिलने के बाद) पढ़ा और फिल्म तो जेएनयू में पढ़ाई करते हुए देखा। इलाहाबाद में एक शाम यूनिवर्सिटी रोड चौराहे पर पीपीएच के दादा ठाकुर की दुकान पर पान खाने आए थे, मैं सिगरेट खरीद रहा था, उन्होंने मेरी सिगरेट को आग दिखाते हुए बताया कि मेरे लिए एक नई किताब आई है। यह उनकी बात-चीत का तरीका था। सब दादा कहते थे तो मैं उन्हें बंगाली संमझता था लेकिन बाद में पता चला कि स्थानीय मुसलमान हैं। मार्क्सवाद के बारे में मेरी समझ के विकास में पीपीएच का काफी योगदान है। एक बार मैंने पेरिस कम्यून ( दाम एक या डेढ़ रूपए) खरीदने के लिए निकाला तोुन्होंने 3 भागों में मार्क्स-एंगेल्स की सेलेक्डेड वर्क्स लेने और पेरिस कम्यून के पहले उसमें संकलित क्लास वार इन फ्रांस और एटींथ ब्रुमेयर पढ़ने की सलाह दी। तमस आपात काल में पढ़ा। एटींथ ब्रुमेयर पढ़ने के बाद प्यासा फिल्म में शाहिर के लिखे गीत की अंतिम लाइन 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है' गड़बड़ लगी क्यों कि अगर-मगर से परे हमें यह दुनिया मिली हुई है, हमें इसीमें जीना और इसे बेहतर बनाना है।


एटींथ ब्रुमेयर ऑफ लुई बोनापार्ट की शुरुआती पंक्ति है कि मनुष्य अपना इतिहास खुद बनाता है लेकिन जैसा चाहे वैसा नहीं, न अपनी चुनी परिस्थितियों में बल्ति अतीत से विरासत में मिली परिस्थितियों में। इसी में आगे लिखा है कि परंपराएं हमारे दिमाग पर पूर्वजों की पीढ़ियों की लाशों के दुःस्वप्न की तरह लदी होती हैं।

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